रेलगाड़ी में / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / प्रगति टिपणीस

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमें नींद नहीं आ रही थी, जबकि ट्रेन पर हम आराम करने की फ़िराक़ में चढ़े थे। हमें लगा था कि धुंधली रोशनी, पहियों की लगातार होनेवाली गड़गड़ाहट और गाड़ी के हिचकोलों की बदौलत अपनी सीट पर लेटते ही हमारे उनींदा ख़याल ख़्वाबों की दुनिया में विचरने लगेंगे। लेकिन हुआ यह कि हम बातचीत में मशग़ूल हो गए — किन्हीं दूरदराज की जगहों और वहाँ रहनेवाले लोगों के बारे में बात करते-करते कब आधी रात गुज़र गई, हमें पता ही नहीं चला। मैं नहीं जानता कि आख़िर ऐसा होता क्यों है, लेकिन सफ़र में लोग अक्सर दूसरे मुसाफ़िरों के साथ बातचीत करते हुए अपना दर्शन झाड़ने लगते हैं। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से दूर होते ही वे पूरी तरह से जाग जाते हैं और अचरज से भरकर बीते हुए कल या भविष्य के बारे में बातें करने लगते हैं। अपनी यादों से वे या तो माज़ी के क़िस्से निकाल लाते हैं या सुदूर भविष्य के सपने बुनने लगते हैं। अगर मनुष्य के विचारों को साकार किया जा सकता तो हर दौड़ती रेलगाड़ी आभासों का अम्बार होती और उसके पहियों की गड़गड़ाहट दूर से आती हज़ारों धीमी आवाज़ों तले दब जाती। गाड़ी के डिब्बों में बैठे लोगों के लिए वर्तमान का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। चूँकि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का पंजा लोगों के ख़यालों और उनकी हर जुम्बिश पर हमेशा कसा रहता है, शायद इसीलिए ट्रेन में लोग दार्शनिक बन जाते हैं।

हम बातें करते रहे। हमने लोगों के बारे में बात की, हमने ज़िन्दगी, उसकी ख़ूबसूरती, उसकी नेमतों, उसकी अथाह गहराई के बारे में बातें कीं। चाहें ज़िन्दगी की गहराई के बारे में हम कितना भी फ़लसफ़ा क्यों न झाड़ें, हम अन्धे होकर लापरवाही से उसकी सतह पर ही तैरते रहते हैं। लोग सिर्फ़ इस सतह को ही जानते हैं और वे इतने ज़्यादा हलके होते हैं कि कभी उस सतह से नीचे जा ही नहीं पाते हैं। कभी-कभी यों होता है कि कोई सांसारिक लहर उन्हें नीचे घसीट लेती है। उन पलों में ज़िन्दगी अपने रहस्यों को ज़ाहिर करके लोगों को और अन्धा कर देती है या डरा देती है। लेकिन जल्दी ही वही लहर उन्हें नीले वितान के नीचे फैली सतह पर वापस भी फेंक देती है। जब लोग उस नीले वितान का ज़िक्र बच्चों से करते हैं तो वे उसे आसमान कहकर पुकारते हैं। लोग फिर उन्हीं अन्धे, उनींदे हिचकोलों में डोलने लगते हैं और उन्हीं में ज़िन्दगी के आख़िरी पल तक डोलते रहते हैं।

तो रेलगाड़ी में हम बहुत देर तक बातें करते रहे। पहियों की एकरस गड़गड़ाहट और ट्रेन के धुंधलकों के बीच एक-दूसरे को न देख पाने के बावजूद हमें यह मालूम था कि हमारे दरमियान हमदर्दी बढ़ती जा रही है। रोज़मर्रा की लीक से आज़ाद होते ही लोगों में अकेलेपन का एहसास बहुत बढ़ जाता है और कुछ पलों के लिए मिलने वाली थोड़ी सी दर्दमंदी को वे यों जज़्ब करते हैं, जैसे ज़मीन बारिश के पानी को सोख लेती है।

