रेवती / विक्रम शेखावत
रेवती चाची बीस साल की उम्र मे विधवा हो गई थी। पति की मौत के वक़्त वो पेट से थी। अपने से दस साल बड़े शराबी जगन से शादी होने के बाद उसका दो साल का वैवाहिक जीवन कष्टपूर्ण ही रहा। रोज रोज जगन का शराब पीकर घर आना और रेवती से मार पीट करना। घर के इसी घुटन भरे माहौल से परेशान होकर शादी के सालभर बाद जगन की माँ भी चल बसी थी। उसके पिता तो उसकी बाल्यवस्था में ही भगवान को प्यारे हो गए थे।
माँ के लाड़-प्यार ने इकलौते जगन को जरूरत से ज्यादा आज़ादी दी थी जिसकी बदौलत बचपन से जिद्दी जगन जवानी मे कदम रखने से पहले ही शराबी बन चुका था। परिवार और मोहल्ले वालों के समझाने पर जगन की माँ ने उसके फेरे करवा दिये, सोचा पैरों मे बेड़िया पड़ेंगी तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी। अपनी घर गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ निभाने लगेगा तो शराब की आदत स्वत: छूट जाएगी।
शादी के बाद भी जगन की हरकतों मे बदलाव की गुंजाइस नजर नहीं आई और इसी कशमकश से परेशान होकर एक दिन उसकी माँ भी चुपके से भगवान के पास चली गई। रेवती का एक मात्र सहारा भी चला गया। दोनों सास बहू अपने बुरे वक़्तों को साझा कर लिया करती थी मगर अब तो सारे दुख रेवती को अकेले ही वहन करने होंगे।
घर में पैसे की तंगी आई तो रेवती ने सिलाई मशीन से अपना और अपने शराबी पति का भरण-पोषण करना शुरू किया। आधे से ज्यादा पैसे तो जगन की शराब मे ही चले जाते। कभी कभार बिना खाये ही गुजारा करना पड़ता। लेकिन उसे मार जरूर खानी पड़ती। कभी खाना न होने पर तो कभी खाना खाने के लिए कहने पर। अपने नसीब को कोसती वो इस इंतजार मे संघर्ष करती रही की सायद अच्छे दिन कभी तो आएंगे।
एक रात जगन घर नहीं आया ,किसी ने सुबह उसे बताया की जगन गाँव के बाहर चौराहे में पड़ा है और गाँव वाले उसको घेर कर खड़े हैं। वो तुरंत बताने वाले के साथ उस तरफ चल पड़ी। सामने से कुछ लोग जगन को कंधे पे उठाए ला रहे थे। गाँव की औरतों ने रेवती चाची को रोक लिया और उसको उसके घर में ले आई। जगन को घर के बाहर चबूतरे पर लिटा दिया। गाँव की औरते रेवती को पकड़ जगन के पास ले आई और उसके दोनों कलाइयों से चुड़ियाँ तोड़कर जगन पे डाल दी। अचानक हुये इस हादसे ने रेवती को हिलाकर रख दिया था।
जगन के बरहवीं के कुछ दिन बाद रेवती के भाई उसको अपने साथ ले गए। मगर माँ के घर में स्वेन्दनाओं के पाँच साल गुजरने के बाद रेवती का बुरा वक़्त फिर उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसकी माँ के देहांत के कुछ माह बाद ही घर का माहौल बदले लगा। वही भाभियाँ जो रेवती दीदी कहते नहीं थकती थी अब उस से किनारा करने लगी थी। अक्सर बात बात पे ताने मिलने लगे।
थक हार कर अपने चार साल के बेटे विनोद को ले ससुराल मे आ गई। वो ससुराल जहां उसके सिवा उसका कोई नहीं था। अपने बंद पड़े मकान को साफ सुथरा करके वो जीवन से संघर्ष करने निश्चय कर चुकी थी। अपनी बंद पड़ी सिलाई मशीन को हथियार बना वो कर्मयुद्ध को तैयार थी। अपनी माँ से दहेज स्वरूप मिली ये मशीन उसके जीवन यापन का एक मात्र सहारा थी।
बचपन से हमने रेवती चाची को संघर्ष करते ही देखा था। आज अपने बच्चे को पालने और लिखाने पढ़ाने की ज़िम्मेदारी निभा रही थी मगर चेहरे पे सिकन तक नहीं थी। जब भी हमारे घर आती थी उसका चार पाँच साल का बेटा विनोद उसके पल्लू से चिपका रहता था। वही उसके बुढ़ापे का एकमात्र सहारा था। विनोद कल को जवान होकर अपनी माँ की जिम्मेदारियाँ अपने कंधो पे उठा लेगा तो जीवन भर संघर्ष करती रेवती को आराम मिलेगा।
वक़्त अपनी गति से गुजरता रहा। विनोद जवानी की देहलीज पे कदम रख चुका था। माँ की मेहनत रंग लाई और उसे एक कंपनी मे अच्छी पगार पे नौकरी भी मिल गई। रेवती चाची के दुखों का अंत हो गया था। वो अपनी खुशी को दोगुना करना चाहती थी। उसने विनोद की शादी करदी और घर में दुल्हन के आने से चहल पहल बढ़ गई थी। वो घर जो सुना सुना सा रहता था आज भरा भरा सा लग रहा था। रेवती चाची की मेहनत आखिर रंग लाई और उसने दुखों से संघर्ष कर खुशियों को हासिल किया।
विनोद की शादी के लगभग पाँच साल बाद दो दिन के लिए किसी कारणवश गाँव आया तो सोचा जाने से पहले रेवती चाची ने मिलता चलूँ। मैंने दरवाजे पे दस्तक दी तो रेवती चाची ने दरवाजा खोला, मुझे पहचानते हुये मेरे सिर पे हाथ फेरा और अंदर आने को कहा। घर के आँगन के बीचों बीच एक सिलाई मशीन रखी थी जिसके आस पास कपड़ों का ढेर पड़ा था।
“इस बार बहुत दिन बाद आए बेटे”, चाची ने पानी का गिलाश देते हुये कहाँ।
“हाँ चाची, बस ऐसे ही नहीं आ पाया“
“विनोद कहाँ है?”, मैंने इधर उधर देखते हुये कहा।
“वो और बहू तो पिछले तीन साल से शहर में ही रहते हैं”, रेवती चाची ने मशीन चलाते हुये कहा।
कुछ देर की खामोशी के बाद में चाची को संघर्षरत छोड़कर चला आया।