रेनकोट / दीपक मशाल

Gadya Kosh से
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५-६ रेनकोट देखने के बाद भी उसे कोई पसंद नहीं आ रहा था। दुकानदार ने साहब को एक आखिरी डिजाइन दिखाने के लिए नौकर से कहा।

'पता नहीं ये आखिरी डिजाइन कैसा होगा? इन छोटे कस्बों में यही तो समस्या है कि जरूरत की कोई चीज आसानी से मिलती नहीं।' वो हीरो टाइप का शहरी लड़का इसी सोच में डूबा था कि बाहर हो रही बारिश से बचने के लिए एक आदमी दुकान के शटर के पास चबूतरे पर आकर खड़ा हो गया। शरीर पर कपड़ों के नाम पर एक सैंडो बनियान और एक मटमैला सा पैंट पहिने था वो और एक जोड़ी हवाई चप्पल। चबूतरे पर आते ही पैंट के पांयचे मोड़ने लगा।

रंग, शक्ल से और शारीरिक गठन से तो मजदूर लगता था। उसके पसीने की बू दुकान में भी एक कड़वी सी बदबू फैला रही थी। बारिश थमती ना देख शायद उसने तेज़ पानी में ही निकलना चाहा। अचानक अपनी जेब में से कुछ निकालने लगा। हाँ ३-४ पांच-पांच रुपये के मुड़े-तुड़े नोट निकले।

उन नोटों को ले वो दुकान के अन्दर आया और २-२।५ मीटर पतली वाली बरसाती खरीदी। बरसाती को अपने सर पर डालते हुए उसने खुद को ऐसे ढँक लिया जैसे कछुए ने अपने आप को खोल में डाल लिया हो। और दोनों सिरे दोनों कानों के पास से निकाल हाथों में पकड़ लिए। अब सिर्फ उसका चेहरा और पैर दिख रहे थे बाकी पूरा शरीर बरसाती में ढँक चुका था और वो मस्तमौला सा तेजी से भारी बारिश में ही सड़क पर बहते गंदे पानी को हवाई चप्पलों से उछालता हुआ अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया।

उस जाते हुए आदमी को काफी देर से गौर से देख रहे उस हीरोनुमा शहरी शख्स को पहले दिखाए सारे रेनकोट अब एकाएक अच्छे लगने लगे थे।