रोना / तरुण भटनागर

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गाँव में गमी हुई थी। पूरे गाँव की औरतें जुटी थीं। औरतों का रोना चल रहा था।

यह ठीक-ठीक पता नहीं कि वे रो रही थीं या नहीं, पर उसे रोना माना जाता था।

किशन अपने मकान में लेटा था। उसे औरतों का रोना सुनाई दे रहा था। रोने की आवाज पूरे गाँव में सुनाई दे रही थी। हमेशा की एक-सी आवाज। जब भी गाँव में गमी होती औरतें लगभग एक ही तरीके से रोतीं। उनका रोना कुछ दिनों तक गाँव में गूँजता।

एक सा रोना। बरसों का अ-बदला रोना।

मैय्यत में औरतों का सामूहिक रोना गाँव की फितरत है। फिर भी यह कोई उत्सव नहीं माना जाता है। रोने को उत्सव मानने में गाँववालों को संकोच होता है।

किशन असमंजस में था।

वह खजुराहो में गाइड था। गाइड का काम करते-करते वह फ्रेंच और अंगरेजी बोलने लगा था। उसका गाँव खजुराहो से थोड़ा दूर था। खजुराहो से एक कच्चा रास्ता उसके गाँव तक आता था। वह कई दिनों बाद गाँव लौटा था।

इस बार वह अकेला नहीं लौटा था। उसके साथ मैक्सिम था। मैक्सिम फ्रेंच था। वह मैक्सिम को अपने साथ गाँव नहीं लाना चाहता था। पर मैक्सिम ने उससे मिन्नत की थी। वह एक बार ऐसे मौके पर उसके गाँव आना चाहता था।

वह गमी के मौके पर उसके गाँव आना चाहता था। वह मैय्यत के समय उसके गाँव में होना चाहता था।

किशन के लिए वह एक ऐसा अजूबा आदमी था, जो गाँव में गमी की खबर सुन कर उत्तेजित-सा हो गया था। उसने किशन से गाँव चलने की मिन्नत की। किशन नहीं माना। किशन को लगा पता नहीं कैसा आदमी है, जो गमी की खबर सुन कर चहका जा रहा है। फिर मैक्सिम ने इस काम के लिए उसे कुछ पैसे देने का वादा किया। किशन मान गया।

हुआ यूँ था, कि हिंदोस्तान आने से पहले मैक्सिम हिंदोस्तान को समझना चाहता था। फ्रांस में वह एक छोटे से फिल्म बनानेवाले ग्रुप में काम करता था। उसका काम एडिटिंग में मदद करने का था। उसने बाकायदा यह काम सीखा था। वह फिल्मों का दीवाना था। उसका मानना था कि फिल्मों से सारी दुनिया को देखा और समझा जा सकता है। न सिर्फ समझा जा सकता है, बल्कि बाकायदा परखा भी जा सकता है। फिल्में समाज का दर्पण हैं। वह मानता कि मनुष्य का आधुनिक इतिहास फिल्मों में दर्शित, चित्रित और संरक्षित है। किसी समय विशेष का विश्व अगर जानना-समझना हो, तो बस इतना ही करना होगा कि उस समय की फिल्में देख ली जाएँ।

हिंदोस्तान आने से पहले उसने हिंदोस्तान की फिल्में देखी थीं।

पर यहाँ आने के बाद उसे फिल्मों और यथार्थ में जबरदस्त भेद नजर आ रहा था। खासकर एक बात पर तो वह बुरी तरह परास्त ही हुआ। इस तरह कि उसे अपनी इस मान्यता पर पुनर्विचार करने का मन बनाना पड़ा कि 'फिल्में समाज का दर्पण होती हैं।'

वह बात थी फिल्मों में औरतों के रोने के दृश्यों को ले कर। किसी फिल्म में सुबक कर, रो कर, दुखी हो कर, उदास और पीड़ित चेहरे के साथ मधुर कंठ से गीत गानेवाली औरत को उसने हिंदुस्तानी फिल्मों में ही देखा था। वह भी कई-कई बार। ऐसी अनगिनत फिल्में थीं, जिनमें औरतें रोते हुए गीत गा रही थीं। संसार में कहीं की भी फिल्मों में उसे ऐसा दृश्य न दीखा था, जिसमें कोई औरत रो रही हो और रोने के साथ-साथ गीत गा रही हो। वह बैजू बावरा में रोती और रोने के साथ पूरे स्वर में गीत गाती मीनाकुमारी को बार-बार देखता। उसने वहीदा रहमान से ले कर शिल्पा शेट्टी तक ऐसी कई हीरोइनों के दृश्य बार-बार पलट कर देखे थे, जिसमें एक रोती हुई औरत सस्वर दर्द भरा गीत गा रही है। उसके हिसाब से रोते हुए गाना एक बेहद अनूठी और अप्रत्याशित घटना है। उसने इस विषय पर जब खोज-खबर की तो उसे कोई खास जानकारी नहीं मिली। हिंदोस्तान आने से पहले उसका विश्वास पक्का था कि यह एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ गाते हुए रोने की परंपरा है। चूँकि फिल्में सच का आईना होती हैं, अतः हिंदोस्तान में आराम से उसे ऐसी औरतों के बारे में पता चल जाएगा जो गीत गा-गा कर रोती हों।

