रोग / अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
हम कौन हैं, आप यह जानकर क्या करेंगे। फिर हम आप से छिप कब सकते हैं, आपकी हमारी जान-पहचान बहुत दिनों की है। हमने कई बार आप से मीठी-मीठी बातें की हैं, आपका जी बहलाया है, आपके सामने बहुत से फूल बिखेरे हैं, आपको हरे-भरे पेड़ों का समाँ दिखलाया है। कभी सुनसान की सैर करायी है, कभी सावन भादों की काली-काली घटाओं पर लट्टई बनाया है। यह सुबह का चमकता दिनमणि है, यह प्यारा-प्यारा निकला हुआ और यह छिटकती हुई चाँदनी है, यह चिलचिलाती हुई धूप है, उँगलियों को उठाकर आपको ये बातें दिखलाई हैं, और बतलाई हैं। पर आज इन बातों से काम नहीं, इस पचड़े से मतलब नहीं। हम कोई हों, आप बातें सुनते चलिए, यदि कुछ स्वाद मिले, आपका जी मेरी बातों को सुनने को हो तो सुनते रहिए, नहीं तो जाने दीजिए, दूसरी ही बातों से जी बहलाइए। याद रखिए, एक ही तरह की वस्तु खाते-खाते जी ऊब जाता है, कभी-कभी खाना अच्छा नहीं लगता। ऐसी नौबत आती है कि दो-एक दिन यों ही रह जाना पड़ता है, या कोई हलकी वस्तु थोड़ी सी खाकर दिन बिता लेते हैं। और तो बहुत होता है, कि रहर की दाल आज बदल दो, आज उर्द की दाल। आज दाल चावल खाने को जी नहीं चाहता, आज मीठा चावल हो तो अच्छा। आप लोगों ने लाड़-प्यार की बहुत-सी कहानियाँ पढ़ी हैं, जी की लगावट और मनचलों की चालाकी भरे चोचलों की तरह-तरह की रंग-बिरंगी लच्छेदार बातें सुनी हैं। आज मनफेर कीजिए, इस छोटी-सी रचना पर अपनी नजर डालिए, देखिए इसकी बातें काम की हैं या नहीं।
जाड़ों के दिन सुख-चैन के दिन होते हैं, न उनमें गरमी के दिन की सी घबराहट और बेचैनी रहती है न बवंडर उठते हैं, न लू-लपट चलती है, न प्यास के मारे नाकों दम रहता है, न बरसात के दिनों का सा बात का जोर, न कीच काँच का बखेड़ा रहता है, न तरह-तरह के रोग फैलते हैं, और न बिशूचिका अपना डरावना चेहरा दिखलाकर दिल दहलाती है। इसका दिन साफ-सुथरा होता है, हवा धीमी और सुन्दर बहती है, जो कुछ खाइए ठीक-ठीक पचता है, न बहुत पानी पीया जाता है, न पेट भर खाने के लाले पड़ते हैं। बाजार सब प्रकार की वस्तुओं से पट जाता है, सेब, अंगूर और दूसरे मेवे बहुतायत से मिलते हैं। जब से ताऊन का पाँव भारत में पड़ा, दूसरे लोगों के लिए भी जाड़े के दिन सुख-चैन के दिन नहीं रहे। पर मुझको तो तीन साल से जाड़े के दिन बहुत सताते हैं। मुझसे एक वैद्य न कहा था, कि चालीस बरस का सिन...बाद तुम्हारी बवासीर तुमको बहुत तंग करेगी, सचमुच वह मुझको अब बहुत तंग करती है। चालीसवें साल में ही उसने तंग करने की नींव डाली और हरसाल नींव पर रद्दे रख रही है। विशेषकर माघ का महीना मेरे लिए डरावना हो गया है। इस महीने में रोग का वेग बहुत बढ़ जाता है, बहुत पीड़ा होती है, बहुत कुछ भुगतना पड़ता है। इस साल यह वेग इतना बढ़ा और उसके ऐसे-ऐसे झटके लगे कि मैंने यह सोच लिया था, कि अब बहुत हो गया, जितने दिन और घड़ियाँ बीतती हैं, गनीमत हैं। पर, दिन पूरा नहीं हुआ था, अभी शायद संसार में कुछ दिन और रहना है। इसलिए माघ बीतते बीतते मैं बहुत कुछ सम्हल गया, और अब मैं पहले से बहुत कुछ अच्छाहूँ।
