रोज़ी / महेश दर्पण
Gadya Kosh से
तड़ाक... तड़ाक... तडाक... उसने पूरी ताक़त से सोबती के गाल पर तीन चार तमाचे जड़ दिए। वह अभी और मारता पर पीछे से सत्ते ने हाथ रोक लिया — पागल हुआ है क्या... डेढ़ हड्ड़ी की औरत है मर गई तो...?
उसके हाथ रुके तो जबान चल पड़ी
— हरामज़ादी आँख फाड़-फाड़ कर क्या देख रही है... रात भर में तुझे दो ही रुपए मिले बस ? निकाल, कहाँ छिपा रखे हैं... रोटी तोड़ते समय तो ऐसे... ।
सोबती की लाल आँखें, जो अब तक झुकी हुई चुपचाप सुने जा रही थी, उसकी ओर उठ गईं — चुप भी कर, हिजड़े ! रात भर बीड़ी के पत्ते मोड़े हैं, और तू... तन बेचना होता तो तुझे ख़सम ही क्यों करती?
(समग्र-१९७८) से। (छोटी-बडी बातें १९७८) से।