रेप / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
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नारीवादी चेतना की अंतसः सूक्ष्मताओं को बखूबी को उजागर करने वाली यह कहानी लेखिका की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है। 'हार्पर कॉलिन्स बुक ऑफ़ ओडिया शोर्ट-स्टोरीज' में संकलित इस कहानी का अनुवाद विश्व की महत्त्वपूर्ण भाषाओँ जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिस, जर्मन तथा चीनी आदि में हो चुका है।साथ ही साथ,भारत की क्षेत्रीय भाषाओँ तेलुगु, मलयालम,बंगला,उर्दू तथा मराठी में भी यह कहानी अनूदित हो चुकी है।यह ही नहीं, हमारे पडोसी देश बंगलादेश से यह कहानी बंगला भाषा में तथा पाकिस्तान से उर्दू भाषा में प्रकाशन हो चुका है।१९८९ में लिखी गई इस कहानी का प्रथम पाठ लेखिका द्वारा 'भारत भवन' भोपाल में किया गया।ओडिया-साहित्य में यह कहानी अपने प्रकाशन के समय से चर्चा का विषय बनी,जो अभी तक तर्क- वितर्क से परे नहीं है।


ऐसी बात नहीं थी कि उन दोनों में छोटी-मोटी घरेलू बातों को लेकर झगड़ें नहीं होते थे। वे दोनों भी आपस में कुत्ते-बिल्ली की तरह झगड़ते थे, कभी दुनियादारी की छोटी-छोटी बातों को लेकर, तो कभी बच्चों के लालन-पालन को लेकर या फिर कभी -कभार अपने व्यक्तिगत वैचारिक मतभेदों को लेकर।। परन्तु वे दोनों उन बातों को ज्यादा समय तक अपने हृदय में गाँठ बनाकर नहीं रखते थे। कुछ समय बाद, एकाध घंटे के भीतर -भीतर उनके सारे वैचारिक मतभेद दूर होकर सामंजस्य स्थापित हो जाता था। उसके बाद वह दिन भी बाकी दिनों की तरह सामान्य हो जाता था। उन झगड़ों के दौरान जाने-अनजाने उनके मुख से एक दूसरे के लिए स्वार्थी, घमंडी, मनमौजी, बेईमान, कंजूस इत्यादि अनेकों अनर्गल शब्द निकलते थे, मगर इन शब्दों की यह बमबारी उनके हृदय को क्षत-विक्षत नहीं कर पाती थी। शाम की कटु-स्मृतियाँ सुबह होते-होते उनके मानस पटल से रात्रि के तिमिर की तरह हट जाया करती थी।

पर आज का दिन दूसरे दिनों की तरह नहीं था। सुपर्णा को आश्चर्य हो रहा था, आखिरकर ऐसी घटनाएं क्यों घटित हो जाती हैं? आज सुपर्णा की नींद पूरी नहीं हुई थी। सुबह-सुबह अधूरी नींद से उठकर तन्द्रा-अवस्था में वह बाथरुम गई। दैनिक दिनचर्या से निवृत होकर वह रसोई-घर में गई। हीटर पर चाय चढ़ाकर अंगडाई लेते हुए अपने शरीर से आलस्य की जकड़न को दूर करने का यत्न करने लगी। फिर वह जयन्त को नींद से जगाते हुए चाय का प्याला देकर बाहर आँगन में जाकर बैठ गई। बिस्तर से उठकर 'बेड-टी' हाथ में लेकर पीछे-पीछे जयन्त भी आँगन में चले गए।

सुपर्णा ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा-”मैने आज एक अजीब-सा सपना देखा।”

जयन्त ने पूछा-”कैसा सपना? मैने भी आज एक बुरा सपना देखा।”

सुपर्णा ने कहा-”तुम जैसा सोच रहे हो,वैसा नहीं है।”

इससे पहले,जयन्त अपने सपने के बारे में बताते,सुपर्णा ने कहना प्रारम्भ किया-”कल सपने में मैने डॉक्टर त्रिपाठी को देखा। वह मेरे साथ था... मतलब उनके साथ, यानी हम दोनों में...”