यद्यपि अब मैं बहुत कुछ अच्छा हूँ, आठो पहर तबीयत नहीं ठीक रहती; पर रोग कभी-कभी अपना रंग दिखला जाता है। किसी-किसी दिन मेरी भी वही दशा हो जाती है। इससे नहीं कहा जा सकता कि कब क्या हो जाएगा। कबीर साहब ने कहा है, यह देह नव द्वार का पिंजड़ा है, उसमें हवा नामक पंछी रहता है, इसलिए उसका उड़ जाना तो विचित्र बात नहीं है, वह ठहरी हुई है, यही आश्चर्य है।
नव द्वारे का पींजरा , तामें पंछी पौन।
रहने को आचरज है , गये अचंभा कौन।
सच है, इस साँस का क्या ठिकाना, आयी न आयी। पण्डित रामकर्ण ब्याह का उमंग भरे घर आये, रात भर स्त्री के साथ रंगरेलियाँ मनाते रहे। हँसते खेलते उठे, नहाया धोया, कुछ खा-पीकर दस बजे गुरुदेव से मिलने चले। अभी घोड़ा गाँव के बाहर आया था कि सर चकराने लगा, घोड़े से उतर कर पृथ्वी पर लेट गये। लेटते ही साँस देह के बाहर हो गयी। बेचारे नहीं जानते थे कि इस तरह अचानक मृत्यु उन पर टूट पड़ेगी। मुंशी अमृतलाल कचहरी का कुछ काम करके सन्ध्या समय घर आये, दस बजे रात तक सबके साथ गुलछर्रे उड़ाते रहे, ग्यारह बजे के लगभग रोटी खाकर सोए, बातें करते-करते नींद आ गयी, पर थोड़ी देर में अचानक नींद टूट गयी, मन घबराया चारपाई से उठकर खड़े हुए, पर सँभल न सके, धड़ से पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर न उठे। स्त्री ताकती ही रही गयी। एक बात भी मुँह से न निकली। राय दुर्गाप्रसाद साहब बाबू मोहनसिंह से हँसी-मजाक कर रहे थे, और तब छूट चल रही थी, सिर में जरा धमक तक न थी, कि बाबू वहाँ से विदा हुए। पास ही घर पर पहुँच कर कपड़े उतारते थे कि राय साहब ने उनको चौंका दिया। वह दौड़कर राय साहब के पास आये, वह पृथ्वी पर पड़े हुए साँसें तोड़ रहे हैं, कुछ कहना चाहते हैं, पर जबान न खुली। इतने में जम्हाई आयी, और काम तमाम।
जनरल स्मिथ विलायत से हिन्दुस्तान आये, दिन भर कांग्रेस में बातें सुनते रहे। हँसते रहे, तालियाँ बजाते रहे, शाम को डेरे पर जाकर काम-काज करते रहे, दोस्तों से मिलते जुलते रहे, दस बजे सो गये। उनकी ऑंखें फिर न खुलीं, दिल की हरकत बन्द हो गयी थी। वे चल बसे। मिस्टर हूपर बोर्ड माल के मेम्बर थे, हाल ही में उनकी शादी थी, वे विलायत जा रहे थे। रास्ते में फ्रांस के एक होटल में ठहरे हुए थे, दिन भर शरीर बहुत अच्छा रहा, रात में उसी होटल में लाल साहब से मिले, बहुत देर तक इधर उधर की बातें करते रहे। जब सोए तब कोई शिकायत न थी, पर चार बजे पेट में दर्द उठा, लोग डॉक्टर बुलाने दौड़े पर जब तक डॉक्टर आवें, दर्द ने उनको इस संसार से उठा लिया था। वह बेचारे आये और अपना-सा मुँह लिए वापस गये।
जिन दिनों मैं नत्थूपुर में गिर्दावर कानूनगो था, एक दिन पिताजी ने अचानक दर्शन दिया, आजकल आप बहुत स्वस्थ थे, बड़े प्रफुल्ल थे, जब तक रहे, ऐसे ही रहे, आठवें दिन जब घर को पधरने लगे, तब भी मैंने उनको स्वस्थ ही पाया। पर हाय! नौवाँ दिन बड़ा बुरा था, आज आप पहर दिन बीते घर पहुँचे, नहा धोकर अच्छी तरह खाया पीया, फिर आराम किया, जब उठे तब भी तबीअत वैसी ही फुरतीली थी। संध्या समय संगतजी में भजन गाते रहे। दो घड़ी रात तक यही झमेले रहे। इसके बाद रात को घर आये। उनका नियम था कि वे दो घड़ी रात गये नित्य संगत जी में जाते थे। बड़े प्रेम से भजन करते, आज भी इस काम में कोई कसर नहीं छोड़ा। आज भी उनके भजनों का रंग वैसा ही जमा, लोग उनको सुनकर वैसा आनन्द लिये, वैसा ही राम रस में सराबोर हुए, पर कहते कलेजा मुँह को आता है, आज उनकी ये तमाम बातें सपना