रेस / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
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‘‘हैलो! फोर सिक्स फाइव?’’

‘‘स्पीकिंग।’’

रिसीवर से आती आवाज चहकी, ‘‘चीज पराँठे के साथ रशियन सैलेड चलेगा।’’

‘‘ओ. के.!’’

‘‘ओ. के. मतलब?’’

‘‘इट्स ऑल राइट।’’

चहक सर्द पड़ती लगी, ‘‘कमाल है, मैंने तो समझा था, तुम चीज का नाम सुनते ही उछल पड़ोगे-चीज? क्राफ्ट चीज? इंपोर्टेड? मजा आ जाएगा! और तुम ओ. के. ऑल राइट...’’

‘‘सॉरी, आयम बिजी...फिर रिंग कर लूँगा।’’

कट!

सामने रोशन खड़ा था, उत्तर की प्रतीक्षा में।

कितना कठिन होता है बादलों की नमी में धूप का तीखापन भरना, लेकिन आदत से सब कुछ हो जाता है। और आदत भी कोई एक दिन में नहीं पड़ जाती, अब पड़ गई है-तो? बस एक सख्त-सपाट मुखौटा और आवाज की सर्द बेजारी पर रुआब की भरपूर तह- ‘‘बना लो।’’

‘‘जी स्साब।’’

उसके बाद एक उड़ी उपेक्षित नजर फोन पर टिकी थी और बादलों की नमी काटकर रेडियो का नॉब घुमाने लगी।

       ‘‘हैलो! मिसेज शुक्ला...’’

‘‘बोल रही हूँ।’’

‘‘गुड मार्निंग, मैडम! साहब आज लंच पर नहीं जा सकेंगे।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘टाउन गए हैं। कुछ जरूरी डीलिंग के लिए। आपको रिंग करते, पर टाइम नहीं था।’’

       ‘‘ओ. के.’’

कट!

नजर उठाते ही समूचा मस्तिष्क बौखला उठा। रोशन फिर उसी तरह हाथ बाँधे खड़ा था। रिसीवर से आती आवाज बखूबी सुन ली है उसने। आज का नया नहीं है, पर मेम सा’ब उसी बात को दुहराकर मुहर लगा देंगी, तभी टलेगा। रेडियो से आते वागेश्वरी के अलाप पर खीझकर उठीं, फिर तुर्शी से बोलीं, ‘‘साहब बाहर खाएँगे, मेरा खाना लगाओ।’’

‘‘जी, सा’ब।’’

वागेश्वरी पर टिका नॉब फिर तेजी-से घूमा और अंत में पॉप म्यूजिक के शोर में ठहर गया।

खाना लग जाता है। चीज पराँठे और रशियन सैलेड। बड़ी सी ओवल-शेप टेबल, बीचोंबीच बैठी हुई वह...पराँठों की परतों में गरम-गरम पिघलता हुआ चीज...कैंडिल्स, ब्रास वेयर्स और शोख रंगों की एब्सट्रैक्ट पेंटिंग से सजा डाइनिंग-रूम। पहले उसकी बगल में सुब्रत की ऊँची सीट रहती थी, गले में एप्रन बाँधे गोल-मटोल गदबदा सुब्रत...जिप्सी की गीली नाक को गाल से सटा-सटाकर उससे लिपटता...लॉन में चुनमुन खरगोश के पीछे भागता...सफेद-सलेटी कबूतरों को उछालता, पकड़ता...तेजी-से दौड़ते चित्र स्टिल हो जाते हैं-वैलहम स्कूल से आया टेलीग्राम पढ़ती मम्मी और कौतुक भरी आँखों से निहारता सुब्रत। ‘‘वी आर जस्ट लकी, राशी! नहीं तो लोगों को दो-दो साल लग जाते हैं वेटिंग लिस्ट में।’’

‘‘लेकिन...इतनी जल्दी भेजना पड़ेगा। सुधीर, मैंने तो सोचा था, अभी एक-दो साल ...अभी मना कर दो सुधीर, बहुत छोटा है।’’

‘‘डोंट बी फुलिश, राशी! बच्चे के करियर का सवाल है...मैं अभी से सतर्क हूँ कि मेरा बेटा मुझ पर नाज कर सके, मैं उस पर।’’

‘‘पर मैं...मैं तो उसके बचपन को बाँहें भर-भरकर समेटना चाहती हूँ, सुधीर!...कुत्ते, बिल्लियों, खरगोशों, कबूतरों, फूलों, तितलियों के पीछे भागता-किलकता बचपन...प्लीज! अभी उसे करियर की बंदिशों में मत बाँधो।’’

‘‘रब्बिश! राशी, वर्तमान हमेशा कल को पाने का साधन है बस। कल सुब्रत का अपना एक करियर यह भी होगा कि वह शुरू से आखिर तक वैलहम और मेयो जैसे बड़े खर्चीले एरिस्टोक्रेट क्लास के स्कूलों में पढ़ा है। दो-तीन सालों बाद ही उसे मेयो स्कूल में डालूँगा।’’

और सुब्रत चला गया-अपनी छठी सालगिरह मनाने से ठीक पंद्रह दिन पहले। टॉफियों, बिस्कुटों, कई जोड़े जूतों, शर्ट्स, टाई, ब्लेजर से लदा-फंदा; जिप्सी, चुनमुन, सफेद-सलेटी कबूतरों से हाथ हिला-हिलाकर ‘बाय’ करते-करते। धीरे-धीरे कबूतर, खरगोश भी हटा दिए गए, रह गई बूढ़ी जिप्सी और राशी।

एब्सट्रैक्ट पेंटिंग के गाढ़े शोख, हरे गुलाबी, बैंगनी रंग लहर मारते हुए एकाकार होने लगे। और धीरे-धीरे रंगों की कड़वाहट असह्य होने लगी...

‘‘बस करो।’’ गले में अटके पराँठे को पानी से निगलते हुए बोली।

खिड़कियों के झूलते परदे खींच दिए। बिना कोई पुस्तक उठाए ही चुपचाप बेड पर पड़ी देखती रही-सामने मैंटलपीस पर सुनहरे फ्रेम में जड़ी सुधीर की फोटो को। कितनी मोहक, निश्छल, आनंदमयी मुस्कान के साथ सुधीर मुस्करा रहा था।

सुधीर की एकदम बाँध लेने वाली यह मुस्कान, जिसमें बँधकर उसने इतना बड़ा निर्णय ले डाला था-बेहिचक। वही क्यों, इतनी सूझ-बूझ और पैनी दृष्टिवाले पापा भी उसे देखकर गद्गद हो उठे थे, ‘राशी ने कीचड़ से कमल ढूँढ निकाला है।’ ममी से उनका पहला वाक्य था, ‘देख लेना, अपनी लगन और प्रतिभा से यह सामान्य घर का लड़का छोटी उम्र में ही बड़ी ऊँचाइयों पर पहुँच जाएगा।’ सहर्ष अनुमति देते समय उनका गला खुशी से भर आया था।

‘थैंक्यू, पापा!’ कहकर दोनों हाथों में कृतज्ञता से पापा का हाथ दबाते हुए सुधीर की आँखों में जो उमंग भरी मुस्कराहट छलकी थी, वह झुकी आँखों को बलात उठाकर देखती राशी की संपूर्ण शिराओं में भर गई थी।

