रेत के घरौंदे / गोवर्धन यादव
बारिश के थमते ही बच्चे घर से निकलकर एक जगह इक_ट्ठे होकर हो- हल्ला मचाते, पोखर में जमे पानी में उछलते-कूदते या फिर पैरों से पानी उछालकर किसी की नेकर या फ्रॉक भिगो देते। पानी जब निथर जाता तो शेष रह जाती ढेर सारी रेत— गीली रेत। बच्चे रेत को अपनी कोमल हथेलियों से खींचकर पैरों पर जमाते-थपथपाते फिर धीरे से पैर खींच लेते। गीली मिट्टी। रेत का एक घरौंदा बनकर तैयार हो जाता। फिर उसे लकड़ी के टुकड़े से कुरेद कर दरवाजे बनाते। तालियां पीट-पीटकर अपने खुशी का इजहार करते।
मुझे न जाने क्यों मीतू के साथ खेलना, घरौंदे बनाना बड़ा अच्छा लगता। हम बच्चों की भीड़ से हटकर अपना बड़ा सा घरौंदा बनाते। पौधों की छोटी-छोटी टहनियां तोडक़र बगीचा बनाते, कभी खाली माचिस को आपस में जोडक़र रेलगाड़ी बनाते। घरौंदे के दोनों तरफ बने बड़े-बड़े छिद्रों से उसे आर-पार कराते। मीतू भी बड़ी तन्मयता से खेलकर पूरा-पूरा साथ देती।
बादलों के छंटते ही बहुत सारा उजाला हो जाता। सूरज चमकने लगता और इन्द्रधनुष अपनी छटा बिखेरने लग जाता।
मैं अपनी उंगली उठाकर उसकी ओर इंगित करके कहता— “मीतू देखो-देखो-इन्द्रधनुष देखो।” तो वह झट से मेट्ठेरा हाथ पकडक़र धकेल देती और कहती, “इन्द्रधनुष को उंगली नहीं दिखाते- पाप पड़ता है।” मैं कभी इन्द्रधनुष की ओर देखता तो कभी मीतू के शांत भावनात्मक चेहरे की ओर।
प्रकृति में बदलाव आ चला था। जमीन हरी-हरी घासों से पट गई थी। पौधों में नई-नई कोपलें व फूल उग आए थे। रंग-बिरंगी तितलियां यहाँ-वहाँ फुदकती दिखाई पड़ती। मैं सरपट दौड़ पड़ता और तितलियों को पकडक़र मीतू को दिखाता। वह तितलियों को मुझसे माँग लेती और हवा में फुर्र से उड़ा देती। क्रोध आना स्वाभाविक था। मैं शिकायत भरे लहजों में उससे कहता ये तुमने क्या किया, बड़ी मेहनत के बाद ये पकड़ में आई थी और तुमने उसे यूं ही उड़ा दिया। जाओ मैं तुम्हारे साथ नहीं खेलता। आज से तुम्हारी हमारी कट्टी। उसकी आँखें डबडबा जातीं और वह अपनी कोमल-कोमल हथेलियों से अपना चेहरा ढंक लेती। उसकी इस स्थिति पर मैं खिलखिलाकर हंस पड़ता और कहता— अरे मैं तो मजाक कर रहा था और तुम हो कि बस बात-बात में रो पड़ती हो।
तुम सच कह रहे हो न। बड़ी मासूमियत से कहकर वह मेरा हाथ थाम लेती। मैं विद्या माता की सौगंध खाकर उसे फौरन विश्वास में ले लेता। फ्रॉक के छोर से आँसू पोंछते हुए वह मुस्कराने लगती।
आँगन में चटाई डालकर मैं पढऩे बैठ जाता तो वह भी अपना बस्ता पट्टी लेकर आ जाती। रट्ïटू तोते की तरह हम दो एकम दो, दो-दूनी चार, दो तिया छ: चिल्ला चिल्लाकर दोहराते ताकि वह हमें कण्ठस्थ हो जाएँ। बीच-बीच में वह पट्टी पर कलम से एक आलिशान बंगला बनाती, लॉन बनाती, बड़े-बड़े पेड़ बनाती या फिर मकान के पीछे बड़ा-सा पहाड़ बनाकर झरना बना डालती। बड़ी-बड़ी आँखों वाली मीतू सहज भाव से मुझे ये सब दिखाती और कहती कि हम भी एक ऐसा ही बंगला बनाएँगे जहाँ पहाड़ हो, नदी हो, या फिर कोई बड़ा-सा झरना। मैं भी उसकी बातों में हामी भरकर उसकी बात का समर्थन करता।
