रेल भिखारियों के प्रचार गीत / जयप्रकाश चौकसे

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रेल भिखारियों के प्रचार गीत
प्रकाशन तिथि :10 अगस्त 2015


एक प्रसिद्ध अखबार के संपादकीय से ज्ञात हुआ कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय की योजना है देश से तीन हजार भिखारी चुने जाएं, जिनका काम होगा कि विभिन्न रेलगाड़ियों में यात्रियों के सामने मोदी सरकार की सफलताओं के गीत गाना। संभवत: सरकार का खयाल है कि तथाकथित सफलताओं से आम जनता अनिभिज्ञ है। रेलगाड़ियां पूरे भारत में चलती है, अत: सरकारी सफलता के गीत भिखारी गाएं तो प्रचार का नया अध्याय खुलेगा। ज्ञातव्य है कि भिखारी रेल में फिल्मी गीत गाकर भीख मांगते रहे हैं और अब उन फिल्मी गीतों के बदले प्रचार गीत गाएंगे। इस प्रस्तावित योजना से एक लाभ जरूर होगा कि पहली बार सरकारी धन सीधे अवाम को मिलेगा और देश में अपार संख्या के भिखारियों में तीन हजार की कमी होगी। एक तरह से यह कदम प्रतीकात्मक भी होगा कि सरकार कटोरे लिए विदेश से पूंजी पाने के लिए भटक रही है और देश की सम्पदा से देश के विकास का मेक इन इंडिया बदल गया है। सारा खेल प्रचार की ताकत और विकास के दावों के बीच का है।

रेल में भिखारियों के गीत गाकर भिक्षा मांगने का एक अनूगा गीत राज कपूर की 'बूट पॉलिश' में था- 'धेला ही दिला दे बाबा धेला ही दिला दे वरना तेरी नानी जो मर जाएगी तू हरिद्वार जाकर पंडे को खिलाएगा, हमें धेला ही दिला दे बाबा, धेला नहीं देगा तो तेरे घर चोरी हो जाएगी, चोरी जो होगी तू थाने पर रपट कराएगा, धेला ही दिला दे बाबा' उस जमाने में 'धेला' सबसे छोटे सिक्के को कहते थे। इस गीत में भिखारी धमकी दे रहा है, जो हमारी कुछ पुरातन कहानियों का स्वर भी रहा है कि यह नहीं करोंगे तो तुम्हारा जहाज डूब जाएगा, इत्यादि। कई बार धमकी याचना का ही तरीका होता है। 'भय बिना प्रीत न होए' के आधार से ही बना है और यह अजीबोगरीब है कि भय मिटाने के बदले भय बढ़ाने से अधिक काम होते हैं। मसलन राजकुमार संतोषी की 'घातक' का खलनायक कहता है कि उसे भय जमाने में दो दशक लगे और हीरो ने उस भय के हव्वे को दो घंटे में तोड़ दिया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी शिक्षा में भी डंडे का महिमा गान हुआ है और लालन पालन में भी इस तरह की बातें स्थापित कर दी है कि 'स्पेअर द रॉड एंड स्पॉइल द चाइल्ड'। डंडा नहीं चलाने पर बच्चा बिगड़ जाता है। भय आधारित समाज की रचना में सदियां लगी हैं। भय जीवन ऊर्जा सोख लेता है और झुके हुए से, डरे हुए लोग ही व्यवस्था की रीढ़ की हड्‌डी रही है। रेल में फिल्मी गानों की तर्ज पर भजन भी भिखारियों ने गाए हैं और अब मात्र भजन का स्वरूप बदला जा रहा है और उसे सरकारी जामा पहनाया जा रहा है। सरकार अनेक संस्थाओं के प्रमुख का चयन भी उसके पहने जामे के आधार पर कर रही है। पूरे देश को एक ही रंग में रंगकर उसे कबीर की विविध धागे वाली चदरिया से अलग रचा जा रहा है। इस फेरबदल या कहें कि उलटफेर के लिए भय का हव्वा खड़ा किया गया है और अवाम मौन के मूड में चला गया है ताकि मन की बात पर यकीन कर सके। अवाम की खामोशी कई बार सदियों बाद मुखर होती है।

यह भी गौरतलब है कि 'बूट पॉलिश' के भिखारी के याचना गीत में धमकी और मंत्रालय की प्रस्तावित भिखारियों के स्तुति गान में क्या अंतर है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस प्रशंसा गीत में भी धमकी के स्वर दबे हैं। शायद यही कारण है कि राजनीति के आदर्श और सिद्धांत को भी स्कूल कहा जाता है। यह मीडिया का स्वर्ण-काल है परंतु मीडिया के स्कूल कम हैं और उनमें पढ़ाए जाने वाला पाठ्यक्रम भी फटेहाल है। आश्चर्य है कि मीडिया आधारित इस युग में पत्रकारों के लिए पाठशालाओं की कमी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय तथा शिक्षा मंत्रालय मिलकर अपने लिए सुविधाजनक पाठ्यक्रम और पाठशालाएं रचें।

आॅस्ट्रेलिया में मेडिकल व्यवसाय से जुड़ीं कृति गर्ग ने बचे हुए समय में मीडिया का कोर्स किया और उनके लेख आॅस्ट्रेलिया पत्रकारिता में प्रसिद्धि पा रहे हैं। कृति गर्ग और मेघन टूमी ने अनेक भुक्तभोगियों के साक्षात्कार लिए और इस आशय का लेख लिखा कि 21वीं सदी में भी रंगभेद अपना काम बड़े महीन तरीके से कर रहा है। वहां के रेस्तरां में रंगभेद के आधार पर काम हो रहा है। देर से आए गोरे के लिए पहले खाना परोसा जा रहा है जबकि पहले आए एशियावासी को देर से सर्विस दी जा रही है और वह भी इतने अनि्छुक ढंग से कि अपमान से ही पेट भर रहा है। वहां भी छोटे बच्चे ऐसे गीत गाते फिर रहे हैं, जिनका आधार रंगभेद है और ऑस्ट्रेलिया में किसी बच्चे पर हाथ उठाना घोर अपराध है। बकायदा उकसाया जाता है कि आप हिंसक हो जाएं। हमारे यहां गोएबल्स स्कूल ऑफ मीडिया को मान्यता प्राप्त है यह स्कूल भी अदृश्य है परंतु इसका उदय होगा।