सुधीर की वह मुस्कान आज कितने अर्थों, कितने संदर्भों से बोझिल हो गई थी। आज सुधीर जब राशी की ओर देखकर मुस्कराता है तो उसका अर्थ होता है-चंदनी अगरबत्तियों से महकता बेडरूम और पारदर्शक नाइटी में भीने सेंट से गमकती राशी-सामने बैठी हुई राशी नहीं...छुट्टियों में घर आए सुब्रत की ओर देखकर मुस्कराता है तो उसका अर्थ होता है-लुक एट योर फादर। महज अपनी लगन और महत्त्वाकांक्षाओं के बल पर वह क्या-से-क्या हो गया।! उनकी तुलना में तुम्हें तो कहीं आगे बढ़ना है।

स्टेनो डोरोथी, एक दिलफेंक मुस्कराहकट और उसका हाथ धीमे-से दबा देता है-‘ब्रेवो गर्ल।!’ उसकी मुस्कान कहती है, ‘‘यह मादक स्पर्श अगर रोज चाहिए तो काम परफेक्ट...’’

नायक की ओर देखकर मुस्कराता सुधीर-‘‘ब्वाय! तुम मेरी मुट्ठी में हो-तुम्हारा करियर, प्रमोशन, सब कुछ। इसी तरह सोच-समझकर ओबे करते चलो।’’

प्रतिद्वंद्वी बत्रा की ओर देखकर भी मुस्कराने से नहीं चूकता, ‘‘ओ. के., पार्टनर। लेट्स सी हू विंस द रेस।’’ (साथी, देखना है, कौन जीतता है इस दौड़ में।) और फिर दोनों की आँखों में ‘आई विल सी, आई विल सी’ की बत्तियाँ बारी-बारी से जलती-बुझती रहती हैं।

अंत में चेयरमैन मिस्टर मेहता के सामने सारे ऊपरी अर्थों का निचोड़ फेंककर-एकदम ताजा, धुली, चटक रंगोंवाली मुस्कराहट, जो सुधीर के हर छोटे-बड़े काम को एक उपलब्धि के रूप में पेश कर सके, जो बत्रा के एग्रीमेंट्स और फाइलों में बड़े शालीन ढंग से गलतियाँ निकाल सके; और अंत में यह जोड़ दे कि-‘वी आर वेरी गुड फ्रेंड्स सर, लेकिन...लेकिन यू नो... मैं ऑफिशियल वर्क को दोस्ती से ज्यादा महत्व देता हूँ। अगर आप मान लें तो मैं बत्रा को खुद इस पॉइंट पर एग्री कर लूँगा, और वह बत्रा से जाकर कहेगा, ‘यू वर रॉन्ग, माई डियर, बॉस मेरे पॉइंट्स पर एग्री करते हैं।’’

हर बार चेयरमैन मिस्टर मेहता के पास से हटते समय तक वह चटकीली, सम्मोहन भरी मुस्कान उन्हें यह विश्वास दिला चुकी होती है कि उनका सबसे बड़ा हितैषी, विश्वासपात्र और लगन का पक्का सुधीर शुक्ला ही है।

घर पहुँचकर अलमारी में कतार से सजी पुस्तकों में से एक निकाल लेता है, ‘हाऊ टू स्माइल’ और आज से आश्वस्त हुआ सुधीर शुक्ला कल मुस्कराई जानेवाली मुस्कराहट के प्रति सजग हो उठता है। कॉफी का मग लिए जाती राशी ठिठक जाती है। एक टीस मारता-सा वाक्य फिसलने को होता है... ‘हद है-आज तुम अपने आप अपनी तरह से मुसकरा भी नहीं सकते।’ लेकिन सुधीर के दमकते करियर और उज्जवल भविष्य के सामने यह वाक्य एकदम निरर्थक, अस्तित्वहीन है। राशी कतार में सजी दूसरी पुस्तकों के नाम पढ़ती जाती है, जिसमें हँसने-बोलने, उठने-बैठने से लेकर बॉस, असिस्टेंट और बीवी-बच्चों तक से पेश आने, हैंडिल करने और प्यार करने के तरीके लिखे होते हैं।

आँखें फिर सुनहरे फ्रेम में मढ़ी तसवीर कुरेदने लगती हैं, नन्हें मासूम पिल्ले की तरह, जो जमीन खोद-खोदकर एक सुखद-शीतल, राहत भरी जगह तलाशता रहता है। लेटे-लेटे ही लगा, वह बेहद थक गई है। सुधीर की ही नहीं, आने-जानेंवालों, कितनों की ही मुस्कराहटों के अर्थ भरे लंबे बाड़, झाड़-झंखाड़ और जंगल, जिसमें कभी-कभी खालिस जंगली आवाज में चीख पड़ने को दिल चाहता है। बहुत पहले जब पहली बार उसने देखा था...लगा था, सुधीर शालीनता, गंभीरता और अनुराग से झुकी हुई एक डाल है, जिस पर हमेशा मुस्कान की एक नाजुक-सी कली खिली रहती है...कहाँ, कैसे, कब-वर्षों का बीहड़ पार करते वह कली टूटकर धूल में मसली गई! बाहर उजाला बढ़ता गया और अंदर परत-दर-परत अँधेरे की तहें बिछती गईं।...

अपनी समझ से, दुनिया की समझ से, ये बीतते दिन रुपहले रहे हैं। आनेवाले दिन शायद सुनहरे हों। सब पाया-ही-पाया है उसने। सुधीर गर्व से छलक पड़ता है। उत्तेजना से चेहरा और कान लाल हो जाते हैं। धमनियों में दूने जोश से रक्त दौड़ने लगता है। पर कितना कुछ गँवाया है, यह सुधीर ने शायद जानने की कभी कोशिश नहीं की, या शायद जान-बूझकर नकारा हो। उस ‘लॉस’ का हिसाब तो राशी के पास है-और अकसर इस रिक्तता की सोचते-सोचते उसकी धमनियों का रक्त जमने लगता है और वह बर्फ-सी सर्द पड़ जाती है। उसके होंठ काँपकर बुदबुदाते हैं-‘लॉस...कंपलीट लॉस...’’

‘‘हैलो, राशी!’’

‘‘येस।’’

‘‘डिनर पर बहल को ला रहा हूँ। खाना ए-वन होना चाहिए, तुम्हारे सुपरवीजन में बना। अंडरस्टैंड? राघव को भेजती हूँ जरूरत की चीजें मँगवा लेना। मैं खुद ड्राइव करके जाऊँगा। ओ. के.।’’

‘‘बहल? ये बहल कौन?’’ वह अभी तक अपनी याद्दाश्त खटखटा रही थी।

‘‘तुम नहीं जानतीं, ही इज चेयरमैन मिस्टर मेहता’ज बेस्ट फ्रेंड। यहाँ दो-चार दिन को ही आए हैं। मैंने सोचा, आई शुड नॉट मिस द अपॅरचुनिटी। और मैं तो उन्हें बतलाना भी नहीं चाहता कि मुझे उनके चेयरमैन के दोस्त होनेवाली बात मालूम है, समझीं?’’