समय पंख पसारे उड़ता चला जा रहा था। अब हमारी लंबाई भी बढ़ चली थी। कुछ हल्की सी मूंछें भी उग आई थीं और मीतू बिल्कुल गोलमटोल सी गुडिय़ा लगने लगी थी। उसकी देह माँसल व लुभावनी हो चली थी। हॉफ पेंट की जगह अब मैं फुलपेंट और वह साड़ी बाँधने लगी थी। लडक़े लड़कियों का स्कूल अलग-अलग तो था नहीं अत: हम साथ-साथ पढ़ते। स्कूल आना-जाना भी प्राय: साथ ही होता। जब भी किसी भी विषय में उसे अड़चन पड़ती या उसकी समझ में नहीं आता तो वह कूदती-फांदती मेरे कमरे में आ धमकती। कुर्सी खींचकर पास बैठ जाती और अपनी समस्याएँ हल कर ले जाती।
परीक्षाएँ सिर पर थीं। हमने बड़ी मेहनत और लगन से पढ़ाई जारी रखी। सारे पेपर अच्छी तरह से हल किए। कुछ समय पश्चात परिणाम घोषित हुए। मुझे कक्षा में सबसे ज्यादा नंबर प्राप्त हुए थे। दोनों परिवार खुशी में नहा उठे। जमकर मिठाइयां बाँटी गईं। सभी के चेहरों पर खुशियां नाच रही थीं।
गर्मियों की छुट्टी में मीतू की बड़ी माँ बड़े पिताजी बच्चों सहित आ धमके। हमारे बातचीत के तौर तरीके, उठना बैठना खिलखिलाकर हंस पडऩा यथावत्ï था। परंतु न जाने क्यों मीतू की बड़ी माँ के चेहरे पर आते-जाते भावों को देखकर हम सहमे से रह जाते। एक दिन बड़ी बूढिय़ां आँगन में बैठी बतिया रही थीं। मीतू की बड़ी माँ ने, मीतू की मम्मी को टोका और मेरे साथ उठने-बैठने, आने-जाने पर आपत्तियां उठाईं। बेटी अब जवान हो चली है। इस तरह उसका हंसना-बोलना अब ठीक नहीं लगता। अरे हाँ मीतू की बात मैंने एक जगह चलाई है और वे लोग मीतू को देखने आने वाले हैं। श्याम से कहे कि अब वह मीतू के साथ इस तरह घूमना-फिरना बंद करे। मीतू की बड़ी माँ, मीतू की मम्मी से कह रही थी। पास वाले कमरे में बैठा मैं अखबार पलट रहा था। मीतू की बड़ी माँ के एक-एक शब्द खौलते हुए तेल की भांति मेरे जिस्म में गहरे उतरते चले जा रहे थे। मीतू शायद वहीं बैठी थी शरमाकर भाग खड़ी हुई थी। मैं तैश में आकर उठकर अपने घर चला आया। मीतू को भी ये सुनकर काफी गुस्सा आया था पर लिहाज के मारे वह कुछ भी नहीं कह पाई थी। मीतू जब मुझसे मिली तो वह फूटफूटकर रोई। मैंने उसे ढांढ़स बंधाया और कहा कि बड़े हमारी भलाई की ही बात हमेशा सोचते हैं। हमें इस तरह भावावेश में नहीं आना चाहिए आदि-आदि। शाम को मैं जब खाना खा रहा था तो माँ ने बात बढ़ाते हुए मुझसे कहा कि अब मीतू के साथ उठना बैठना बंद कर दो। अब तुम सयाने हो चले हो, फिर दो-चार दिन बाद लडक़े वाले मीतू को देखने आने वाले हैं।
रोटी का कौर मुंह में जाए उससे पहले मेरा हाथ वहीं रुक गया। अजीब कड़वाहट से मेरा गला भी भर आया। बिना कुछ बोले मैंने झट से हाथ धोया और बाहर निकल आया। माँ आवाज देती रही पर मैंने कोई कान ही नहीं दिया।
घर से नदी काफी दूर थी। मुझे समय का पता ही नहीं चला कि मैं नदी के तट पर आ पहुंचा हूं। एक पत्थर पर जहाँ मैं और मीतू अक्सर बैठा करते थे बचपन में, आकर बैठ गया। विचारों का सिलसिला ऐसे चल रहा था जैसे मैं कोई फिल्म देख रहा हूंगा। पता ही नहीं चला कि सूरज कब चढ़ा और कब डूब गया। अंधेरा काफी घिर आया था। पखेरू अपने-अपने गंतव्य की ओर उड़े चले जा रहे थे। झींगुर की टिर-टिर नीरवता को बार-बार भंग कर रही थी। उदास मन लिए मैं घर लौट आया।
