रॉकेट की कहानी / संजय कुमार अवस्थी

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सदियों से कवियों की कल्पना का केन्द्र बिन्दु रहे चन्द्रमा को रुमानी संसार की शृंगारिक नाटकीयता से निकाल, आधुनिक मानव सभ्यता के विकास के लिए उपयोगी आकाशीय पिण्ड के रूप में पेश करने की वैज्ञानिक वास्तविकता का प्राकट्य रॉकेट के बिना संभव नहीं होता। रॉकेट के कारण ही आज हम अंतरिक्ष के रहस्य को समझने में सफल हुए हैं। रॉकेट के कारण ही आज हम संचार क्रांति के शिखर पर हैं।

अंतरिक्ष विज्ञान के विकास में रॉकेट की भूमिका के अलावा रॉकेट एक अति संहारक अस्त्र के रूप में भी दुनिया के सामने आया है। कोई भी सैन्य शक्ति, रॉकेट के बिना विष दंत विहीन साँप के समान हो जाएगी। जिज्ञासा उठती है कि यह रॉकेट आखिर आया कहॉं से?

रॉकेट का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। रॉकेट का जन्म मध्ययुगीन चीन में लगभग 1044 ईसवी सन् में हुआ था। वैसे तो रॉकेट के प्रारंभिक ईंधन गनपाऊडर के उपयोग का इतिहास इससे भी पुराना है। ईसा से पूर्व तीसरी शताब्दी में चीनी लोग धार्मिक आयोजनों में साल्ट पीटर (पोटेशियम नाइट्रेट) , सल्फर और चारकोल से भरे हुए बाँस की नलिकाओं को उछालते थे, जिससे, उनके फटने से उत्पन्न तीव्र आवाज से बुरी आत्माएँ डर जायें। हो सकता है ऊपर फेंके गए, उन्ही बाँस के टुकड़े में से कोई ठीक से बंद न किया गया हो और फूटने की जगह वह आकाश में आग उगलते चला गया हो। शायद इसी चूक को किसी चतुर वैज्ञानिक मस्तिष्क ने देख लिया हो तथा उसने रॉकेट पर शोध प्रारम्भ कर दिये हों।

1044 तक रॉकेट जिसे चीनी पाण्डुलिपियाँ 'आग्नेय तीर' कहती हैं, चीन की सैन्य रणनीति का महत्त्वपूर्ण अंग बन गए. 13 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मंगोल के लुटेरों के आतंक से निपटने तत्कालीन चीनी संग राजाओं ने इन रॉकेटों का उपयोग किया। 1232 ईसवी सन के काई-फूंग-फू के संग्राम में इन्ही रॉकेटो ने मंगोल लुटेरों के दॉत खट्टे कर दिए. ये रॉकेट काफी बड़े एवं प्रभावशाली थे। जब इन्हें जलाया जाता था तो वे बिजली की गड़गड़ाहट वाली आवाज जो कि 15 मील तक सुनी जाती थी पैदा करते थे, तथा वे पृथ्वी पर जहाँ गिरते थे उस स्थान पर 2000 फीट तक वे अपनी मारक क्षमता के निशान छोड़ जाते थे।

यूरोप में रॉकेट के प्रवेश के संकेत 1241 ईसवी सन में मिलते हैं। 25 दिसम्बर 1241 में बुड़ा (अब बुड़ापेस्ट) के कब्जे हेतु मंगोलो ने मेगयार सेनाओं के विरूद्ध सेजो के युद्ध मंे रॉकेटों का उपयोग किया था।

अरब इतिहास में रॉकेट के प्रमाण 1258 ईसवी सन में मिलते हैं जब अरबों के खिलाफ मंगोल आक्रांताओं ने बगदाद के कब्जे के लिए इनका उपयोग किया। अरब तीव्र बुद्धि के थे उन्होंने रॉकेटों की तकनीक को समझा एवं इनका उपयोग सातवे धर्मयुद्ध में ग्यारहवें लुइस की फ्रांसिसी सेना के विरुद्ध किया।