‘‘समझी, लेकिन आज शाम के लिए तो इतनी कोशिश कर ‘रंगशाला’ में टिकट बुक करवाया था तुमने, वह मौलसिरी...’’

‘‘गोली मारो मौलसिरी को!’’

कट!

‘‘यू नो! बहल मुझे जानता था पहले से। पता है कैसे, राशी? खुद मेहता ने उससे मेरा जिक्र किया था, इमेजिन! मेहता ने उसके सामने मेरे काम को ‘एडमायर’ किया था कि किस तरह मैं बढ़ी हुई जिम्मेदारियों को ‘स्किल’ से हैंडिल कर रहा हूँ। राशी! आरंट यू हैपी?’’

वह शायद कुछ नहीं सुन पाई। लाल हो रहे चेहरे पर दृष्टि डाल आशंकित हो बोली, ‘‘तुम्हारा चेहरा फिर गरम-सा लाल लग रहा है, ठीक तो हो?’’ राशी की उँगलियाँ चेहरे के अनुपात में ज्यादा सर्द महसूस हुईं...शायद ठीक कह रही हो। ‘‘कल डॉ. शिंदे से कंसल्ट करूँगा। मेहता ठीक कहते हैं, एक स्वस्थ शरीर ही समस्याओं का सही समाधान ढूँढ़ सकता है। मुझे स्वस्थ ही रहना है, हमेशा मेहता की नजर में।’’ राशी के अंदर एक चीख फिर घुटती है-क्यों? अपने लिए क्यों नहीं? अपने लिए क्यों नहीं? शिंदे ने पीठ थपथपाकर कहा, ‘‘परफैक्टली ऑल राइट, मिस्टर शुक्ला!’’

‘‘थैंक्स, डॉक्टर! अच्छा, एक्सक्यूज मी, मैं तो चला। पर राशी, देखो, डॉ. शिंदे को बगैर कोल्ड कॉफी पिलाए जाने मत देना। ओ. के., डॉक्टर!’’

कोल्ड कॉफी के एक घूँट के साथ ही शिंदे का लहजा भी बर्फानी हो जाता है, ‘‘मिसेज शुक्ला! मैं दरअसल कोल्ड कॉफी के लिए नहीं रुका, आपको बताना था...यू हैव टू बी केयरफुल। टू हंड्रेड बाई वन ट्वेंटी तक पहुँचा हुआ ब्लड प्रेशर खतरे का सिग्नल है।

ध्यान रखिए-रात में पूरी नींद-लैस स्ट्रेन-और खाने में कम-से-कम नमक। ओनली यू कैन हेल्प हिम। और...’’

राशी को लगता है, कोल्ड कॉफी की ठंडी चुभती हुई घूँटें उसके गले से सारे शरीर में फैलती हुई उसे निस्पंद करती जा रही है। शिंदे कुछ-कुछ समझते हुए सहानुभूति से उसके कंधे थपथपा देते हैं, ‘‘बी ब्रेव, मिसेज शुक्ला! तुम्हें साहस से काम लेना है। समझता हूँ, एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी तुम्हारे कंधों पर पड़ रही है। मैं एकदम से मिस्टर शुक्ला को शॉक भी तो नहीं दे सकता... और फिर अभी स्टेज कुछ खतरनाक नहीं, उसकी सूचना भर है...ऐसे कितने केसेज कुछ महीनों के प्रिकाशन और आराम से ही ठीक होते देखे गए हैं। बी ब्रेव, माई गर्ल! नथिंग टु बी सो नर्वस।’’ शिंदे फिर से राशी की पीठ पर स्नेह भरा हाथ फेरते हैं।

‘‘एक्सक्यूज मी, मिस्टर मेहता!’’ सुधीर केबिन में घुसते हैं। मेहता फाइल उठाते बत्रा को शाबाशी दे रहे हैं, ‘‘ब्रेवो, बत्रा! मुझे खुशी है, तुमने इतनी जल्दी सारे चार्ट्स तैयार कर लिए। थैंक्स अ लॉट-ओ. के.। येस, शुक्ला!’’

बत्रा ‘‘थैंक्यू, सर’’ कहते हुए परदा हटाकर बाहर चला गया है; पर सुधीर को लगता है, जाते-जाते वह सुधीर के चेहरे पर ही नहीं, अंदर भी बहुत कुछ तितर-बितर करता गया है। शरीर, मन, मस्तिष्क-सबको जोड़नेवाला तार जैसे झनझनाकर टूट गया हो। मुस्कान के शोख चटकीले दायरे सिमटते गए।

‘‘द हैल विद बत्रा!’’ अंदर से सन्नाटे को वह तेजी-से फाँद जाना चाहता है। कुछ देर को राहत-सी मिलती भी है, पर कहाँ? लंच के बाद फिर देखता है, कैंटीन से बाहर बत्रा कपूर को बाँहों में कसकर पकड़ते हुए जिंदादिली से कह रहा है-‘‘ओ. के. बॉय! वी विल सी।’’ दोनों दो तरफ अपने-अपने ऑफिसों में मुड़ जाते हैं।

सन्नाटे के तार फिर टकराने लगते हैं। सी! हूम? किसे देखने की बात ये दोनों कह रहे थे? क्या देखने की? कहीं सुधीर को देखने की?...नहीं, तार टकराते हैं-इतना साहस उनमें नहीं कि खुलेआम ऐसी बात कर सकें। उसका वहम है, व्यर्थ। और फिर वह पूरी बात सुन ही कहाँ पाया। नहीं, दूसरा तार टकराता है। बत्रा के हर वाक्य का अर्थ होता है। शायद सुधीर के अपने हर वाक्य के बराबर ही। जरूर मेहता उसे कुछ लिफ्ट देने लगे हैं। उसका चेहरा बदला है इधर तेजी-से। लेकिन ‘वी विल सी’ का तो अर्थ कुछ भी हो सकता है। तसल्ली नहीं होती, तो वह बत्रा के चहरे का एक्सप्रेशन याद करने की कोशिश करने लगता है। तो? तो? साजिश...बत्रा के चेहरे की मुसक. राहट बताती है। और वह मुस्कराहट उसे अंदर से और भी खाली करने लगती है। वह एक झटके-से दिल-दिमाग उस ओर से मोड़कर अपना पिछला रिकार्ड दोहराने लगता है। अगर हुई भी तो सुधीर शुक्ला के खिलाफ यह कोई पहली साजिश नहीं होगी। उसने पिछले बारह सालों के अपने करियर में कितनों की साजिशों को फेल किया है। किस-किस तरह से फेल किया है, उसकी भी अपनी अगल-अलग कहानी है। पहले वह हिचकता था, लेकिन अब वह ऐसों-ऐसों को फेल करने में एक्सपर्ट हो चुका है। लगन का पक्का, चुस्त, परिश्रमी और महत्वाकांक्षी सुधीर शुक्ला। ‘नॉट’ ठीक कर चेहरे पर हाथ फेरता है कि वही गरमाहट...एक फैली हुई तमतमाहट। क्या हो रहा है आजकल उसे...डॉ. शिंदे कहते हैं, ‘सब कुछ ठीक है...फिर? या तो उन्हें कुछ आता नहीं या वे जानबूझकर...’ एक शब्द फिर होंठों पर आने से पहले हिचक जाता है। लेकिन सुधीर सँभाल नहीं पाते...कहीं बत्रा और कपूर डॉ. शिंदे से भी तो नहीं मिले हैं! नहीं-नहीं...क्या हो गया है मुझको? ऐसा भी कहीं हो सकता है?