थूक निगलते-निगलते सुपर्णा ने कहना जारी रखा-”कल रात को सपने में - ही फक्ड मी।”

जैसे ही सुपर्णा के मुँह से ये शब्द निकले, उसने देखा, क्षणभर के लिए जयन्त का चेहरे के भाव बदल गए। वह झुंझलाकर कहने लगे-“मेरी भी ऐसी इच्छा है, तुम्हारे अलावा किसी दूसरी के साथ...”कहते-कहते जयन्त चुप हो गए थे।

वह बनावटी हँसी हँसने का अभिनय करने लगे।यद्यपि जयन्त के भींचे हुए होंठों पर कृत्रिम-मुस्कराहट की झलक अभी तक स्पष्ट दिखाई दे रही थी, परन्तु कुछ समय पूर्व जयन्त के विकृत चेहरे पर उभरी प्रतिशोध की भावना को सुपर्णा भुला नहीं पा रही थी। बाद में भले ही, जयन्त ने उसको ऊपरी मन से समझाने की कोशिश की कि उसने ऐसी कोई भी बात किसी गलत उद्देश्य से नहीं कही थी। यह नहीं कहा जा सकता कि सपना देखने के बाद सुपर्णा के मन में अपराध-बोध उभर कर नहीं आया हो, पर जयन्त की बात सुनकर उसके मन को गंभीर ठेस पहुँची थी। जयन्त को अपने सपने के बारे में बताने के पीछे उसका कोई गलत अभिप्राय नहीं था। चाय पीते-पीते गपशप करने के मूड़ में अचानक उसके मुँह से ये बातें निकल गई थीं। उसने इस बात का कदापि यह अनुमान नहीं लगाया था कि जयन्त अनजाने में कही गई इन बातों को सुनकर इतने उत्तेजित हो जाएंगे। सुपर्णा जयन्त को सफाई देने और समझाने-बुझाने के बावजूद भी उसके चेहरे पर उभर आई प्रतिशोध की रेखाओं को भुलाए नहीं भूलती, लेकिन व्यर्थ में बात आगे न बढ़ें, सोचकर वह अपने दैनिक-क्रियाकलाप के लिए वहाँ से उठकर घर के भीतर चली गई।कोई और दिन होता तो सुपर्णा अवश्य बहस करने लग जाती”तुम क्या सोचते हो? मुझे सपने देखने का भी अधिकार नहीं है?”

पर आज वह तर्क कैसे करती क्योंकि उसे इस बात का अच्छी तरह ज्ञान था कि उसकी जिन्दगी जमीन के इस छोटे से टुकड़े पर बने एक छोटे से क्वार्टर में ही सीमाबद्ध है। अगर कोई उसे अभी कहता ‘उड़ जाओ’ तो भी वह वहाँ से उड़ने के लिए तत्पर नहीं होगी। पिंजड़े के बाहर की दुनिया के बारे में सोचते ही वह मन ही मन भयभीत होने लगी। अगर कोई पूछता”अगले जन्म में तुम क्या बनना पसन्द करोगी?”उसका उत्तर होता”मैं पंछी बनूँगी।”

सुपर्णा के मन में यह ख्याल कभी नहीं आया था कि वह हमेशा के लिए इस तरह चार-दिवारी में कैद हो जाएगी, हरेक दिन दूसरे दिनों से अलग होगा और अट्ठाईस साल की उम्र तक उसने जैसा जीवन बिताया था, वैसा ही जीवन तीस साल की उम्र में उन्हीं दिनों की तरह बीतेगा। पति के लिए गर्मगर्म रोटियाँ सेंको, लड़के के लिए राइम्स, इंजिन और मॉर्निंग की स्पेलिंग्स याद करवाओ और लड़की की त्वचा, दाँत, बालों की सुरक्षा एवं सौन्दर्य के लिए अपनाए गए घरेलू नुस्खों का उपयोग करो। इन सभी बातों के बीच सुपर्णा यह भूल चुकी थी कि वह एक ऐसी लड़की थी जिसने धवलेश्वर मंदिर में महानदी के किनारे धूम्रपान भी किया था। उसने कॉलेज के लड़कों की छीटाकशी की तनिक परवाह भी नहीं की थी। सुपर्णा को वे बातें भी विस्मृत हो गई थी कि उसने एक नौजवान के साथ इस विषय पर जोरदार तर्क-वितर्क किया था, शायद उसका नाम कोई दास, अधिकारी या ऐसा ही कुछ उपनाम था। उसने उस नौजवान को मुंह-तोड़ जवाब दिया था, “तुम लोग औरतों के बारे में क्या सोचते हो? क्या उन्हें गाय,बकरी या भेड़ समझते हो ? थोडा-सा धुम्रपान भी हम लोग कर नहीं सकते?” भले ही यह उसका दुस्साहस था या उसकी मनमौजी प्रवृत्ति। शादी के तीन साल बाद तक जयन्त के इस क्वार्टर में बँधकर नहीं रह पाती थी। इस छोटे से शहर में वह छटपटाकर रह जाती थी और अपने मायके जाने के बहाने कटक या भुवनेश्वर चली जाती थी।

