रोड टेस्ट / इला प्रसाद

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"तो मैम रोड टेस्ट पास कर लिया आपने?" कार्ला पूछ रही थी।

अचानक सुनीता उसे पहचान नहीं पाई।

उसे रोड टेस्ट पास किए हुए लगभग छह महीने बीत चुके थे। बहुत झिझक–झिझक कर, डरते हुए वह अकेले घर से कार लेकर निकलती। पहली बार तो डॉलर स्टोर तक जाकर ही लौट आई। डॉलर स्टोर उसके घर से बस इतनी ही दूरी पर था कि एक सिगनल पार करना पड़े। फिर धीरे–धीरे पोस्ट आफ़िस, वॉलमार्ट... दूरियाँ बढ़ती गईं। अब तो वह फीडर रोड पर भी आराम से ड्राइव करती है। बस अकेले हाइवे पर जाने का साहस नहीं बटोर पाती। वहां पर राजीव का साथ चाहिए, भले ही स्टीयरिंग व्हील उसके हाथ में हो। साठ सत्तर मील की रफ़्तार अभी भी उसके दिल की धड़कनें बढ़ा देती है।

"तुम क्या सोचती हो? सुनीता ने भी उसी व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां, इस तरह, पोस्ट ऑफ़िस में, उसे कार्ला मिल जाएगी।

"कितनी बार में पास हुईं तुम, दूसरे ऑफ़िस से?" कार्ला ढीठ थी।

"तुम्हें इससे मतलब?" सुनीता ने रूखाई से जवाब दिया और आगे काउंटर की ओर बढ़ गई।

"हिम्मत देखो इसकी।" मन ही मन सोचा उसने।

"चाहे मैं सौ बार में रोड टेस्ट पास करूँ, तुमसे मतलब। तुम्हारी गंदी सूरत तो नहीं देखनी पड़ी न मुझे। न ही तुम्हारी घटिया बातें सुनी मैंने।"

"ये सरकारी दफ़्तरों में काम करनेवाले अपने आप को विशिष्ट समझते हैं। सोचते हैं हमारे हाथ में अधिकार है, हम कुछ भी कर सकते हैं। इनके मुँह न ही लगो तो अच्छा।" राजीव ने उसे शुरू में ही समझा दिया था। यही वजह थी कि वह ज़ब्त कर गई। वरना ड्राइविंग सीखते वक्त तो उसके ड्राइविंग टीचर ने इतना ही बतलाया था कि सुबह आकर नाम दर्ज़ कराना पड़ता है और दोपहर में परीक्षा होती है। तब उसे जरा भी अंदाज़ा नहीं था कि यहां इस तरह लंबी लाइन होती होगी ऑफ़िस के सामने और लोग मुँह अंधेरे से लाइन में खड़े हो जाते होंगे। या कि यह सड़क पर गाड़ी चलाने की परीक्षा वस्तुतः दिन भर चलती है, जिसका जब नंबर आए।

जब दस घंटे का ड्राइविंग कोर्स लेने के बाद भी उसने कार समानांतर पार्क करने में दक्षता हासिल नहीं की तो राजीव ने तय किया कि ड्राइविंग टीचर को विदा कर देना चाहिए। इतनी सी चीज़ वह खुद सिखा देंगे। यों भी दस घंटो की ट्रेनिंग के चार सौ डालर बहुत थे।

उसके बाद फिर से उनके झगड़े शुरू हो गए।

राजीव उसे लेकर पार्किंग एरिया में जाते। वह कभी ठीक पार्क करती, कभी ग़लत। राजीव का धीरज छूट जाता। गुस्सा बढ़ता जाता और वह उनसे दुगुना गुस्सा होकर, फिर कभी ड्राइविंग न करने की कसम खाकर लौट आती। फिर महीनों बीत जाते . . .सुलह हो जाती। फिर एक दिन ठंडे दिमाग़ से राजीव उसे ले जाते कि इस बार वे गुस्सा नहीं करेंगे। फिर नियंत्रण खो बैठते, फिर वह लौट आती।

सड़क पर कार चलाने का अभ्यास करने के लिए लर्नर लाइसेन्स उसने एक ही बार में लिखित परीक्षा पास करके ले लिया था। उस लाइसेन्स को भी अब साल भर होने को आ रहा था। उसकी समाप्ति की तिथि क़रीब थी। सुनीता की घबराहट अंदर ही अंदर बढ़ती जा रही थी।

