रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 3 / काशीनाथ सिंह

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी।

वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी - मालकिन! जब चाहे सोए, जब चाहे जागे, जहाँ चाहे उठे बैठे, जैसे चाहे वैसे रहे घर में, ब्रा और चड्ढी में, लुंगी में, गाउन में, नंगी नहाए, उछले कूदे - न कोई देखनेवाला, न सुननेवाला! जब चाहे - जैसा चाहे खाना पकाए न पकाए, उपास करे, उसकी मर्जी! अगर साथ में यही सास-ससुर हों - तो यह करो, वह करो, ऐसे करो, वैसे न करो! दुनिया भर के लफड़े, टोका-टोकी और बंदिशें!

टेपरेकार्डर है, टी.वी. है, कंप्यूटर है, मोबाइल है, फोन है - अगर खुद को व्यस्त ही रखना चाहो तो इनके सिवा भी किताबें हैं, क्लास की तैयारियाँ हैं, कार है! ज्यादा नहीं, शाम को फ्रेश होने के बाद सिर्फ आधे घंटे की ड्राइव पर निकल जाओ और लौट कर आओ तो बीयर या जिन का एक छोटा पैग और सिगरेट (यह केलिफोर्निया की आदत है जिसे देर-सबेर छोड़नी पड़ेगी इस सड़े-गले नगर में - इसे वह जानती है)।

'लेकिन समीर कहाँ है?' उसने पापा को फोन किया - 'कुछ खास नहीं, बस ऐसे ही!'

जब वह रिसर्च कर रही थी इतिहास में, तभी समीर से परिचय हुआ था। एक तेज-तर्रार आकर्षक युवक। अच्छे खाते-पीते घर का। उससे दो साल सीनियर और राजनीति में पीएच.डी.! नौकरी मिल रही थी लेकिन उसने अपने हित को न देख कर किसानों मजदूरों के हित को देखा! उसमें देश और दुनिया और समाज के हर मुद्दे पर लंबी बहस करने और विश्लेषण करने की दक्षता थी! उसने राजनीतिक 'ऐक्टिविस्ट' होना पसंद किया। उस समय बिहार में ऐसे कई ग्रुप थे! वह उनमें से एक से जुड़ गया और सक्रिय हो गया! वह हफ्ते में एक बार पटना आता और पूरा दिन सोनल के साथ बिताता! उसका सपना था कि वे शादी करेंगे और अपना जीवन किसानों की खुशहाली के लिए समर्पित कर देंगे - साथ-साथ! सोनल ने जब डैडी से बताया तो उन्होंने समझाते हुए कहा कि यह जुनूनी दिमाग का फितूर है! बीवी की कमाई और नौकरीपेशा लोगों के चंदे पर क्रांति करनेवाले ऐसे लोगों की भरमार है बिहार में! वे जल्दी ही नाश्ते और चाय-पानी के लिए दूसरों को ढूँढ़ते सड़क पर दिखाई पड़ने लगते हैं। ऐसे बहकावे में मत आओ। और उन्हीं के समझाने-बुझाने पर उसने संजय से शादी तो कर ली लेकिन समीर को दिल से नहीं निकाल सकी! यहाँ तक कि अमेरिका में भी जब संजय ने उससे 'ब्वायफ्रेंड' की बात की तो वह डर गई कि कहीं उसे समीर की दोस्ती की खबर तो नहीं है?

उसी समीर की याद आ रही थी उसे यहाँ आने के बाद से ही!

वह सुबह छत पर टहल रही थी कि डी-4 के सामने सड़क पर पुलिस वैन दिखाई पड़ी!

उसकी नजर जाने के पहले से खड़ी थी वह वैन!

कुछ लोग थे जो भीतर-बाहर आ जा रहे थे! लेन के एक नुक्कड़ पर उसका डी-1 और दूसरे नुक्कड़ पर डी-4। उसके दो ही मकान बाद! बरतन माँजने और झाडू-पोंछा करनेवाली दाई उसी कालोनी की थी। जैसे ही वह आई, उसने पूछा!

दाई गीता ने जो कुछ बताया, वह भयानक था! यह उस कालोनी की तीसरी घटना थी! इस साल की पहली!

डी-4 राय साहब का बँगला था! राय साहब बागबानी के बेहद शौकीन! उनके लान में मखमली घास क्या थी, हरे रंग का गलीचा था। उसमें जूते-चप्पल पहन कर न वह जाते थे, न दूसरों को जाने देते थे। गलीचे के चारों तरफ फूलों और रंग-बिरंगी पत्तियोंवाले गमले थे! वे दिन भर कैंची-चाकू लिए लान में ही नजर आते थे - काटते-छाँटते हुए। हरे रंग की दीवानगी ऐसी कि बँगले पर भी हरा डिस्टेंपर। यही हरियाली उनके झुर्रियोंदार चेहरे पर भी रहती थी - हमेशा!

