रेल कभी गुजरात ना जाये / मुकेश मानस

Gadya Kosh से
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तकरीबन चार महीने पहले की बात है। उस दिन मेरी पांच साल की बेटी स्कूल नहीं गई थी। छुटटी मारकर बैठ गई थी घर में। देर से उठी थी। सो देर से उठना उसका बहाना बन गया। मैंने भी स्कूल जाने के लिए उस पर ज्यादा जोर डालना उचित न समझा। मैं सुबह-सुबह पार्क घूमकर आया था। थोड़ी कसरत-वसरत करके मैं अपनी आदत के मुताबिक अखबार के इंतजार में बैठा था। तभी मेरी बेटी मेरे पास आई और बोली-“पापा जी। मै अपनी कैसेट चला लूं?” मैंने जैसे ही हां कहा उसने हाथों में पकड़ी बाल गीतों की अपनी मनपसंद कैसेट को टेपरिकार्डर में डाला और खट से उसे चला दिया। इसी बीच हाकर ने अखबार फैंका। मैं तो उसी का इंतजार कर रहा था। मैं गुड़मुड़ी करके बांधे गए अखबार की रबड़ निकालकर उसे सीधा कर ही रहा था कि तभी एक बालगीत रिकार्डर पर शुरू हुआ। उस बालगीत ने मुझे बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लिया।

रेल हमारी सुंदर-सुंदर उसका इंजन बना रामधन लड़के बन गए डिब्बे सात देखो रेल चली गुजरात¸

इस बालगीत को सुनते-सुनते मैं अखबार सीधा कर चुका था। मेरी आंखें अखबार की मुख्य हेडलाईन पढ़ रही थी। एकाएक मुझे बालगीत सुनाई पड़ना बंद हो गया। मुझे लगा कि रेलगाड़ी सचमुच गुजरात पहुंच गई है। वो गुजरात के गोधरा स्टेशन पर जाकर रुक रही है। देखते ही देखते उसके एक डिब्बे से आग की लपटें उठने लगीं। डिब्बे से मानवीय चीख-पुकार सुनाई पड़ने लगी। अखबार के पृष्ठ पर हेडलाईन छपी थी। गुजरात में भड़की दंगों की आग। मुख्य हेडलाईन के नीचे छोटी हेडलाईनों में छपा था कि दंगों में कितने लोग मारे गए? मारे जाने वाले लोग कौन थे? हेडलाईन के नीचे एक जले हुए बच्चे की फोटो छपी थी। उस फोटो को देखकर मेरा दिल दहल उठा। सहसा मुझे लगा कि वह केवल एक बच्चे की फोटो नहीं थी बल्कि इस देश के करोड़ों करोड़ जले हुए बच्चों की फोटो थी। उनकी इच्छाओं, अभिलाषाओं, कामनाओं और सपनों की जली हुई फोटो है।

जले हुए बच्चे की फोटो। पूरी तरह से जल गए बच्चे की फोटो। फोटो में पूरा बच्चा नहीं था। बस उसका सिर था। उसकी आंखें थीं। उसकी नाक थी और होंठ थे। उसके सिर के चारों तरफ सफेद पटटी बंधी थी। उसका सिर बेहद जख्मी हुआ होगा शायद। उसकी आंखें की पुतलियां बाईं तरफ आंखों के कोनों में जाकर ठहर गई थीं। बेहद पीड़ा और भय को महसूस करते हुए बच्चा शायद किसी को देख रहा था? किसको देख रहा था? शायद अपने मां-बाप को। मगर उसकी आंखों में जो निर्जीवता, मुर्दनी और उदासी झलक रही थी वह उसकी लाचारगी का साफ बयान कर रही थी। अपने मां-बाप को न देख पाने की लाचारी। कौन जाने उसके मां-बाप बचे भी थे या नहीं? बच्चे की नाक के नीचे खून की झांइयां दिख रही थी जो शायद काफी साफ करने के बावजूद साफ नहीं की जा सकी थी। उसकी गोल-मटोल छोटी सी ठोड़ी तो पटटी में छुप सी रही थी। ठोड़ी के नीचे का हिस्सा भी काफी जख्मी हुआ होगा।