पर हिंदोस्तान में उसके अनुभव कुछ और ही रहे। उसने जिस-जिस से गीत गा-गा कर रोने वाल औरतों के बारे में पूछा, वह या तो उसकी इस बात पर हँसता या उसे ऊपर से नीचे तक किसी अजूबे की तरह घूरता। चूँकि फिल्में सच होती हैं इसलिए उसे यह यकीन था, कि कहीं न कहीं गाते हुए रोने की यह परंपरा होगी। यह हो सकता है, कि समय के साथ यह परंपरा कम हो गई हो, पर होगी जरूर। वह फिल्मों को झूठ नहीं मान सकता था।

तभी उसे किशन मिला।

खजुराहो घूमते वक्त वह उसके साथ था। वह फ्रेंच जानता था। दोनों की एक तरह से दोस्ती जैसी हो गई। वह किशन ही था जिसने उसे दुख में सामूहिक रुप से रोनेवाली औरतों के बारे में बताया था। उसने यह भी बताया कि ये औरतें कुछ इस तरह रोती हैं, मानो गाना गा रही हों। यह सुन कर मैक्सिम खुशी से उछल पड़ा। चूँकि उसके अनुसार यह परंपरा सिर्फ हिंदोस्तान में है और दुनिया इसके बारे में कम ही जानती है, इसलिए वह इस पर एक डाक्युमेंट्री भी बनाना चाहता था। डाक्युमेंट्रीवाली बात उसने किशन को नहीं बताई थी। चूँकि रोना एक संवेदनशील मामला होता है, इसलिए वह इस मामले में सतर्क था। पर उसे यकीन था कि विकास के रास्ते अग्रसर हो रहे हिंदोस्तान में इस मामले में भी पैसा काम कर जाएगा।

उसे किशन के गाँव में गमी की खबर किशन ने ही बताई थी।

मैक्सिम यह खबर सुन कर मन ही मन बहुत खुश हुआ। पर उसने अपनी इस खुशी का इजहार नहीं किया। उसे यह भान था कि वह गमी की बात पर खुश हो रहा है, इसलिए वह शांत बना रहा।

गाँव में बिस्तर पर लेटा किशन इसी उधेड़बुन में था, कि मैक्सिम को गमीवाले घर कैसे ले जाए। फिर एक चक्कर और था, मैक्सिम उन गा-गा कर रोनेवाली औरतों की कुछ तस्वीरें भी खींचना चाहता था।

गाँव में गमी पर साथ-साथ रोने की परंपरा को औरतों ने खूब पल्लवित किया था। बरसों पुरानी परंपरा। जब किसी के यहाँ गमी होती गाँव की सारी औरतें वहाँ इकट्ठा हो जातीं। मुर्दा फूँकने के बहुत पहले से उनका जमावड़ा लग जाता।

उनका रोना दूर-दूर तक गूँजता।

तरह-तरह का रोना।

गाँव में गमी में रोना एक उत्सव की तरह है। खबर मिली नहीं कि सारी औरतें इकट्ठा हुईं। कुछ औरतें अपने घर से ही रोती-रोती गमीवाले घर तक आतीं। साथ-साथ रोना औरतों को रोज की एक-सी दिनचर्या से मुक्ति दिलाता था। रोज की दाल-रोटी और रोजमर्रा के कामों से उन्हें निजात दिला कर कुछ नया करने का आमंत्रण देता था। यूँ साथ-साथ रोने की परंपरा पुरानी है। एकरस भी। पर फिर भी गाँव में इसके अवसर बहुत कम थे। गमी कम होती थी। साल में एक या दो। सो कोई भी औरत यह मौका चूकना नहीं चाहती।