क्यों नहीं हो सकता? कुछ भी हो सकता है। सन्नाटे को फाड़कर एक आवाज चीखती है-जो तुम कर सकते हो, वही दूसरे भी कर सकते हैं...तुम कहोगे, तुम्हारे सामने आगे बढ़ने का यही रास्ता था...उसके सामने भी यही रास्ता है-सबको रौंदकर, कुचलकर आगे बढ़ जानेवाला रास्ता...

तो फिर...बत्रा की हँसी सच थी? कपूर की फुसफुसाहट सच थी? साजिश...साजिश...वही कुरूप सन्नाटा केबिन की खिड़कियों से, एयर कंडीशनर के सुराखों और परदे की सिलवटों पर गिरता-पड़ता, फुसफुसाता रहता है...कांसपिरेसी...बत्रा, दैट डर्टी पिग...किस तरह मेहता से शाबाशी मिलने पर खुश हो रहा था। विशेषकर, यह सोचकर कि सुधीर शुक्ला इज वाचिंग। तो क्या हुआ? उसके इकट्ठे किए फिगर्स से भी तो मेहता खुश थे। काश, बत्रा होता उस समय!

लेकिन बत्रा क्या कह सकता है मेहता से। अंदर से एक आकारहीन खलनायक ने अट्टहास किया था, कुछ भी, जैसा तुम कभी पिछले चेयरमैन शिरके से फुसफुसाए थे... पुराने कलीग शर्मा की फाइलें उसकी अनुपस्थिति में दिखाकर उदारतापूर्वक कुछ गलतियाँ बताई थीं और थोड़े-से सुधारों का सुझाव देकर शिरके की नजरों में चढ़ गए थे।

सुधीर ने शांत भाव से खलनायक के आरोप को नकारा, अपने करियर के लिए बॉस को इंप्रेस करना कोई धाँधली नहीं।...

तो बत्रा भी यही करेगा।

नहीं-नहीं-नहीं...उसने जी-जान से उस आवाज को घोंट देने की कोशिश की। इफ बत्रा हैज डन दिस मीनेस्ट जॉब, वह और तेज चलेगा, उसे पछाड़कर रहेगा। वह बदला जरूर लेगा।

‘तो बत्रा भी लेगा!’ आवाज चीखी।

‘नहीं! आई विल विन द रेस’। और उसने झपटकर आवाज का गला मरोड़ दिया। मरोड़ते-मरोड़ते उसे लगा, आवाज फुसफुसाती गई है-और यही सिलसिला चलता रहेगा। सिलसिला-फुसफुसाहटों का, साजिशों का, आवाजों के परस्पर लहूलुहान होते जाने का।

अचानक लगा, वह पसीने से तर है। माथे पर हाथ रखा-सर्द, भीगा माथा। अजीब घबराहट-सी...किसी को बुलाऊँ? नहीं यूँ ही सोचते रहने का असर है, और कुछ नहीं। व्यर्थ जरा-सी बात पब्लिक करने से फायदा।

घबराहट बढ़ी तो वह चुपके से रेस्ट-रूम में घुस गया। लेटने से थोड़ी राहत मिली। धीरे-धीरे सर्द माथा नॉर्मल होता गया, पर बेचैनी बढ़ी कि इस समय रेस्ट-रूम में कोई देखकर कानाफूसी कर सकता है। चेयरमैन तक भी बात जा सकती है कि दिन में दस-दस घंटे काम करनेवाले शुक्लाजी अच्छी-खासी हालत में रेस्ट-रूम में आराम फरमा रहे हैं। ‘सिक-रिपोर्ट’ दे तो चारों ओर से खैरख्वाह आकर उसे आराम करने की सलाह देंगे। तब वह मिस्टर मेहता को कैसे समझा सकेगा कि...उसने बेचैनी से कलाई घड़ी देखी। ढाई बज रहे थे। तीन बजे एक पार्टी को टाइम दिया है। संबद्ध फाइलें निकलवानी हैं। नहीं, वह किसी और को यह काम नहीं सौंप सकता। वह लेट नहीं सकता...किसी भी तरह की ‘सिकनेस’ अपने आप में एक अयोग्यता है। चलना चाहिए।

‘‘हैलो, राशी! प्लीज मेरा ब्रीफकेस भेज दो। अनदर फिफ्टीन मिनिट्स एंड आई एम ऑफ टु स्टेशन। लौटने तक काफी रात हो सकती है। खाने के लिए वेट मत करना।’’

राशी चुपचाप बिस्तर पर सीधी लेटी कमरे के बड़े-बड़े झूलते रेशमी परदों को देखती है। कलाई में बँधी छोटी गोल घड़ी की कुरकुराहट, फिर टेबल की टाइमपीस की क्रीं-क्रीं और अंत में कॉरीडोर में टँगी दीवार घड़ी-एकरस मनहूसियत से भरी टिक्-टिक्-टिक्!

बेड से सटा सुधीर का साइड टेबल है-फाइलों से लदा। पहले इस पर एक खूबसूरत वाज हुआ करता था। गहराते मखमली गुलाब, सफेद लिली या पीताभ ‘क्राइस्थमम’ के फूल उसमें लदे रहते। सुबह-सुबह सुधीर की उँगलियों में दबा एक क्राइस्थमम उसके गालों को धीमे-से सहलाता। राशी कुनमुनाई पड़ी रहती। जब तक आँखें मलती उठती, सुधीर ढीला-सा गाउन डाले कोने में रखी केतली से चाय डाल रहा होता। बेडरूम में सुबह की चाय बनाकर संग-संग पीना उनकी अपनी क्रेज थी। कमरे में ही एक तरफ जरा ऊँची नक्काशीदार मेज पर एक छोटी-सी केतली, दो कप और फ्लास्क में दूध रखा रहता । एक अलग मधुर स्वच्छदंता-बिस्तर पर बैठी बालों को समेटती वह देखती-सुधीर हाथ में चाय का कप थामे मदिर-मदिर सा मुस्करा रहा होता।

जैसे बहुत दिनों की बातें हो गई हों-तब तो जब भी नींद खुलती, पाँच बजे-छह बजे एक जगता तो दूसरे को जगाता और बातें, बस बातें-जाने कहाँ-कहाँ की, बीच में परत-दर-परत खिलखिलाहटें। राशी का रूठना, सुधीर का कबूलना...नाराजगी में एकाध चपत जोर-से लग गई तो आँसू भी-फिर होंठों को सुखाए जानेवाले आँसू... पीड़ा भूलकर शरमाती मुस्कराहट। राशी को याद आई वही-ओस के मोतियों से जड़ी मुस्कान की एक नन्हीं कली।

मस्ती और उमंग से भरा चुस्त खिलंदड़ा सुधीर। कभी यों ही मील-दो-मील पैदल चक्कर मार लेने की तलब-वह भी कभी नहर के किनारे-किनारे निर्जन सपाट रास्ते पर, तो कभी एकदम भीड़ भरी ठस्सम-ठस्स में। रोज एक नया फितूर, खीझ उठती वह। कभी हाथ पसारे किसी छोटे बच्चे को देखकर, ‘खुद को चाहिए कि माँ को। माँ के लिए नहीं दूँगा। अच्छा बोल, क्या खाएगा? जलेबी? चल उस्ताद!’ और फिर सीधे हलवाई की दुकान पर पहुँचता, ‘पंडित, आज इस जमूरे को जलेबी खिला दो पेट भर। ये लो!’ दस का नोट बेफिक्री से हलवाई की आोर फेंक देता। निस्तेज पीली आँखें मल-मलकर झिलंगी झूलती कमीजवाला जमूरा देखता रहता जलेबियाँ का खजाना सौंपनेवाले सुधीर को।...