1300 ईसवी सन के बाद ही रॉकेटों का प्रवेश यूरोपीय शास्त्रागारों में हुआ। 1500 ईसवी में रॉकेट के इटली में प्रवेश के संकेत मिलते हैं, उसके बाद जर्मनी और बहुत बाद में इंग्लैड। लंदन में प्रकाशित तोप विद्या के इतिहास में 43 पृष्ठों का खण्ड रॉकेटों के बारे में है। परंतु इस कालखण्ड में रॉकेट के संहारक शस्त्र के रूप में उपयोग के स्पष्ट संकेत नहीं है। फ्रांस की सेना तेज थी और उसने 1429 में ओरलीन के कब्जे हेतु सौ वर्षों के युद्ध में अंग्रेजों के विरुद्ध इनका उपयोग किया। डच सेना ने इनका उपयोग 1650 में करना प्रारम्भ किया और जर्मनी में रॉकेट के सैन्य उपयोग सम्बंधी प्रयोग 1668 में प्रारंभ हुए. 1730 तक जर्मन तोपसेना के कर्नल फ्रेडरिच वॉन जिसलर ने 24 से 54 किलो के रॉकेटों का निर्माण प्रारंभ कर दिया था।

परंतु वास्तविक तौर पर रॉकेटों में रूचि का विकास यूरोप में 18 वीं शताब्दी में हुआ; क्योंकि तभी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने रॉकेट की मार कैसी होती है; इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया। यह अनुभव उन्हें भारत में मिला। फ्रांस और ब्रिटेन दोनों ही भारत को गुलाम बनाने भारत में छल और बल के साथ युद्धरत थे। ऐसे में अंग्रेजों का सामना टीपू सुल्तान की मुगल फौज से हुआ।

1750 से 1799 तक मैसूर के सुल्तान टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली ने खुद को रॉकेट के सैन्य उपयोग की तकनीक में पारंगत कर लिया था। टीपू सुल्तान के पास ही ब्रिगेड थी जिन्हें खुशुन कहा जाता था तथा प्रत्येक ब्रिगेड के पास एक रॉकेट सैनिकों की कंपनी थी जिसे जर्कस कहा जाता था। 10 सितंबर 1780 में मुगल सेना को बहुत बड़ी विजय मिली जब उन्होंने द्वितीय अंग्रेज-मुगल युद्ध में, पोलीलूर के संग्राम में अंग्रेजों के गोला बारूद के भंडार को आग के हवाले कर दिया। यह विजय मैसूर रॉकेटों के बिना संभव नहीं थी।

1792 के श्रीरंगपट्टनम के संग्राम में अंग्रेजों को सर्वप्रथम रॉकेटों का संघातिक हमला झेलना पड़ा और बाद में 36000 सैनिकों ने रॉकेटों के मार से छिन्न-भिन्न अंग्रेज सेना की रही सही कसर भी निकाल दी। हालाँकि ये रॉकेट आधुनिक रॉकेटों की तुलना में बच्चे थे परंतु इनकी मार ने अंग्रेज सेना को तितर-बितर कर दिया। इन रॉकेटों की संरचना ऐसी थी कि वे जहॉं से गुजरते थे वहॉं पर मृत्यु एवं विनाश का ताण्डव प्रारंभ कर देते। आज भी 1792 में दागे गए रॉकेटों में से दो रॉकेट लंदन के रॉयल आर्टीलरी म्यूजियम की शोभा बढ़ा रहे हैं।

चौथे अंग्रेज मैसूर युद्ध में श्रीरंगपट्टनम के संग्राम में अप्रैल 1799 में कर्नल आर्थर वेसली की अंग्रेज फौज को रॉकेटो के आतंक से डर कर युद्ध भूमि से भागने को मजबूर होना पड़ा। टीपू के रॉकेटों का वजन 2.2 से 5.5 किलो के मध्य था तथा उनमें लोहे के सिलेण्डरों का उपयोग होता था, ये 1.5 से 2.5 किलोमीटर दूरी तक मार कर सकते थे।

