रेल का डिब्बा / वनमाली

Gadya Kosh से
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रेल के डिब्बे में आपने सफर तो कई बार किया होगा, मगर क्या कभी सोचा कि यह दुनिया भी, जिसमें आप घर द्वार बाँधकर रहते हैं, एक बड़ा रेल का डिब्बा है। क्योंकि यह भी उसी की भाँति लोगों और उनकी चीज वस्तु से खचाखच भरा है। जहाँ उन्हें परवाह नहीं कि कौन खड़ा है और कौन बैठा है जहाँ सबको केवल यही चिंता है कि कैसे अपने लिए अधिक से अधिक जगह पर काबू पाया जाय और कैसे आराम से सफर तय किया जाय।

खैर, तुलना का खुलासा यहीं बंद कर कहानी सुनाऊँ।

एक बार मैं रेल में सफर कर रहा था, रात थी और गाड़ी सपाटे से भागी जा रही थी। मैं जिस डिब्बे में बैठा सफर कर रहा था, वह लाजमी तौर पर पैसिंजरों और कई बक्सों, बिस्तरों और पुलिंदों से भरा हुआ था। जगह की कोताही के कारण यात्रियों की एक बड़ी संख्या खड़ी हुई थी। कई यात्री बेंचों के बीच सामान पर ही जगह बनाकर सिमटे-सिकुड़े बैठे थे। लेकिन उसी डिब्बे में कई ऐसे भाग्यवान भी थे, जो अपने-अपने बिस्तर खोलकर ऊपर-नीचे की सीटों पर पसरे हुए थे। और दीन-दुनिया की खबर भूलकर खर्राटे भर रहे थे।

मैं बड़ी देर तक अपनी सीट पर बिस्तर के सहारे टिका डिब्बे में फैली अस्तव्यस्तता पर गौर करता रहा कि मुझे उन सोने वालों पर भीतर-ही-भीतर गुस्सा उमड़ने लगा।

मैंने अपने से पूछा - 'क्या इन खड़े हुए और सामान पर सिमट-सिकुड़ कर बैठे हुए यात्रियों के लिए यह जरूरी नहीं कि ये मुसीबत झेलना छोड़कर उन भाग्यवान खर्राटे भरते हुओं को झटका देकर उठाएँ और कहें कि हमने भी टिकट खरीदा है और हमें भी आराम की जरूरत है। तुम उठकर बैठो और जरा हमें भी कमर सीधी करने दो।'

मुझे जवाब मिला - 'जरूरी हो सकता है, पर उचित नहीं।'

'मगर उचित क्यों नहीं?'

'क्योंकि कानून है, जो चाहता है कि जिसे जितना आराम जिस किसी तरह से मिल चुका है, उससे वह बे-दखल न किया जावे; क्योंकि धर्म है, जो सांत्वना देता है कि आराम और तकलीफ कुछ नहीं, केवल अपने कर्मों का भोग है, जो अगर चुपचाप झेल लिया जावे, उसी में वाहवाही है।'

मेरी विचारधारा शायद अभी और आगे चलती कि गाड़ी किसी स्टेशन पर आकर खड़ी हुई और कई नए मुसाफिर पुराने यात्रियों के विरोध करने पर भी डिब्बे में चढ़ आए तथा बकते-झकते अपने बैठने के लिए जगह तलाश करने लगे।

उसी चहल-पहल के बीच एक नवागंतुक ने मेरे सामने की बेंच पर बैठे एक मुसाफिर से प्रश्न किया - 'क्यों जी, तुम्हारे पास टिकट है?'

वह मुसाफिर, जिससे प्रश्न किया गया था सकपकाते हुए बोला - 'नहीं है बाबू।'

अब नवागंतुक सज्जन शेर हो गए। ताव से बोले - 'तब क्या तूने अपने बाप की रेल समझ रक्खी है, जो सफर को निकल पड़ा? उतर बेंच पर से। हम बैठेंगे। हमारे पास टिकट है।'

वह मुसाफिर जिसके साथ उसकी जोरू और तीन बच्चे थे, सब सामान समेट चुपचाप उतरकर बेंच के नीचे जैसे-तैसे जगह करके बैठ गया।