“जयन्त, मैं तुम्हारे सीमित संसार में नहीं रह सकूँगी। मुझे उड़ने के लिए विस्तीर्ण आकाश चाहिए।”

सुपर्णा भुवनेश्वर से लगातार पत्र लिखती रहती थी और उचित प्रत्युतर न पाकर अंत में वह कुंठाग्रस्त होकर जयन्त के पास लौट आती थी। नौकरी एक पराधीनता है, जानते हुए भी उसने एक बार निश्चय कर लिया था कि वह स्वतंत्र-रूप से नौकरी करेगी। परन्तु उसी समय डॉक्टर ने सलाह दी,

“यह तुम्हारा पहला इश्यू है। इस समय तुम्हें ज्यादा यात्रा-प्रवास नहीं करने चाहिए। कम से कम पाँच महीने तक फुल बेड रेस्ट करना तुम्हारे लिए जरुरी है।”

इन पाँच महीनों के बेड-रेस्ट के दौरान सुपर्णा का जीवन पूर्णरुपेण बदल गया था। वह कई नई-नई अनुभूतियों के साथ-साथ तरह-तरह की मानसिक जड़ताओं की शिकार होती जा रही थी। बस, उसके बाद उसे यह याद भी नहीं रहा कि उसे केवल माँ ही नहीं, बल्कि एक पंछी बनकर खुले-गगन में उड़ना भी था।

वह सोच रही थी उसे अपनी पीठ पर बच्चें बाँधकर बंजारिन हो जाना जाहिए था।जयन्त की नसबन्दी के बाद वह अपने बीते दिनों की यादों और दुश्चिंताओं को बेटे की हँसी में तथा बेटी की शरारतों में मुक्त-मिलन के अन्त की सुखनिद्रा में भूल गई थी।भूल गई थी वह सॉलबेलो व गार्शियामाक्रोज के सृजनात्मक लेखन को, सैम पित्रोदा की विज्ञान आधारित शिक्षा-नीति को और शबाना आजमी की कलात्मक फिल्मों को। अब तो वह केवल इस बारे में निःसंकोच गप्पें लड़ाती थी, प्रधान बाबूके घर में एक पाव भर मटन में सात आदमी कैसे खाते हैं? मोहन्ती बाबू के क्वार्टर के झरोखे में वह कितनी बार देख चुकी थी,मोहन्ती बाबू अपनी पत्नी के सिर से जुएँ कैसे निकालते या प्रेशर कुकर साफ करते हैं? या फिर, शादी के समय वह अपने मायके से कितना सोना लाई और इस बीच और कितना सोना उसने खरीदा?

दूध बेचने वाली गाड़ी के हॉर्न से सुपर्णा अपने वर्तमान में लौट आई। सामान्यतः उसको बर्तन माँजने में ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह मिनट का समय लगता था। पर आज पता नहीं क्यों उसे बर्तन माँजते आधे घण्टे से ज्यादा हो गया, फिर भी काम पूरा होता हुआ नजर नहीं आ रहा था। सुपर्णा हाथ धोकर उठ खड़ी हुई और दूध के बर्तन और रुपए लेकर बेटे के हाथ में थमा दिए, फिर अपने बालों में कंघी फेरते हुए दर्पण में अपने चेहरे को निहारने लगी कि वह ठीक-ठाक दिखाई दे रही है या अभी भी उदास-चित्त है? जैसे ही वह घर से बाहर निकली,मिल्क-वेन के ड्राइवर ने पूछा-”क्या बात है मैडम, आज आप दूध लेने नहीं आई। तबीयत ठीक नहीं है क्या?”मगर उसने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल वह प्रत्युत्तर में मुस्करा दी।