वह जब–जब राजीव की डांट खाकर ड्र्राइविंग प्रैक्टिस अधूरी छोड़कर घर लौटती तो राजीव पर चिल्लाती, "जब चार सौ डॉलर खर्च किए तो सौ पचास और दे देने में आपका क्या जा रहा था? मैं थोड़ी और प्रैक्टिस करके उसी टीचर से समानांतर पार्किंंग भी सीख जाती और फिर ड्राईविंग टेस्ट पास कर लेती।"

"और जाकर गाड़ी कहीं ठोक आती . . ." राजीव मुस्कराते।

सुनीता की खीझ बढ़ जाती।

"खुद दस सालों से चला रहे हो, ठोका नहीं तो क्या, कितने टिकट मिले हैं, यह तो बताओ?"

राजीव चुप लगा जाते।

वे असावधान ड्राइवर नहीं थे। लेकिन तब भी गति सीमा से अधिक गति से गाड़ी चलाने के लिए उन्हें कई बार ट्रैफ़िक टिकट मिले थे। सुनीता यह बात जानती थी इसलिए ऐसे मौकों पर वार करने से न चूकती। उसे यह बात परेशान भी करती थी। सत्तर मील प्रति घंटा क्या कम गति है कि इन्हें अस्सी नब्बे पर चलाने का मन होता है। लेकिन ऐसे मौकों पर आम तौर पर मौन ही रहती।

उसे ड्राइविंग नहीं आती थी।

पर कटी चिड़िया की तरह वह शादी के बाद घर में कैद हो गई थी। घर जेल लगता। अक्सर ही अत्यधिक कुंठाग्रस्त हो जाती जब लंबे समय तक घर में अकेली रहती। सुबह के निकले राजीव सांझ ढले घर लौटते।

सुनीता दिन भर करे क्याॐ

अगल बगल रहने वाले स्पैनिश, वियतनामी, अमेरिकन पड़ोसियों से मित्रता थी लेकिन घरों में बैठकर बतकट्टी करने का सुख केवल भारतीयों के बीच मिल सकता था। और इस अजनबी देश के अजनबी शहर में अपने देशवासियों पर भी इतना भरोसा नहीं था कि उनके सामने दिल खोले। और चाहे भी तो उन तक पहुंचे कैसे। कार चलाना तो नहीं आताॐ

यानी कि पैर नहीं हैं उसके।

अमेरिका की सड़कों पर कार ही पैर हैं।

कहां से कब आएंगे पैर?

अभी तो अपने ही पैरों पर भरोसा नहीं है उसे। ब्र्रेक के बदले एक्सीलरेटर दब जाता है।

उस दिन राजीव के साथ थी। वह आवासीय कॉलोनी थी जहां सुनीता प्रैक्टिस कर रही थी। अपनी कॉलोनी से दूर। राजीव के लेक्चर बढ़ते जा रहे थे। सुनीता का धीरज छूट रहा था। जुबान पर सौ–सौ ताले। वह कसम खाकर निकली थी, आज एकदम चुप रहेगी। राजीव की किसी बात का जवाब नहीं देगी। बेकार की बहस से इस इंसान की उत्तेजना और बढ़ती है।

आत्मनियंत्रण की हद करीब थी।

राजीव के अगले आदेश पर उसने गाड़ी को अगली गली में मोड़ा।

"दाहिनी ओर।"

"सिगनल दो। क्या करती होॐ"

"चलाओ चलाओ।"

उसने एक्सीलरेटर पर पैर दबाया।

"रुको, दीखता है सामने क्या है? आंखें खोलकर गाड़ी चलाओ।"

उसने ब्रेक मारा।

"ब्रेक लगाओ।" राजीव चीखे।

घबराहट में उसका पैर वापस ऐक्सलरेटर पर आ गया और वह संभले इससे पहले गाड़ी सामनेवाले घर के अहाते में जा चढ़ी। घर के ठीक सामने लगी पत्रपेटी अपने लकड़ी के खंभे के साथ धराशाई हो चुकी थी।

तबतक उसे होश आ चुका था। पैर वापस ब्रेक पर थे।

वह पस्त हो गई।

नहीं कभी नहीं। वह कभी भी कार नहीं चला पाएगी।

"गाड़ी तोड़ो। इस घर के मालिक को लेटरबॉक्स तोड़ने का हर्जाना दो।" राजीव चीख रहे थे। खै.रियत थी कि वह दोपहर का वक्त था। कोई आस पास नहीं था। सड़क भी सूनी सी। राजीव चुपचाप गाड़ी निकाल ले गए। . . .