उसने कहा, — अब हमें सोना चाहिए।

मैंने जवाब में कहा, — हाँ, काफ़ी देर हो गई है।

मुस्कुराते हुए हमने अपनी आँखें मूँद लीं, लेकिन आधे घण्टे बाद ही हम दोनों अपने डिब्बे के कॉरीडोर में खड़े खिड़की के बाहर देख रहे थे। चाँद बादलों के पीछे कहीं छुपा हुआ था, फिर भी उजियारा था। ऐसा लग रहा था कि मानो धरती पर बिछा बर्फ़ीला कोहरा और धुँधली चाँदनी एक-दूसरे में घुलमिल गए हों। भारी बर्फ़बारी के बाद ज़मीन पर बिछी बर्फ़ की मोटी परत ने धरती के सभी ऊबड़खाबड़ हिस्सों को समतल कर दिया था। लेकिन चूँकि हम अक्सर उस रास्ते पर सफ़र किया करते थे, इसलिए सामने से गुज़र रहे सभी मुक़ाम हमारे लिए जाने-पहचाने थे।

— लेकिन यह सच नहीं है। हम न ही कुछ देखते हैं और न ही जानते हैं। — मैंने कहा।

वह मेरी बात फ़ौरन समझ गया और खिड़की के पास खड़े-खड़े ही मेरे और क़रीब आ गया और बोला — यह सारी चीज़ें जो हमें जानी-पहचानी लगती हैं, वे सिर्फ़ आँखों का फ़रेब हैं।आँखें धोखा देती हैं। मैं इस रास्ते पर सफ़र करते वक़्त हमेशा खिड़की से बाहर देखता रहता हूँ और मेरी नज़रें आसमाँ तक जाकर सबकुछ समोकर लौट आती हैं। मुझे लगता है कि वो सबकुछ बहुत है, लेकिन वह.. वह सिर्फ़ आसमाँ की उस हद तक महदूद होता है, जहाँ तक हमारी नज़रें जाती हैं। इस रास्ते पर बार-बार सफ़र करने के बाद भी मेरी याददाश्त में सिर्फ़ चंद मकान, रास्ते में पड़ने वाले कुछ स्टेशन, कुछ चेहरे, जंगल और इक्के-दुक्के पेड़ ही बचे हुए हैं। मुझे ऐसा लगता है मानो वही सबकुछ हों, लेकिन वो इस बड़ी दुनिया का सुई की नोक के बराबर का हिस्सा होता है, इससे ज़्यादा नहीं। मैं इस रास्ते पर पड़नेवाले एक भोज के पेड़ को पहचानता हूँ। वो जंगल से दूर एक किनारे पर दूसरे सब दरख़्तों से अलग-थलग खड़ा है। ऐसा लगता है कि मानो वह पेड़ जंगल से भाग आया हो और ललचाई नज़रों से मैदान को देख रहा हो। अगर उसे काट दिया गया तो मैं न तो उस जगह को कभी पहचान पाऊँगा और शायद न ही उसे फिर याद करूँगा।

— मैं भी उस भोज के पेड़ को जानता हूँ। ऐसा लगता है, मानो वो चीख़ रहा हो। — मैंने कहा।

— हाँ, तो क्या तुमको यह भी याद है कि वो कहाँ खड़ा है?

— यहीं-कहीं होना चाहिए। मैं नहीं जानता, हम अब कहाँ हैं। मुझे याद नहीं। मैंने बहुत दिनों से उसे देखा नहीं।

— लगता है, उसे काट दिया गया है।

अब हम बर्फ़ से ढके हुए एक रूसी जंगल के सामने से गुज़र रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वो भयानक ठण्ड और रात के अकेलेपन की वजह से कराह रहा है। फिर वही बर्फ़ीला कोहरा था और वही धुंधला आसमान। चूँकि हम अक्सर इस रास्ते पर सफ़र करते थे, इसलिए आसमान भी हमारा हमराही था। लेकिन उस दिन वह आसमान बिलकुल नया लग रहा था, जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा था। एक हरी किरण पास से गुज़री, फिर बर्फ़ से ढकी कुछ छतें दिखीं और फिर ट्रेन रुक गई। कण्डक्टर ने बताया कि बिलयेवा स्टेशन आ गया है।

हम इस स्टेशन को अच्छी तरह से जानते थे क्योंकि ट्रेन पाँच मिनट के लिए यहाँ हमेशा रुकती थी, लेकिन किसी वजह से हमने इसके बारे में बात नहीं की।

— बिलयेवा? — हमारे पीछे किसी ने दोहराया, फिर वह आगे बोला, — यहाँ की कचौड़ियाँ बहुत मशहूर हैं।