अंग्रेज जिन्होंने इन रॉकेटों की मार सही थी, वे इनकी मारक क्षमता के कायल हो गये। अंत में अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति और छल नीति के बल पर टीपू को तो हरा दिया पर रॉकेटों से प्रभावित अंग्रेजों ने युद्ध के अंत में 700 रॉकेटों तथा 900 रॉकेटों की सहायक तंत्र को अध्ययन के लिए इंग्लैड भेजा। सर विलियम कौन ग्रेव्ह ने इन रॉकेटों को तथा उनकी सहायक प्रणाली का अध्ययन किया तथा कोपेन हेगन के कब्जे हेतु नेपोलियन के विरूद्ध इन रॉकेटों का उपयोग किया। हम भारतीय अपनी वैज्ञानिक परंपरा को नहीं जानते तथा अपने गौरवषाली इतिहास से परिचित नहीं है, रॉकेट का वास्तविक सैन्य उपयोग भारत में ही हुआ। इन्हीं रॉकेटों का प्रयोग अंग्रेजो ने वाशिंगटन फोर्ट (न्यूयार्क) के खिलाफ अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम में किया गया। आज भी अमेरिका के राष्ट्रगान The Star spangled Banner में इन रॉकेटो का स्मरण Rocket Red Glare के रूप में होता है। ब्रिटिश सेना भी आधिकारिक रॉकेट ब्रिगेड का निर्माण 1812 में किया गया। इस प्रकार रॉकेट का उपयोग संपूर्ण विश्व में हथियार के रूप में होने लगा। पर संपूर्ण हथियार के रूप में आधुनिक हो रही युद्ध तकनीकों के कारण इन पर सेना का विश्वास कम होने लगा। किसी युद्ध में तो ये रॉकेट ताकत बनकर उभरे और कहीं-कहीं तो इनके उपयोग के कारण सेना को उपहास का पात्र भी बनना पड़ा। जैसा कि 1862 में न्यूयार्क रॉकेट बटालियन के साथ हुआ जिसने इनका उपयोग रिचमण्ड, यार्कटाऊन और वर्जिनिया के संविलियन का विरोध कर रहे विद्रोहियों के खिलाफ किया। प्रथम विश्वयुद्ध में लड़ाकू हवाई जहाजों से शत्रु के जासूसी गुब्बारों को नष्ट करने हेतु रॉकेटो का असफल प्रयोग किया गया। पायलटों ने इन रॉकेटों के उपयोग का तीव्र विरोध किया क्योंकि आग पकड़ने वाले कपड़ो एवं वार्निश से पुते उनके जहाजों से इनको दागना अत्यन्त खतरनाक था।

रॉकेटों के विकास में बाधक उनमें प्रयुक्त ईंधन था। संपूर्ण विश्व में तरल ईधन से युक्त राकेटों पर परीक्षण प्रारंभ हो गये थे। प्राचीन कालीन रॉकेट और आधुनिक रॉकेटों में जमीन आसमान का अंतर है। आज परमाणविक विस्फोटकों से युक्त अत्यंत संहारक मिसाइलों से ले कर उपग्रह प्रक्षेपण के लिए प्रयुक्त प्रक्षेपण यान, सभी मूलतः रॉकेट ही तो हैं। इन आधुनिक रॉकेटों के जन्मदाता वास्तव में दो महान विज्ञानी थे अमेरिकी राबर्ट एच गोडार्ड और दूसरे थे जर्मन वर्नर वॉन ब्रॉन। गोड़ार्ड अपनी विज्ञान साधना में रत नितांत एकाकी मानव थे। उनकी संपूर्ण ज़िन्दगी रॉकेट से उनके लगाव में बीत गई. बचपन से ही जिज्ञासु परंतु कमजोर स्वास्थ्य वाले गोडार्ड को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा। बचपन से ही वे अत्यंत कल्पनाशील थे तथा उनका मन आकाश में उड़ने को आतुर था। वे न केवल पंख लगाकर उड़ना चाहते थे साथ ही वे अपनी कल्पनाओं को पेन के माध्यम से अभिव्यक्त करने में माहिर थे। अंतरिक्ष में उनकी गहरी रुचि थी तथा उन्होंने 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही चन्द्रमा और मंगल ग्रह पर पहुँचने की कल्पना पर लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने ही विश्व का पहला तरर्ल इंधन युक्त रॉकेट 16 मार्च 1926 को ऑबर्न, मैसाचुसेट्स से उड़ाया। हालाँकि यह केवल 2.5 सेकण्ड ही उड़ सका और यह केवल 41 फीट ऊॅचाई तक ही गया परंतु गोड़ार्ड ने विश्व को बता दिया की तरर्ल इंधन से भी रॉकेट उड़ सकता है। 1928 के प्रयोग में गोड़ार्ड ने तरल ऑक्सीजन एवं गेसोलीन का प्रयोग किया था। गोड़ार्ड की कल्पनाशीलता का मजाक भी बनाया गया। इस महान प्रथम तरल ईधन युक्त रॉकेट की उड़ान पर एक स्थानीय अखबार ने शीर्षक लिखा "चंद्रमा तक पहुँचने वाला रॉकेट अपने लक्ष्य से केवल 238799.5 मील दूर रह गया।"