उस दिन के बाद राजीव ने कभी भी उसे ड्राइविंग सिखाने की बात नहीं की।

वह चुपचाप घर में घुटती।

कम्प्यूटर पर उपलब्ध हिंदी की पत्रिकाएं पढ़ती।

उसे इस पराए देश से कोई प्यार नहीं था।

न यहां के रहनेवालों से।

इस देश की व्यवस्था को वह ज़रूर प्रशंसा भरी नज़रों से देखती। साफ़–सुथरी सड़कों को सराहती। दो सालों के अंदर ही उसने पूरा अमेरिका देख लिया था। राजीव को ड्राइविंग का शौक था। वह उसे लेकर हवाई जहाज़ से भी कहीं जाते तो दो शहर पहले तक का टिकट बुक करते। फिर भाड़े की कार लेकर तमाम दर्शनीय स्थलों की सैर कराते।

यहां यह सब सहज सुलभ, संभव था। तब भी वह उस तरह खुश नहीं हो पाती जैसी राजीव को अपेक्षा थी। लगातार कार में बैठे–बैठे उसके पैर दुखते, कमर दुखती। हर अगले विश्राम स्थल पर कार से उतरकर वह टहलती। पानी पीती। पानी की बोतल भरने का बहाना हो या फिर कुछ खा पी लेने का, वह उतरती ज़रूर। तब भी ज़िंदगी बंधी सी लगती। हर वक्त, हर हाल में। कोई स्वतंत्रता नहीं। किसी चुनाव की स्वतंत्रता नहीं। स्वतंत्रता की कीमत पर व्यवस्था।

व्यवस्था जिसमें वह है राजीव की पत्नी।

घर के सारे काम संभालती, घर के अंदर बंद।

जैसे कार की अगली सीट पर सीट बेल्ट से बंधी।

उसकी सीमा कार के बाहर दो कदम चलने तक की है। जैसे वह शाम को खाना खाकर अपने सबडिवीजन में थोड़ा चक्कर काट लेती है। वहां तक, जहां तक वह चलकर जा सकती है।

और वह दूरी बहुत थोड़ी है।

पहले दूरियों का भी अंदाज़ा नहीं था उसे। राजीव के साथ वह कार में बैठती। एक, दो, तीन सिगनल गिनती और सार्वजनिक पुस्तकालय का मोड़ आ जाता। उसे लगता, लाइब्रेरी तो बहुत नज़दीक है। एक दिन उसने खुद राजीव से प्रस्ताव किया, वह लाइब्रेरी जाया करेगी। वहां पढ़ने को बहुत कुछ है। इन दिनों वह अपने लिए कम्प्यूटर पर टीचिंग जॉब ढ़ूंढ़ती रहती है। अपने विषय के संपर्क में बने रहना बुद्धिमानी होगी। इंटरव्यू देना आसान हो जाएगा। जान सकेगी यहां क्या, कैसे पढ़ाया जा रहा है।

राजीव को उसकी बात जंची।

उन्होंने कहा, "ठीक है। मैं तुम्हें लाइब्रेरी छोड़ दूंगा। तुम वापसी में 108 नंबर की बस ले लेना। वह बस क्रोगर तक पहुंचाएगी। वहां 94 मिलेगी। उससे कॉलोनी के मोड़ तक पहुंच सकती हो। वहां से थोड़ा पैदल चलकर घर तक पहुंच जाना। दो डालर लगेंगे। ठीक है?"

उसे मन ही मन हंसी आई। प्रकटतः उसने सहमति में सिर हिलाया। इतना तो वह कर ही सकती है। बल्कि वह बस के लिए क्यों रुकने लगी। तीन सिगनल पैदल नहीं चल सकती। युनिवर्सिटी से घर पैैदल चली जाती थी कितनी बार। इतनी दूर था तब भीॐ

राजीव को उसकी सोच का अंदाज़ा नहीं था।

वह उसे लाइब्रेरी छोड़ कर चले गए।

वह शुरू में थोड़ा घबराई, फिर सुस्थिर मन से किताबों की दुनिया में खो गई। शीशों से छनकर धूप जब उसकी टेबल पर आने लगी तो उसने चौंक कर महसूसा कि शाम हो गई है। अपनी योजना के मुताबिक वह सड़क पर निकल आई। राजीव के लौटने से पहले घर पहुँच जाएगी वह। बाहर की खुली हवा उसे अच्छी लगी। वह आज़ाद महसूस कर रही थी। अपने पाँवों से दूरियाँ नाप रही थी।