राशी के टोकने पर उसने कहा था, ‘अपने मन का करने में जो सुख है न राशी, वह कहीं नहीं। मेरी आत्मा ने कहा-आज इसे जलेबी खिलाओ, मैंने खिला दी, बस।’

सुधीर के पास आत्मा की तुष्टि के ऐसे कई शौक थे। सीधे रिक्शावाले को खुश होकर आठ आने ज्यादा दे देना। अंधे भिखारी का हाथ पकड़कर सड़क पार करा देना। चलते-चलते मजदूर बुढ़िया से दो बातें कर लेना, या किसी मचलते गरीब बच्चे को गुब्बारा खरीद देना।

कब कैसे धीमे-धीमे यह आत्म-तुष्टि अहं-तुष्टि का साधन बन गई, राशी जान न सकी। पर उसने महसूस किया तेजी-से आते इस परिवर्तन को, जो आत्मा को मोटे रेशमी खोल में लपेटता जा रहा था। मन के सुखवाली आवाज दबती गई और एक दिन इस तरह दबकर सपाट हो गई कि स्वयं सुधीर को उसका अहसास न हुआ। वहाँ उग आया था-अहं-तुष्टि में गदराया दिन दूना-रात चौगुना बढ़ता हुआ महत्वाकांक्षा का पौधा। टन्न! राशी चौंकी, साढ़े ग्यारह थे। पलटकर फिर साइड टेबल पर लगे फाइलों के अंबार को देखा-मखमली गुलाब और पीताभ क्राइस्थमम के फूल याद आए। अब इस समय सुधीर आ भी जाए तो क्या ऊपर की तीन-चार फाइलें देखने बैठ जाएगा। वह सफेद लिली, पीले क्राइस्थमम को भूल चुका है और ‘लॉस’ का हिसाब लगाना उसकी आदत नहीं। पिछले साल बातों के बीच असिस्टेंट अय्यर की पत्नी का गला भर आया था, ‘‘शुक्ला साहब चाहें तो कह सकते हैं।’’

सुधीर के आने पर उसने दबी आवाज से जिक्र किया था, ‘‘सुनो, अय्यर के काम की तो तुम तारीफ करते थे न। फिर यह लो-इंक्रीमेंट, खराब रिपोर्ट और...’’

‘‘सिंपल-सी बात! चेयरमैन मेहता उसे नहीं चाहते, बस!’’

‘‘बस, इतनी सी बात के लिए तुम भी झूठ पर उतर आए।’’

‘‘सच बोलकर मुझे क्या मिलने वाला था?’’

‘‘और अगर पूछूँ कि एक पूरे सच का इतना बड़ा झूठ बनाकर ही तुम्हें क्या मिला?’’

‘‘मिलेगा...अवश्य मिलेगा।’’ पैनी छुरी से सुधीर ने वाक्य का अंतिम काम लायक हिस्सा काट लिया और शेष को छटपटाते हुए स्वेच्छा से छोड़ दिया था।

‘‘अभी खाना मिलेगा क्या?’’ एक वजनदार वाक्य तौलते हुए उसने सामने पड़ा अखबार उठा लिया और पूरी चतुराई से उस अप्रिय निरर्थक प्रसंग की समाप्ति की घोषणा कर दी।

उस शाम कॉरिडोर में खड़ी देर तक अय्यर के घर की सिगड़ी से उठती धुएँ की पतली सलेटी लकीर देखती रही। धुँधुआती लकीर में बनते हजारों प्रश्नचिह्न, लेकिन दूसरे ही क्षण मिल की चिमनी का काला दैत्याकार धुआँ हवा के साथ भकभकाता हुआ आकर उन्हें दबोच लेता है। प्रश्नचिह्नों में कैद अय्यर की अविश्वासपूर्ण कातर आँखें, राशी के सामने खड़ी पत्नी की आशा भरी दयनीयता-बच्चों के भीरु, सहमे हुए चेहरे-सब कुछ एक लमहे में उसी स्याह धुएँ में समा जाते हैं। असंख्य चीत्कारते प्रश्नों का एक निर्मम समाधान।

चिमनी पर टँगी दृष्टि नीचे उतरती हुई। सतह पर अय्यर फिर खड़ा हो गया। कहीं पढ़ा था-दृष्टि आदमी की बहुत बड़ी ताकत है-सीधी ईमानदार दृष्टि-तब इस दृष्टि को इस्पात की भट्ठियाँ गला-गलाकर क्यों निचोड़ रही हैं। शायद इस ऊर्जा का प्रयोग इस्पाती ढाँचे के निर्माण में होता है। इससे मजबूत ढाँचे, ऐसी आँखें, जो बस ऊपर की चिमनी ही देख सकें, बाकी सब कुछ सफाई से नकारती जाएँ।

और वे बड़े-बड़े कल-कारखानों, मिलों-फैक्टरियों के जंगल-फुसफुसाहटों के धुंध और गुबार में एक-दूसरे को नकारते, न देखते लोग-पहचानी चीजों पर अपरिचय से कटते लोग-एक-दूसरे को धकेलते, रौंदते। ये लोग कहाँ जा रहे हैं?...

समान की आखिरी किस्त के साथ ताँगे में बैठा अय्यर और उसकी बीवी-बच्चे-सिगड़ी का धुआँ अब नहीं था।

टन्न! राशी पलटी-साढ़े ग्यारह।

चिकेन सूप की प्लेट उसकी ओर धीमे-से खिसकाते बोली, ‘‘इस तरह क्या देख रहे हो?’’

‘‘कि किस खूबी से मुझे बेवकूफ बनाया जा रहा है। ये उबले खानों की बढ़ती रफ्तार, सब्जी में हमेशा भूलकर कम डाला जानेवाला नमक, टेबल पर बढ़ती टॉनिक की शीशियाँ...इस एहतियाती रुख का सरूर तुम पर कैसे चढ़ गया। डॉ. शिंदे मुझे या तो बेवकूफ समझते हैं या बच्चों-सा नादान। आखिर बताने में क्या हर्ज था?’’

‘‘तुम व्यर्थ परेशान हो रहे हो। कुछ खास होता, तब तो बताते!’’

