रोज-रोज थोड़ा-थोड़ा मरते हुए लोगों का झुंड / अरुण होता

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वर्तमान की समाज-स्थितियों से वार्तालाप करती हुई रचना ही समकालीनता की कसौटी पर खरी उतरती है। पूँजीवाद के विकास ने मानव-जीवन को जटिलतम बना दिया है। रघुवीर सहाय एक ऐसे प्रतिबद्ध रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से साठोत्तरी दौर में फैले मोहभंग को वाणी दी, नैतिक अवमूल्यों से ग्रसित समाज का दिशानिर्देश किया, सांप्रदायिकता एवं आतंकवादी दहशत में जी रहे सहस्रों रामदासों का नग्न यथार्थ प्रस्तुत किया। रघुवीर सहाय का कविमन समय-सापेक्षता के प्रति कृत संकल्पित है। 'सीढ़ियों पर धूप में' (1960) में वे लिखते हैं :

'रचना के लिए किसी न किसी रूप में वर्तमान से पलायन आवश्यक है। कोई-कोई ही इस पलायन को सुरुचिपूर्ण निभा पाते हैं अधिकतर लोग अतीत के गौरव में लौट जाने की भद्दी गलती कर बैठते हैं और यह भूल जाते हैं कि वर्तमान से मुक्त होने का प्रयोजन कालातीत होना है, मृत जीवन का भूत बनना नहीं।'

रघुवीर सहाय अपने 'विजन' द्वारा समाज के रेशे-रेशे का एक्सरे करते नजर आते हैं। आजादी के बाद भारतीयों ने जिस खोखली लोकतांत्रिक व्यवस्था का साक्षात्कार किया था, रघुवीर सहाय वृहत्तर यथार्थ-संदर्भों में उसे उद्घाटित करते हैं। 'आत्महत्या के विरुद्ध' की साक्ष्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

'राजधानी से कोई कस्बा दोपहर बाद छटपटाता है

एक फटा कोट एक हिलती चौकी एक लालटेन

दोनों बाप मिस्तरी, और बीस बरस का नरेन

दोनों पहले से जानते हैं पेंच की मरी चुई चूड़ियाँ

नेहरू युग के औजारों को मुसद्दी लाल की सबसे बड़ी देन

अस्पताल में मरीज छोड़कर आ नहीं सकता तीमारदार

दूसरे दिन कौन बताएगा कि वह कहाँ गया।' 1

लोकतंत्र की आड़ में राजनीतिज्ञों की कूटनीति और स्वार्थपरता ने राजनीतिक भ्रष्टाचार के प्रति साहित्यकारों को उत्प्रेरित किया। साठोत्तरी कविता में राजनीति एक अस्तित्व के रूप में उभर कर आती है। राजनीति को लक्ष्य करते हुए अशोक वाजपेयी का मंतव्य है 'राजनीति से अछूता काव्य-संसार कलात्मक ढंग से सार्थक हो सकता है, स्वायत्त भी, पर मानवीय ढंग से समृद्ध और तात्कालिक नहीं।' स्वयं रघुवीर सहाय का राजनैतिक दृष्टिकोण है - 'लेखक के लिए राजनीति से अलग रहना हर हालत में बेमानी और बेईमानी है। परंतु राजनीतिक पार्टी का गुलाम हो जाना सिर्फ उसी हालत में बेईमानी है जब आप यह हरकत समाज के नाम पर कर रहे हों।'

रघुवीर सहाय के काव्य में तत्कालीन एवं समकालीन राजनीतिक-व्यवस्था का परिदृश्य अपने संपूर्ण परिवेश के साथ उद्घाटित होता है। न केवल राजनीतिक विद्रूपताओं का बल्कि संसद की गतिविधियों का बेबाक वर्णन उन्होंने किया है -

'टूटते-टूटते

जिस जगह आकर विश्वास हो जाएगा कि

बीस साल

धोखा दिया गया

वहीं मुझे फिर कहा जाएगा विश्वास करने को

पूछेगा संसद में भोला-भाला मंत्री

मामला बताओ हम कार्रवाई करेंगे

हाय-हाय करता हुआ हाँ हाँ करता हुआ। हें-हें करता हुआ

दल का दल

पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होगा

जितना बड़ा दल होगा उतना ही खाएगा देश को।' 2

कवि की जनपक्षधरता उन्हें आंदोलित करती है कि वे शासन-तंत्र में फैले अव्यवस्था को समाज के आईने में प्रतिबिंबित करें। 'आत्महत्या के विरुद्ध' नामक काव्य-संग्रह में तो उन्होंने पूरे शासन-तंत्र की बखिया उधेड़ दी है। संसद, लोकतंत्र, जनता, मतदान, लाठीचार्ज, अश्रुगैस, कर्फ्यू इत्यादि का संबंध अमन और शांति से नहीं अपितु जनता के अधिकारों के हनन से है।

'कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में

जहाँ सदा मरता है एक और मतदाता।' 3

'नेता क्षमा करें' शीर्षक कविता में कवि अपनी सर्जनात्मकता का परिचय देते हुए राजनेताओं के भ्रष्ट-चरित्र, कपटाचार, ढोंग, चाटूकारिता का पर्दाफाश करते हुए वर्तमान यथार्थ की जटिलता को दिव्यवाणी दी है। आलोच्य रचना में प्रचलित राजनीतिज्ञों का खोखलापन अपनी तमाम विसंगतियों के साथ प्रकट होता है -

'सिहांसन ऊँचा है, सभाध्यक्ष छोटा है

अगणित पिताओं के

एक परिवार के

मुँह बाए बैठे हैं लड़के सरकार के

लूले काने बहरे विविध प्रकार के - फिर मेरी मृत्यु से डर कर चिंचिया कर

कहती है

अशिव है अशोभन है मिथ्या है।' 4

नेहरू युग के खोखलेपन, तत्कालीन देश की आर्थिक दुर्दशा, जनसाधारण की असुरक्षा से पीड़ित आत्मचेता कवि कह उठता है :

'फिर कुछ लोग उठे बोले कि आइए तोड़ें पुरानी - फिलहाल मूर्तियाँ साथ न दो हाथ ही दो सिर्फ उठा झोले में बंद कर एक नई मूर्ति मुझे दे गए।' 5

बढ़ते समय के साथ ही औद्योगीकरण एवं पूँजीवाद भी अपनी संकीर्ण परिधि का त्याग कर नूतन विस्तृत परिप्रेक्ष्य में उद्घाटित होने लगे। औद्योगिक क्रांति ने न केवल उद्योग-धंधों को बल्कि मानवीय संवेदनाओं का भी औद्योगीकरण कर दिया है। औद्योगिक-व्यवस्था ने मनुष्य-मात्र का मशीनीकरण कर दिया है, जो पूँजीपतियों के हाथ की कठपुतली-मात्र है, जो जीवित और मृत में भेद नहीं समझती। पूँजीवाद ने मानवीय अनुभूतियों की हत्या कर 'हत्या की संस्कृति को पनपने के लिए विस्तृत भावभूमि प्रदान की है। जीवित व्यक्ति की मृत-आत्मा को देखकर रघुवीर सहाय का कवि-मन कराह उठता है।' 'हत्या की संस्कृति' शीर्षक कविता में कवि का कथन है -

'हत्या की संस्कृति में प्रेम नहीं होता है नैतिक आग्रह नहीं


प्रश्न नहीं पूछती है रखैल

सब कुछ दे देती है बिना कुछ लिए हुए

पतिव्रता की तरह' 6

पूँजीवाद के विकास ने जहाँ विशिष्ट को और विशिष्ट और न्यून को और अधिक न्यून बनाया है वहाँ कवि की असाधारण दृष्टि न्यून को विशिष्ट बनाती है। जीवन-जगत् में अत्यंत सामान्य एवं महत्वहीन लगने वाली विषय-वस्तु में जीवन की संपूर्णता तलाश करना कवि की विशिष्टता है। इस दृष्टि से 'सीढ़ियों पर धूप में' संग्रह की 'बोरे', 'आओ नहाएँ', 'जभी पानी बरसता है', 'रूमाल' तथा 'पानी' शीर्षक कविताएँ महत्वपूर्ण हैं। 'पानी' शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ अवलोकनीय है -

'पानी का स्वरूप ही शीतल है

बाग में नल से फूटती उजली विपुल धार

कल-कल करता हुआ दूर-दूर तक जल

हरेरी में सीझता है / मिट्टी में रसता है

देखने से ताप हरता है मन का दुख विनसता है।' 7

'पानी' जैसी सहज-सामान्य सी वस्तु में जीवन की संपूर्णता के दर्शन करना कवि की उदात्त सौंदर्यदृष्टि का परिचायक है। 'हरेरी में सीझता', 'मिट्टी में रसता' एवं 'देखने से मन का दुख विनसता' इस पानी की कवि ने प्रतीकात्मक व्यंजना प्रस्तुत की है। यहाँ पानी मानव-चरित्र का प्रतीक है जिसका स्वभाव चिरकाल से ही शीतल है मिट्टी में रखने वाला अर्थात जीवन सींचने वाला है।

उपभोक्तावादी संस्कृति उपभोग की संस्कृति है। आम जनता के हित-अहित, हर्ष-शोक, लाभ-हानि आदि संदर्भों से उनका कोई सरोकार नहीं। यह संस्कृति इतनी अमानवीय है कि 'अकाल' जैसे संकटकालीन घटना को भी बड़ी कलात्मकता के साथ बड़े चटपटे अंदाज में पत्र-पत्रिकाओं में छापते हैं, इनका उद्देश्य अकाल-पीड़ितों के प्रति सहानुभूति फैलाना नहीं बल्कि इन रंगीन चित्रों द्वारा एक उत्तेजनाजनक सनसनी उत्पन्न कर अधिक मुनाफा अर्जित करना है। रघुवीर सहाय का रचनाकार कलागत भ्रष्टाचार को (स्वार्थलिप्सा) देखकर आहत हो उठता है। रघुवीर सहाय ऐसे रंगीन तस्वीरों का प्रतिकार करते हुए संचार-माध्यमों से पीड़ित-जनों का पक्ष लेने के लिए आग्रह करते हैं -