फटी-फटी आंखें से बाईं तरफ निहारता बच्चा शायद कुछ सोच रहा होगा। मगर क्या सोच रहा था वह बच्चा? यह कौन बता सकता है? दुनिया की कोई भी भाषा उस पीड़ा का बयान नहीं कर सकती थी जिसे वह बच्चा झेल रहा था। मैं उस पीड़ा की थाह ढूंढ़ने में बार-बार असफल साबित हो रहा था। यह उस बच्चे के मरने से एक घंटे पहले का फोटो था। फोटो खींचने के एक घंटे बाद वह बच्चा मर गया। इस देश की खोखली शांतिप्रियता, भाईचारे और धर्मनिरपेक्षता पर व्यंग्य करता हुआ वह बच्चा मर गया। गुजरात में फैले दंगों का जघन्य, अमानवयी परिणाम थी उस नन्हे, मासूम बच्चे की मौत। लेकिन क्या उस मासूम बच्चे की असामाजिक और अमानवीय मौत के बाद भी दंगाईयों ने अपने वहशियाना कार्रवाहियों को रोका नहीं, गुजरात में सांप्रदायिक दंगों का तांडव आज तक चल रहा है। कोई मासूमियत, कोई निर्दोषता, कोई मानवीय संवेदना इस खून की होली को रोक नहीं पाई है।

गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस का एक डिब्बा जला दिया गया था। खबर के मुताबिक उसमें काफी कारसेवक यात्रा कर रहे थे। यह एक बेहद गंभीर घटना थी। लेकिन इसके बाद ज्यादा अमानवीय और नृशंस घटनाओं का तांता लग गया। गोधरा में जलाए गए डिब्बे में मारे गए लोगों की इस घटना ने एक बड़े जघन्य और सांप्रदायिक हत्याकांड का रूप ले लिया। कहा गया कि डिब्बे में जलाए गए लोग हिन्दू कारसेवक थे जो अयोध्या जा रहे थे। इस त्रासदी के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराया गया जो मुस्लिम संप्रदाय के थे। बस फिर क्या था? सारे नियम-कानून, कोर्ट-कचहरी, पुलिस-प्रशासन सबको ताक पर धर दिया गया। उत्तेजित हिन्दू फासीवादी भीड़ पूरे मुस्लिम संप्रदाय को दोषी मानकर मुसलमानों को चुन-चुनकर मौत के घाट उतारकर हिन्दू कारसेवकों की मौत का बदला लेने लगी। नृशंसता, अमानवीयता और क्रूरता का नंगानाच शुरू हो गयीं। औरतों का बलात्कार किया गया और बाद में उनको मौत की नींद सुला दिया गया। स्त्रियों के प्रति इतनी नृशंसता, इतनी क्रूरता शायद ही किसी अन्य देश में देखने को मिले। आखिर किस बल पर हिन्दूवादी कहते हैं कि हिन्दू धर्म में औरतों को देवियों का दर्ज़ा प्राप्त है या उन्हें समानता का हक हासिल है और एक इंसान होने का सम्मान। हिन्दूवादियों के इस नारे की कलई गुजरात में खुल चुकी है और पूरे देश के सामने उनका स्त्री विरोधी व्यवहार अब सफ हो चुका है।

गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान पुलिस और प्रशासन का शर्मनाक रवैया भी सामने आया। अब इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि गुजरात की पुलिस और प्रशासन पूरी तरह से मुस्लिम विरोधी है। साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में मारे गए सेवक हिन्दू थे। गुजरात काफी संवेदनशील इलाका है। पूरा प्रशासन यह जानता था कि दंगे भड़क सकते हैं। फिर भी इस घटना के बाद न तो हाई अलर्ट किया गया और न कर्फ़्यू लागू किया गया। समय रहते उचित इंतजाम नहीं किए गए। बल्कि इसके बाद जब हिन्दू भीड़ मुसलमानों पर वहशी हमले करने लगी तब भी प्रशासन ने सख्त कदम नहीं उठाए। बाद की घटनाओं ने दंगाइयों के साथ पुलिस प्रशासन की मिलीभगत को जग जाहिर कर दिया। आम जन दबावों के बावजूद मुख्यमंत्री मोदी ने इस्तीफा नहीं दिया। राज्य के मुख्यमंत्री होने के कारण उनकी इस घटना के प्रति जो नैतिक जिम्मेदारी बनती है उसके आधार पर भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। वे बार-बार उचित कार्रवाई करने की बात दुहराते रहे और दंगे होते रहे। देश के किसी मुख्यमंत्री की इतनी बेहयाई पहली बार देखने को मिली है।

इस दंगे में कुछ मुस्लिम नेताओं की बेहयाई भी देखने को मिली। सरकार में शामिल मुस्लिम समुदाय के एक केन्द्रीय मंत्री दंगों में मारे गए मुसलमानों के लिए सरकार से एक लाख रुपए की बजाए दो लाख रुपए के मुआवज़े की सिफारिश तो करते रहे मगर एक बार भी उन्होंने इस हत्याकांड के लिए मोदी और उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया। एक मुसलमान होने के नाते उनकी अपनी इतनी नैतिक जिम्मेदारी तो बनती ही थी कि ऐसा मुस्लिम विरोधी पार्टी की सरकार में न रहें। पर उनकी इतनी हिम्मत भी नहीं पड़ी कि गुजरात जाकर कम से कम राहत शिविरों का जायजा ही ले लेते।