बड़ी मुश्किल से उसने आठ बजे तक नाश्ता बनाया। उस दिन जयंत ने अपना अल्पाहार इस तरह ग्रहण किया मानो वह घोड़े पर जीन कस कर आए हो।ब्रैड स्लाइस सोफे में बैठकर, तो ऑमलेट आँगन में खड़े होकर और चाय चलते -चलते पीकर वह तेजी से घर से बाहर निकल गए। जाते- जाते स्कूटर पर किक मारते हुए कहने लगे,”मै आफिस से दस बजे तक लौट आऊंगा,तुम तैयार रहना, डाक्टर के पास चलना है ना?"

इतना कहकर जयंत सुपर्णा के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर ही वहां से चले गए।उनके जाने के बाद सुपर्णा घर के भीतर आ गई।वह भीतर ड्राइंग रूम में ब्रैड के बिखरे हुए टुकड़ों की तरफ देखने लगी।जयंत अक्सर बच्चों के साथ टेलीवीजन देखते हुए नाश्ता करते थे।अभी तक आज उससे शयनकक्ष में बिस्तर नहीं बदला गया था।उसने अभी तक सारे घर में झाड़ू तक नहीं लगाया था।फ़िल्टर कैंडल को साफ़ करने का काम अभी तक बचा हुआ था।न तो आज उससे अभी तक नल से पानी भर कर रखा गया था, न ही वह अभी तक दूध गर्म कर पाई थी। किसी भी हालत में आज उसे दस बजे से पहले-पहले कम से कम चावल- दाल तथा आलू-चोखा बना लेना चाहिए।नहीं तो, डॉक्टर के पास जाने में देर हो जाएगी और अगर डॉक्टर के पास चेक कराकर आने के बाद रसोई बनाती है, तो बच्चे स्कूल से आने के बाद बिना कुछ खाए ही सो जायेंगे। उसके सारे काम अभी तक बाकी पड़े थे। सुपर्णा समझ नहीं पा रही थी,वह कौनसा काम पहले करे और कौनसा काम बाद में करे? शयन-कक्ष में जब वह चादर बदलने गई, तब उसे काफी थकान से चक्कर आने लगे।थोडा-सा विश्राम करने के लिए वह पलंग पर चित लेट गई। लेटे-लेटे वह सोचने लगी, काश ! उसने एक नौकरानी रख ली होती। लेकिन नौकरानी रखना कोई साधारण काम नहीं था। कभी-कभी नौकरानी रखने से घर की शान्ति भंग हो जाती थी।पहले वाली नौकरानी को उसके यहाँ से काम छोड़े लगभग चार महीने ही बीते होंगे। इन चार महींनों के दौरान घर का नियमित कामकाज करने से होने वाले शारीरिक व्यायाम से सुपर्णा की स्थूल -काया छरहरी और सुडौल हो गई थी।

सुपर्णा बच्चों की बढ़ती शरारतों से आजकल परेशान रहती थी।वह समझ नहीं पाती थी, उनको कैसे संभाला जाए?तीन दिन पहले की बात थी,उसकी बच्ची ने डिस्टिल्ड वाटर के एम्पुल के कांच के छोटे टुकड़े को घर की नाली में से उठाकर खा लिया था। बहुत कोशिशों के बाद उसके मुंह से वह कांच का टुकड़ा तो निकाल दिया था, पर उसकी तेज-धार से बच्ची की जीभ लहूलुहान हो गई थी।कोई और कांच का टुकड़ा पेट में नहीं चला गया हो,इस संदेह को दूर करने के लिए बाद में उसके पाखाने की जांच भी करवानी पड़ी थी।