'यदि तुम रंगों का यह हमला

रोक सको तो रोको वरना

मत आँकों तस्वीरें

कम से कम विरोध में

और अगर चेहरे गढ़ने हों तो

अत्याचारी के चेहरे खोजो

अत्याचार के नहीं

इसको हम जानते बहुत हैं

वह अब छिपता फिरता है।' 8

तात्पर्य है कि कवि समाज में फैले अत्याचार का विरोध तो करता ही है साथ ही उसके कारणों को भी जड़-मल से उखाड़ने का पक्षधर है। नागार्जुन जैसे प्रतिबद्ध कवि ने भी 'अकाल' का मर्मभेदी चित्रांकन कर अकाल-पीड़ित जनसमुदाय के प्रति संवेदना जाग्रत करने की कोशिश की है 'अकाल और उसके बाद' शीर्षक कविता में।

आज की विडंबनाजनक स्थिति है कि 21वीं सदीं के वैज्ञानिक युग में भी अनेक ऐसे जनसमुदाय हैं जो तथाकथित परंपरित दकियानूसी विचारधारा के शिकार हैं, जो जातिगत, धर्मगत, एवं संप्रदायगत संकीर्ण मानसिकता में उलझे हुए हैं। ऐसे लोगों के प्रति कवि बिल्कुल नकारात्मक रवैया अपनाते हुए कहता है -

'मैं तुम्हें रोटी नहीं दे सकता न उसके साथ खाने के लिए बम

न मिटा सकता हूँ ईश्वर के विषय में तुम्हारा श्रम

लोगों में श्रेष्ठ लोगों मुझे माफ करो

मैं तुम्हारे साथ आ नहीं सकता' 9

संवेदनशील कवि की संवेदनशील दृष्टि रिक्शाचालक और उस पर बैठे हुए सवारी के बीच भी मानवीय रिश्ते को ढूँढ़ लेती हैं। आज जबकि पूँजीवाद में लोगों की दृष्टि बड़े-बड़े मोटरों और उसमें बैठने वाले सूट-बूटी साहब पर पड़ती है लेकिन कवि की सौंदर्य-दृष्टि में अद्भुत साम्य है। नागार्जुन की सौंदर्यदृष्टि एक रिक्शाचालक पर केंद्रित है। जनकवि नागार्जुन की सौंदर्यदृष्टि रिक्शाचालक के खुरदरे पैरों में झाँकती है तो रघुवीर सहाय उनकी अंतर्निहित भावनाओं में। 'साइकिल-रिक्शा' नामक कविता में कवि का मानवीय दृष्टिकोण अनोखा है -

'यह महज सुनने में लगता है साम्यवाद

हम अपने घोड़े को इनसान भी समझें

खास तौर से जब वह सचमुच इनसान हो

ग्लानि से भर कर रिक्शे से उतर पड़ें

पछताएँ क्यों उसकी रोजी ली

फिर तरस खाकर बख्शीश दें।' 10

सामाजिक-यथार्थ को ईमानदारी से व्यक्त करना एवं सामाजिक विसंगतियों के प्रति तीव्र आक्रोश प्रकट करना रघुवीर सहाय के लिए कविकर्म है। उनकी पारखी दृष्टि अपने समय और समाज का गहराई से निरीक्षण करती है। उन्होंने स्वयं लिखा है, 'समाज की समझ का मतलब है, समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच जितने गैर इंसानी रिश्ते हैं उनकी समझ-कहाँ से वे पैदा होते हैं, इसकी समझ और उनकी जड़ों तक पहुँच इतिहास की समझ।'11

आज आतंकवाद एवं संप्रदायवाद की तांडवलीला ने मनुष्य जीवन को कीड़े-मकोड़े के समतुल्य बना दिया है। कमजोर, असहाय एवं निरक्षर अभावग्रस्त व्यक्ति की नियति है कि वह हर ताकतवर के समक्ष नतमस्तक हो। यह प्रवृत्ति सामंती-युग की देन है जो आज भी प्रचलित है। 'हँसो-हँसो जल्दी हँसो' संग्रह की 'रामदास' कविता आज के संवेदनशून्य समाज-चेतना का जीता-जागता आईना है, जिसमें रामदास जैसे सामान्य व्यक्ति की दिन दहाड़े हत्या की जाती है और यह समाज निरीह की भाँति तटस्थ दृष्टि से सबकुछ देखता रहता है -