माँ ने काफी मिन्नतें कीं, फिर भी मुझसे एक निवाला भी न खाया गया और पलंग पर आकर पसर गया। विचारों की तंद्रा टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी। पता नहीं कब पूरी रात ऐसे ही कट गई। सुबह उठा तो आँखें लाल हो आई थीं। माँ ने टोका भी कि रात भर सोया नहीं। पर मेरे मुंह से हाँ या नहीं भी नहीं निकल पा रहा था। मुंह धोकर जैसे तैसे मैं खिडक़ी के पास खड़ा हुआ। मीतू के घर की तरफ नजर बढ़ी तो देखता हूं कि मीतू छिपने का प्रयास करने लगी थी। शायद वह मुझसे नजर चुरा रही थी। अन्यथा वह वहाँ से खड़े-खड़े ही हाथ हिलाकर सुबह का अभिवादन देती थी।
अप्रत्याशित घटना ने हमें तोडक़र रख दिया। कुछ ऐसा सा लगने लगा कि वक्त आकर ठहर गया है जो काटे नहीं कटता था।
जब भी मैं उसके सामने पड़ जाता वह दुबककर एक ओर हट जाती। मेरे यहाँ उसका आना एकदम बंद-सा हो गया था। उसके चेहरे की भाषा को मैंने कई बार पढऩा चाहा पर वह थी कि एक बार भी सामने ठहर नहीं पाती।
दो-चार दिन बाद उसके यहाँ मेहमान आने वाले थे। घर को बड़ी अहमियत से सजाया-संवारा जा रहा था। पर्दे ठीक किए जा रहे थे। सोफे के सेट बदल दिए गए थे।
मीतू के बाबूजी बड़े करीने से चीजों को यहाँ-वहाँ सजा रहे थे। मैंने आगे बढक़र उनके काम में हाथ बटाना चाहा। बाबूजी अनमने से अपने काम में लगे रहे। अपने को संयत रखकर मैंने उनसे दबी जुबान में पूछा कि बाबू जी ये सब क्यों हो रहा है।
सूखा गला साफ करके उन्होंने बताया कि आज मीतू को देखने मेहमान आने वाले हैं। सहजता से मैंने उनसे कहा कि बहुत अच्छी बात है। मेहमानवाजी में मैं भी आपका साथ दूंगा। मेहमानों को किसी भी प्रकार से कष्ट नहीं होना चाहिए। इस बात पर पलट कर बाबूजी ने अपनी कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
नियत समय पर मेहमान आए। मीतू को खूब सजाया-संवारा गया
था। उसके जूड़े में मोगरे की वेणी गूंथ दी गई थी, भौंहों को करीने से संवार कर पाउडर, लिपिस्टिक आदि लगाकर इतना सुन्दर मेकअप किया था कि बस देखने वाला देखते ही रह जाए। एक सोफे पर मीतू की माँ, उसके बाबूजी, दूसरे पर लडक़े की माँ, उसके पिताजी व वह लडक़ा विराजमान था। एक तीसरे सोफे पर मेरी माँ और पिताजी बैठे थे।
मीतू की माँ ने कांपते होंठों से मीतू को आवाज लगाई। वह गुडिय़ा सी सहमी-सहमी सी चाल चलते हुए, हाथ में नाश्ते व चाय की ट्रे लिए हुए कमरे में आई। उसकी चाल को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हिरनी किसी सिंह के पास जा रही हो। ट्रे का बैलेन्स गड़बड़ा-सा गया जो मुझसे देखा नहीं गया और मैंने लपककर ट्रे सम्हालकर टेबिल पर जमा दिया। मीतू को चाय व नाश्ता लगाने के लिए उसकी माँ ने कहा। कांपते हाथों से मीतू नाश्ता लगाने लगी। माँ ने अपनी लडक़ी की तारीफ में पुल बाँधने शुरू कर दिये— ‘ये सारा नाश्ता मीतू ने ही खुद बनाया है।’ कांपते हाथों से मीतू ने नाश्ते की प्लेट मेहमानों की ओर बढ़ायी पर नजर उठाकर आगन्तुकों की ओर पल भर भी नहीं देखा। वह सब यंत्रवत्ï करती रही जैसा कि उसे दो-चार दिन पहले से ही घुट्टी देकर पढ़ाया गया था।