हर दिन की तरह आज भी दोनों बच्चे ड्राइंग रूम में लड़ाई-झगड़ा कर रहे थे। सुपर्णा को जाकर बीच बचाव करना पड़ा था। दोनों को दूर- दूर बिठाकर उनको अलग- अलग खिलौने देकर वह रसोई-घर में लौट आई थी।वह सोच रही थी कि क्यों न पहले रसोई घर का काम निपटा लिया जाए। रसोई -घर के भीतर जाकर उसने गैस ऑन किया ,उसने देखा गैस धीरे-धीरे जल रही थी।उसे लग रहा था कि गैस जल्दी ही खत्म हो जाएगी। सुबह-सुबह आस-पड़ोस से भी गैस का कोई बंदोबस्त आसानी से नहीं हो सकता था।जैसे-तैसे उसने धीमी आंच पर ही खाना तैयार किया।

जैसे ही वह रसोई-घर से काम करके बाहर निकली,वैसे ही ठीक दस बजे जयंत घर पहुँच गए। परन्तु सुपर्णा के घर का काम अभी तक ख़त्म नहीं हुआ था।यद्यपि उसने घर में झाड़ू- पोछा लगा लिया था, कपड़ें भिगो दिए थे, बच्चों को स्नान करवा दिया था, फिर भी कई छोटे-मोटे काम बाकी रह गए थे जैसे खिड़की दरवाजे बंद करना, बच्चों को शर्ट-पैंट और जूते पहनाना, पाउडर लगाना, ताले और चाबी ढूंढना इत्यादि।सारा काम ख़त्म करते-करते आधे-घंटे से ज्यादा का समय बीत गया। देर होती देख जयंत ड्राइंग में बैठे-बैठे बच्चों पर चिडचडाकर अपना गुस्सा उतारने लगे। देखते-देखते उनकी चिडचिडाहट का स्तर इतना बढ गया था कि साडी पहनने के बाद सुपर्णा को बिंदी और पाउडर लगाने का समय नहीं मिला।बाहर निकलने के समय चाभी नहीं मिल रही थी, पर गेट के सामने खड़े जयंत की व्यग्रता को देखते हुए उसने कहा था,”आ रही हूँ, बस।"बहुत दिन हुए घर से बाहर कहीं नहीं निकल पाती थी वह, इसलिए उसकी चप्पलों पर धूल की मोटी परत जमी हुई थी। जूते साफ़ करने वाले ब्रश या कपड़ें सही जगह पर नहीं मिलने के कारण उसने अपने पहनने वाली चप्पलों को धीरे से जमीं पर पटका,फिर उन्हें पहनकर तेजी से घर से बाहर निकल गई। डॉक्टर के पास पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज चुके थे। जयंत कहने लगा,”तुम तो जानती हो, इस डॉक्टर के क्लीनिक में बहुत भीड़ रहती है इस समय, इसलिए तो मै कह रहा था कि ठीक समय पर तैयार रहना,पर तुम तो कभी समय पर तैयार हो ही नहीं सकती।"

“क्या तुम नहीं जानते, घर के कितने काम होता हैं?जब सब काम निपटेंगे तभी तो घर से बाहर निकल पाउंगी।"

बेटे को लेकर बाहर जाते हुए जयंत ने कहा,

“अच्छा,अब जाओ,तुम बच्ची को भीतर ले जाकर चेकअप करवाओ और मै बाहर बेटे को लेकर तुम्हारा इन्तजार करता हूँ।"

जयंत की बात सुनकर सुपर्णा डॉक्टर त्रिपाठी के क्लीनिक के अन्दर चली गई। उसने देखा डॉक्टर और उनकी धर्मपत्नी दोनों ही मरीजों को देखने में व्यस्त थे।वह डाक्टर त्रिपाठी के सामने जाकर खड़ी हो गई। डॉक्टर त्रिपाठी ने उसकी तरफ हल्की-सी नजर उठा कर देखा और हाथ हिलाकर पास रखे बेंच पर बैठने का इशारा किया। उनकी पत्नी ने भी सुपर्णा की तरफ देखा,मगर न तो उसके नमस्ते का प्रत्युत्तर दिया और न ही मुँह से वह कुछ बोली। उसको बैठने का संकेत कर डॉक्टर त्रिपाठी दूसरे मरीजों को देखने में व्यस्त हो गए।

