रेत के शिखर / तेजेन्द्र शर्मा
दीपा के चले जाने के बाद भी मंजुला काफी देर तक खिड़की में खड़ी रही और तब तक हाथ हिलाती रही जब तक कि दीपा ऑंखों से ओझल नहीं हो गयी। दीपा आज पूरे पाँच वर्ष बाद उसे मिली थी-उसके कॉलेज के समय की सहेली। बी.ए., एम.ए. दोनों ने साथ-साथ ही किया था। खिड़की के पल्ले सरकाकर मंजुला कमरा ठीक करने लगी। नाश्ते की प्लेटें हटाकर उसने दीवान की चादर ठीक की। सब कुछ व्यवस्थित करने के पश्चात् उसने एक लंबी-सी साँस ली और वहीं कार्पेट पर बैठ गयी। आज का दिन अच्छा बीत गया था। बहुत दिनों बाद जैसे वह कुछ तरोताजा महसूस कर रही थी। जब से उसने अपनी रिसर्च छोड़ी है, एक अजीब-सा खालीपन उसके जीवन में भर गया है। दीपा के साथ उसकी बहुत-सी चुलबुली यादें जुड़ी हुई हैं। दीपा पिछले चार वर्षों से कॉलेज में लेक्चरार है और उसका तबादला इसी शहर में हो गया है। मंजुला को यह जानकर बहुत राहत महसूस हुई। अब उसका अकेलापन कुछ कम हो जायेगा।
उसका मन हुआ कि वह आज फिर अपना पसंदीदा संगीत सुने। वह उठने को हुई। उसे लगा कि सोफे पर कोई पुस्तक पड़ी है। शायद दीपा ही भूल गयी थी। मंजुला ने फिर उठाकर अनायास ही पन्ने पलटने शुरू कर दिये। 'आधुनिक कविता में छायावाद'-लेखक का नाम पढ़कर मंजुला चौंक उठी-डॉ. नवीनचंद्र। उन्हीं के मार्गदर्शन में शोध आरंभ किया था मंजुला ने। कितनी महत्वाकांक्षी थी वह भी! आज वह डॉ. मंजुला भार्गव होती। किसी कॉलेज में लेक्चरार होती। पर अब तो सब कुछ एक दु:स्वप्न बनकर रह गया है।
डॉ. नवीनचंद्र। क्षोभ और वितृष्णा से उसका मन भर आया। अधजले सिगार के धुएँ की गंध जैसे उसके नथुनों भर गयी, और कमरे में एक-एक करके अतीत के सारे बिंब उभरने लगे।
मंजुला ने एम.ए. प्रथम श्रेणी में पास किया था। पिता फूले नहीं समाये थे, 'आखिर बेटी किसकी है!' उन्होंने प्यार से बेटी का सिर चूम लिया था, फिर माँ से बोले, 'मिठाई-विठाई खिलाओ कुछ। आज तो खुशी का दिन है।'
माँ बड़बड़ाती हुई दूसरे कमरे में चली गयी थी। मंजुला की दोनों बड़ी बहनें इंटर पास करके अपना-अपना घर बसा चुकी थीं। माँ को उन्हें पढ़ाने का विशेष शौक नहीं था। तीन-तीन बेटियाँ माँ के लिए काफी बड़ा बोझ थीं। उनकी पढ़ाई की अपेक्षा माँ को बेटियों की शादी की अधिक चिंता थी। मंजुला की पढ़ाई में पिताजी के साथ का विशेष सहयोग रहा। फिर मंजुला की असाधारण प्रतिभा एवं योग्यता के कारण भी माँ अब तक उसकी पढ़ाई का विरोध नहीं कर पायी थीं।
पर अब माँ चुप बैठने वाली नहीं थीं। जैसे ही उन्हें पता चला कि मंजुला रिसर्च के विषय में सोच रही है, वह फट पड़ी थीं, 'मैं कहे देती हूँ जी, अब बेटी के विवाह की चिंता करो। इससे ज्यादा पढ़ गयी तो बिरादरी में लड़का मिलना भी मुश्किल हो जायेगा। पढ़े-लिखे लड़के मिलते कहाँ हैं आजकल, और फिर हमें कौन-सी नौकरी करवानी है! इसके एक बार ब्याह हो जाये तो चाहे पढ़ाई करे या नौकरी।'