जल्दी ही सड़क पर चलती गाड़ियों का शोर उसके कानों के पर्दे फाड़ने लगा। कार के अंदर बैठे हुए उसने कभी इस शोर को नहीं महसूसा था। शाम हो चुकी थी। सामने पार्क के अंदर चहलकदमी कर रहे लोगों की भीड़ थी। लेकिन सड़क पर पैदल चलने वाला उसके अतिरिक्त कोई नहीं था। सड़क नहीं, सड़क किनार की घास पर चल रही थी वह। आती जाती गाड़ियों से बचती बचाती। फुटपाथ था ही कहांॐ

थोड़ी ही दूर चलकर उसे अपनी बेवकूफ़ी का अहसास होने लगा। जो सिगनल इतने पास लगते थे वे अब बहुत दूर नज़र आ रहे थे। कार 45 मील की गति से चलती थी और वह? . . .लेकिन 108 का स्टॉप पीछे छूट गया था।

गुज़रती गाड़ियों से लोग उसे घूरकर देखते। पहले सुनीता को लगता था इस देश में कोई किसी पर ध्यान नहीं देता। तुम जो चाहो करो।

108 उसके सामने से गुज़र गई। सुनीता तब तक अगले स्टॉप तक ही पहुँच लेती तो बस में चढ़ जाती लेकिन उसके वहां पहुंचने तक तीन बसें और गुज़र गईंं। पैर दर्द से तड़क रहे थे। वह कुछ देर अनिश्चय की स्थिति में खड़ी रही। वहां भी उसके साथ को कोई नहीं था। अगली बस कब आएगी किससे पूछे? थोड़ी देर में ही धीरज जवाब दे गया। इससे तो अच्छा वह चल ही लेती..

उस दिन घर पहुँचने तक अंधेरा घिर आया। राजीव उससे पहले घर वापस आ चुके थे। लाइब्रेरी के चक्कर लगाकर और आस पास उसे ढूंढ़कर। बेचैनी और गुस्सा दोनों चरम पर। उसने उन्हें मोबाइल पर सूचित क्यों नहीं किया, इसका हिसाब मांगा गया। उसके पैदल चलने की तुलना गांधी जी के डांडी मार्च से की गई और सुनीता फिर से घर में बंद हो गई।

"मैं आठ बार में रोड टेस्ट में पास हुआ था। मैं समझता हूँ इतना अच्छा रिकार्ड शायद ही किसी का रहा होगा। हो, हो। स्टैनफर्ड युनिवर्सिटी का छात्र रह चुका सर्वेश सक्सेना ठहाके लगा रहा था। "लेकिन बीस सालों से गाड़ी चला रहा हूँ, कभी टिकट नहीं मिला। ये हुई न बात। यों भी आप अमेरिका आते हैं तो यह समझी हुई बात है कि आपको कार तो चलानी है। नए सिरे से जनम होता है आपका इस देश में। सोशल सिक्योरिटी नंबर, ग्रीन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस। सोशल सिक्योरिटी नंबर मिला तो आप इस देश में पैदा हुए। ड्राइविंग लाइसेंस मिला तो चलना आ गया। बोल, ग़लत कह रहा हूँ?"

राजीव ने सिर हिला दिया।

पास बैठी सुनीता मन ही मन गुन रही थी। ठीक ही कह रहा है। उसे चलना सीखना होगा। जब उसने बैंक में खाता खोला था तो उसे उसका बैंक कार्ड थमाते हुए काउंटर पर बैठी लड़की ने कहा था, "यह तुम्हारी दूसरी आइडेंटिटी (पहचान पत्र) है।

पहली पहचान ड्राइविंग लाइसेंस। सुनीता को अपनी पहचान चाहिए।

फिर शुरू हुआ हांगकांग मार्केट के पीछे के रास्ते पर कार चलाने का सिलसिला। तब से बहुत दूर आ चुकी है अब।

राजीव ने तय कर लिया है उसे ड्राइविंग टीचर के सुपुर्द कर देंगे। उसकी कार में दो ब्रेक होते हैं। सुनीता की बेवकूफ़ी पर वह अंकुश लगा सकता है। सुनीता को लगा, उसने जंग जीत ली।