मेरा ध्यान उस नवागंतुक के अन्याय से या कहो न्याय से उस कुटुंब की ओर खिंच गया। आदमी एक सफेद बंडी पहने था। उसकी धोती घुटनों तक पहुँचती थी और उसके सिर पर एक पुरानी मैली पगड़ी थी। उसकी जोरू, जो स्त्री से मादा ही अधिक दिखती थी, जो सिर्फ नर का साथ चाहती है और बच्चे जनती है, एक चौड़े लाल पाढ़ की मोटी धोती पहने थी, जिसमें उसके तीनों नंग-धड़ंग बच्चे, ठंड से बचने के लिए बारी-बारी से छिपने की कोशिश कर रहे थे। सामान की जगह उनके पास बाँस की टोकरी थी और एक फटा बोरा, जिसमें उनके मैले-कुचैले चीथड़े-से कपड़े ठूँस-ठाँसकर भरे थे, उनसे दुर्गंध चली आ रही थी। मैंने मन-ही-मन इन नवागंतुक की सूझ की दाद थी। ठीक इसी तरह के लोगों को तो बेटिकट समझा जा सकता है और अपने आराम के लिए उन्हें जब चाहे तब धकिया दिया जा सकता है।

और मैं सोचने लगा उस बड़ी दुनिया की बात, जहाँ उस रेल के डिब्बे की भाँति ही दो वर्ग हैं एक टिकट वाले और दूसरे बेटिकट वाले। जहाँ टिकट वालों की सुविधा और आराम ही सब कुछ है और बेटिकट वाले तो सिर्फ स्वाँग तमाशा को जुटाने के साधन है जहाँ उन बिचारों के पास अपनी जरूरतों को मुहैया करने के लिए पैसे नहीं, जिन्हें जन्म भर सिर्फ गंदे मकान, तंग रास्ते और अँधेरी गलियाँ ही नसीब हैं, जो सिर्फ कर्जे काढ़कर बेटिकट गाड़ी में चढ़कर जिंदगी के स्वाँग को चालू किए रहते हैं। मगर जहाँ वह स्वाँग भी ऐसा कच्चा है कि न जाने वह कब टूट जाए और वे दुनिया से न जाने कब बाहर ढकेल दिए जाएँ।

सोचते-सोचते मुझे उन नवागंतुक पर बड़ी चिढ़ छूटी - क्या वे अपने वर्ग के आदमी को इसी तरह बेंच पर से उठा देते? माना, कुटुंब बेटिकट था, उसका रेल पर कोई दावा नहीं था, पर क्या उनका लोगों की आदमियत पर भी कोई दावा नहीं होना चाहिए? क्या अपनी लाचारी के कारण वे नहीं चाह सकते कि उनसे सहानुभूति प्रकट की जाए, उनसे संवेदना दिखायी जाए?

मैंने भावना में डूबे हुए बिस्तर बेंच के नीचे डाल लिया और अपने बेटिकट साथी से कहा - 'लो, तुम यहाँ आकर बैठो।'

साथी बोला - 'नहीं बाबूजी, हम यहाँ अच्छे हैं। आप हमारी खातिर तकलीफ न उठाओ।'

मैंने जवाब दिया - 'नहीं, मुझे कोई तकलीफ नहीं। तुम यहाँ आकर बैठो तो।'

मैंने जोश में उसे नीचे खींचकर पास बैठा लिया। उसकी जोरू और बच्चे भी अनुगृहीत से हुए बेंच पर फिर आ बैठे।

वे नवागंतुक सज्जन घूरते रहे, घूरते रहे।

मैंने जी बहलाने के खातिर अपने बेटिकट साथी से पूछा - 'क्यों, कहाँ जाओगे?'

वह बोला - 'टाटानगर जाएँगे।'

मुझे आश्चर्य हुआ - 'टाटानगर तो बहुत दूर है। वहाँ क्यों जा रहे हो?'

'मजूरी खोजने बाबूजी। सुनते हैं, वहाँ मजूरी अच्छी मिलती है।'

'और अब तक क्या करते थे?'

'बाबूजी, अब तक खेती पर गुजर-बसर होती थी। पर दो साल से पानी नहीं बरसा, तो खेती क्या हो? सो जमीन रहन करनी पड़ी और अब वह भी हाथ से चली गई। अब तो करम में मजूरी करना बदा है, सो मजूरी करेंगे और पेट भरेंगे।'

'इतनी दूर बेटिकट गाड़ी में सवार होकर जाने से क्या यह अच्छा नहीं था कि तुम इधर-उधर माँग-जाँच कर कुछ दिन अपना गुजारा चला लेते और बरखा के बाद अपने गाँव में कुछ काम ढूँढ़ लेते?'