अल्पसंख्यक समर्थक पार्टियों और वामदलों ने गुजरात के दंगों में मुस्लिम संप्रदाय के कत्ले आम के खिलाफ मोर्चे निकाले और प्रदर्शन किए। मगर साबरमती एक्सप्रेस में हिन्दू कारसेवकों की मौत के खिलाफ कोई संवेदना प्रकट नहीं की। गोधरा कांड के फौरन बाद कोई मोर्चा जनशक्तियों ने मिलकर नहीं निकाला और न ही गोधरा हत्याकांड के दोषियों को सजा देने के नारे लगाए। क्यों? क्या जनपक्षधर शक्तियां केवल मुसलमानों के उफपर हुई हिंसा की ही विरोधी हैं। मानवों के पर हुई हिंसा के विरोध में नहीं चाहे वे मानव कारसेवक ही क्यों न हो? कारसेवकों पर की गई हिंसा क्या हिंसा नहीं थी। जनपक्षधर शक्तियां समूची मानवता की रखवाली है केवल अल्पसंख्यकों की नहीं।

गोधरा में फैली सांप्रदायिक हिंसा ने पिछले तमाम सांप्रदायिक दंगों के रिकार्ड तोड़ डाले है हर लिहाज से बहशीपन में, अमानवीयता में, क्रूरता में। इसने दिखा दिया कि धर्मांध भीड़ कितनी और किस हद तक अमानवीय हो सकती है। गोधरा कांड में एक बात और सामने आई। अब तक माना जाता था कि देश के भटके हुए बेरोजगार, भुक्खड़, हिंसापसंद और गलीच मानसिकता के लोग ही इस तरह के दंगों में शिरकत करते आए है। मगर इस दंगाई नृशंसता में मध्यम वर्ग के पढ़े-लिखे, व्यवसायी और नौकरी पेशा लोगों ने भी खुलकर भाग लिया। पूरा का पूरा मध्यमवर्ग कभी भी सांप्रदायिक हिंसा का पैरोकर नहीं रहा है बल्कि इसी वर्ग के सांप्रदायिक सद~भावना के सिपाही सामने आते रहे हैं। मगर गुजरात के मध्यमवर्ग ने सारी मानवीयता और सांप्रदायिक सद~भावना की धज्जियां उड़ा दी है। जिस राज्य का मध्यमवर्ग ही दंगों का पैरोकर बन बैठा हो उस राज्य की सांप्रदायिक सद~भावना का और क्या हश्र होगा। गुजरात का मध्यमवर्ग सांप्रदायिक सद~भावना और धर्मनिरपेक्षता के माथे पर एक बदनुमा दाग ही साबित हुआ है। आज गोधरा कांड को कई महीने हो चुके हैं। मगर दंगों की आग है कि बुझती ही नहीं है। अब न प्रोटेस्ट मार्च निकल रहे हैं न सांप्रदायिक सद~भावना की रैलियां। हमारे देश की जनता भी लगता है जैसे कि इन दंगों को हजम करने की आदत डाल चुकी है। जहां हिंसा हजम हो जाती हो वहां हिंसा का विरोध भी कम होने लगता है। दूसरी तरफ देश के नेताओं का ध्यान गोधरा से हटकर पाकिस्तान को धमकियां देने पर जा रहा है। उसे मजा चखाने के नारे हवा में गूंज रहे हैं। ऐसा लगता है कि गोधरा की पुनरावृत्ति एक व्यापक रूप में होने वाली है।

मगर गोधरा जल रहा है। गुजरात जल रहा है। सांप्रदायिक हिंसा की आग पूरे देश को जला रही है। सारी धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सदभावना इन दंगों में झुलस रही है।

मेरी बेटी रिकार्डर से निकलती धुन पर थिरक रही है और बाल कविता के बोलों को दुहरा रही है। मेरी अपनी बेटी से अपील है कि वो कहे कि बच्चों की ये रेल भले ही सारी दुनिया को जाएं मगर गुजरात कभी न जाए। गुजरात अब एक ऐसी कत्लगाह बन चुका है जहां बच्चों को हंसी-खुशी, उनकी किलकारियां, सपनों और भविष्य को कत्ल कर दिया जाता है। अभिमूकनायक, अक्टूबर 2002 में प्रकाशित