एक दिन एक फोन आया राय साहब के नाम - 'इतनी जल्दी क्या है मकान बेचने की, थोड़ा रुक जाते!'

राय साहब 'हलो, हलो' करते रह गए, लेकिन फोन कट गया था!

उस दिन उन्हें आश्चर्य हुआ लेकिन हँसी भी आई!

फिर हर तीसरे-चौथे रोज या तो कोई न कोई फोन आता या कोई न कोई मकान के बारे में जानकारी करने चला आता। फोन करनेवाला कौन है, कहाँ से कर रहा है, मकान बिकने की बात उसे किसने बताई - राय साहब को पता नहीं चल सका! आनेवालों को वे डाँट कर भगा देते, फाटक के अंदर घुसने ही न देते! वे कहते-कहते थक गए कि खबर गलत है, उन्हें बेचना ही नहीं है फिर भी, ये सिलसिले खत्म नहीं हुए!

वे परेशान! लगा कि पागल हो जाएँगे! वे नींद के लिए तरस कर रह जाते और नींद नहीं आती! दोस्तों-मित्रों की सलाह पर उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट की कि उनके पास कैसे-कैसे फोन आते हैं, कैसे-कैसे लफंगे आते हैं, और कैसी-कैसी बातें कर जाते हैं?

चौथे दिन जो आदमी मकान की बाबत उनसे पूछने आया, उसकी बातों से राय साहब को लग गया कि पुलिस रिपोर्ट की उसे जानकारी है - लेकिन इसका न उसे डर है, न खौफ!

जिस मानसिक तनाव और बेचैनी में वे जी रहे थे, उससे उन्हें उस दिन मुक्ति मिली, जिस दिन अचानक उनके बचपन के मित्र राजाराम पांडे उर्फ भुटेले गुरू आए। भुटेले गुरू अब तो नगर के जाने-माने रईस थे लेकिन थे उनके पड़ोसी गाँव के! हाई स्कूल तक उनके साथ गाँव पर ही पढ़ चुके थे! कई मुहल्लों में कई मकान थे उनके! वे इधर से गुजर रहे थे कि उन्हें राय साहब की याद आई और पूछते पाछते डी-4 में चले आए!

'यार, बड़ा शानदार भवन है सुरेश!' उन्होंने गेट के अंदर घुसते ही कहा!

राय साहब ने उत्साह से उन्हें घर दिखाया! वे पहली बार आए थे। उन्होंने घर- आँगन की तारीफ करते हुए बताया कि इस दौरान भेंट भले न हुई हो, दोनों बेटियों की शादी और भाभी के आकस्मिक स्वर्गवास की खबर उन्हें मिली थी! ड्राइंग रूम में लौटते हुए उन्होंने पूछा - 'सुरेश! तुम्हारा वह बेटा कहाँ है आजकल, जिसका इलाज करा रहे थे?'

भुटेले जैसे ही सोफे पर बैठे, राय साहब उनके आगे बैठ कर - फूट-फूट कर रोने लगे। भुटेले भी सोफे से नीचे आ गए और सुरेश राय को बाँहों में भर कर सामने दीवान की ओर देखते रहे - दीवान पर गठरी की तरह एक युवक लेटा था। वह टुकुर-टुकुर कुतूहल से उन्हें ताक रहा था। दाढ़ी-मूँछ बेतरतीब बढ़ी हुई थी! सिर्फ चेहरा खुला था, शरीर ढँका था! एक सूखी बेजान बाँह लकड़ी की तरह बिस्तर पर पड़ी थी! लगता ही नहीं था कि धड़ के नीचे कुछ है!

'यह बोलता तो उस वक्त भी नहीं था, लेकिन यह याद नहीं कि समझता भी था या नहीं!' भुटेले ने पूछा!

राय साहब बगैर बोले हिचकी लेने लगे।

भुटेले ने सांत्वना देते हुए उन्हें उठाया और सोफे पर अपने बगल में बैठाया। थोड़ी देर बाद राय साहब उठे और अंदर चले गए। जब वे चाय के साथ लौटे तो सहज थे! चाय पीते हुए उन्होंने बताया कि कैसे पेट काट कर, गाँव की जमीनें बेच कर, बैंक से कर्ज ले कर किसी तरह यह घर खड़ा किया और दो साल पहले, रिटायर होने के बाद इसमें आया! मैंने कभी सोचा ही नहीं कि किसके लिए घर? बस यह था कि अपना एक घर हो! इसके खड़ा होते-होते पत्नी भी चल बसीं। लेकिन लगा रहा मैं बिना सोचे कि घर हो तो किसके लिए? ... देख रहे हो इस बेटे को? न चल-फिर सकता है, न सुन सकता है, न बोल सकता है! क्या होगा इसका जब मैं नहीं रहूँगा! जाने किस जनम के पाप की सजा दे रहा है भगवान!