'बाबूजी, भगवान ने कंगाल कर दिया, तो क्या? अभी हमारे हाथ पैर तो साबुत हैं। इनके रहते हम भीख क्यों माँगते? फिर जिस गाँव में अभी तक धरती जोतते-बोते रहे, मजूरी करके हम मान गँवा बैठते। इस लाचारी के कारण परदेश मेहनत-मजूरी करने जाते हैं।'

उस बेटिकट साथी की आत्म-सम्मान की भावना ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन मैंने सोचा कि क्या मजदूर होकर भी इस आदमी में यही साहस और आदमियत बची रहेगी। शायद मजदूर होकर यही आदमी शराब और ताड़ी पीने लगेगा। फिर अपनी जोरू से पैसों के लिए लड़ेगा और एक दिन उसे मारकर घर से निकाल देगा। उसकी जोरू और लड़के तब भीख माँगते गली-गली में डोलेंगे। लड़के शायद जेब काटने लगेंगे। उनके लिए तब समाज पुलिस खड़ी करेगा, कानून बनायेगा। और इस तरह संपत्तिवालों की इन चोट्टों और भिखारियों से रक्षा करेगा। यह हुई हमारी सभ्यता। मैं भीतर-ही-भीतर सुलगता रहा और गाड़ी सपाटे से भागती रही।

उस रात सरदी खूब कड़ाके की थी। माघ का महीना था। डिब्बे की सारी खिड़कियाँ बंद कर ली गई थीं। तब भी न जाने ठंड कहाँ से घुसी आ रही थी। मैंने बिस्तर में से कंबल निकालकर अपने ऊपर डाल लिया था।

पर बार-बार यह प्रश्न मेरे मन से टकरा जाता - 'और ये?'

आखिर मुझे अपनी संवेदना व्यक्त करनी पड़ी - 'क्यों, तुम्हें ठंड तो खूब लग रही होगी?'

साथी बोला - 'ठंड क्यों न लगेगी बाबूजी?'

मैंने अपने से कहा - इस आदमी के जवाब का दूसरा पहलू भी हो सकता है। वह चाहता तो कह सकता था कि आपको क्या मालूम होता है, हमें गरमी मालूम हो रही है? पर आपको हमारी फिक्र ही क्यों? आप तो मजे में हैं?

सोचकर मुझे अपनी थोथी संवेदना पर गुस्सा हो आया।

लेकिन भीतर से एक ध्वनि आई - 'इसमें तुम्हारा क्या? अपना-अपना भाग्य ठहरा।'

तब सवाल हुआ कि वह भाग्य, जो मैं कंबल ओढ़े हूँ, उसे देकर क्या नहीं बदल सकता? मैं तो उसे फिर भी खरीद सकता हूँ और अपने सड़े भाग्य को मना सकता हूँ किंतु उस गरीब कुटुंब के लिए कर्मों का भोग शायद ऐसा जबर्दस्त है कि उसे वह कंबल इस जन्म में तो क्या दूसरे जन्म में भी नसीब न हो। भाग्य की बात उठाकर क्या मैं, नाहक अपनी गैर-जिम्मेदारी को पनपने का मौका नहीं देता? मगर आदमी होकर मैं क्यों अपने को उस कमजोरी का शिकार होने दूँ? अपने वश तक दूसरों के रंज और गम में भागी क्यों न बन सकूँ?

मगर मैंने कहा कि यह तो सफर है और जहाँ मैं बैठा हूँ वह रेल का डिब्बा है। यहाँ इस तरह फैलने का क्या मतलब? सब मुसाफिर हैं और सब को एक-दूसरे से विलग होना है। तब अपनी चिंता आप सम्हाल व्यवस्था को कायम रखें। यदि चिंता खुद न कर सकें, तो दलबंदी करें। वर्ग बनाकर एक दूसरे से लड़ें और एक दूसरे के मुँह का कौर छीने। जीवन संघर्ष है और आराम और खाने-पीने की चीजों की सख्त जरूरत है, जो किसी प्रकार की दया-मया नहीं देखती, इसलिए पहले अपनी जिंदगी साज-सँवार ली जाय। फिर देखा जाय, ईश्वर क्या है, धर्म क्या है, सभ्यता क्या है।

मेरे भीतर इस भाँति तर्क-वितर्क चलता रहा। लेकिन न जाने क्यों मेरे कान का झुकाव उस एक धोती में लिपटी माता के प्रति और ठंड में सिकुड़ते उसके बच्चों के प्रति ही बना रहा। मैंने उन्हें अपने टिफन बाक्स में से निकाल कर खाने को बिस्कुट दिए, उस आदमी से दो-चार मीठी-मीठी बातें भी कीं, मगर वह कंबल....