फिर साथ-साथ रोने के बड़े मतलब भी हैं। गाँव के सयाने यह देखते कि कौन-सी औरत रोने आई और कौन-सी रह गई। रोना याने हमदर्दी। रोना याने किसी अपने को खोने का प्रतिकार। रोना याने दुख। रोना याने जो मृत्यु की पीड़ा पर नहीं रुकता। ऐसे में भला कोई औरत रोने से छूट सकती है। गाँव के सयाने देखते। गाँव की हर औरत रोने में शामिल होती। दुख की समवेत परंपरा, जहाँ हर औरत को होना ही चाहिए। औरत जो ममता की मूर्ति है। कोमल भावों की देवी। जो भरी है आँसुओं और दुख से। जो है अबला। पीड़ित और परेशान। ...किसी की मृत्यु पर वह विलाप न करे तो कौन करे! गाँव के सयाने आँखें गड़ा कर देखते कहीं कोई औरत छूटी तो नहीं।

कुछ पुरानी औरतों ने रोने की सस्वर परंपरा विकसित कर रखी है।

ये वे औरतें हैं, जो बहुत पहले गाँव आईं। धीरे-धीरे रोते-रोते सामूहिक रोने में पारंगत हो गईं। उन्होंने रोने की अपनी लय विकसित कर रखी है। उनके रोने की लय की गाँव में चर्चा होती है।

कहते हैं कि रामाधार की जोरू सबसे अच्छा रोती है। वह ऊँचे स्वरों में रोती है। एक लंबी-सी तान के साथ। उसका रोना बिल्कुल किसी पीड़ित विलाप की तरह उठता है। एक ऊँचाई पर जा कर वह उसी स्तर पर खिंचता जाता है। फिर अचानक अपने विस्तार में एक जगह आ कर अटक जाता है। छूट जाता है। विलाप की जगह एक चुप्पी आ जाती है। फिर से दुबारा उसी छूट गए ऊँचे स्तर से वह अकस्मात शुरू होता है, किसी अकस्मात पल पर खो जाने के लिए। किसी दूसरे, पराए, अनजाने याने गाँव के हर आदमी की मृत्यु पर रामाधार की जोरू का रोना अपनी लय में गूँजता है, बेलौस। गाँव के सयाने फुसफुसाते हैं, कि रामाधार की जोरू है। कितना मार्मिक रोती है। कितना सुंदर। आवाज और लय से भरा रोना। रोना जिसे सुन कर गाँव के सयानों के आँखों में आँसू आ जाते हैं। रोना जो गूँजता है संताप से भरे चीत्कार का उत्कर्ष हो कर। रोना जो कितना हृदयविदारक लगता है। रोना जो रुला दे पत्थर को भी। रोना जिस पर होता है, गाँव को गर्व - 'पूरे ताल्लुका में नहीं है रामाधार के जोरू जैसी रोनेवाली।'

रामाधार अपनी बेटी को अपनी जोरू के साथ रोने के आयोजन में भेज देता है। बेटी छोटी है। माँ का ऐसा विलाप सुन कर वह घबरा जाती है। घबरा कर, डर कर वह रोने लगती है। गाँव की कोई दूसरी औरत उसे अपनी छाती से लगा लेती है। औरत की छाती की हिचकियाँ लड़की को अजीब-सी घुटन से भर देती है। औरत के चीत्कार करते चेहरे को देख कर वह भयाक्रांत हो जाती है। वह चीख-चीख कर रोने लगती है। औरत उसे अपने से अलग कर देती है। उसके सिर पर हाथ फेरती है। लड़की रोती रहती है। औरत के भीतर एक मुस्कान तैर जाती है - 'रामाधार की बेटी है। माँ के बाद यही न सँभालेगी रोने का जिम्मा।' औरत को लगता है वह धीरे से उस लड़की को चूम ले। लड़की को लगता है, वह इन भयानक क्रंदन करनेवाली औरतों के बीच से निकल कर भाग जाए कहीं।

गाँव में पाँच औरतों का एक समूह है, जो अपनी तरह से रोती हैं। एक साथ, स्वर में स्वर मिला कर। वे पाँचों अलग-अलग घरों की हैं, बस गमी के मौके पर इकट्ठा होती हैं। उनको आपस में एक दूसरे से मिले कई-कई दिन बीत जाते हैं। कभी-कभी महीनों भी। वे एक गमी के बाद दूसरी गमी में ही मिलती हैं। मैय्यत का घर उन अनजान औरतों के मिलने का घर भी है। वे सिर्फ साथ-साथ रोने के लिए मित्रवत हैं। एक साथ गमीवाले घर में इकट्ठा होती हैं। एक छोटा-सा गोल घेरा बना कर जमीन पर बैठ जाती हैं। अपने घूँघटों को और लंबा खींच लेती हैं। एक दूसरे से अपने घूँघटों को लगाती हैं। एक स्वर में धीरे-धीरे रोने को गाती हैं। उनका रोने को गाना निम्न-मध्यम स्वरों का रोना गाना है। धीरे और कोमल। उसमें सुबुकने के वादी स्वर लगे हैं, जो बार-बार ऊपर-नीचे आते-जाते कंठ से निकल आते हैं। वे देर तक रोने को गाती हैं। चूँकि वे पाँच हैं, इसलिए एकाध-दो जो थक जाती है, रुक जाती है, शेष तीन-चार उस रोने के गाने को बढ़ाती रहती हैं। वह काफी देर तक चलते रहनेवाला रोना गाना है। जब बाकी औरतें चुप हो जाती हैं, तब भी उनकी निम्न-मध्यम स्वर लहरियाँ सुनाई देती रहती हैं। रोना रुकने के बाद भी उनका रोना चलता रहता है। उनके कारण रोना कहीं रुकता नहीं। रोने की लय में उन्हीं के कारण एक सातत्य बनता है।