‘‘खैर!’’ आवाज एकदम से किसी असहाय गहराई में डूब गई, ‘‘मैं समझ गया हूँ, राशी! सुनो, कुछ खास बात नहीं है न?’’

‘‘नहीं तो!’’

‘‘दैन डोंट लेट एनीबडी नो अबाउट दिस (तब किसी को इस बारे में कुछ पता न लगे।)’’ राशी भौंचक थी।

‘‘लेकिन बता देने से तो तुम कितनी ही परेशानियों, व्यस्तताओं से...’’

‘‘नो राशी, नो। जो कहा है उसे याद रखना, बस। बावजूद डॉ. शिंदे की डायग्नोसिस के आयाम हेल हार्टी एंड स्ट्रांग... जितनी जिम्मेदारियाँ हैं, उसकी दूनी तक हैंडिल कर सकता हूँ। मेरा काम किसी और को सौंपने की जरूरत नहीं पड़ेगी। न मुझे किसी की सहानुभूति की जरूरत...सुनो! डॉ. शिंदे से भी कह देना। कुछ अलग तरीके से...डोंट बी अ फूल, राशी! कह देना, सिंपली। आई डोंट वांट टु मेक इट पब्लिक।’’

राशी के चेहरे पर समझने और न समझने की स्थिति से दूर एक सपाट वीरानी थी। वह वहाँ खुद अकेली थी और सुधीर को भी अकेला छोड़ दिया था उसकी जगह पर।

‘‘मेहता अगले महीने फॉरेन टूर पर जा रहे हैं। जाने से पहले एनुअल रिपोर्ट देकर जाएँगे। तुम समझतीं क्यों नहीं, राशी, मैं रेस में हूँ। पिछड़ नहीं सकता। बस, किसी तरह यह सीनियर रैंक ले लेता, फिर तो टेंशन खत्म।’’

सुधीर उफनती लहरों को लाँघकर जैसे एक सुरक्षित चट्टान पर खड़ा था अब। और राशी देख रही थी चट्टान के निचले कगार को।

हमेशा से जरा ज्यादा ही तेज कदमों से सुधीर बाहर निकला था, राशी की डाँवाँडोल मनःस्थिति को विश्वास दिलाने। राशी की हँसी आई थी उसके खोखले दिलासे पर। यह रेस भी कभी खत्म होने वाली है क्या?

‘‘दीपा मामी का फोन आया था। बुलाया है आज शाम।’’

‘‘कोई खास बात?’’

‘‘नहीं। यों ही। मैंने कहा था, बोरियत हो रही है। बोलीं, शाम को दोनों आ जाओ। गपशप करेंगे। कुछ बना-बुनूकर खा भी लेंगे। छह बजे तक आ जाना।’’

‘‘नहीं राशी, मैं तो नहीं जा सकूँगा। तुम अकेली चली जाओ।’’

‘‘ऐसा क्या काम है तुम्हें? अभी तो मेहता भी मद्रास गए हैं न।’’

‘‘ओह, राशी! मेहता के होने-न-होने की बात नहीं, सारी मिल तो है न। सारा स्टाफ। मेहता का पी. ए. ...’’

‘‘सुनो! इतना ओवर स्ट्रेंड होने से फायदा?’’ वह हारकर सीधे-सीधे सामने आ गई।

‘‘यह डॉ. राशी शुक्ला बोल रही है?’’ सुधीर मुस्कराया था और वह आहत हो गई थी। हजारों तब्दीलियों का बोझ ढोते-ढोते फीकी पड़ गई यह सुधीर की ही मुस्कान थी!

‘‘नहीं, डॉ. शिंदे कह रहे थे-शुक्ला को रोकिए, इतना काम न किया करें।’’

‘‘ओह!...शिंदे का मेरी तरफ से शुक्रिया अदा कर देना और कह देना, बेहतर हो, अपना दखल डॉक्टरी तक ही रखें।’’

लहजा खासा तराशा हुआ था, लेकिन इस तुर्शी के मायने? समझाने की गरज से बोली, ‘‘कुछ गलत तो नहीं कहा सुधीर, उन्होंने! बेचारे जब-तब पूछते रहते हैं।’’

सुधीर जैसे चाहकर भी रोक न सका, ‘‘और सुनो, डॉ. शिंदे एकाएक मेरे प्रति इतने सदय कैसे हो गए?’’

‘‘सदय के क्या मतलब? एक डॉक्टर की हैसियत से पेशेंट को उसके खतरे से आगाह कर देना क्या उनका फर्ज नहीं?’’

‘‘नहीं, मुझे तो लगता है, वे फर्ज से ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहे हैं। डॉक्टर का काम पेशेंट का उत्साह बढ़ाना, उसकी विल-पॉवर को मजबूत करना भी तो है या कि केवल बेचारगी भरी सहानुभूति दिखाकर हतोत्साहित करना और घर-बाहर बीमारी का हव्वा बिठा देना ही है। मिल में जब-तब मेरे कमरे के पास चक्कर काटते रहते हैं । मुझे तो लगता है, बत्रा और कपूर ने अगर रोग के बेसिस पर ही शिंदे की मदद से मुझे डिमॉरलाइज कर देने की...’’

‘‘सुधीरऽऽ’’ राशी कानों पर हाथ रखकर चीख पड़ी थी, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? एक डॉक्टर को तुम इससे बड़ी गाली शायद नहीं दे सकते। वह बुड्ढा डॉक्टर तुम्हारी बीमारी की आड़ में फरेब करेगा? कल को मुझे भी इस गिरोह में शामिल कर लो तो ताज्जुब नहीं।’’

राशी का सारा प्रलाप जैसे तलहटी के नीचे से गुजर रहा था और ऊपर सुधीर था-चारों ओर तने जालों के बीच उलझता-फँसता। चारों ओर पतंगों-से भनभनाते शब्द...एक-दूसरे पर पंख मारते, उठते-गिरते...

आरामकुर्सी पर सीधा लेटकर सिगरेट मुँह में दबाते हुए अपनी रौ में बुदबुदाया, ‘‘इस दुनिया में कुछ भी हो सकता है।’’

‘‘क्या?’’ राशी को नहीं मालूम था कि यह वाक्य उसकी बात का जवाब नहीं, अपनी दलील के समर्थन में खड़ा किया कागजी बचाव है। और सुधीर को नहीं मालूम कि राशी ने वाक्य का क्या मतलब निकाला। क्षत-विक्षत मस्तिष्क और हृदय लिए वह लड़खड़ाती-सी कमरे से बाहर आ गई थी और स्टडी-रूम में बदहवास औंधी पड़ी फफकती रही...बचाव आखिर कैसे करे वह?

सुधीर को पता तक नहीं चला। वह उसी तेज घूमती चरखी पर चक्कर-पर-चक्कर खाता रहा...और चारों ओर आँखें फाड़-फाड़कर आगे-पीछे, ऊपर-नीचे बैठे बत्रा, कपूर, मेहता और बहल को देखता रहा।

‘‘हैलो शुक्ला, मैंने तुम्हें इसलिए बुलाया था कि आज की जर्नी तुम कैंसिल कर दो।’’

‘‘लेकिन सर, दैट इज वैरी इंपॉर्टेंट।...बगैर मेरे गए...’’