हो गयीं। संगत जी से वापस आकर कुछ देर अध्ययन किया, फिर सोए। पर सोने के दो घड़ी बाद पेट के दर्द से उनकी हालत खराब हो गयी, इस समय रात का सन्नाटा था, छ: घड़ी रात बीत चुकी थी। उनके चचा उनके पास ही सोए थे, वे जगकर दौड़ धूप करने लगे। परन्तु दो घण्टे में उनकी ऑंखें सदा के लिए बन्द हो गयीं। और फिर न खुलीं। यह कैसी मौत है। कुछ घड़ी पहले क्या कोई भी जी में ला सकता था कि ऐसा होगा... और भी बहुत सी बातें बतलाई जा सकती हैं, पर मतलब आप समझ गये होंगे, मतलब और कुछ नहीं; यही है कि-
क्या ठिकाना है जिन्दगानी का।
आदमी बुलबुला है पानी का।
मैं मानूँगा कि जितनी ऐसी मौतें होतीं हैं वे देखने में आकस्मिक ज्ञात होती हैं, पर सच्ची बात यह है कि वे वास्तव में बहुत दिनों के पुराने रोग का परिणाम होती हैं। जो प्राणी इस तरह मरता है, वह देखने में हट्टा कट्टा और स्वस्थ भले ही हो, खाता-पीता और कामकाज करता ही क्यों न रहे, भीतर से वह खोखला होता है। रोग उसको उसी प्रकार चाट गया रहता है जैसे किसी लकड़ी को घुन या किसी पेड़ की जड़ को दीमक। प्राय: देखा गया है कि जो पेड़ बड़ी-बड़ी ऑंधियों में अपनी जगह से थोड़ा भी नहीं हिले, वे ही साधारण हवा की झोंकों से उखड़ गये और टूट कर धारा पर गिर पड़े। इसका कारण क्या है? इसका कारण कुछ और नहीं, यही है कि उस समय दीमकों ने खाकर उसकी जड़ को इतना दुर्बल कर दिया था कि वह साधारण हवा के झोंकों को भी सह नहीं सकता था। यही गति चटपट मरने वालों की भी है। पर इससे क्या! जो यह बात मान भी ली गयी कि ऐसी मृत्यु बहुत दिनों के रोगों का परिणाम होती है, तो भी इससे यह नहीं पाया जाता कि मनुष्य के जीवन का कोई ठिकाना है। बहुत से ऐसे लोग देखे गये हैं कि वे बिना किसी पुराने रोग के एक-ब-एक मर गये। उनके हृदय की गति अचानक बन्द हुई और वे चल बसे। कितने ऐसे पाए गये कि उनको साँप काट गया और वे घण्टे आधा घण्टे ही में ठण्डे हो गये। कोई नहाने के लिए पानी में उतरा और फिर ऊपर न उठा, कोई पेड़ से गिरा और वहीं का वहीं रह गया, किसी के ऊपर बिजली गिरी और दो चार मिनट में ही उसका काम तमाम हो गया, किसी के ऊपर मकान गिरा और उसका दम वहीं टूट गया। सच बात यह है कि मनुष्य मृत्यु से हर घड़ी घिरा हुआ है, और इसलिए यह बहुत ठीक है कि मर जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, जीते रहना ही विचित्रता है। पर यह सब होने पर भी संसार की यह रीति है कि एक बीमार मनुष्य से एक अधाबीमार की और एक अधाबीमार से एक भले चंगे के जीवन का भरोसा होता है। जो रोग मुझको है, वह चौबीस बरस का पुराना है, अब भी किसी-किसी दिन उसका वेग बहुत बढ़ जाता है, इससे मैंने जो पहले यह लिखा है कि यह नहीं जाना जाता कि कब क्या होगा, यह ठीक है। पर पहले से जो मैं बहुत कुछ अच्छा हूँ, इसलिए अभी कुछ दिन और जीते रहने की आशा बँधा गयी है और इसी आशा के सहारे आज मैंने फिर आप लोगों को कुछ मनमानी बातें सुनने के लिए लेखनी पकड़ी है। देखूँ मैं अपने विचार को कहाँ तक पूरा कर सकता हूँ।
जिन दिनों मैं बहुत रुग्ण था और जी में यह बात बैठ गयी थी कि अब चलने में देर नहीं है। उन्हीं दिनों मृत्यु और परलोक के विषय में मेरे जी में बहुत सी बातें उठी हैं, मैं उन बातों को आप लोगों को भी सुनाऊँगा। आशा है आप लोग धर्य से मेरी बातें सुनेंगे।