...गाँव के लिए वे पाँचों किसी धरोहर की तरह हैं।

किशन ने मैक्सिम को बताया था, कि फिल्मों में रोने को गाना, उसके गाँव में रोने को गाने से बहुत अलग है। पुरानी ब्लैक एंड-व्हाइट फिल्मों में हीरोइनों का रोना गाना शास्त्रीय राग-रागनियों पर आधारित होता था। रोने को गाते समय पार्श्व गायिका यह खयाल रखती थी, कि कहीं वर्जित स्वर न लग जाएँ। राग के स्वरों के अनुशासन पर अपने गले को पारंगत करने के बाद ही वह रोने को गा सकती थी। वे राग भी तय से हैं, जिनमें रोने को गाया जा सकता है। उसने बताया कि रोना राग जोगिया में तो गाया जा सकता है, पर बसंत बहार में नहीं। फिल्मी रोने में शास्त्रीय परंपरा के अनुसार समय का खयाल भी रखा जाता रहा है। रात्रि के अंतिम प्रहर का रोना सोनही राग में हो सकता है, वर्षा में मल्हार में भी रोने को गाने की परंपरा रही है। नूरजहाँ, मल्लिका पुखराज, लता मंगेशकर, सुमन कल्याणपुरी आदि-आदि ने फिल्मों में कइयों बार रोने को गाया है।

फिल्मों में रोने को गाने की लिरिक्स और धुनें भी हमेशा अलग किस्म की रही हैं। अब कोई ड्रम, बैंजों और ट्रंपेट पर तो रो नहीं सकता न। रोने के लिए सारंगी, पियानो और गिटार ज्यादा मुफीद माने गए हैं। रोने के लिए सारंगी सबसे उपयुक्त है। सारंगी पर रोना ज्यादा प्रभाव डालता है। सारंगी पर रोना इतना मर्मस्पर्शी है, कि इसके सामने किसी का सच्चा रोना भी फीका पड़ जाए। सारंगी पर रोना संसार के हर सच्चे रोने से कहीं-कहीं ज्यादा मर्मांतक है। जब कोई रोता है, तो उसे तबले की ताल का भी ध्यान रखना पड़ता है। रोनेवाला तबले की मात्राएँ गिन कर अपने रोने के साथ ताल को सुमेलित करता रहता है। बार-बार ताल के सम पर अपने रोने के मुखड़े को लाता है और उस गैप का खयाल रखता है, जिसके विस्तार में ताल पूरी होती है। रोने के लिए तबले की ताल को दुगुन, तिगुन, चौगुन... नहीं करना पड़ता है, क्योंकि रोना इतनी मंथर गति से होता है, कि वह द्रुत में नहीं हो सकता है। ...किशन ने थोड़ा गर्व के साथ मैक्सिम को बताया कि फिल्मों में जिस तरह भारतीय रोते हैं, वह अद्भुत है। सारी दुनिया में इतना मर्मस्पर्शी रोने को गाना बताओ भला और कहाँ है।

किशन ने उसे यह भी बताया कि हिंदोस्तान में फिल्मों का रोने का गाना बड़ा पापुलर है। लोग बड़ी शिद्दत से रोने के सुनते हैं। पुराने दिनों के प्लेयर और टेप रिकॉर्डरों से ले कर आज की सीडी तक बहुत-सा रोना रिकॉर्डेड है। लोग उसे सुनते हैं। बार-बार सुनते हैं। सँभाल कर रखते हैं, रिकॉर्ड में रोने के गाने को। किशन फिर गर्व से भर गया, कहने लगा, मेरे देश के लोग दिल लगा कर फिल्मी रोने को सुनते हैं। वाह-वाह करते हैं। बताते हैं कि अमुक-अमुक रोना उनका प्रिय रोना है। अक्सर तनहाइयों में जब उनका मन दुखी होता है, अकेला और अवसाद से भरा होता है, वे कोई फिल्मी रोना सुनते हैं। उसने बडी शान से मैक्सिम को बताया कि रोने को भीड़-भाड़वाली जगह में नहीं सुना जाता है। रोने को एकांत में सुनने का कायदा है। एकांत इसलिए ताकि सुननेवालों का अवसाद और दुख बाहर निकल सके और वे पहले की ही तरह रँगीले और खुशमिजाज हो जाएँ।