'निकल गली से तब हत्यारा

आया उसने नाम पुकारा

हाथ बढ़ा कर चाकू मारा

छूट लोहू का फव्वारा

कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी

भीड़ ठेल कर लौट गया वह

मरा पड़ा है रामदास यह

देखो-देखो बार-बार कह

लोग निडर उस जगह खड़े रह

लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।'12

सामंती एवं पूँजीवादी मूल्यों से ग्रसित शोषित एवं असंगठित समाज-व्यवस्था ने मनुष्यों को विवेकहीनता एवं चेतनाविहीन बना दिया है। नेमिचंद जैन का मानना है रघुवीर सहाय 'मोटे तौर पर वामपंथी या स्थापित व्यवस्था विरोधी और जनसाधारण की ओर उन्मुख हैं।'

विकासशील देश भारत आज विश्व के विकसित देशों के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है। भारत सरकार ने देश के कोने-कोने में जनसाधारण के सर्वांगीण विकास हेतु योजना बनाई। किंतु प्रशासनिकों की स्वार्थलिप्सा ने इन योजनाओं को पूर्णतः कार्यान्वित न होने दिया। परिणामतः आज भी अनेक ऐसे गाँव हैं, जहाँ शिक्षा स्कूलों में नहीं बल्कि मरघटों में दी जाती है। जहाँ एक ओर मृत्यु की दहशत है तो दूसरी ओर उस दहशतयुक्त वातावरण के साथ स्वयं को समायोजित करने की अपूर्व जीवन-शक्ति -

'कहाँ है मरघट? जो पता दिया गया था

पूछा उसे चला रामजस स्कूल के पीछे

एक जगह दो लड़के बोले, 'हाँ रामजस'

वहीं हम पढ़ते हैं - मरघट वहीं पर है?

मुँह बा कर रह गया वह युवक

यह तो पता ही न था।' 13

उपभोक्ता की संस्कृति वास्तव में सामाजिक मूल्यों, मानवीय-मूल्यों, सांस्कृतिक-मूल्यों का हनन करती है। मूल्यों की पतनशीलता इस कदर हावी है कि व्यक्ति सच बयान नहीं कर सकता, वह अन्याय का प्रतिकार नहीं कर सकता, यहाँ तक कि मुँह खोलने के पूर्व तय कर लेता हैं कि किसे हत्यारा बताने में वह सुरक्षित है -

'हर एक हत्या में, पक्ष किसका लेंगे

तय किया करते हैं उस समय

जबकि हत्यारे को पहचान लेते हैं

वे हर जमाने में सफल व्यक्ति होते हैं

जो कि पक्ष लेने से पहले तय करते हैं

किसको हत्यारा बताने में लाभ है

यह उन्हें किसी समय तय करना पड़ता है

सिर्फ देख लेते हैं कि कानून किस समय

सबसे कमजोर है

उसी समय मिलकर चिल्लाते हैं चोर-चोर।'

इस अर्द्धमृत संवेदनशून्य समाज को महसूस करते हुए डॉ. परमानंद श्रीवास्तव का मंतव्य है - 'मरती हुई संवेदना को फिर से जिलाने की कोशिश रघुवीर सहाय की कविता का निरंतर सरोकार है। अपसंस्कृति के हाहाकर में जो मूल्यवान मानवीय रिश्ते या अनुभव खो गए हैं उनकी नए सिरे से पहचान रघुवीर सहाय की कविता का एक खास प्रयोजन है।'

राजतंत्र हो या लोकतंत्र, सामंतवाद हो या समाजवाद, प्रकारांतर से भारतीय समाज में दो प्रमुख वर्गों का अस्तित्व रहा है - शोषक, और शोषित वर्ग। भारतीय समाज सामाजिक असंगतियों एवं आर्थिक विषमताओं से पूर्ण है। रघुवीर सहाय इस सामाजिक-यथार्थ को उद्घाटित करते हुए 'कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ' में वर्ग-संघर्ष को चित्रित किया है। जहाँ एक ओर सुविधा-संपन्न धनाढ्य वर्ग है तो दूसरी ओर अखबार बेचने वाला 'रामू' :

'धधकती धूप में रामू खड़ा है

खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह-रह

बेचता अखबार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं

वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा

खबर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी

करेगा कौन रामू के तले की भूमि पर कब्जा।' 14

राजनीति में फैले दलबदल की प्रवृत्ति से कवि असंतुष्ट है। वर्तमान लोकतंत्र का ढाँचा इतना अव्यवस्थित और अराजकतापूर्ण हो उठा है कि यहाँ शोषित-जन निरंतर उपेक्षित और दरिद्र होते जा रहे हैं। जनप्रतिनिधि सिद्वांतों और आदर्शों का मुखौटा लगाकर जनसाधारण को दोनों हाथों से लूटते हैं -