चलिए, उसके पहले एक घटना सुना दूँ। जब गाड़ी एक बार फिर किसी स्टेशन पर रूककर आगे बढ़ने लगी, तब हमारे डिब्बे में एक टिकट चेकर घुस आया। मेरी अब तक उस गरीब कुटुंब से जो आत्मीयता हो गई थी, उससे मैं फिक्र में पड़ गया कि उस आदमी का, जो अपने साथ पूरी गृहस्थी बाँधकर टाटानगर काम खोजने जा रहा था, क्या होगा, क्या होगा? टिकट चैकर की दुनिया में तो कोई आत्मीयता नहीं। उसकी व्यवस्था तो इसी पर कायम है कि वह बेटिकट वालों को खोज-खोज कर निकाले और उनसे अपनी कंपनी के लिए भी जितने दाम ऐंठ सके, ऐंठे। उसके लिए तो आदमी टिकट वाला प्राणी है और जिस आदमी के पास टिकट नहीं, उसे आदमी समझने की उसके पास वजह ही क्या? इतने में टिकट चेकर मेरे पास पहुँच गया और मेरा टिकट देखकर वह मेरे साथी से टिकट माँगने लगा।

मेरे साथी ने वही जवाब दिया - 'टिकट नहीं है, बाबूजी।'

टिकट-चेकर ने तब कहा - 'टिकट नहीं है, तो निकालो पैसे।'

मेरा साथी बोला - 'पैसे होते, तो बाबूजी हम क्या टिकट नहीं खरीदते।'

मगर टिकट-चेकर की व्यवस्था व्यक्ति की यह सच्चाई कब चाहती है? वह तो दो ही बातें जानती है - टिकट और टिकट न होने पर उसके प्रतिरूप पैसे। और जहाँ ये दोनों नहीं, वहाँ गाली-गुफ्तार, लात-घूँसे, पुलिस और हवालात।

इसीलिए टिकट चेकर ने गुस्से से बात करते हुए कहा - 'तब क्या तूने अपने बाप की रेल समझ रखी है? हरामजादे बेटिकट गाड़ी में सवार होते हैं और कहते हैं कि हमारे पास पैसे नहीं। चलो साले, उतरो बेंच पर से और उधर कोने में खड़े होओ।'

वह आदमी अपनी जोरू और बच्चों के साथ फिर बेंच से उतर कर नीचे खड़ा होने लगा कि मुझे तैश आ गया।

मैंने अपनी साथी से कहा - 'डरो मत। तुम जहाँ हो, वहीं बैठे रहो।'

और फिर मैंने टिकट चेकर को अंग्रेजी में लताड़ा - 'कानून है, तो क्या किसी की इज्जत उतारने के लिए है? टिकट नहीं, तो आप इन्हें अगले स्टेशन पर उतार सकते हैं और चाहें तो पुलिस के हवाले कर सकते हैं। पर आप मेरे रहते इन्हें बेइज्जत नहीं कर सकते।'

टिकट चेकर शायद डर गया। उसे कब आशा थी कि रेल के डिब्बे के भीतर कोई टिकट वाला यात्री अपने बेटिकट सह-यात्री का भी पक्ष ले सकता है।

वह सहमते हुए बोला - 'अच्छा, अच्छा, मैं अगले स्टेशन पर देखता हूँ।'

और वह चुपचाप दूसरे सह-यात्रियों के टिकट चेक करने लगा।

डिब्बे के अन्य यात्री, जो अधिकतर या तो खड़े थे या अपने-अपने सामान पर सिकुड़-सिमट कर बैठे थे, ज्यों-के-त्यों गुम सुम बने रहे और मुसीबत झेलते रहे। उनके लिए जैसे वही कर्म का खेल था। पर मैंने अपने से पूछा - क्यों वे नहीं सोचते कि उनके लिए टिकट-चेकर की व्यवस्था में क्या जगह है? उसकी व्यवस्था तो केवल बेटिकटों को खोजती है और उन्हें काटकर आगे बढ़ जाती है। तब वे क्यों उस व्यवस्था को सह रहे हैं? क्यों वे नहीं टिकट-चेकर से दरयाफ्त करते कि जनाब, हमारे लिए आपकी व्यवस्था क्या है? आपका काम नहीं कि उन सोते हुए खर्राटे भरते लोगों से कहें कि उठो, दूसरों ने भी टिकट लिए हैं और वे बैठेंगे?