यह सब सुन कर मैक्सिम अचरज में था।

किशन ने मैक्सिम को यह भी बताया कि हिंदोस्तान में किराए पर रोने की परंपरा भी रही है। याने पैसे दे कर रोनेवाले को बुलाया जा सकता है। उसने बताया कि पश्चिम भारत के मरुस्थली क्षेत्रों में किराए पर रोने की परंपरा खूब रही है। यह माना जाता रहा कि जिसकी मृत्यु पर जितना प्रखर विलाप हो, वह उतना ही बड़ा आदमी है। उतना ही अवाम का प्रिय है। यह माना जाता रहा कि हर वह व्यक्ति जो बडा है, लोगों से ऊपर है और जिसके बारे में यह जाना जाता है, कि उसके प्रभामंडल के कारण उसके चाहनेवाले कई-कई हैं, ऐसे आदमी की मृत्यु पर रोना भी उतना ही भव्य और विस्मयकारी होना चाहिए। बहुत बार यह भी होता कि कोई बड़ा आदमी मर जाता और उसकी मैय्यत पर कोई न रोता। लोग बल्कि उसके मरने पर खुश होते। शुक्र मनाते। भगवान को धन्यवाद देते। इससे यह हुआ कि बड़े लोग यह मानने लगे कि मृत्यु पर न रो कर लोग बड़े आदमी का अपमान करते हैं। चूँकि कोई रोने के लिए तैय्यार नहीं था और किसी को जबरन रुलाया जाना संभव नहीं था, इसलिए भी किराए पर रोने की प्रथा ईजाद की गई। किशन ने बताया कि इसे प्रथा कहना गलत है। वास्तव में तो यह व्यापार है। रोने का व्यापार। हिंदोस्तान के पश्चिमी रेगिस्तान में पैसों पर रोनेवाली औरतों की काफी माँग होती थी। कई बार यह भी होता कि कोई बड़ा आदमी मरता और वे खुद-ब-खुद उसकी मैय्यत में पहुँच जातीं। जोर-जोर से विलाप करतीं। छातियाँ पीटतीं। रोतीं, बिलखतीं। इस तरह औरत के रोने से लोगों को बड़े आदमी की मृत्यु का पता चल जाता। कुछ लोग इकट्ठा हो जाते। इसका एक फायदा यह भी होता कि बहुत-सी भावुक औरतें किराए पर विलाप करती औरत को देख कर द्रवित हो जातीं। उन्हें भी रोना आ जाता। इस प्रकार बड़े आदमी की मैय्यत भी गमगीन हो जाती। उसकी मृत्यु पर कुछ औरतें रो लेतीं, आँसू बहा लेतीं।

उसने मैक्सिम को यह भी बताया कि किराए पर रोनेवाली इस परंपरा पर रुदाली नाम की एक फिल्म भी बनी है। उसे रुदाली फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

किराए पर रोने का आइडिया मैक्सिम को अद्भुत लगा। उसे लगा यह एक ऐसा व्यापार है, जिस पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया। रोनेवालों की जरूरत किसे नहीं है। हर गम और दुख के अवसर पर ढूँढ़ने पर भी रोनेवाले नहीं मिलते हैं। इंसान के व्यक्तिगत दुख की बात तो छोड़ो, अगर बड़ी से बड़ी त्रासदी भी हो जाए, हजारों-लाखों बेगुनाह मारे जाएँ, तब भी कहाँ कोई रोता है। दुनिया में रोनेवालों का टोटा है। वह दिन दूर नहीं जब दुनिया में एक भी रोनेवाला इंसान न रह जाए। जब कोई भी ऐसा न होगा जो रो पाए। कोई भी नहीं जिसे आ जाए रोना। जब बेहद अमानवीय त्रासदी पर भी एक भी न मिले रोनेवाला। मैक्सिम को लगता कि वह समय बस आने को ही है। ऐसे में किराए पर रोने का धंधा खूब फलेगा। इससे अच्छी आमदनी भी होगी। उसने सोचा फ्रांस लौट कर वह अपने कुछ व्यापारी दोस्तों से इस बारे में बात करेगा।