‘‘...भी हो सकता है। मि. बत्रा चले जाएँगे। तुम हार्ट के पेशेंट हो, इस तरह की मुश्किलें अवाइड कर दिया करो।’’

‘‘लेकिन, सर! आयम परफैक्टली ऑल राइट।’’

‘‘ठीक है। लेकिन हार्ट-ट्रबल का कोई ठिकाना नहीं, बैटर, बी केयरफुल। सुना, काफी दिनों से परेशान हो। मुझे बताना था।’’ मेहता की आँखों में सहानुभूति थी। सुधीर के कानों में चौकन्नापन।

‘‘थैंक्यू, सर! पर आपको कैसे पता?... वैसे माइनर-सी ट्रबल थी,’’ मुस्कराहट अंदर-ही-अंदर लस्त होती जा रही थी।

‘‘मुझे डॉ. शिंदे ने बताया था कि मिसेज शुक्ला तुम्हारी सेहत को लेकर परेशान रहती हैं और तुम परवाह नहीं करते। और भी कुछ लोगों ने...’’ पर आगे नाम नहीं बताया।

‘‘वीमेन आर ऑलवेज टिमिड, सर’’ (औरतें हमेशा डरपोक होती हैं।)

‘‘आय नो! बट इवेन यू आर नॉट अ चाइल्ड।’’ (जानता हूँ, पर तुम भी तो बच्चे नहीं हो।) मेहता ने पीठ थपथपाई थी, लेकिन वह उसे चाबुक की मार से अलग नहीं समझ पा रहा था।...

‘‘ओ. के., सर!’’ हथियार डालकर वह घर लौटा था-आवे में धधकता हुआ। पैरों की आहट पर राशी चौंकी, ‘‘अरे, तुम! अभी ही?’’

बगैर किसी ओर देखे वह बेडरूम की ओर बढ़ गया। लिहाफ खींचा और सिगरेट सुलगा ली।

‘‘क्या हुआ...आज तो कानपुर जाना था न, क्या तबीयत ठीक...’’

‘‘नहीं, मुझे आराम करना है।’’ एक सिगरेट मसलकर सुलगाई।

‘‘क्या तकलीफ है?’’ आशंकित-सहमी आवाज ने जैसे हौले-से बारूद में माचिस फेंक दी हो।

‘‘तकलीफ! तुमसे बढ़कर कौन जान सकता है! जाओ, शहर भर के डॉक्टरों को फोन करो...मिल में शोर करवा दो-सुधीर शुक्ला मर रहा है। सब लोग बिगुल बजाएँ, जश्न मनाएँ... खड़ी क्यों हो? बुलाती क्यों नहीं? वरना मर जाऊँगा तो तुम्हें और बच्चों को खाने के लाले पड़ जाएँगे।’’ वह हाँफते हुए रुक-रुककर बोलता जा रहा था। सामने राशी खड़ी थी-एक पथरीली खामोशी समोए बटर-बटर उसे ताकती हुई। सिर चकराने लगा तो भी वह दीवार से टिकी खड़ी सिगरेट-पर-सिगरेट मसलते, फूँकते सुधीर को देखती रही।

एकाएक सुधीर ने उसे घूरकर देखा। जाने कैसे हिंस्त्र भाव जागा और वह पूरी तेजी-से दहाड़ उठा, ‘‘गेट आउट प्लीज, लेट मी रिलेक्स।’’

समूची थरथरा उठी वह। उत्तेजना से हाँफती लौटकर बदहवास-सी एक के बाद एक तमाम शीशियाँ उलटती-पलटती रही। थोड़ी देर बाद हाथ में ट्रैक्विंलाइजर की शीशी लिए जल्दी-जल्दी कमरे की ओर आई, पर दरवाजे पर पैर रुक गए। देर तक खड़ी रही...कैसे दे?

	हिम्मत न पड़ी। सारे एहतियात के बावजूद यह अप्रत्याशित कांड...होश आते ही अंदर जमी हुई छटपटाहट बूँद-बूँद झरने लगी।

चार बजे नायक फाइल ले गया। उसी से पता चला, कानपुर शुक्ला साहब नहीं, बत्रा साहब जा रहे हैं। मेहता साहब आराम करने को बोल रहे थे और...तो यह...चलो, ठीक है, एक भार-सा हलका हुआ। अब ‘‘लोग जान न जाएँ’’ का तनाव तो दूर हो गया। एक दिन तो पता चलना ही था।

शाम तक सुधीर थोड़ा शांत दिखा। पराजय स्वीकार कर लेनेवाले योद्धा की तरह खुद ही धीमे-से बोला, ‘‘शिंदे का गुस्सा तुम पर उतारा, आयम सॉरी, राशी! जो नहीं चाहता था, वही हुआ। अब ऊपर से नीचे तक सारी मिल की सिंपैथी का बोझ ढोऊँगा। मेरी दया की भीख पर जीनेवाले अब बस मुझ पर सहानुभूति दिखाकर ही मुझसे मजबूत हो जाएँगे। सबकी नजरों में सरेआम कमजोर करार कर दिया गया, जबकि साबित कुछ और ही करना चाहता था।’’

कंधे से फिसलती राशी की उँगलियाँ टिकी थीं-‘‘कमजोरी नहीं, कमजोरी का वहम है तुम्हें, सुधीर। रोग को छिपाकर तुम अपनी दूसरी दुर्बलता लोगों के सामने रख रहे हो। एक छोटी-सी बात को दहशत की तरह झेल रहे हो। थोड़े दिन प्रिकाशन ले लो, फिर दूनी शक्ति से जूझ सकोगे। शिंदे पर विश्वास नहीं तो चलो, किसी स्पेशलिस्ट से कंसल्ट करते हैं।’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूँ। अब जब सबको पता चल ही गया है तो लगकर ट्रीटमेंट कर डालूँ, तुम आज डॉ. माथुर से अपॉइंटमेंट ले लो।’’

कार्डियोग्राम देखते हुए डॉ. माथुर के माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आईं, ‘‘हैरान हूँ मिस्टर शुक्ला, किस बूते पर आप अभी तक इतना काम सँभाले हैं। आप अब घर नहीं जा सकते, इसी मोमेंट एडमिट होना है।’’

सुधीर का चेहरा फक् रुई-सा सफेद होता जा रहा था, जैसे सरेआम किसी जघन्य कृत्य के अपराध में पकड़ा गया हो। एक साथ ही अंदर ढेर-का-ढेर चकनाचूर हो गया। इतने कठोर नियंत्रण के बावजूद छिपाई हुई धड़कनों का राज अब साफ-साफ बाहर आ गया था...फिर भी वह कोशिश से बाज नहीं आया, ‘‘ठीक है डॉक्टर, मैं जल्दी-से-जल्दी...’’

‘‘मतलब? आप इसे मजाक समझ रहे हैं?’’