मंजुला को लगा कि माँ आज भी मानसिक रूप से कई बरस पीछे है। मंजुला पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहती है और माँ है कि ...क्या हर औरत की तरह उसकी नियति भी शादी, पति और बच्चे ही हैं? नहीं, वह और पढ़ेगी। साहित्य में उसकी रुचि है। वह शोध करेगी, पुस्तकें लिखेगी और नाम कमायेगी।
परन्तु माँ के तर्कों के आगे पिताजी की भी एक न चली। और मंजुला भी माँ को यह समझाने में असफल रही थी कि इस तरह जीने में कोई सार्थकता नहीं।
और फिर वही हुआ जो माँ चाहती थी। मंजुला का महेश से विवाह। इंटर पास महेश-जो व्यवसाय में रत। पढ़ाई की अपेक्षा पैसे कमाने में महेश की अधिक रुचि। दोष महेश का नहीं, उसके संस्कार ही ऐसे थे। परिवार में सभी प्राय: मिडल और मैट्रिक ही थे। वही संभवत: सबसे अधिक पढ़ा-लिखा था। पिछली कई पीढ़ियों से चला आ रहा बिजनेस ही उसे विरासत में मिला था। स्वयं महेश को भी कभी पढ़ाई की कमी महसूस नहीं हुई थी। वह अपने धंधे में निपुण था और अच्छी आमदनी भी थी। किसी भी वस्तु की कमी नहीं थी।
माँ इसी में बहुत प्रसन्न थी। 'पढ़ाई ज्यादा न सही, पर खानदान कितना अच्छा है! तीन बिल्डिंगें, दो गाड़ियाँ-राज करेगी मेरी बेटी।' और माँ ने बेटी का विवाह बिल्डिंगों और गाड़ियों से कर दिया था।
नये माहौल में मंजुला को काफी असुविधा महसूस होने लगी थी। सुबह होते ही महेश जल्दी-जल्दी नहा-धोकर नाश्ता करके काम पर चला जाता। घर में नौकर-चाकर थे इसलिए कुछ खास काम भी नहीं होता था। सास की सेवा और पति की प्रतीक्षा में ही दिन बीत जाता थाफ मंजुला जल्दी ही इस दिनचर्या से ऊबने लगी थी।
पहले तो वह रात की प्रतीक्षा करती थी किंतु अब तो रात के नाम से भी उसे उबकाई-सी आने लगती थी। महेश दिन-भर का काम से थका घर आता था और रात को अपने शरीर की उत्तेजना शांत करके सो जाता था। कॉलेज में रूप-सुंदरी कहलानेवाली मंजुला-अब उसका सौंदर्य पराजित अनुभव करने लगा था। उसे सब कुछ बेमानी लगने लगा था, एकदम निरर्थक। उसके भीतर का साहित्यकार जो संबंध अपने पति से जोड़ना चाहता था, उसका तो उसे अवसर भी नहीं मिला। महेश एक मजदूर प्रकृति का व्यक्ति था और मंजुला उसमें एक कलाकार को तलाशती रह गयी।
एक दिन हिम्मत करके महेश के सामने अपने आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त कर दी। और मंजुला बहुत प्रसन्न हुई जब महेश ने कोई आपत्ति नहीं की!
"तुम्हारी इच्छा है तो जरूर पढ़ो। रिसर्च करके डॉक्टर बनो। मैं भी फख्र से कह सह्लाूँगा कि मेरी पत्नी डॉक्टर है...वैसे मुझे थोड़ा मुश्किल लग रहा है यह काम। अब शादी के बाद तुम कर सकोगी पढ़ाई?'
"इसमें मुश्किल ही क्या है? हमारे एम.ए. के प्रोफेसर डॉ. मेहता के मित्र डॉ. नवीन यहीं यूनिवर्सिटी में रीडर हैं। डॉ. मेहता ने मुझे उनका 'रेफरेंस' दिया था। अगर आप कहें तो उनसे बात कर देखूँ?'