20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में कोई भी चंद्रमा पर पहुँचने एवं मंगल पर चलने एवं रॉकेट को अंतरिक्ष में पहुँचाने कल्पना करने वाले को गंभीरता से नहीं ले रहा था। गोड़ार्ड के कार्य को सरकारी और गैर सरकारी मदद भी कम ही मिल रही थी। ऐसे में उनके कार्य की आलोचना ने उन्हें और एकाकी बना दिया था, वैसे भी वे मौन तपस्वी थे जिसे अपनी विज्ञान साधना के अलावा कुछ नहीं दिखता था। न उन्हें लोकप्रियता चाहिए थी और न ही पद की कामना थी। उस काल में उन्होंने रॉकेट द्वारा छोड़े गए उड़ने वाले प्रोब के द्वारा चंद्रमा और अन्य उपग्रहों की फोटो खींचने, अंतरिक्ष में सौर्य ऊर्जा का उपयोग, चंद्रमा या अन्य ग्रहों पर पहुँचने वाले उपकरणों की बाह्य सतह कैसी होनी चाहिए आदि विचार अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त किए थे। उनकी इन सभी कल्पनाओं का भी समाचार पत्रों ने मजाक बनाया। ऐसे में एक सहृदयी व्यक्ति चार्ल्स लिंडवर्ग सामने आए और उन्होंने गोड़ार्ड और उनके कार्य को समझा। 1929 के अंत तक लिंडबर्ग की मदद से उनके कार्य पर कई प्रस्ताव उद्योगों एवं निजी निवेशकों के पास भेजे. पर अक्टूबर 1929 में अमेरिकी स्टॉक मार्केट की गिरावट ने गोडार्ड की राह और मुश्किल कर दी। ऐसे में एक निवेशक डेनियल गुगेनहेम सामने आये और उन्होंने एक लाख डालर की मदद की। रॉकेट की सैन्य शक्ति को देखते हुए गुगेनहेम और लिंडबर्ग, द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व थल सेना और नौ सेना को समझाने में सफल हुए और गोड़ार्ड को सेना के लिए रॉकेट निर्माण का कार्य मिला। 1935 में गोड़ार्ड ने ए-5 रॉकेट छोड़ा जो 1.46 किमी तक गया तथा उसका वेग ध्वनि के वेग से भी ज़्यादा था। 1936-1939 के मध्य K और L श्रेणी के रॉकेटों पर कार्य किया। गोड़ार्ड का एल-13 रॉकेट, उनके सभी राकेटों से ज़्यादा 2.7 किमी तक गया। गोड़ार्ड के रॉकेट 2.7 किमी से ऊॅचे नहीं जा सके. 1930-1945 के कालखण्ड में वे लगातार अपने प्रयोग करते रहे। सेना ने भी उनके कार्य को अधिक महत्त्व नहीं दिया। पर जो व्ही-2 रॉकेट जो दुनिया के सभी रॉकेटों का पिता है, कहते हैं उसकी डिजाइन गोड़ार्ड के कार्य पर आधारित थी।