‘‘नहीं-नहीं, डॉ. माथुर! मैं जरा अपने चीफ मिस्टर मेहता को सिचुएशन बता देना चाहता था...और एकाध जरूरी निगोशिएशंस (वार्तालाप) भी पूरे करने थे।’’

‘‘नो, मिस्टर शुक्ला, नो। आप एडमिट होइए, सिचुएशन लोग खुद समझ जाएँगे।’’

‘‘डॉक्टर...’’ सुधीर जैसे एक निहत्थी याचना लिए खड़ा था, ‘‘काश, आप मेरी स्थिति को समझ पाते! मेरे...मेरे करियर का सवाल है। कम-से-कम मैं अपने चीफ को अपने कॉन्फिडेंस में तो ले सकूँ...आई प्रॉमिस फॉर टुमारो।’’

‘‘मैं अपनी ऑनेस्ट राय दे चुका, बाकी आपकी मरजी,’’ डॉ. माथुर सख्त पड़ गए थे।

‘‘ओ. के., डॉक्टर!’’ सुधीर जल्दी-से उठ गया।

जमानत पर छूटे कैदी की तरह सुधीर शुक्ला चुपचाप कार में आ बैठे थे। राशी ने न देखा, न कुछ कहा। तटस्थ सपाट दृष्टि को यथार्थ से बहुत दूर खिड़की के शीशे के पार-पार दौड़ाती रही। शायद आश्वासन देने या पाने की स्थिति से बहुत दूर। लेकिन भटकने की भी तो सीमा होती है। कहाँ तक, कब तक? लौटना तो था ही-लौटी। सारे सन्नाटे को एक सैलाब में समेटकर...

‘‘तुम समझतीं क्यों नहीं, राशी! डोंट बी अ फूल! विश्वास करोगी कि जितनी पल्स देखकर डॉ. माथुर परेशान हैं, उसी हालत में मैं हफ्तों से काम कर रहा हूँ। हुआ कुछ मुझे? डॉक्टर है न, ऊपर से स्पेशलिस्ट। देखती नहीं, एक मामूली-सी खरोंच पर आजकल बस टिटनेस का इंजेक्शन... इस हिसाब से तो मुझे महीनों पहले से ही बिस्तर पर होना चाहिए था...और हो जाता तो अब तक दो स्टेप आगे आ जाना बत्रा के लिए कितना आसान हो जाता; लेकिन नहीं और मैं अभी भी रोकूँगा, चढूँगा तो मैं ही। तुम देख लेना।’’

दिलासा की सीमा तोड़कर वह फिर अपने क्षेत्र में घुस गया था अनायास। राशी की दृष्टि बचाकर चेहरे से छूटता पसीना पोंछकर सीट पर उठ गया। ज्यादा बोलने में खुद को असमर्थ पाया, पर मस्तिष्क अपने दो दिनों की योजनाओं की रूपरेखा तैयार करता रहा।...

सब तो ठीक है। जरा सी घबराहट बस...ये डॉक्टर भी तिल का ताड़ बना देते हैं...इस विचार से ही उसने अंदर एक मजबूती महसूस की-नहीं, चूकना नहीं है इस बार। फिर यह खोया अवसर हाथ नहीं आने का। बत्रा आज की तरह झपटकर यह अवसर चंगुल में दबा लेगा। आज प्रिंस एंड कंपनी से निगोशिएट कर उसे अपने कॉन्फिडेंस में कर लेगा; मेहता के सामने आनेवाले महीनों के कुछ सॉलिड प्लान रखेगा...इतना इंप्रेशन काफी होगा और फिर बत्रा के बारे में कुछ बेहद आत्मीय दृष्टिकोण, जैसे-‘‘ही इज गुड नो डाउट, पर अभी जरा गाइडेंस की जरूरत है उसे; बड़ी जिम्मेदारीवाली मेरी फाइलें आप ही देखें तो ठीक, अभी तक तो मैं उसे हमेशा निर्देश देता रहता था। आइ मीन, वह हमेशा परेशानी महसूस करने पर मुझसे पूछ लेता है। वी आर फ्रैंडली-और मेरी तकलीफ ऐसी कुछ सीरियस नहीं; पर जैसा आप कहते हैं, खतरा क्यों लिया जाए। सोचता हूँ, दादा के पास बँगलौर जाकर एकाध महीने आराम कर लूँ। चेंज भी हो जाएगा।’’ अभी ही थोड़ा आराम कर मेहता के पास जाना ठीक होगा। कहीं उसके पहले ही बत्रा या कपूर... लेकिन इस सबकी नौबत नहीं आ पाई थी। उस दिन मेहता मिले नहीं। दूसरे दिन सुबह ही चपरासी मिस्टर शुक्ला के नाम की स्लिप लेकर आया। मेहता ने पहुँचते ही परचेज फाइलें माँगी और इसके पहले कि वह कुछ कहता, कपूर को सौंप दीं। कपूर के जाने पर एकदम अवाक् ताकते सुधीर की पीठ थपथपाई, ‘‘अपने काम का बोझ हलका करो। तुम्हारी हेल्थ अब इतनी जिम्मेदारी कैसे सँभाल सकती है। मैंने बत्रा से कह दिया है, मार्केटिंग की फाइलें भी उसे दे देना।’’

वह उठा। कतारबद्ध टाइपराइटरों के पीछे जुड़ती सैकड़ों आँखों की चहारदीवारी से गुजरता अपने केबिन में पहुँच गया। ट्रिन...रिंग हुई। चपरासी परचेज की फाइलें ले गया। थोड़ी देर बाद ‘एक्सक्यूज मी, मिस्टर शुक्ला’ बत्रा मार्केटिंग की फाइलें माँगने आया; जाते-जाते उसकी तबीयत का हाल और ‘रिकवरी’ के लिए ‘विश’ करता गया। बड़ी-सी टेबल पर अब एक-दो पुरानी पतली फाइलें थीं और बीच में सुधीर शुक्ला खड़ा था। केबिन में चारों ओर खिड़कियों के, शटरों, एयरकंडीशनर के छिद्रों, हर जगह में एक सन्नाटा रेंगता उसकी ओर बढ़ रहा था...उस सन्नाटे में बत्रा मार्केटिंग की फाइलें देख रहा था...कपूर परचेज पर मेहता से गुफ्तगू कर रहा था। उसने दीवार में लगे शीशे को देखकर बाल ठीक किए। मुस्कराया और मिस डोरोथी को बुलाकर कुछ लेटर्स टाइप करने को दे दिए। डोरोथी चली गई तो जल्दी-जल्दी दराजों से पुरानी फाइलें निकाल-निकालकर मेज भर दी।

ठीक चार बजे डोरोथी लेटर्स टाइप कर लौटी।

‘‘सर!’’ के साथ डोरोथी की दहशत भरी चीख चारों ओर गूँज गई। खटखटाते टाइपराइटर और फोन रुक गए। चारों ओर से भीड़ इकट्ठी होने लगी। लोगों ने देखा-रॉकिंग चेयर पर अधलेटा सुधीर शुक्ला अपने दायें हाथ से बायाँ सीना दबाए निस्पंद पड़ा टकटकी लगाए मिल की सबसे ऊँची धुआँ उगलती चिमनी की ओर देख रहा था।...

चिमनी, जो बेहतर और बेहतर जिंदगी जीने की कोशिश में रौंदने और रौंदे जानेवालों को एक के बाद एक निगलती हुई तटस्थ भाव से काला धुआँ उगलती जा रही थी।