और उसने धम्म से दरवाज़ा बंद कर दिया। हमारा डिब्बा स्टेशन पर बने डाकघर के ठीक सामने रुका था। डाकघर की बड़ी खिड़की से हमें अन्दर काम कर रहे लोग बिलकुल साफ़ दिखाई दे रहे थे। वे अपने-अपने काम में जुटे हुए थे और इस बात की उन्हें कोई फ़िक्र नहीं थी कि कोई उन्हें देख रहा है। यह सबकुछ ऐसा लग रहा था कि हम कोई नाटक देख रहे हों और डाकघर वो मंच हो जिसपर यह नाटक चल रहा है। घनी मूँछों वाले एक नौजवान कर्मचारी का मुँह हमारी तरफ़ था। एक बार तो उसकी नज़रें मेरी नज़रों से मिलीं भी, लेकिन उनमें कोई भाव नहीं उभरा, वे उदासीन ही बनी रहीं। स्टेशन के खम्भों की रोशनी डाकघर की खिड़की के कुछ ही हिस्सों पर पड़ रही थी, इसलिए उसका पूरा चेहरा साफ़ नहीं दिखाई दे रहा था।

मेरे साथी ने मुझसे कहा — ज़रा उस मूँछ वाले को ग़ौर से देखो।

मैंने बड़े ध्यान से देखा। वह अभी भी उसी उदासीनता के साथ अपना काम कर रहा था। फिर उसने अपने साथी से कुछ कहा और अपनी उँगलियों में फँसी सिगरेट का कश भरने के बाद खड़ा हो गया। वह एक क़दम दूर गया और चमकते काँच के पीछे ओझल हो गया। जल्दी ही वह लौट आया और फिर दिखाई देने लगा। वह फिर अपनी सीट पर बैठ गया। ऐसा लग रहा था जैसे कि उँगलियों के बीच फँसी सिगरेट उसके काम में ख़लल डाल रही है क्योंकि उसके माथे पर शिकन आ गई थी। आख़िरकार सिगरेट उसने मेज़ के एक किनारे पर रख दी।

इसके बाद ट्रेन चलने लगी और फिर से स्टेशन पर लगे बिजली के खम्भे, बर्फ़ से ढकी छतें और हरी रोशनी हमारी आँखों के सामने झलकने लगीं। और इनके गुज़र जाने के बाद फिर वही सफ़ेद मैदान, बर्फ़ीली धुंध और कोहरीला आसमान दिखाई देने लगे। आमतौर पर इस तरह से प्रेतात्माओं की झलक दिखाई देती है। ऐसा लगता है जैसे वे एक दरवाज़े से दाख़िल हुईं और दूसरे से बाहर निकल गईं। लेकिन कमरा ज्यों का त्यों बना रहता है — वही मेज़, वही कुर्सियाँ, मोमबत्ती की वही ख़ामोश टिमटिमाहट। केवल धुंधली और बहती हुई - सी आकृतियाँ हमारी आँखों में रह जाती हैं और घबराहट से सुन्न हो गया हमारा दिल हमें कुछ बताने की कोशिश करने लगता है।

— यही वो बिलयेवा है जिसे हम जानते हैं, — मेरे साथी ने कहा।

— और अगर कोई इसी रास्ते से वापिस लौटे तो बिलयेवा उसे फिर से दिखेगा और फ़ौरन ही ग़ायब हो जाएगा !

— और तब क्या होगा, अगर किसी को वहाँ उतरना हो?

— कितनी देर के लिए? — उसने धीमे से पूछा।

— बहुत देर के लिए? — ख़यालों में मुस्कुराते हुए उसने दोहराया।

और एक-दूसरे के बिलकुल क़रीब खड़े होकर हम फिर खिड़की से बाहर देखने लगे। अचानक डाकघर की खिड़की के चमकते काँच के उस पार उदासीनता से काम करते हुए उस डाककर्मी की झलक हमें बर्फ़ीले मैदान में फिर से दिखाई दी, जिसे हमने अभी थोड़ी देर पहले बिलयेवा स्टेशन पर देखा था। लेकिन वह प्रेतनुमा एक आभास मात्र था, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी आँखों में था - सिर्फ़ हमारी आँखों में।

