रोटी का सवाल, संसद मौन, सिनेमा मुखर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 अगस्त 2019
आज जनजाति एवं आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है। गत कुछ वर्षों में मातृ दिवस, मित्रता दिवस, प्रेम दिवस इत्यादि मनाए जाने लगे हैं। रोशनी की जाती है, रस्म अदायगी पूरी करते ही समाज अपने पुराने रवैए पर लौट आता है। जनजाति पृष्ठभूमि पर अधिक फिल्में नहीं बनी हैं। सिनेमाघर शहरों में ही बने हैं और उनमें रहने वालों को इस विषय में कोई रुचि नहीं है। जंगल काटकर शहर बने और अब शहर भी बीहड़ की तरह असुरक्षित हो गए हैं। प्राय: खबर आती है कि तेंदुआ बस्ती में आ गया। वह बेचारा क्या करता, उसके घर में घुसपैठिए आ बसे हैं। मेहरून्निसा परवेज, गुलशेर साहनी और रायपुर निवासी सेवानिवृत्त अफसर संजीव बख्शी ने जनजातियों के विषय में कथा साहित्य रचा है।
जनजातियों में विवाह की नीतियां और संस्कार अलग हैं। मेहरून्निसा परवेज की एक कहानी में इस आशय की बात लिखी है कि वर को दहेज देना होता है और वधु के पिता द्वारा मांगी गई रकम नहीं होने पर उसे यह विकल्प दिया जाता है कि वह अपनी प्रेमिका के पिता के घर कुछ समय तक चाकरी करें। कथा में कन्या का पिता कन्या के प्रेमी से इतना कड़ा परिश्रम करवाता है कि वह मर जाए। कन्या अपने पिता के इरादे को समझकर एक रात अपने पति के साथ भाग जाती है। एक रस्म इस तरह है कि वर-वधू को बाहों में लिए या पीठ पर लादे हुए भागता है और वधु के छोटे भाई-बहन, पड़ोसी प्रयास करते हैं कि वह कैसे भी वधू को गिरा दे और ऐसा होने पर विवाह निरस्त कर दिया जाता है। यह उसकी शारीरिक क्षमता का परीक्षण है। ज्ञातव्य है कि आर बाल्की की फिल्म चीनी कम में 30 वर्षीय तबु अपने 64 वर्षीय प्रेमी से कहती है कि वह दौड़कर वृक्ष को छुए और दौड़ता हुआ लौटकर आए। अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र पूछता है कि वह यह क्यों करवा रही है, तब तबु कहती है कि 'जानना चाहती हूं कि तुममें कितना दम है'। बस्तर जनजातियों के छोटुल के बारे में गलत धारणाएं बनी हैं। कुछ लोग समझते हैं कि यह खुल्लम-खुल्ला शारीरिक अंतरंगता बनाने की सहूलियत है। दरअसल आदिवासी युवा वर्ग रात को सामूहिक नाच गाने का उत्सव मनाते हैं। जिसके दरमियान प्रेम अंकुरित होता है और फिर इसके बाद विवाह से इनकार नहीं किया जा सकता। दशकों पूर्व आर के नैय्यर कैमरामैन राजू करमाकर के प्रशिक्षित पुत्र और खाकसार ने बस्तर में काफी समय बिताया। हम लोग एक फिल्म की पटकथा लिख रहे थे। 'बस्तर की बेटी'नामक वह फिल्म आर के नैय्यर के असमय निधन के कारण नहीं बन पाई। रायपुर निवासी सेवानिवृत्त आला अफसर संजीव बख्शी की कथा 'भूलन कांदा' एक महान रचना है और इससे प्रेरित फिल्म भी बन चुकी है, परंतु सिताराविहीन इस सार्थक फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो पाया। बस्तर में यह मान्यता है कि जंगल में एक जड़ पर पैर पड़ते ही व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है। जब कोई अन्य व्यक्ति उसे स्पर्श करे तो वह उस जादुई भुलक्कड़पन से स्वतंत्र हो जाता है। वर्तमान की व्यवस्था का पैर भूलन कांदा पर पड़ गया है और वह अपना काम भूल चुकी है। उद्योग ठप हैं, बनी हुई इमारतों के खरीददार नहीं। हर कोई गुनगुना रहा है 'बाजार से गुजरा हूं परंतु खरीददार नहीं हूं' मिथुन चक्रवर्ती को मृणाल सेन ने अपनी फिल्म 'मृगया' में अवसर दिया था। भूमिका जनजाति के युवा की थी। दशकों पूर्व बनी महबूब खान की फिल्म 'रोटी' में एक धनवान व्यक्ति अपने आसाम में स्थित चाय बागान के निरीक्षण के लिए जाता है और कार की दुर्घटना हो जाती है। घायल अवस्था में आदिवासी उसका इलाज अपनी जड़ी बूटियों से करते हैं। उसे सेहतमंद होने तक लंबा समय लगने वाला है। इसलिए शेख मुख्तार अभिनीत आदिवासी युवा को वह एक पत्र देकर शहर भेजता है। अंग्रेजों के राज में रेलवे स्टेशन पर हिंदू और मुस्लिम चाय को अलग-अलग बेचने का आदेश था। यह उनके बांटकर शासन करने की नीति का हिस्सा था।
दरअसल यह भी भ्रामक है कि डिवाइड एंड रूल उनका आविष्कार था। हम तो हमेशा ही बंटे हुए रहे हैं और वर्तमान उसका स्वर्णकाल है। शेख मुख्तार चाय वालों से उलझ जाता है कि एक ही पेय को दो नामों से क्यों बेचा जा रहा है। उसने उन्हें अलग-अलग समझकर खरीदा था। बहरहाल फिल्म 'रोटी' में धनवान का एक हमशक्ल उसकी जगह ले लेता है। शेख मुख्तार के वहां पहुंचने पर वह घर का सोना-चांदी व हीरे कार में लादकर भाग रहा होता है। एक मोड़ पर गाड़ी उलट जाती है। लालची हमशक्ल सोने के ढेर के नीचे दबा है और रोटी मांग रहा है। इसके जरिए संदेश दिया गया है कि धन दौलत से ज्यादा जरूरी रोटी है। 'आवारा' में नायक रोटी चुराते हुए पकड़ा जाता है। जेल में रोटी मिलते ही वह कहता है कि यह कमबख्त रोटी बाहर मिल जाती तो वह जेल क्यों आता।