लडक़े की माँ ने बड़ी देर बाद मुंह खोला, ‘बहन जी हमें आपकी लडक़ी पसंद है। कितनी सुंदर जोड़ी बनेगी हमारे श्याम से।’ मीतू की हालत देखने लायक थी। वह बड़ी हिम्मत जुटाने के बाद भी अपनी नजरें ऊपर नहीं उठा पायी और उठकर अंदर चली गई।
मुझसे भी ये सब नहीं देखा जा रहा था। मैं भी उठकर घर आ गया। माँ पिताजी मेहमान आदि बातों में निमग्न हो गए। पता नहीं उनमें क्या बातें होती रहीं।
बाद में पता चला कि लडक़ा एयरफोर्स में किसी ऊंचे पद पर है। अच्छी खासी तनख्वाह व बंगला भी उसे मिला है और भी तरह-तरह की बातें। परंतु न जाने क्यों इन बातों से मुझे मितली सी आ रही थी। घंटे दो घंटे बाद मेहमान अभिवादन कर विदा माँगने लगे और अपनी फिएट में बैठकर रवाना हो गए। मीतू का घर खुशियों से भर गया। दो चार बड़ी बूढिय़ां व पास-पड़ोस की औरतें जम गईं और ढोलक की थाप उठने लगी। मंजीरे घनघनाने लगे।
पता नहीं कैसे, क्या हुआ मीतू को अचानक तेज बुखार ने जकड़ लिया। तेज बुखार में न जाने क्या-क्या वह बड़बड़ाती रहती। डाक्टर पर डाक्टर बुलाए गए पर बुखार भी जबरदस्त था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था।
वह कई दिन तक बीमार पड़ी रही। लोग कह रहे थे कि शायद इसे डिप्थेरिया हो गया है। मैं भी उसे देखने बार-बार जाता। जब भी वह पीड़ा से छटपटाती मेरा मन भय से कांप जाता। उसने एक बार आँख खोली और मुझे सामने पाकर न जाने क्या सोचने लगी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से आँसू बहकर कनपटी पर बहने लगे। उसने बड़ी मुश्किल से अपनी हिचकी को सम्हाला और होंठ भींचकर आँखें बंद कर लीं।
काफी निदान के बाद पता चला कि मीतू की जबान हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गई है। वह गूंगी हो गयी है। ये खबर पाकर उसके परिवार का सब्र का बाँध टूट गया। किसी के कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब कैसे एकदम घटित हो गया। समय खुद एक बहुत बड़ा वैद्य होता है जो समय-असमय, वक्त बेवक्त पर बड़े-बड़े घाव पैदा करता है और भर भी देता है। बड़ी-बड़ी मुसीबतें बनकर सामने खड़ा होता है फिर उसका निदान भी निकाल देता है।
मीतू अब एकदम ठीक हो गयी थी पर उसकी जबान हमेशा के लिए बंद।
एक अंतराल के बाद मीतू के पिता ने अपने होने वाले समधी को पत्र डालकर अवगत कराया। वैसे मीतू के स्वास्थ्य के बारे में मीतू के पिताजी ने अपने समधी को पत्र लिखा था परंतु पत्र का जबाव नहीं आया। ऐसा हादसा घट जाने के बाद मीतू के पिताजी ने एक पत्र फिर डाला जिसमें मीतू के गंूगी हो जाने के बारे में विस्तृत जानकारी थी।
वे खुद तो नहीं आए पर उनकी तरफ से दो टूक जवाब वाला एक पत्र आया जिसमें उन्होंने इस रिश्ते को इंकार करते हुए लिखा कि वे अपने इकलौते लडक़े की जिंदगी किसी गूंगी अपाहिज से जोडक़र सत्यानाश नहीं कर सकते और इस रिश्ते को वे हमेशा-हमेशा के लिए भूल जाने को कहा।