एक सप्ताह में ही, दस घंटे की ड्राइविंग करके उसमें इतना आत्मविश्वास आ गया था जितना राजीव के साथ साल भर में नहीं आ पाया था। वह राजीव की कृतज्ञ थी कि अंततः उन्होंने उसकी परेशानी समझी। उसे राजीव का डर भी सही लगने लगा था। उसकी एक ग़लती कार को बॉडी शॉप के दर्शन करा सकती थी। खुद उसे अस्पताल पहुंचा सकती थी। राजीव का गुस्सा ग़लत नहीं था। वह मन ही मन सहमत होती। लेकिन समानांतर पार्किंग ने फिर उसे राजीव के समानांतर ला खड़ा किया। सुनीता को लगता कि राजीव ज़बरदस्ती उसके ड्राइविंग टीचर बने रहना चाहते हैं, ताकि अंततः उसे ड्राइविंग सिखाने का श्रेय खुद ले सकें। वह गुस्से में उन्हें कई बार कह चुकी थी कि वे कभी ड्राइविंग टीचर नहीं बन सकते। लेकिन राजीव का गुस्सा अब ठंडा पड़ता जा रहा था। उन्हें यह बात भी महसूस होने लगी थी कि सुनीता में आत्मविश्वास आ गया है। वह अब अपने बूते पर घर से निकल सकती है। घर के अंदर रहते हुए भी अपने को व्यस्त रखने के ढेरों साधन जुटा चुकी थी वह।

घर व्यवस्थित हो गया था।

घर के बाहर एक छोटा मोटा बग़ीचा तैयार था।

और तो और उसने घर पर ही संगीत की कक्षाएं लेना शुरू कर दिया था। बच्चे जुटने लगे थे। वह व्यस्त थी और राजीव को अपना फैसला सुना चुकी थी, "मुझे लगता है मैं समानांतर पार्किंग कर लूंगी। मेरी थोड़ी प्रैक्टिस करवा कर मुझे रोड टेस्ट दिलवा दो।"

उसने उसी जगह पर जा कर अभ्यास किया जहां परीक्षा होनी थी।

राजीव ने भी माना, वह कर सकती है। सुनीता को लगा उसे पैर मिलनेवाले हैं। "मैं पास हो जाऊंगी न?" वह राजीव से पूछती। राजीव प्यार से मुस्करा देते। कभी हिदायतें देते, "सावधानी से चलाना। ठीक से टर्न लगाना। सीट बेल्ट लगाना न भूलना। कुछ मुश्किल नहीं है। हो जाएगा।"

लेकिन असली मुश्किल तो अब आनी थी।

दो दिन बाद राजीव ने उस ऑफ़िस में फ़ोन किया था। सुबह साढ़े नौ बजे। सूचना टेबल पर बैठी लड़की ने फ़ोन उठाया। उसके अनुसार सुबह साढ़े आठ बजे के अंदर ही सारे स्लॉट बुक हो गए थे।

"तो मैं कल कितने बजे आऊं?" राजीव ने पूछा, "सुबह छह बजे? सुबह चार बजे?"

वह लड़की घबरा गई। "नहीं, नहीं, इतनी जल्दी नहीं। सात बजे तक आ जाना।"

अगले दिन ऑफ़िस के बाहर का नज़ारा दर्शनीय था।

बिल्डिंग के अगले दरवाज़े से पिछले दरवाज़े को पार करती लंबी कतार। सुनीता ने जल्दी से कार से उतरकर लाइन में अपनी जगह ली। तब सुबह के साढ़े सात बजे थे। उसके बाद भी लोग आते गए . . .

पौने आठ बजे, कर्मचारी पार्किंग एरिया में पहली कार आकर लगी। उसमें बैठी गोरी लड़की आठ बजे तक अपने चेहरे का कार के शीशे में मुआयना करती रही। आंखों पर आइ शैडो होंठों पर लिपस्टिक फिराती रही। फिर पर्स से नकली नाखून और नकली बरौनियां निकाल, यथास्थान चिपका, व्यस्त भाव से कोक का डिब्बा हाथ में लिए, ऊंची एड़ियों से ठक ठक करती ऑफ़िस में दाखिल हो गई। इस बीच दो काली लड़कियां, एक अधेड़ उम्र की गोरी औरत और एक पुलिसवाला अंदर दाखिल हो अपनी जगह पर व्यवस्थित हो चुके थे।