मैंने मन ही मन उसे याद किया और कहा — उसकी शक्ल बुरी नहीं थी।

— हाँ, बिलकुल। आख़िर वो नौजवान है। मुश्किल से पच्चीस साल का होगा। उसे इस डाकघर में काम करते छह-सात साल तो हो गए होंगे। उसके हाथों की चपलता, चेहरे के हाव-भाव, मेज़ के किनारे पर रखी उसकी सिगरेट — इन सब बातों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि वो डाकघर में काम करने का आदी हो चुका है।

— वो हमें नहीं देख पाया, क्योंकि उनके दफ्तर में रोशनी काफ़ी होती है, इसलिए गाड़ी के मुसाफ़िरों को वो लोग देख नहीं पाते हैं।

— मुमकिन है कि उसे गाड़ी की सिर्फ़ छाया ही दिखी होगी। डाकघर में ड्यूटी उसका रोज़मर्रा का काम है और रोज़ उसके सामने से बेशुमार रेलगाड़ियाँ आती-जाती हैं, जिनमें हज़ारों की तादाद में लोग सफ़र करते हैं। शायद अबतक आधा रूस उसके सामने से गुज़र चुका होगा। लेकिन वो उन लोगों के बारे में कुछ नहीं जानता है।

— ल्येफ़ तलस्तोय का भी इस रास्ते से आना-जाना लगा रहता है।

— सिर्फ़ ल्येफ़ तलस्तोय ही क्यों, तमाम मंत्री, राजकुमार, चित्रकार, लेखक, गायक वग़ैरह इस रास्ते से गुज़रते हैं। अब तक हज़ारों उदासीन नज़रें उस पर टिक चुकी हैं और वो उसी उदासीनता से बैठा काम करता रहता है। कौन जानता है कि तलस्तोय ने उसे देखा हो जब वो किसी से बात कर रहा हो, सिगरेट पी रहा हो या खैनी खा रहा हो। उसे सिर्फ़ रेलगाड़ी के डिब्बे या उनकी छायाएँ दिखती हैं। रेलगाड़ियाँ जब धूप या अँधेरे से निकलकर स्टेशन की ख़ाली पटरियों पर आकर खड़ी होती हैं तो ऐसा लगता है मानो वे हमेशा वहीं खड़ी रहेंगी। लेकिन पाँच ही मिनट में वे आगे निकल जाती हैं और पटरियाँ फिर से ख़ाली हो जाती हैं। गर्मियों में चेहरे खिड़कियों से झाँकते नज़र आते हैं। लेकिन सर्दियों में खिड़कियाँ पाले की वजह से बन्द होती हैं और इतनी ख़ामोश होती हैं मानो अन्दर कोई ज़िन्दा आदमी हो ही नहीं।

— रेलें चुपचाप आती हैं और आगे निकल जाती हैं — लेकिन वो इस बात से बेफ़िक्र कि कौन-कौन वहाँ से गुज़र रहा है, ख़ामोशी से बैठा काम करता रहता है। उसके काम करने का मतलब है — शब्दों को आगे सरकाना, या’नी वो टेलीग्राफ़ मशीन पर काम करता है। हालाँकि टेलीग्राम (तार) भेजने वाला साफ़ अलफ़ाज़ में अपनी बात लिखता है, पर उसके लिए वे लफ़्ज़ गाड़ी के बन्द डिब्बों की तरह होते हैं। क्योंकि वो न तो तार भेजने वालों को जानता है न ही उन्हें पाने वालों को। लोगों की ख़ुशियों और ग़मों के साथ-साथ उनके दूसरे मालूमात और जज़्बात भी उसके हाथों से गुज़रते रहते हैं और वो उन्हें एक मशीन की तरह आगे भेज देता है। उसके पास दो आँखें और कान तो हैं, लेकिन वो है बहरा और अन्धा — मानो उसे न तो सुनाई देता है और न ही दिखाई ।