महेश को तो कोई आपत्ति नहीं थी, पर मंजुला भूल गयी थी कि घर में एक सास भी है और उसकी सास तो मंजुला की माँ से भी पुराने विचारों की नारी है। मंजुला की सास को जब पता चला कि मंजुला रिसर्च शुरू करने वाली है तो वह फट पड़ीं, 'अरे हमारा भी तो एक जमाना था। घर की बहू घर से बाहर कदम रखती थी तो अपने पति के साथ। यहाँ तो नजारा ही उल्टा है। इतना ही पढ़ाई का शौक था तो बैठी रहती बाप के घर। शादी की इतनी क्या जल्दी थी...अरे घर में कोई पोता खेले यह तो सोचा नहीं और बस...पढ़ाई करेंगी मेम साहिबा!'
मंजुला जहर का घूँट पीती रही और सब सुनती रही। फिर उसकी सास का कुसूर भी क्या था? वह उन भारतीय संस्कारों को लेकर जी रही थीं जिनमें नारी के लिए अपने व्यक्तित्व को स्थापित करना एक बड़ा अपराध है।
मंजुला जब डॉ. नवीनचंद्र से मिली, तो उन्होंने बहुत प्रोत्साहित किया था, 'तुमने ठीक ही सोचा है। इतनी पढ़ाई करने के बाद केवल घरेलू पत्नी बनकर रहो, यह तो कोई बात न हुई। आज की औरत केवल चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं। पी.एच.डी. कर लोगी तो 'लेक्यररशिप' तो कहीं नहीं गयी।'
डॉ. नवीन ने विषय भी स्वयं ही सुझाया।
मंजुला की सास अब महेश के कान भरने लगीं, 'अरे बेटा, देख, पड़ोस में राजेन्द्र और गणेश की शादियों को साल भी पूरा नहीं हुआ, बच्चों की किलकारियाँ घर में सुनायी देने लगी हैं। आस-पड़ोस की औरतें अब तो बातें बनाने लगी हैं। बहू को कह, पढ़ाई छोड़े और गृहस्थी में रुचि ले।'
महेश के पौरुष पर सीधी चोट की थी माँ ने। एक रात जब मंजुला नोट्स बना रही थी, महेश झल्ला उठा, 'यह क्या झंझट पाल लिया है तुमने! इतनी आसन नहीं है डॉक्टरेट की पढ़ाई। फिर अगर तुमने पूरी कर भी ली तो क्या फ पड़ा जायेगा! क्या मिल जायेगा तुम्हें? पति, घर, गाड़ी, इज्जत, यही सब होता है जिसकी चाह होती है एक औरत को।'
"आप भी ऐसा सोचते हैं? आपको भी लगता है कि पढ़ाई बेकार की वस्तु है? कला के बिना यह जीवन कितना नीरस रह जाता है! सूक्ष्म भावनाओं से ही जीवन में रंग-बहार आती है।'
"यह आर्ट और कला से अधिक बेकार की वस्तु तो कोई है ही नहीं। जब भूख लगती है तो प्रेमचंद के उपन्यास भूख नहीं मिटाते, महादेवी और पंत की कविताओं का बिस्तर बनाकर सो नहीं सकते। कोई बात है कि मैं यहाँ बिस्तर में अकेला पड़ा हूँ और तुम नोट्स बनाये जा रही हो?'
मंजुला महेश का आशय समझ गयी थी। किताब बंद करके वह महेश के पौरुष को पूर्णता प्रदान करने के लिए आ गयी थी। अपने पति को वह यह नहीं समझा सकती थी कि पुरुष को पूर्णता प्रदान करने में स्वयं के अधूरे रह जाने का एहसास कितना पीड़ादायक है नारी के लिए। क्या उसे अपने व्यक्तित्व को पूर्ण बनाने का अधिकर नहीं?