जब सुनीता ने देखा कि नौ बजे भी आकर लोगों ने रोड टेस्ट के लिए समय आरक्षित किया और उन्हें आरक्षण मिला तो राजीव से बोली, "ऑफ़िस के बाहर लगी लंबी कतार देखकर ये अपने को महत्वपूर्ण महसूस करते होंगे इसलिए सुबह से बुलाकर खड़ा कर देते हैं।"

"हां, यही समझ लो। सरकारी दफ्तरों में काम करनेवाले यों भी अपने को तोप समझते हैं। चुप रहो, अपना काम करो और ये ग़लत भी बोलें तो सुन लो। जिरह मत करना।"

इसलिए पहले रोड टेस्ट के बाद जब उसके शालीन परीक्षक ने उसे बतलाया कि वह पास नहीं हुई है तो सुनीता को अधिक निराशा नहीं हुई।

वह जानती थी, एक बार में शायद ही कोई पास होता है। यह जनता की सुरक्षा को ध्यान में रखनेवाला विभाग है। अपनी डयूटी करने में कोई कोताही नहीं करता। जब तक ऐसी स्थिति नहीं आती कि वह पूरे टेस्ट के दौरान एक भी ग़लती न करे, वह पास नहीं होनेवाली।

वह सीट बेल्ट लगाना भूल गई थी। यह अमेरिका में कानूनन अपराध है। उसने अगले टेस्ट की तैयारी की।

"देखना, इस बार मैं पास हो जाऊंगी।" उसने राजीव से कहा।

सुनीता को उम्मीद थी, उसे वही परीक्षक फिर से मिलेगा। उस ऑफ़िस में तीन परीक्षक थे। उनमें से एक कार्ला थी।

निर्धारित समय पर जब सुनीता ने कार टेस्ट एरिया में पार्क की तो कार्ला जल्दी से उसकी ओर बढ़ आई। "तुम्हारा लर्नर लाइसेंस, गाड़ी का इंश्योरेंस और परीक्षा का समय सूचक काग़ज़ आगे बढ़ाओ। जल्दी। खिड़की का शीशा नीचे करो। सुनाई नहीं देता? श्रवण यंत्र लगाती हो? शीशा नीचे करो।"

सुनीता इस अचानक के आक्रमण से घबरा गई। ऐसे स्वागत के लिए वह प्रस्तुत नहीं थी। उसने हड़बड़ाते हुए सारे आदेशों का पालन किया। ब्रेक लाइट, हॉर्न, टर्न सिगनल, सबकुछ जाँच कर, कार्ला कार का दरवाज़ा खोल उसकी बगल में आ बैठी।

सुनीता को उसे "हलो" कहने की भी इच्छा नहीं हुई। कार्ला ने अपना परिचय उसे दिया। सिर घुमाए बिना सुनीता ने उसे सुना। शायद यह कार्ला के लिए अपमानजनक था।

"गाड़ी आगे बढ़ाओ।" उसने आदेश दिया।

आगे बढ़ते ही व्यंग्यात्मक स्वर कानों में आया। "तो मैम आपने पिछली बार सीट बेल्ट नहीं लगाई थी। ऐसे कैसे ड्राइव कर लेती हैं आप?"

सुनीता चुप रही। उसे कार्ला का लहजा ख़ला।

कार्ला ने फिर वही बात दुहराई। उसे किस उत्तर की अपेक्षा थी, सुनीता समझ नहीं पाई। ग़लती उसने की थी। फेल भी हो चुकी थी। तो फिर कार्ला क्या चाहती थी?

वह चुपचाप उसके आदेशों का पालन करती, कार समानांतर पार्क करने के बाद वहां से निकाल मुख्य सड़क पर आ गई। अभी तक उसने एक भी ग़लती नहीं की थी। कार्ला का भाषण बढ़ता जा रहा था। वह उसे दायें बायें तमाम जानी अनजानी सड़कों पर घुमा रही थी। डाँट रही थी। सुनीता चुप थी लेकिन ड्राइविंग पर ध्यान केंद्रित करने में भी असमर्थ महसूस कर रही थी। अंततः सब ओर से घूमकर वापस उसने कार को कार्ला को आदेश पर पार्किंग एरिया में ला खड़ा किया।