'मुसकाकर प्राध्यापक परिषद में मुझे आँख मारी

गृहमंत्री ने

कहते तुम ठीक हो चुप रहो

और मेरे साथ बेइमानी में शरीक हो जाओ।' 15

वर्तमान संसद वह संस्था है जहाँ राजनैतिक दलों एवं तथाकथित जनप्रतिनिधिगण अपना-अपना वर्चस्व कायम करने में लगे हैं। इन प्रतिनिधियों की माँगें तो बड़ी-बड़ी होती हैं लेकिन उन माँगों का संबंध सामान्य जनता के हितों से न होकर उनकी उदरपूर्ति से होता है। रघुवीर सहाय संसदों की इन दुर्नीतियों से बेहद क्षुब्ध हो पुकार उठते हैं -

'सेना का नाम सुन देशप्रेम के मारे

मेजें बजाते हैं

सभासद भद भद भद कोई नहीं हो सकती

राष्ट्र की

संसद एक मंदिर है जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं

जा सकता।' 16

लेनिन ने ठीक ही कहा था कि पूँजीवादी लोकतंत्र में 'संसद एक गपशप की दुकान मात्र है, जिसमें बातचीत तथा बहस के जरिए आम आदमी को बेवकूफ बनाया जाता है।'

सत्ता-पक्ष हो या सत्ता-विरोधी दल इनकी साठ-गाँठ की कुनीति भीतर ही भीतर प्रजातंत्र के दीमक की भाँति खाए जा रही है -

'पाँच दल आपस में समझौता किए हुए

बड़े-बड़े लटके हुए स्तन हिलाते हुए

जांघ ठोंक एक बहुत दूर की विदेश नीति पर

हौंकते डौंकते मुँह नोच लेते हैं

अपने मतदाता का।' 17

बुर्जुआ लोकतंत्र वास्तव में एक शोषण-प्रणाली है जिसमें जनता यातनापूर्ण जीवन जीने के लिए बाध्य है। ऐसी व्यवस्था के संदर्भ में रघुवीर सहाय का कथन है 'लोकतंत्र ने हमें इंसान की शानदार जिंदगी और कुत्ते की मौत के बीच चाँप लिया है।'18

उत्तरआधुनिक दौर में दलित-विमर्श एवं स्त्री-विमर्श एक अनिवार्य-चर्चा का विषय है।

दलित-वर्ग सदा से उपेक्षित एवं शोषित रहा है। आभिजात्यवादियों ने दलितों का शोषण कर उसे निरीह एवं पंगु बना दिया है। दलित-उद्धार हेतु बड़े-बड़े वायदे करने वाले समाज-सुधारकों की भाँति कवि ने केवल दलित-चेतना जाग्रत करने की कोशिश ही नहीं की अपितु उनसे साक्षात्कार कर, संवाद करते हुए आत्मीय संबंध स्थापित करने की कोशिश की है-

'कल मैंने देखा लाख चेहरों में एक चेहरा

कुढ़ता हुआ और उलझा हुआ वह उदास कितना बोदा

वही था नाटक का मुख्य पात्र

पर उसकी ठस पीठ पर मैं हाथ न रख सका

वह बहुत चिकनी थी।'19

सामाजिक ठेकेदारों ने दो वर्गों के बीच खाई इतनी गहरी कर दी है कि इनके बीच संवाद भी संभव नहीं हो रहा है। 'ठस पीठ' और 'चिकनाहट' प्रतीकात्मक अभिव्यंजना प्रकट करते हैं अर्थात सामंतों और पूँजीपतियों ने न केवल उन्हें दैहिक रूप से पीड़ित किया अपितु उनकी आत्मा को भी जर्जर बना दिया है। फलतः अब वे हर किसी को संदेहात्मक दृष्टि से देखते हैं -

'मैंने नाखून वाले चीकट लड़के ने

नहीं सुना जो पूछा था

पहले वह चाहता था कि मैं समझ लूँ

कि वह मेरा कौन है?' 20

महानगरीय सभ्यता ने संबंधहीनता की संस्कृति विकसित की है। इस संबंधहीनता ने केवल शहरी-जीवन को ही ग्रसित नहीं किया बल्कि ग्रामीण परिवेश को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। मानवीय-संबंधों का ह्रास रघुवीर सहाय की चिंता का केंद्र है। अतः जीवनसंघर्ष से जूझते, आम लोगों की रोजमर्रा की दिनचर्या से जुड़ने की प्रेरणा प्रदान करना कवि का उद्देश्य है -