— उसकी अपनी भी एक ज़िन्दगी है।

— वह बिलयेवा में छोटी क़द-काठी की एक दुकानदारिन के घर में किराये पर रहता है। वह घर खाई के एक किनारे पर बना हुआ है, उसमें तीन खिड़कियाँ हैं। अगर किसी के क़दम पल भर के लिए भी डगमगा जाएँ तो वह बर्फ़ से ढकी खाई में गिर जाएगा। उन खिड़कियों से सिर्फ अँधेरे में डूबे कोने, कचरे के छोटे-छोटे ढेर और बदमजनूँ (विलो) का एक उजाड़ सा पेड़ ही दिखाई देता है। इस घर में उसका कमरा बहुत छोटा-सा है, पर काफ़ी गरम है। कमरे में एक बेंच पड़ी हुई है, जिसपर वह सोता है। छुट्टी के दिन वह इसी बेंच पर बैठकर सुबह-सुबह गिटार बजाता है। उसे कढ़े हुए रूसी कुरते पसन्द है। अकसर लोग उसे सालगिरह पर तोहफ़े में कुरते ही देते हैं। उसकी ख़्वाहिश है कि उसके पास बड़ी-बड़ी जेबों वाली वैसी ही क़मीज़ और चमकते हुए जूते हों जैसे अक्सर फ़ौजी लोग पहनते है। अभी तक उसे शराब की लत नहीं लगी है। वह अभी भी जवान है और रंग-बिरंगे ख़्वाब देखता है। उसका कमरा साफ़ रहता है। वह अपने कपड़े एक चादर से ढक कर रखता है। उसकी कमरे की खिड़की पर मलमल का परदा पड़ा हुआ है। उसको पढ़ने का शौक़ है लेकिन उसके पास ज़्यादातर किताबें फटी-पुरानी ही हैं, जिनमें से कुछ किताबों के तो पन्ने भी ग़ायब हैं। वह किताबें पढ़ता ज़रूर है, लेकिन उसके मन में एक पल के लिए यह ख़याल नहीं आता कि यह किताब किसी आदमी ने ही लिखी होगी। किताबें भी उसकी ज़िन्दगी में कोई रंगत नहीं लातीं, वह उदासीन का उदासीन ही बना रहता है। रात को ड्यूटी से घर लौटते वक़्त वो कुत्तों से बहुत डरता है। घर पहुँचते ही वो जल्दी से कपड़े उतारता है और एड़ी पर घिस चुके अपने मोज़ों को देखते हुए कामकाज के ख़यालों में डूबा सो जाता है। शोर, चकाचौंध और भव्यता से भरी दुनिया में घटने वाली चीज़ें उसके लिए कहीं हाशिये पर ही होती हैं। वो पलभर के लिए भी यह नहीं सोचता कि हो सकता है कि उसकी फटी-पुरानी किताब किसी ऐसे मुसाफ़िर ने लिखी होगी जो शायद माज़ी में कभी सफ़र करते हुए उसके सामने से गुज़रा हो। उसकी रूह उस बेशक़ीमती वायलिन की तरह है जो सड़क पर बैठकर घटिया संगीत बजानेवाले किसी वादक को मिल गया हो। ये वायलिन इसलिए कभी भी अपनी असली आवाज़ नहीं सुन सकेगा क्योंकि उस आवाज़ को निकाल सकने वाला महान कलाकार नद की तरह बहते जीवन के किनारे से गुज़र जाता है। वैसे ही जैसे रेलगाड़ियाँ स्टेशन पर डाकघर की खिड़की के सामने से गुज़रती रहती हैं, जहाँ वो काम करता है। — यह कहकर मेरा साथी ख़यालों में डूब गया।

— लेकिन ये भी तो हो सकता है कि वो बिलकुल भी ऐसा नहीं है और ये सब आपकी कल्पना की उपज है।

— बिलकुल हो सकता है। आख़िर, हम भी तो, बस, उस डाकघर के सामने से गुज़रे ही हैं।

हमारा डिब्बा हलके-हलके हिल रहा था, सामने से बर्फ़ीले मैदान गुज़र रहे थे। वे जाने-पहचाने लग रहे थे लेकिन यह आँखों का धोखा था, क्योंकि हमने इन मैदानों को पहले कभी नहीं देखा था ! मेरा साथी मेरी बग़ल में खड़ा था, वह इतना क़रीब आ गया था कि उसका चेहरा जैसे मेरे चेहरे से सट गया था। अपनी इस नज़दीकी से वह भी तो मुझे धोखा दे रहा था, मैं उसे नहीं जानता था ! कल हम जुदा हो जाएँगे। उसकी तस्वीर सिर्फ़ मेरी आँखों में रह जाएगी, दूसरे लोग मेरे सामने से गुज़रने लगेंगे - और मैं दूसरों के सामने से गुज़रूँगा। शायद अपने सामने से भी गुज़र जाऊँ। — मूल रूसी भाषा से अनुवाद : प्रगति टिपणीस

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है — फ़ पोएज़्दे’’ (Леонид Андреев — В поезде)