मैं सुन्न बैठा ताकता रहा और सोचता रहा कि गाड़ी किसी स्टेशन पर पहुँच कर रुकी। वह टिकट चेकर फिर यमदूत सा सिर पर आ खड़ा हुआ और मेरे बेटिकट साथी से बोला - 'लो उतरो। अब देखता हूँ कौन तुम्हारा चार्ज देता है।'

यह मेरे लिए चुनौती थी। पर मुझे खून का घूँट पीकर रह जाना पड़ा; क्योंकि मेरी जेब में इतने पैसे नहीं थे कि मैं उनका चार्ज पटा लेता। फिर मेरी यात्रा का छोर दूर था, जिससे अपनी जेब के पैसों की मुझे सख्त जरूरत थी।

आदमी डिब्बे से उतरते-उतरते बोला - 'जाते हैं बाबूजी। तुम्हारी दया के लिए भगवान तुम्हें बदला देगा। जयरामजी की।'

मुझे बड़े व्यथा हुई कि मैं मौखिक उनके प्रति सदय होकर भी उनकी सक्रिय रूप से कोई मदद न कर सका। तभी मुझे अपनी देह से लिपटा कंबल याद आया।

मैंने झट से अपने शरीर से कंबल उतारकर अपने साथी की ओर बढ़ाते हुए कहा-ठंड के दिन हैं। लो मेरी तरफ से यह कंबल ले जाओ। काम आएगा।

मेरा साथी कृतज्ञता से भर आया। बोला - 'बाबूजी, आपकी दया हम जन्म भर नहीं भूलेंगे; मगर हम कंबल नहीं लेंगे। यह कंबल कहाँ-कहाँ काम देगा?'

जब वह आदमी चल गया, तब मैं भौंचक उसकी बात पर गौर करने लगा। सचमुच कंबल उसके मर्ज की दवा नहीं हो सकता है। पर आर्थिक दृष्टि से उस अपाहिज आदमी को ऐसा ज्ञान होगा, यह मेरी कल्पना में भी नहीं था। अब ऐसे आदमी को क्या मिलेगा? टिकट चेकर के लात-घूँसे पुलिस वालों की गालियाँ, सड़कों पर भीख माँगना? क्या ऐसी परिस्थिति में उस आदमी के भीतर छिपा ज्ञान लुप्त नहीं हो सकता? उस ज्ञान के लुप्त होने पर उस आदमी के अंदर जो बवाल पैदा होगा, उसके लिए कौन जिम्मेवार होगा? क्या यही समाज नहीं, जिसे व्यक्ति ने अपने विकास के लिए खड़ा किया है? पर वह समाज क्या, जो मुझ जैसे एक आदमी को बँधी रोजी देता है, घर द्वार देता है और उस जैसे आदमी को एकदम कुचल देता है? ऐसा समाज और कितने दिन टिक सकेगा?

तभी वे नवागंतुक सज्जन, जो अभी तक दर्शक का रोल अदा कर रहे थे, मुखातिब होकर बोले - 'मैं अपने अन्याय पर शर्मिंदा हूँ। आप मेरी बधाई ग्रहण कीजिए।'

मैंने कहा- 'धन्यवाद! आपका शुभ नाम?'

बताया गया - 'सुधींद्र।'

मैंने पूछा - 'प्रगतिवाद पर इस महीने अमुक पत्र में जो लेख निकला है, वह क्या आपका ही है?'

उन्होने बताया - 'जी! आपको लेख पसंद आया?'

मैंने कहा - 'आपने यही तो बताया है कि हमारी समस्याओं का असली प्रगतिशील समाधान वर्ग-संघर्ष और क्रांति है।'

वे बोले - 'बिल्कुल ठीक।'

मैं बोला - 'बिल्कुल ठीक।'

उन्होंने पूछा - 'आपका मतलब?'

मैंने जवाब दिया - 'बिल्कुल ठीक ही तो।'

और मैं खिड़की के बाहर मुँह निकालकर प्लेटफार्म के भीड़-भभ्भड़ को देखता सोचता रहा - इस दुनिया में लेखों द्वारा वर्ग-संघर्ष और क्रांति की जाती रहेगी; परंतु इन गरीबों को बस कोरी मौखिक सहानुभूति ही पल्ले पड़ेगी। ये अमीर और पढ़े लिखे कहे जाने वाले लोग इन्हें चूस-चूस कर मोटे होते रहेंगे; मगर अपनी मोटी आमदनियों और मोटी तनखाहों के नीचे नापते रहेंगे कि हम उन्नति कर रहे हैं, कि हम प्रगति पर जा रहे हैं।