डॉक्टर त्रिपाठी को इतनी नजदीकी से देखते ही सुपर्णा को सपने की सारी स्मृतियाँ तरोताज़ा हो उठी। सपने में डॉक्टर त्रिपाठी सुन्दर, ओजस्वी और एक नौजवान की तरह हृष्ट-पुष्ट दिखाई दे रहे थे।परन्तु यथार्थ में, अब जब सुपर्णा ने ध्यान से डॉक्टर त्रिपाठी को देखा तो उसे लगा की उनके चेहरे पर उभरती हुई झुर्रियां उनके वृद्धावस्था के आगमन की सूचना दे रही थी।कनपटी के आस-पास के बाल सफ़ेद नजर आ रहे थे।सब मिलाकर उसे उनके चेहरे में आकर्षण जैसी कोई चीज नजर नहीं आ रही थी।सुपर्णा की बच्ची बार-बार उसकी गोदी से उतरकर इधर-उधर धमाचौकड़ी कर रही थी। वह कभी उसको पुचकारकर,तो कभी डरा-धमकाकर अपने पास बुलाकर गोदी में बैठा लेती थी।

पता नहीं,क्यों जयंत क्लीनिक के अन्दर नहीं आ रहे थे।आधे-घंटे बाद जब सुपर्णा की बारी आई,डॉक्टर त्रिपाठी उसकी तरफ देखते हुए कहने लगे,”आइए, इधर आइए, अब बताइए क्या हुआ है?”

सुपर्णा बेंच से उठकर डॉक्टर के पास रखे स्टूल पर जाकर बैठ गई तथा बेबी के distilled वाटर के एम्पुल के कांच के टुकड़े को खाने का सारा वृत्तांत सुनाने लगी। उसकी पूरी कहानी सुनने के बाद डॉक्टर त्रिपाठी असुन्तष्ट लहजे में सुपर्णा से कहने लगे,

“चलिए, चैंबर के अन्दर चलिए, वहाँ जाकर बच्ची की पूरी जांच करते है।"

चैंबर के अन्दर जाते ही डॉक्टर त्रिपाठी सुपर्णा को बच्चों के सही ढंग से लालन-पालन के मामले में बरती हुई लापरवाही पर नाराजगी व्यक्त करते हुए लड़की को टेबल पर सीधे लिटाने के निर्देश दिए। उसके बाद उन्होंने लड़की के पेट को अपनी दायीं हथेली से धीरे-धीरे दबाया, मुँह खुलवाकर गले की जांच की तथा टंग डिप्रेसर से जीभ दबाकर मुँह के अंदरूनी भागों को बारीकी से सावधानीपूर्वक देखने लगे।कटी जीभ पर दबाव पड़ते ही दर्द के मारे बच्ची छटपटानेलगी।उसको छटपटाता देख डॉक्टर आवेश में आकर कहने लगे,

"क्या आपको बच्चों को ठीक से पकड़ना भी नहीं आता? इस तरह पकड़िए। सिर के दोनों तरफ से हाथ ऊपर की तरफ ले जाकर हाथों को सिर से सटाकर रखिए।"

बच्ची की पूरी तरह मेडिकल जांच हो जाने के बाद डाक्टर त्रिपाठी कहने लगे,”घबराने की बात नहीं है, दवाई देने की जरूरत नहीं पड़ेगी।”

इतना कहने के बाद वह अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गए।सुपर्णा ने पर्स खोलकर फीस आगे बढाई तो उन्होंने उसकी तरफ देखे बिना ही रूपए लेकर टेबल के ड्रावर में डाल दिए।

औपचारिकतावश धन्यवाद कहते हुए सुपर्णा क्लीनिक के बाहर निकल गई।

जयंत क्लीनिक के बाहर खड़े होकर कबसे उसके आने का इन्तजार कर रहे थे।उसको बाहर आते देखकर बेटा चाकलेट के लिए जिद्द करने लगा। जयंत को इन्तजार में बाहर खड़ा देख, वह सोचने लगी, उन्हें कम से कम एक बार तो क्लीनिक के अन्दर आना चाहिए था। एक बार तो डॉक्टर से बेबी के इलाज के बारे में पूछना चाहिए था।खैर यह भी छोड़ो, क्लीनिक से बाहर निकलने के बाद अभी तो कम से कम डॉक्टर ने बच्ची के इलाज के बारे में क्या बताया, पूछ लेना चाहिए था।इतना पूछ लेने मात्र से उसके मन को थोडा-सा संतोष तो हो जाता।परन्तु जयंत ने कुछ भी नहीं पूछा।पास वाली दूकान पर जाकर सीधे बच्चों के लिए चाकलेटे खरीदी और बिना कोई बात किए वे सब घर को वापिस आ गए।