जहांॅ गोड़ार्ड अपने कार्य में लगे हुए थे वहाँ दूर जर्मनी में एक युवा वर्नर वॉन ब्रॉन रॉकेट के विकास में लगा था। अमेरिका में गोड़ार्ड के कार्य को वैसा महत्त्व नहीं मिला, पर मन रॉकेट की शक्ति पहचानते थे और उन्होंने गोड़ार्ड के कार्य को महत्त्व दिया। ब्रॉन ने पहले जर्मनी में और बाद में अमेरिका में रॉकेट विज्ञान को शिखर पर पहुँचाया। आज अमेरिका के चंद्र अभियान से लेकर अत्याधुनिक शटल तक सभी में ब्रॉन का योगदान है। 23 मार्च 1912 को जर्मनी में जन्मे ब्रॉन का बचपन से ही आकर्षण विज्ञान तथा विस्फोटक पदार्थों की ओर था। पिता बालक के बारूद के खेल से आतंकित थे। एक दिन बालक ब्रॉन ने अपनी खिलौना गाड़ी में कई फटाके बांध उसे जला दिया। वह गाड़ी काफी उपर गई और उसके शोर और धुँए ने सभी को डरा दिया। उनके इस कृत्य ने उन्हें पुलिस के पास पहुँचा दिया। चिंतित पिता ने उन्हें बोर्डिंग स्कूल भेजा। पर बचपन का यह बदमाश 22 वर्ष की उम्र में भौतिकशास्त्र में पी. एच. डी. हासिल कर, 24 वर्ष की उम्र में जर्मनी के सैन्य रॉकेट विकास कार्यक्रम का मुखिया बना। जहॉं गोड़ार्ड के कार्य को कोई महत्त्व नहीं था, ब्रॉन ने 1926 के प्रथम तरल ईधन युक्त रॉकेट के सफल प्रयोग से प्रेरणा ली और ए2 रॉकेट बनाया जिसमें इथेनाल और तरल ऑक्सीजन का प्रयोग हुआ। ब्रॉन ने फिर ए3 बनाया और बाद में ए4. इस ए4 को ही व्ही.2 Vengenance Weapon Number-2 कहा गया। व्ही 2 पहली सफल लंबी दूरी की बैलेस्टिक मिसाइल थी। आज विश्व के सभी रॉकेटों की उपज इसी व्ही 2 के माध्यम से ही हुई है।

द्वितीय विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था, हिटलर की हार करीब थी, इस डर से कि कहीं उसके विज्ञानी दुश्मन के हाथ न लग जाएँ उसने वॉन ब्रॉन और उनकी टीम को मारने का आदेश दे दिया। 1945 में रूसी शासकों के युद्धबंदियों से किए गए क्रूर व्यवहार से घबरा कर वॉन और उनकी टीम ने अमेरीकी सेना के शरणागत होना उचित समझा। ब्रॉन को पा अमेरिका की बॉछें खिल गई. अमेरिका ने इस समूह को एकान्त में रखा इस डर से कि कहीं इनकी भनक रूसियों को न लग जाए और फिर ब्रॉन ने अमेरिका के रॉकेट अभियान की कमान संभाल ली। ब्रॉन ने ही प्रथम नाभिकीय वैलोस्टिक मिसाइल ' रेद्स्टोन रॉकेट बनाया। उनकी टीम ने ही जूपिटर-2 बनाया, जिसने अमेरिका के प्रथम उपग्रह एक्सप्लोरर-1 को 31 जनवरी 1958 को अंतरिक्ष में भेजा। इस धरना ने अमेरिका के अंतरिक्ष कार्यक्रम का श्रीगणेश किया। कहते है रूस के अंतरिक्ष कार्यक्रम के मुखिया सर्जइ कोरोलेव को भी रॉकेटों के विकास की प्रेरणा व्ही.2 की उड़ान से ही मिली है। तो इस प्रकार ब्रॉन और गोडार्ड ही आधुनिक राकेटों के जन्मदाता थे। अगर तात्कालीन अमेरीकी शासकों ने ब्रॉन को पूर्ण मदद की होती तो विश्व के प्रथम अंतरिक्ष अभियान "स्पूतनिक" की जगह अमेरिका का नाम होता। अमेरीकी शासक उस समय रॉकेट की सैन्य ज़रूरत को तो समझते थे परंतु अंतरिक्ष कार्यक्रम की तरफ उनका ऐसा झुकाव नहीं था। पर 4 अक्टूबर 1957 को रूस की सफलता के बाद अंतरिक्ष में पहुँचने की होड़ बढ़ी। नासा की स्थापना 29 जुलाई 1958 को हुई और ब्रॉन नासा में चले गए. वहांॅ उन्होंने सैटर्न रॉकेट पर काम किया जो बाद में अपोलो अभियान का साक्षी बना।

चीन से शुरू होकर, भारत में परवान चढ़, गोड़ार्ड और ब्रॉन के प्रयास से आज रॉकेट ने विज्ञान के क्षितिज का विस्तार अंतरिक्ष तक कर दिया है।

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