'यही मेरे लोग हैं

यही मेरा देश है

इसी में रहता हूँ

इन्हीं से कहता हूँ

अपने आप और बेकार

लोग लोग लोग चारों तरफ हैं मार तमाम लोग

खुश और असहाय

उनके बीच सहता हूँ उनका दुख

अपने आप और बेकार।' 21

महानगरीय सभ्यता तथा वैज्ञानिक-व्यवस्था ने पर्यावरण-विपर्यय में अपनी सक्रिय-भूमिका अदा की है। पर्यावरणीय-प्रदूषण एवं प्राकृतिक आपदाओं की विकट स्थितियों से त्रस्त रघुवीर सहाय पर्यावरण-संरक्षण की अनिवार्य महत्ता आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करते हैं। कवि के लिए प्रकृति वह प्रांगण है - जिसके तले श्रमसाध्य व्यक्ति अपनी शारीरिक तथा मानसिक क्लांति दूर कर विश्राम पाता है। जीवनसंघर्ष में उलझी मनोग्रंथियाँ प्राकृतिक शीतल छाया के संस्पर्श में ही सुलझती है। कवि के लिए प्रकृति भावात्मक एवं रागात्मक अनुभूतियों का संकेंद्रण है। प्रकृति तत्वावधान में प्रस्फुटित स्त्री-पुरुष के सहज मनोरागों का एकीकरण उदात्त मानवीय संवेदनशीलता की भावभूमि संप्रेषित करती है -

'तुम में कहीं कुछ है कि तुम्हें उगता सूरज, मेमने, गिलहरियाँ कभी कभी मौसम जंगली फूल पत्तियाँ, टहनियाँ भली लगती हैं आओ उस कुछ को हम प्यार करें एक दूसरे के उसी विगलित मन को स्वीकार करें।' 22

साठोत्तरी दौर में प्रणयानुभूति के नूतन प्रसंग को उद्घाटित करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं - 'नई कविता के तत्वावधान में रोमांस तथा प्रेम के सर्वथा नवीन आयाम विकसित हुए हैं। प्रणय की एकांतिक भावना तथा अतिरिक्त सामाजिक दायित्व के बीच का आधुनिक संघर्ष नए कवियों के व्यक्तित्व में बड़े तीखेपन से प्रतिफलित हुआ है।'23

पूँजीवादी औद्योगिक परिदृश्य में कॉडवेल की दृष्टि स्वीकारते हुए यह कहा जा सकता है कि रघुवीर सहाय की कविता में प्रेम का यह नया स्वरूप न तो 'ग्रीक दास स्वामियों की संस्कृति के अनुकूल 'प्लेटोनिक प्रेम' है और न ही सामंती संस्कृति का साहसपूर्ण और स्वच्छंद तथा पूँजीवादी संस्कृति का गहरा वासनात्मक प्रेम।'24

कवि की प्रणयानुभूति एकांतिक एवं संकीर्ण नहीं वरन् जीवन की समग्रता, अर्थात सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों को अपनी परिधि में समाविष्ट करती है। यह प्रेम केवल मिलन एवं विरह की अतृप्ति में ही उलझा नहीं है बल्कि जीवन-यथार्थ की तुच्छ घटनाएँ भी उन्हें संवेदित करती हैं -

'माधवी

या और भी जो कुछ तुम्हारा नाम हो

तुम एक ही दुख दे सकी थीं

फिर भला ये और सब किसने दिये हैं

जो मुझे हैं और दुख, वे तुम्हें भी तो हैं...।' 25

आचार्य शुक्ल ने कृष्ण और गोपियों के प्रेम को साहचर्यजनित प्रेम की संज्ञा से विभूषित किया। रघुवीर सहाय की कविता प्रेमी-प्रेमिका के पारस्परिक साहचर्य से अंकुरित प्रेमानुभूति को नूतन अर्थवत्ता प्रदान करती है -

'आओ जल भरे बरतन में झाँकें

साँस से पानी में डोल उठेंगी दोनों छायाएँ...

बैठी हुई शीतल जल में छाया साथ साथ भींगें

झुके हुए ऊपर दिल की धड़कन सी काँपे

करती हुई इंगित कभी हाँ के, कभी ना के...।' 26

रघुवीर सहाय का प्रेमी मन जीवन-संघर्ष की जटिलताओं से पलायन नहीं करता बल्कि रचनात्मक प्रतिक्रियाओं को उत्प्रेरित करता है -

'अः न छुआ कर दुपट्टे से मुझे

अब यह नहीं अक्सर करूँ विश्राम

कम होगा नहीं यह घाम, तेरी प्रीत पाने से/'27

कवि की प्रेम-दृष्टि समयानुकूल है जिसे लक्ष्य कर रघुवंश लिखते हैं - 'उनकी कविताओं में भी प्रेम और रूप का आकर्षण यथार्थ से सामंजस्य स्थापित करता हुआ व्यंजित है।'28

स्त्री-विमर्श समकालीन आलोचना का मर्मांतक विषय बना हुआ है। जिसका उद्देश्य है नारी जागृति अथवा नारी चेतना की जागृति। किंतु दुखद स्थिति यह है कि एक ओर जहाँ नारी-मुक्ति आंदोलन चलाये जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर आज भी दहेज की आग में बहू-बेटियाँ अपनी आहुति दे रही हैं।