एक बड़ा आघात तो वे ये सोचकर सह गए थे कि मीतू की बात तय हो चुकी थी और इस सबके बाद भी वे रिश्ता नहीं तोड़ेंगे। परन्तु इस अप्रत्याशित आघात को वे दोनों सहन नहीं कर पाए और सिसक-सिसक कर रो पड़े। मीतू भी जोर-जोर से रो पड़ी थी।
जी में आया कि ऐसे लोगों की जबान ही काट लेनी चाहिए या फिर कंधे से हाथ जो किसी को न तो साँत्वना की बात ही कह पाते हैं, न दिलासा भरी बातें ही लिख पाते हैं। क्रोध का भयानक चक्रवात मेरे अंदर उठा और शांत हो गया यह सोचकर कि सचमुच मैं उनका कौन होता हूं जो अकारण इन सब बातों में अपना क्रोध उतारूं।
समय बीतता गया। वक्त मरहम लगाता रहा और एक अन्तराल बाद आया तूफान कुछ शांत सा हुआ। सामान्य सी स्थिति बनी। मीतू के माँ बाप अपनी बेटी के इस दुख को चुपचाप पीते रहे। वे अब उसके सन्मुख नहीं आ पाते थे और न ही उसके सामने अपने दु:ख का इजहार कर पाते थे।
समय बदला, गर्मी बीती, बारिश आई। आसमान बादलों से पटा पड़ा था। बड़ी जोर से बिजली कडक़ी और तेज बारिश शुरू हो गई। पानी इतनी तेजी से बरस रहा था कि लगता था कि समूची धरती बहा ले जायेगा। कुछ देर बाद बारिश थमी। बच्चों का एक जुलूस चिल्ल-पों मचाता हुआ अपने-अपने घर से निकला। डोबरे में थमे पानी में उछलकूद शुरू हुई। कोई पैर से पानी उछालता तो कोई अलग ढंग की शरारत करता। एक जगह काफी रेत इकट्ठी हो गई थी। बच्चे मिलकर अपने-अपने घरौंदे बना रहे थे तो कोई बाग-बगीचा तो कोई छक-छकाकर रेलगाड़ी इस बोगदे से निकालकर उस बोगदे में ला-ले जा रहा था।
बारिश के थमते ही मैं अपनी खिडक़ी में जाकर खड़ा हो गया। सामने देखता हूं कि मीतू भी खड़ी बच्चों के खेल को देखकर अपनी बीती बातें याद कर रही थी। शायद वह भी बड़ी देर से खड़ी होगी पर मुझे तो वह बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ी शायद तेज बारिश व कुहरे के कारण ये संभव हो सकता है। कुहरा छंट चुका था उसने मेरी ओर देखा मैंने उसकी ओर देखा। उसने घरौंदे बनाते हुए बच्चों की ओर इशारा करते हुए इंगित किया कि हम भी कभी ऐसे ही घरौंदे बनाया करते थे।
मेरे अंदर एक प्रकाश-सा कौंधा। मैं लपककर मीतू के घर दौड़ पड़ा और आकर उससे लिपट फूट फूटकर रोने लगा। मीतू भी रो पड़ी, और मुझसे आकर लिपट गई। जैसे कोई बेल किसी पौधे से लिपट जाया करती है। मैं खुद भी नहीं जानता ये सब कैसे क्या हो गया। रोने की आवाज सुनकर उसकी माँ बाबूजी भी आ गए।
एक दूसरे को आलिंगनबद्ध पाकर वे सकुचा से गए होंगे। एक आहट सी पाकर हम छिटक गए। मैंने तुरंत ही जाकर माँ और बाबूजी के चरणस्पर्श करते हुए मीतू की भीख माँगी, और कहा कि वह मुझे निराश नहीं करेंगे।
दोनों बिना किसी संवाद के एक दूसरे को देखते रहे और फिर मुझे उठाकर अपनी छाती से चिपका लिया बाबूजी ने। स्वीकृति की मुहर उन्होंने सिर हिलाकर हमें दी। उनकी आँखों से आँसू झरे जा रहे थे। शायद वे खुशी के आँसू थे।
बाहर आसमान एकदम साफ था। नहाए हुए सूरज की चमक अपनी छटा बिखेर रही थी। इन्द्रधनुष उग आया था। मैंने फिर अनजाने में उंगली उठाकर मीतू को बताना चाहा पर उसने मेरे उठते हुए हाथों को बीच में ही रोक लिया। शायद वह कहने जा रही थी इन्द्रधनुष को उंगली मत दिखाओ, पाप पड़ेगा।