मैक्सिम ने सोचा कि रोनेवाले दिनों दिन खत्म होते जा रहे हैं। यह कितनी भयावह बात है। मीडिया के लोग न जाने कहाँ-कहाँ भटकते हैं, एक अदद रोते हुए चेहरे को अपने कैमरे में कैद करने के लिए। बनाने के लिए उसके रोने की कहानी। अगर रोनेवाले इसी तरह खत्म होते गए तो इन लोगों का बताओ भला क्या होगा? वे रोज बिना खबर के अपने दफ्तर लौटने को मजबूर हो जाएँगे। अपने मालिक से डाँट खाएँगे। उन्हें नौकरियों से निकाल दिया जाएगा। किराए पर रोता हुआ चेहरा ऐसे मौकों पर उन्हें डाँट खाने या नौकरी से निकाले जाने से बचाएगा। कहते हैं रोते हुए चेहरे से खबरों की टीआरपी बढ़ती है। किराए पर रोते चेहरे टीवी चैनलों के बिजनेस के लिए अत्यंत अहम साबित होंगे। संसार के तमाम चित्रकार, फोटोग्राफर, कवि, लेखक, आंदोलनकारी... वगैरह-वगैरह को भी तो एक अदद रोता हुआ चेहरा ही चाहिए। सोचिए रुलाईविहीन समाज में भला कविता कैसे और किन पर लिखी जावेगी। आंदोलनकारी किस इंसानी चेहरे को अपना स्लोगन बनाएँगे। रुलाईविहीन दुनिया में किराए पर रोनेवाला चेहरा सबके काम आएगा। आज की इस अश्रुविहीन दुनिया में सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए किराए पर रोनेवाला चेहरा कितना तो अहम है।

...मैक्सिम का विचार पक्का हो गया। वह फ्रांस लौट कर बिजनेसमैन मित्रों से इस बारे में अवश्य बातें करेगा।

वे दोनों खामोश बैठे रहे। औरतों का रोना सुनाई दे रहा था। औरतों के रोने की लय को किशन ने तोड़ा अचानक -

'मैक्सिम तुम्हारे यहाँ औरतें कैसे रोती हैं?'

मैक्सिम क्षण भर को खामोश रहा। उसे बहुत-से दृश्य याद आए। वह इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। पर उसे अच्छा लगा कि किशन ने उसके देश में रोने में रुचि दिखाई। उसे लगा कि वह किशन को यह बता कर कि उसके देश में लोग कैसे रोते हैं, उस पर खासा इंप्रेशन डाल सकता है। उसने किशन को फ्रांस में रोना बताया।

उसने बताया कि फ्रांस में घरों में रोने का कायदा नहीं है। गमी के समय औरतें या तो चर्च में मृतक की याद में होनेवाली प्रार्थना के समय रोती हैं या फिर कब्रिस्तान में मृतक को दफनाए जाते वक्त। वहाँ वे घर में नहीं रोतीं।

उसने गर्व से किशन को फ्रांस में रोने के तरीकों के बारे में बताया।

बताया कि चर्च और कब्रिस्तान में रोने की वजह शायद यह है, कि वहाँ पर ही लोग इकट्ठा होते हैं। रिश्तेदार भी वहीं आते हैं। अच्छी भीड़-भाड़ रहती है। फ्रांस में औरतें इसी भीड़-भाड़ के इकट्ठा होने के बाद ही रोती हैं। फ्रांस में घर पर जाने की परंपरा नहीं है। यूँ भी किसी के पास फुरसत कहाँ है? व्यस्तता इतनी मोहलत ही नहीं देती कि कोई शोक संवेदना के लिए किसी के घर पर जा सके। अब कोई अकेले में तो रोएगा नहीं न। दीवारों, छतों, खिड़की, दरवाजों के बीच रोना कितना तो बेमानी है। कितना तो अर्थहीन है अकेले में जाया करना अपने आँसू और विलाप। एकांत का रोना कितना तो निरर्थक है, है न। एकांत का रोना एक अनजाना रोना है। रोना जिसे कभी कोई जान नहीं पाता। मैक्सिम ने गर्व से बताया कि इसीलिए फ्रांस में अकेले का रोना एक बेतुकी बात है। फ्रांस में घर रोने के लिए एक उपयुक्त जगह नहीं है।