समाज का यह अंतर्विरोधी चीख के स्त्री-विमर्श के ध्वजाधारियों पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करता है। जो नारी-समानता, नारी अधिकार, नारी-शिक्षा एवं नारी मुक्ति की बड़ी-बड़ी बातें तो अवश्य करते हैं लेकिन उसे कार्यान्वित करने में सबसे बड़े बाधक वे स्वयं बनते हैं। रघुवीर सहाय नारी की इस दुरावस्था का कारण मध्यकालीन मानसिकता स्वीकारते हैं। अतः मध्यकालीन जड़ता में आबद्ध नारी की निरीहता के प्रति सहानुभूति एवं सामाजिक-व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए कवि की संदर्भित उक्ति है -

'पढ़िए गीता

बनिए सीता

फिर इन सब में लगा पलीता

किसी मूर्ख की हो परिणीता

निज घर बार बसाइये

होय कँटीली

आँखें भीली

लकड़ी सीली, तबियत ढीली

घर की सबसे बड़ी पतीली

भर कर भात पसाइये।'29

यह कवि की विराट मानवीय संवेदना का प्रतिष्ठान ही है जो नारी की दयनीय-स्थिति का यथार्थ-बिंबन के साथ-साथ स्वयं को आधुनिक कहने वाले तथाकथित सामाजिकों पर कड़ा व्यंग्य भी करता है। नागेश्वर लाल का कथन है 'रघुवीर सहाय तनाव के समय लिखने के बावजूद हँस सकते हैं यह उल्लेख्य बात है।'30 शांति दो, इतना गुस्सा होती आदि कविताओं में इन हास्य-व्यंग्य के विविध रूप देखे जा सकते हैं।

विवाहोपरांत नारी की शारीरिक एवं मानसिक दशा को बिंबित करते हुए कवि कहता है -

'नारी बिचारी है

पुरुष की मारी है

तन से क्षुधित है

मन से मुदित है।' 31

और ऐसी ही दशा में स्वयं को समर्पित करती हुई नारी घोर यातनाओं को सहज करती हुई अपारदर्शी भविष्य की ओर उन्मुख हो जाती है -

'इच्छाएँ दाबकर बदल कर स्वभाव को

जैसे ससुराल में पसंद था

रोगों को झेलकर, दिखलाकर सगुन

चार बच्चे पैदा किए।' 32

पुरुषतांत्रिक समाज चिरकाल से नारी जाति का शोषण करता रहा है। शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपरिपक्व नारी पर सामंती-समाज ने जिम्मेदारियों की ऐसी गठरी लादी जिसके भार से उसका यौवन कराहने लगा। 'औरतें' शीर्षक कविता में असमय वृद्ध होती युवतियों की कारुणिक अवस्था को सांकेतित करते हुए कवि का कथन है -

'हाथ बालों पर नहीं जिनके फेरा गया बैठकर दो चार के संग तजुर्बे अपने सुनाने का नहीं मौका मिला औरतें वे सूखकर रह गयीं उनकी बच्चियों ने जवाँ होकर दादियों की काठियाँ पाईं।' 33

रघुवीर सहाय का रचनाकर्म पतनोन्मुखी सामाजिक-व्यवस्था को बदलने का आग्रह प्रस्तुत करता है। शोषितों-पीड़ितों के प्रति सहानुभूति एवं आततायियों के प्रति आक्रोश व्यक्त कर कवि अपने कविकर्म की इतिश्री नहीं करता बल्कि मुक्तिबोध की भाँति अराजकतावादी समाजतंत्र को नंगा कर क्रांति का संचार करता है।

'कई कोठरियाँ थीं कटार में

उनमें से किसी में एक औरत ले जाई गई

थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया

उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा

उसके बचपन से जवानी तक की कथा।' 34

'हँसो हँसो जल्दी हँसो' संग्रह की 'अकेली औरत', 'किले में औरत', 'आप' आदि कविताएँ स्त्री-विमर्श के विभिन्न पहलुओं को मूर्त करती हैं।

बाजारवादी समाजतंत्र की आत्यंतिक विडंबनाजनक स्थिति तब उजागर होती है जब आर्थिक-विपन्नता से त्रस्त चालीस-वर्षीय महिला सड़कों पर पुरुषों को लुभाती हुई वैश्यावृत्ति को अपनी जीविका स्वीकारने के लिए विवश है।

'खड़ी किसी को लुभा रही है

चालीस के ऊपर की औरत ....

ऐसी दया जगाती थी वह

चालीस के ऊपर की औरत

वैसे काम जगाती शायद

चालीस के ऊपर की औरत।'35

उपर्युक्त पंक्तियों की समीक्षा करते हुए नंदकिशोर नवल का मंतव्य है, 'कविता की गहराई से जो स्वर उठता है, वह उस स्त्री के प्रति उपहास का भाव नहीं, बल्कि करुणा जगाता है। क्या उस स्त्री का किसी पुरुष को लुभाने का प्रयास उनके असामान्य सामाजिक-जीवन का परिणाम नहीं हैं।'

वर्तमान व्यवस्था में सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों के शिकार बाल-मजदूरों की असुरक्षित भविष्य के प्रति कवि की अत्यंत चिंता है। 'हँसो-हँसो जल्दी हँसो' संग्रह की 'आमार सोनार' 'दिल्ली' 'फूल माला हाथों में', 'दर्द' 'जीने का खेल' आदि कविताएँ कवि के व्यापक मानवीय करुणा को व्यंजित करती है।