नहीं, वह छोटी-छोटी बातों से विचलित नहीं होगी, और मंजुला नये उत्साह से अपनी पढ़ाई में जुट जाती। अब घर की जिम्मेदारियों के प्रति और सजग हो गयी थी ताकि उसके पति या सास को कोई शिकायत का मौका न मिले। पर नोट्स तैयार करके नियमित रूप से डॉ. नवीन को दे आती। मंजुला का उत्साह और लिखने की गति देखकर डॉ. नवीन भी चकित थे।
"भई इतनी लगन और इतना उत्साह मैंने आज तक अपने किसी विद्यार्थी में नहीं देखा। और जिस गति से तुम लिख रही हो, मुझमें तो पढ़ने की उतनी गति है नहीं। देखो न, पिछले सप्ताह जो नोट्स तुम दे गयी थीं, वो तो अभी देख भी नहीं पाया।'
मंजुला को डॉ. नवीन के लापरवाही से काफी निराश हुई। अपने क्षोभ को छिपाते हुए बोली, 'सर, कोई बात नहीं। मैं आज के नोट्स भी छोड़े जा रही हूँ। आप इकट्ठे देख लीजिएगा। पर मैं कुछ एक प्वाइंट्स आपसे डिसकस करना चाहती थी।
"मंजुला, देखो भई, आज तो मेरा मूड नहीं है कुछ पढ़ने-पढ़ाने का। अगली बार आओगी तो ले लेंगे।' और डॉ. नवीन ने सिगार सुलगा ली।
मंजुला को अधजले सिगार की गंध से बहुत नफरत थी। उसके धुएँ से जैसे उसे मतली-सी आने को हाती थी। पर मंजुला ने जो काम शुरू किया था, उसे पूरा करना था। शोध पूरा करके अपनी आशाओं को मूर्तरूप देना चाहती थी। इसके लिए चंद घंटे सिगार का धुऑं भी सह लेती थी।
"अच्छा, यह बताओं कि तुम्हारे पति ने पढ़ाई की इजाजत कैसे दे दी?' डॉ. नवीन मुस्करा रहे थे।
मंजुला उनकी मुस्कराहट का रहस्य समझ नहीं पायी। कुछ अटकते हुए बोली, 'मेरे पति काफी उदार विचारों के हैं सर!'
"नहीं, वो बात नहीं। दरअसल अधिकतर पति सुंदर पत्नी को घर में बंद करके रखना चाहते हैं।'
"नहीं सर, अब तो पुरुष के दृष्टिकोण में काफी अंतर आ गया है। और मेरे पति भी मेरी महत्वाकांक्षाओं की कद्र करते हैं।' मंजुला ने विषय बदलते हुए कहा। उसे डॉ. नवीन की चुहल कुछ अच्छी नहीं लगी। वह उन्हें एक गंभीर एवं शालीन व्यक्ति समझती थी।
अगली बार एपांइटमेंट के बावजूद डॉ. नवीन घर पर नहीं मिले। उसे लगा कि वह दिन-रात एक करके मेहनत कर रही है, उसका कुछ लाभ नहीं। वह सारे नोट्स लिख भी डाले, जब तक डॉ. नवीन उन्हें देखकर सही न कर दें, उसका काम आगे नहीं बढ़ सकता।
मंजुला ने मन-ही-मन तय किया कि वह डॉ. नवीन से अनुरोध करेगी कि वह जाँचने का काम साथ के साथ कर दें तो काम जल्दी पूरा हो जायेगा। यही सोचते हुए मंजुला डॉ.नवीन के घर एक बार फिर पहुँची, उसे देखकर खुशी हुई कि डॉ. नवीन घर पर ही थे और उसके नोट्स उनके सामने दीवान पर बिखरे पड़े थे।
मंजुला को काफी संतोष हुआ। पर साथ ही क्षोभ भी कि डॉ. नवीन ने केवल एक ही चैप्टर देखा है जबकि वह लगभग आठ-नौ चैप्टर लिखकर दे चुकी है। फिर भी उसका उत्साह कम नहीं हुआ। और वह नियमित रूप से अपना काम करती रही।
अंतिम चैप्टर के विषय में वह डॉ. नवीन से कुछ बातचीत करना चाहती थी, इसीलिए वह समय तय करके डॉ. नवीन के घर पहुँची थी। फोन पर भी डॉ. नवीन ने बताया था कि उन्होंने कई चैप्टर जाँच लिये हैं। मंजुला को लगा कि अब उसके सपने साकार होने में अधिक समय नहीं लगेगा।
दरवाजा डॉ. नवीन ने ही खोला था। संभवत: घर पर और कोई नहीं था। डॉ. नवीन सदा की भाँति काफी रंगीन मूड में थे। मुँह में पान था और हाथ में सिगार। शायद कुछ पढ़ रहे थे।
क्या यही डॉ. नवीन हैं? विश्वविद्यालय के वरिष्ठ व्याख्याता, साहित्य के मर्मज्ञ? हिंदी कविता व उपन्यासों पर अनेक समीक्षात्मक पुस्तकों के रचयिता? उनका बाह्य स्वरूप, उनके हावभाग, उनके व्यक्तित्व ने बिल्कुल मेल नहीं खाते थे।
"बैठो मंजुला,' उन्होंने दीवान की ओर इशारा किया। मंजुला की ऑंखें अपनी थीसिस के पन्ने ढूँढ़ रही थीं, पर आसपास बिखरी पुस्तकों में उसे अपने नोट्स दिखायी नहीं दिये।
"सर, आपने मेरे नोट्स देखे?'