'मैं हूँ न! चिंता काहे करते हो?' भुटेले ने उनके कंधे पर हाथ रखा!

'चिंता का तो ये है भुटेले कि छह-सात महीनों से सोया नहीं। जाने कहाँ-कहाँ से, कैसे-कैसे लोगों के रात-बिरात फोन आते रहते हैं - धमकी भरे! पता नहीं किसने उड़ा दिया है कि सुरेश राय अपना घर बेच रहे हैं! नतीजा यह कि गुंडे-मवाली तक घर के अंदर घुसे चले आ रहे हैं और सलाह दे रहे हैं कि जितने में बेचोगे उतने में दो कमरों का फ्लैट भी ले सकते हो और बाकी के सूद से बीस-पच्चीस साल चैन से काट भी लोगे! पूछो कि तुम हो कौन? तो कहते हैं - 'प्रापर्टी डीलर'! प्रापर्टी हमारी; डील तुम कर रहे हो! बिना यह पूछे कि तुम बेच भी रहे हो या नहीं? दलाल साले! हिम्मत तो देखो उनकी! अगर आज नरेश सही होता तो यह नौबत नहीं आती!'

भुटेले गंभीरता से सब कुछ सुनते रहे और सोचने-विचारने के बाद बोले - 'ऐसा है सुरेश! मैं दो तीन दिन के अंदर एक दरबान या आदमी भेज देता हूँ। बड़े भरोसे का आदमी! वह तुम्हारी सारी समस्याएँ दूर कर देगा! ठीक?'

तीसरे दिन सचमुच आदमी आया और राय साहब की चिंता खत्म हो गई!

न कभी फोन आया और न गुंडे-मवालियों का साहस हुआ कि आस पास कहीं दिखाई पड़ें!

लेकिन जो होनी थी, वह हो कर रही। तीन महीने बाद! रात-दिन पूरे घर की देखभाल करनेवाला दरबान रात भर की छुट्टी ले कर भतीजी की शादी में अपने गाँव गया था और इधर उसी रात यह हादसा हो गया! उसी पलंग पर लेटा राय साहब का बेटा टुकुर-टुकुर ताकता रहा और उनका कतल हो गया!

भुटेले गुरु इस हादसे के दो दिन पहले से अस्पताल में थे - रूटीन चेकअप के लिए। दरबान ने ही उन्हें खबर की थी! वे अस्पताल से सीधे अपनी गाड़ी में आए! दरवाजे पर खड़ी भीड़ को वहाँ से हटाया-बढ़ाया, डाँटा-डपटा और अंदर जा कर पुलिस से जानकारी ली! फिर उस कमरे में गए जहाँ बिस्तर पर राय साहब लेटे थे। वहीं बगल में एक तख्त पर उनका बेटा भी था जो निश्चल पड़ा था। मूक दर्शक। हादसे का चश्मदीद बेबस गवाह! वे पुलिस के साथ अंदर गए थे, उसी के साथ लौट भी आए!

बाहर अटकलों की कानाफूँसी चल रही थी - या तो मुँह और नाक पर तकिया दबा कर मारा गया है या गला दबा कर! शरीर पर कहीं चोट का निशान नहीं। हाथापाई का कोई चिह्न नहीं। बिस्तर पर कोई सिलवट नहीं! तकिए पर महज खून का छोटा-सा धब्बा था जो नाक और मुँह से निकला था।

लाश जब पोस्टमार्टम के लिए जा रही थी, सोनल अपने गेट पर खड़ी उसे जाते हुए देख रही थी! कालोनी में मकान कब्जा करने की तीसरी घटना! घर में तो वह भी अकेली थी। विश्वविद्यालय आने-जाने का समय अनिश्चित। किसी दिन दोपहर से पहले क्लासेज, किसी दिन दोपहर बाद। घर में कोई नहीं। दिन में तो चोरियाँ ही हो सकती हैं लेकिन रात में तो हत्या तक संभव है। इस कल्पना से ही उसे कँपकपी छूट आई! आँखों में उतरनेवाली सिहरन पूरे बदन में फैल गई! वह इसी उधेड़बुन में पूरे दिन पड़ी रही! नौकर न मिल रहे थे, न रखना मुनासिब था! नौकरानी झाड़ू बुहारू पोंछा से आगे के लिए तैयार नहीं। बार-बार उसका ध्यान जा रहा था ससुराल पर।

रात में उसने पहाड़पुर का कोड ढूँढ़ा और फोन किया - 'पापा! मैं सोनल। आ रही हूँ कल आप दोनों को लेने के लिए! तैयार रहिए। नहीं, कुछ नहीं सुनूँगी। मम्मी को फोन दीजिए!...'