रघुवीर सहाय मानव-मनोविज्ञान के विश्लेषक भी हैं। 'नई कविता' अर्थात साठोत्तरी दौर में बढ़ती सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक जटिलताओं के साथ-साथ मानव मन के रहस्य और भी जटिल होते गए। फलतः व्यक्ति कुंठा, निराशा एवं पलायनवाद की ओर उन्मुख हुआ। रघुवीर सहाय कुंठित व्यक्ति की इस कुंठा को स्वीकार नहीं करते तथा इसे 'मन का कुप्रबंध' कहते हैं -

'तू हत विक्रम श्रम हीन दीन

निज तन के आलस से मलीन

माना यह कुंठा है युगीन

पर कोई तेरा धर्म नहीं?

ये रिक्त अर्थ उन्मुक्त छंद

संस्मरणहीन जैसे सुगंध

यह तेरे मन का कुप्रबंध

यह तो जीवन का मर्म नहीं।' 36

साम्राज्यवादी शक्तियों, सांप्रदायिक नीति एवं आतंकवादी हमलों के बीच मानव की सहज एवं निष्कलुष अभिव्यक्ति 'हँसी' आज अनेक विडंबनाओं का शिकार हो गई है। पूँजीवादी संस्कृति ने मनुष्य की सात्विक एवं मानवीय संवेदनाओं का भी शोषण किया है। शोषण का यह आधुनिक रस व्यक्ति की स्वतंत्र अस्मिता को प्रायः शून्य करती जा रही है -

'हँसते हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो

सबको मानने दो कि तुम पराया होकर

एक अपनापे की हँसी हँसते हो

जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय।'

'बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो

ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे।' 37

सहज मानवीय प्रवृत्ति 'हँसी' के इस नवीनतम रूप में अभिव्यंजना के संदर्भ में कवि की मान्यता है - 'हँसी को मैंने आदमी की बदलती हुई हालत का सूचक जैसा मान लिया है और जहाँ भाषा से - उसकी भाषा से - उसको समझना उतना आसान नहीं होता है वहाँ आप अक्सर देखते हैं कि आदमी की हँसी से आप उसको समझ लेते है।'38

निष्कर्षतः सामंतवाद और पूँजीवाद की आपसी साठ-गाँठ ने जिस राजनैतिक, सामाजिक, अनैतिकता, आर्थिक वैषम्य, मूल्यहीनता, संवेदनहीनता, कृत्रिमता, बाह्याडंबर और दिखावे की संस्कृति को जन्म दिया है रघुवीर सहाय उन सभी पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों से संवाद करते हुए उन पर प्रहार करते नजर आते हैं।


संदर्भ

1. सं. शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 145

2. यथोपरि, एक अधेड़ भारतीय आत्मा, पृ. 137-138

3. यथोपरि, पृ. 136

4. यथोपरि, पृ. 109

5. यथोपरि, पृ. 118-119

6. सं. शर्मा, सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, कुछ फूल कुछ चिट्ठियाँ, पृ. 268,

7. सं. सुरेश शर्मा, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 89

8. कंक, जनवादी कविता विशेषांक, पृ. 91

9. सं. शर्मा, सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 118

10.सं. शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, पृ. 301

11. रघुवीर सहाय, लिखने का कारण, पृ. 158

12. सं. शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, हँसो हँसो जल्दी हँसो, पृ. 169

13. सं. शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, पृ. 273,

14. यथोपरि, पृ. 206

15. सं. शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 139

16. यथोपरि, पृ. 116-117

17. यथोपरि, पृ. 117-118

18. यथोपरि, वक्तव्य, पृ. 103

19. यथोपरि, पृ. 144

20. यथोपरि, पृ. 131

21. यथोपरि, पृ. 119

22. सं.शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 88

23. हिंदी नव लेखन, पृ. 74

24. रणजीत, हिंदी की प्रगतिशील कविता, पृ. 252

25. सं. शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 63

26. यथोपरि, पृ. 57

27. यथोपरि, दूसरा सप्ताह, पृ. 48

28. रघुवंश, साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य, पृ. 162

29. सं. शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 79

30. लाल नागेश्वर, विवेचना संकलन-3, पृ. 10

31. सं.शर्मा सुरेश, रघुवीर सहाय ग्रंथावली-1, आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 92

32. यथोपरि, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, पृ. 290

33. यथोपरि, पृ. 281

34. यथोपरि, हँसो हँसो जल्दी हँसो, पृ. 161

35. यथोपरि, पृ. 176

36. यथोपरि, सीढ़ियों पर धूप में, पृ. 86

37. यथोपरि, हँसो हँसो जल्दी हँसो, पृ. 168

38. सहाय रघुवीर, लिखने का कारण, पृ. 98