उसने बताया कि, फ्रांस के लोगों का स्पष्ट मत है कि, रोना वहाँ चाहिए, जहाँ लोग हों। जहाँ ऐसे लोग हों जो जानते हों कि यह मृतक की पत्नी है, बेटी है या कुछ और। ताकि लोगों को यह पता चल पाए कि रोनेवाली दुखी है। ताकि लोगों को उसके अकेलेपन का अहसास हो पाए। यह पता चल पाए कि मरने के बाद वह कितनी तो अकेली हो गई है। लोगों के बीच रोने से लोगों की सहानुभूति मिलती है। कुछ लोग रोनेवाले से मदद का वादा भी करते हैं। अगर मरनेवाला अच्छा कमाने-धमानेवाला आदमी था, तो कुछ लोग आगे आनेवाले संकटों से निजात का उपाय भी बताते हैं। किसी को अगर तरस आ जाए तो वह कुछ पैसे भी दे देता है। मैक्सिम ने ऐसी भाव-भंगिमा बनाई जैसे वह कोई बड़ी महत्वपूर्ण सलाह दे रहा हो। कहने लगा, कि लोगों के बीच ही रोना चाहिए। इसके कई फायदे होते हैं।

तभी थोड़ी देर से रुका औरतों का विलाप एकदम से शुरू हो गया। किशन उस विलाप को सुन कर मुस्कुरा दिया। किशन को मुस्कुराता देख कर मैक्सिम भी मुस्कुरा दिया।

मैक्सिम को लगा कि वह चाहे भारत हो या फ्रांस दोनों ही जगह के लोग कितने एक से हैं। अप्रत्याशित रोने पर मुस्कुरा उठनेवाले लोग। दुनिया में कितना एका है, यह सोच कर, महसूस कर मैक्सिम को अच्छा लगा।

वह किशन को बताता जा रहा था, कि लोगों के बीच रोने का वाजिब मतलब है। चर्च और कब्रिस्तान में यह मौका उपलब्ध रहता है, सो फ्रांस की औरतों को वहीं रोना अच्छा लगता है। यह वहाँ की परंपरा है। फिर चर्च और कब्रिस्तान में ऐसे कंधे भी मिल जाते हैं, जिस पर सिर टिकाया जा सकता है। जब कोई अपने रिश्तेदार के कंधों पर सिर टिकाता है, तभी न वह ठीक तरीके से रो पाता है। अपने आप कोई रुलाई थोड़े ही आती है। जब कोई हाथ थामता है, बाँहों में भरता है या कंधे दबाता है तभी न कोई रो पाता है।

मैक्सिम को यह सब बताते हुए बड़ा अच्छा लग रहा था। उसे बार-बार यह भी अहसास हो रहा था, कि वह अपने देश के रोने के जो तरीके बता रहा था, वे कितने तो अलग और अनूठे हैं। कितने जुदा और चमत्कृत करनेवाले। फ्रांस में रोना कितना अद्भुत है।

मैक्सिम ने यह भी बताया कि फ्रांस में रोना नफासत भरा रोना है। वास्तव में वह यह बताना चाहता था, कि उसके देश में रोना यहाँ हिंदोस्तान में रोने से कहीं ज्यादा परिष्कृत और एलीट है। फ्रांस कोई हिंदोस्तान नहीं कि वहाँ कि औरतें गोल घेरा बना कर, जमीन पर फसकड़ा मार कर, दहाड़ दे-दे कर रोएँ। वे एक संपन्न और बड़े राष्ट्र की औरतें हैं। उनका रोना कितना तो गरिमा से भरा और नाजुकता से लबरेज है। उसने बताया कि फ्रांस की औरतें फूट-फूट कर नहीं रोतीं। वे धीरे-धीरे सुबकती हैं। सुबकते-सुबकते वे अपने दर्द को कहती भी हैं। बताती हैं, कि मरनेवाले को वे कितना प्यार करती थीं। जतलाती हैं, कि तमाम फसादों और लानतों के बाद भी हर किसी को यह मानना चाहिए कि वह मृतक को प्यार ही तो करती थी, न। वे बार-बार कहती हैं, कि वे प्यार करती थीं। क्योंकि बार-बार कहने पर यह मानना पड़ता है, कि हाँ सचमुच में प्यार ही करती थीं। सुबकते हुए कहती हैं, कि मृतक का जाना उसके लिए कितना तो पीड़ादायक है। जतलाती हैं कि दुनिया माने कि वह पीड़ित हैं। हर किसी को यकीन करना चाहिए कि वह दुखियारी हैं। शोक संतप्त भी।

उसने बताया फ्रांस में औरतें बाकायदा रोने की तैय्यारी के साथ घर से बाहर निकलती हैं। वे अपने पास एक-दो रूमाल रखती हैं। काला कपड़ा पहनती हैं। आँखों पर काला चश्मा लगाती हैं। चश्मा इसलिए क्योंकि वह आँखों को छुपाता है। वह आँखों के सूखेपन को प्रगट नहीं होने देता। फ्रांस में औरतें कब्रिस्तान में उस वक्त सुबुकती हैं, जब पादरी क्रिमिनेशन्स के लिए प्रार्थनाएँ पढ़ता है और ताबूत कब्र के अंदर किया जाता है।