"तुम पास नहीं हुई हो।" लगभग चीखते हुए कार्ला ने कहा।

यह अपेक्षित था। लेकिन असहनीय। उसने कार्ला की ओर सिर घुमाया।

"तुम बहुत गंदी ड्राइविंग करती हो। तुम सीधी लाइन में नहीं चलातीं। धीमी गति से चलाती हो। तुम ॐ तुम तो सारा ट्रैफ़िक जाम करा दोगी। तुमको तो मैं कभी रोड़ पर गाड़ी चलाने नहीं दूंगी।"

सुनीता इतना लंबा लेक्चर सुनकर निढाल हो गई।

पहली बार उसके मुंह से बोल फूटे। "मैं नरवस थी।"

कार्ला ने उसे घूरा। "जाओ जाकर प्रैक्टिस करो। दो हफ़्ते से पहले शकल मत दिखाना इस ऑफ़िस में।"

"खड़ूस!"

"इस ऑफ़िस में आना नहीं है अब।"

सुनीता ने सोचा। राजीव ने सब सुना और उससे सहमत हुए।

सुनीता सारा अपमान पी गई। एक बार फिर।

पिछले छह महीनों से वह राजीव की उपस्थिति में मुख्य सड़कों पर कार चला रही है आराम से। कोई ग़लती नहीं हुई। और यह कार्ला उसे कभी कार चलाने की परमीशन न देने की बात करती है। सड़क उसके बाप की है जैसेॐ ठीक है उससे ग़लती हुई। उसे मालूम है कि नरवस होकर वह गलतियां करती है। उसने उसे फ़ेल किया, ओ के। लेकिन उसके बोलने का तरीका इतना गंदा क्यों था? पति से लड़ाई करके आई थी? पति हो यह भी तो ज़रूरी नहीं। इनके तो ब्वाय फ्रेंड होते हैं। या फिर कुत्ते। कुत्ता मर गया क्या?

सुनीता अंदर ही अंदर खौल रही थी। घर आकर घंटों रोती रही, बिस्तर पर लेटकर। फिर दो दिन बाद टूटी हुई मनःस्थिति में ही दूसरे ऑफ़िस जाकर टेस्ट दिया। फिर फेल हो गई। उसने परीक्षक के आदेश का पालन करने में ग़लती की थी। गाड़ी पहली लेन में न मोड़कर दूसरी में मोड़ा था।

वह अब सिर्फ़ टेस्ट देने के लिए टेस्ट दे रही थी। उसने भी पहली बार जाना कि वह इतनी ग़लतियाँ कर सकती है। फिर उसे राजीव की बात सही लगी। "अपने परीक्षक के साथ सहज़ होने की कोशिश करो। उसे "हलो" कहो। अपना परिचय दो जैसे वह देता है। ये बातें तुम्हें सामान्य होने में मदद करेंगीं।"

तब सुनीता की समझ में आया कि राजीव के साथ भी वह जो शुरू में ड्राइविंग नहीं कर पाती थी वह इसीलिए ! राजीव का साथ भी नया था तब। वे एक दूसरे से परिचित हो रहे थे।

उसका ड्राइविंग टीचर अनुभवी था। उसने सुनीता से पहली मुलाकात में दोस्ती कर ली थी।

उसने अपने परीक्षक से संवाद स्थापित किए। यों भी वे कार्ला जैसे नहीं थे।

एक दिन वह पास हो गई।

उसने कार्ला की लिखित शिकायत की थी बाद में। पता चला था कि उसके विरुद्ध और भी लोगों ने शिकायत की थी। शायद कार्ला तक बात पहुंची थी। शायद उसका लौटकर न आना उसे याद रह गया। इतनों की भीड़ में उसने उसे पहचान लिया था। क्यों?

पोस्टआफ़िस से बाहर निकल उसने मुड़कर देखा।

कार्ला अभी तक वहीं लाइन में खड़ी थी। अचानक सुनीता को उसपर तरस आया। वह हमेशा वहीं पर खड़ी रहेगी। रोड टेस्ट लेती हुई, जबकि सुनीता और बाकी सब उस मोड़ से निकलते जाएंगे आगे। उसे नकारते हुए। सुनीता को लगा उस दिन वह नहीं, कार्ला रोड टेस्ट में फेल हुई थी और आज भी उसने उसे पास होने नहीं दिया।

उसने एक संतुष्टि भरी साँस ली और अपनी कार की ओर बढ़ गई।