डॉ. नवीन अलमारी से नोट्स निकालकर लाये और मंजुला के साथ ही दीवान पर बैठ गये।
"तुम्हारे हाथ बहुत सुंदर और कलात्मक हैं मंजुला। मैंने कहीं पढ़ा था कि जिनके हाथ पतले, लंबे व कलात्मक होते हैं, उनका हस्तलेख भी बहुत सुंदर होता है। तुम्हारे नोट्स पढ़ते हुए मुझे यही खयाल आया। तुम्हारा हस्तलेख भी बहुत सुंदर है।'
मंजुला ने कुछ प्रतिक्रिया की आवश्कता नहीं समझी।
"सर, आप अगर मेरे नोट्स जल्दी देख देते तो मेरा काम जल्दी हो जाता।' मंजुला का स्वर विनम्र था।
"अच्छा, यह बताओ कि हम अगर तुम्हारा काम जल्दी कर भी दें तो हमें क्या मिलने वाला है? आजकल के विद्यार्थी अपने गुरु की सेवा करना तो जानते ही नहीं।' डॉ. नवीन ने शरारती मुस्कान से मंजुला की ओर देखा।
"ठीक कह रहा हूँ न? तुम हमें 'गुरु दक्षिणा' दो तो हम भी तुम्हारा काम जल्दी निपटा दें।' और उन्होंने मंजुला के कंधे पर अपना हाथ रख दिया।
मंजुला उठ खड़ी हुई और उसने जलती हुई दृष्टि से डॉ. नवीन को देखा। वे अब भी टेढ़ी मुस्कान लिये उसकी ओर देख रहे थे। काम-वासना उनकी ऑंखों में स्पष्ट रूप से झलक रही थी, 'अरे, बैठो भाई।' उन्होंने मंजुला का हाथ पकडकर दीवान पर बैठा लिया।
"हाँ, तो तुम हमारी दक्षिणा नहीं दोगी?' कहते-कहते डॉ. नवीन ने मंजुला को अपने आलिंगन में बाँध लिया। अधजले सिगार और तंबाकू की तीखी गंध से मंजुला का सिर चकरा गया। सब कुछ इतनी जल्दी-जल्दी घटित हुआ कि मंजुला कुछ समझ नहीं पायी।
"यह क्या बदतमीजी है सर?' डॉ. नवीन को एक ओर झटककर मंजुला उठ खड़ी हुई।
"भई, कुछ पाने के लिए, कुछ तो देना भी पड़ता है। डॉक्टरेट की उपाधि ऐसे ही तो नहीं मिल जाती।'
मंजुला को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था। डॉ. नवीन का यह रूप आज ही उसके सामने आया। उससे पहले भी कई लड़कियों ने डॉ. नवीन के साथ काम किया था, पर क्या डॉक्टरेट की उपाधि के लिए उन्होंने भी इतनी कीमत चुकायी होगी? नहीं-नहीं, मंजुला को ऐसी उपाधि, ऐसी डिग्री की आवश्यकता नहीं, जिसके लिए उसे अपना मान-सम्मान खोना पड़े। अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए वह इतनी बड़ी कीमत नहीं चुकायेगी। उसे ऐसे शिखर पर नहीं चढ़ना है जिसके नीचे भुरभुरी रेत हो और वह कभी भी ढह पड़े। उसे कीचड़ में नहीं धँसना है।
मंजुला जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आ गयी। उसके हाथ-पैर अभी भी काँप रहे थे। आज वह बस की प्रतीक्षा नहीं करेगी। उसे लगा कि डॉ. नवीन अभी भी अपनी बाल्कनी में खड़े उसे ही देख रहे हैं। उनकी वह वासना परिपूर्ण लालुप दृष्टि जैसे पीछा कर रही हो। सड़क पर उड़ते हुए पत्ते, कागज जैसे उसकी अपनी ही थीसिस के पन्ने हों जो उड़-उड़कर उसके आसपास बिखर गये हों।