रात को सोने से पहले सुपर्णा ने आँगन में खुलने वाली खिडकियों को बंद किया। फिर वह वाशबेसिन पर जाकर हाथ धोने लगी।तभी उसे याद हो आया कि उसने रात को पीने के लिए पानी का लोटा नहीं भरा है।अक्सर पाँव धोने के बाद उसे रसोई घर में जाना पसंद नहीं था क्योंकि रसोई-घर की चिकनाहट उसके पाँवों को चिपचिपा कर देती थी।अगर वह जयंत को पानी भरने के लिए कहती तो क्या आज वह उसकी बात मानते? पता नहीं, क्यों आज उनके ऊपर उसको विश्वास नहीं था, इसलिए वह स्वयं ही रसोई घर में जाकर पानी का लोटा भर लाई।फिर उसने रसोई घर में रखे दूध के बर्तन फ्रिज में रख दिए, डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर पड़े अस्त-व्यस्त कपड़ों को सजाकर रख दिए।उसके बाद शयन-कक्ष में जाने से पूर्व उसने ड्राइंग रूम की लाइट और पंखा स्विच ऑफ कर दिया।

जैसे ही उसने शयन-कक्ष में प्रवेश किया, जयंत कहने लगे, ”अगर तुम्हें पढाई नहीं करनी है तो कमरे की लाइट ऑफ कर दो।” आदतन सुपर्णा सोने से पहले कुछ पढ़ती थी, मगर आज उसे ऐसा लग रहा था कि अवश्य, उसे पढते-पढते नींद आ जाएगी और वह कमरे की लाइट ऑफ करना भूल जाएगी। यही सोचकर अनिच्छापूर्वक उसने कमरे की बत्ती बुझा दी। मच्छरदानी ऊपर कर वह जैसे ही बिस्तर पर आई, उसे ऐसा लगने लगा मानो थकावट से उसका शरीर चूर-चूर हो गया हो। कुछ देर बाद दोनों शरारती बच्चे गहरी नींद में सो गए। तभी उसने अनुभव किया कि जयंत का हाथ उसकी कमर की तरफ धीरे-धीरे बढ रहा था। उसने जयंत के हाथ को धीरे से अपनी कमर पर से हटा दिया। कई दिन बीत चुके थे, उन दोनों के बीच किसी भी तरह का कोई संसर्ग नहीं हो रहा था और ऐसे भी आजकल इस सब के लिए इच्छा पैदा ही नहीं हो रही थी, मानो उसका सारा उत्साह स्वतः नष्ट हो गया हो।

जयंत फिर एक बार अपना हाथ सुपर्णा की कमर पर रखकर सहलाने लगे।धीरे-धीरे सहलाते हुए वह सुपर्णा को कहने लगे, "आज तो तुम्हारे सपने में आने वाले डॉक्टर त्रिपाठी से मुलाकात हो गई, ना...?

जयंत की यह बात सुनकर सुपर्णा अचंभित रह गई। उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने कसकर उस पर तमाचा मर दिया हो। उनके हँसते-हँसते यह कहने का अंदाज कुछ इस तरह था कि सुपर्णा अपने अन्तर्मन में घोर अपमान अनुभव करने लगी।उसने पलटकर मद्धिम रोशनी में जयंत के चेहरे को देखने की कोशिश की,पर उनका चेहरा अँधेरे में नहीं दिखाई दे रहा था। अगर इस समय कोई सुपर्णा के चेहरे की तरफ देखता, तो उसके चेहरे पर जयंत के प्रति घृणा के भाव स्पष्ट दिखाई देते।वह अपने अपमान के जहरीले घूँट किसी तरह पी गई। उसे लगने लगा मानो किसी ने अभी-अभी उसके साथ रेप किया हो।