मैक्सिम के सामने क्रेमनेशन्स और प्रार्थनाओं के कई दृश्य घूम गए। अपने पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, माता, पिता या पति के ताबूत के कब्र के अंदर उतारे जाने के साथ, बेहद नफासत से सुबुकनेवाली फ्रांस की औरतों को उसने कितनी-कितनी बार तो देखा है। उनके सुबुकने के क्षण तय हैं। एक तय क्षण जब ताबूत कब्र में अतरेगा और जहाँ औरत सुबुकेगी। वह क्षण जब वह चश्मा उतार कर रूमाल से आँख पोंछेगी। वह क्षण जब कोई धीरे से उसका कंधा दबाएगा। वह क्षण जब औरत बुत बनी खड़ी रहेगी। वह क्षण जब चर्च में प्रार्थना के समय वह सबसे आगे खड़ी होगी चुपचाप, काले लिबास में और पादरी उस पर पवित्र जल छिड़केगा। वह क्षण जब वह गुमसुम-सी सिर झुकाए सुनेगी प्रार्थनाएँ। हर क्षण तय है और तय है उस क्षण में दी जानेवाली प्रतिक्रिया और चुप्पी। तय हैं हर क्षण की मुद्राएँ और हरकतें। कितनी तो फैशंड हैं हर क्षण की भाव भंगिमाएँ।

मैक्सिम ने किशन को थोड़ा इठलाते हुए बताया कि, फ्रांस में रोना एक यांत्रिक क्रिया है। एक मैकेनिकल एक्शन।

औरतों का रोना रुक गया था। मैक्सिम की बातें पूरी हो चुकी थीं। किशन ने मैक्सिम को गौर से देखा। फिर झिझकते हुए उससे पूछने लगा -

'एक बात पूछूँ मैक्सिम।'

'बोलो।'

'थोड़ी पर्सनल है। बुरा तो नहीं मानोगे।'

'अरे नहीं। तुम बोलो न।'

'मैक्सिम तुम शादीशुदा हो। तुम्हारे बच्चे हैं, फिर भी क्या तुम आश्वस्त हो कि जब तुम मरोगे तो कोई तुम्हारे लिए रोएगा।'

मैक्सिम मुस्कुराया। फिर चुप हो गया। उसे लगा रोने पर कोई कितना भी गर्व कर ले, मुस्कुरा ले उसके अजीबपने पर, पर फिर भी किशन की इस बात में जाने तो क्या है, कि यह बेहद पर्सनल महसूस होती है। वह क्षण भर को चुप हो गया। उलझा और किंकर्तव्यविमूढ़।

'मेरी बात का बुरा तो नहीं लगा तुम्हें।'

'न।'

'फिर बताओ। अगर बता सको तो।'

'तुम यूरोप गए हो?'

'न'

'अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका या आस्ट्रेलिया।'

'न। मैं कभी विदेश नहीं गया मैक्सिम।'

'तुम कहीं भी चले जाओ, किसी भी देश, किसी भी जमीन, कोई भी सभ्यता तुम्हें वहाँ शायद ही कोई मिले जो दिल लगा कर रोता हो। जो रो सके पूरे मन से टूट कर बेतरह। जो इस तरह रोए कि उसके रोने पर हँसी न आए। ...कि उसके रोने पर कोई गर्व जैसी बात भी न हो। इस तरह रोए कि शायद ही सोचा जा सके कि वह किसी बड़े राष्ट्र के लोगों का रोना है या किसी गरीब और पिछड़े देश का....।'

'मतलब। मैं समझा नहीं।'

'मतलब यह कि कोई रोनेवाला शायद ही मिले। तुम्हें नहीं लगता कि हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहाँ रोना अब खत्म है।'

'क्या तुम यकीन से कह सकते हो?'

'हाँ यही है,शायद। रोना मतलब...।'

वह थोड़ा झिझका।

'मित्र रोना एक उत्सव है। यहाँ भी और फ्रांस में भी। रोना एक ड्रामा है। रोना मनोरंजन है। और...।'

'और...।'

मैक्सिम बुरी तरह से झिझक रहा था। वह कहने के लिए बार-बार रुक रहा था। वह ठीक तरह से कहने के लिए बार-बार चुप हो जाता था।

'रोना शृंगार है। रोना याने... याने व्यापार, पूँजी। रोना याने यांत्रिकी। रोना एक प्रतिक्रियाविहीन क्रिया। रोना जो दुख नहीं। न ही पीड़ा कोई। ...मेरा ही क्या दोस्त हर परिवार में रोना ऐसा ही तो है।'

दोनों के चेहरों पर एक अजीब-सी चुप्पी छा गई। किशन को लगा उसने फालतू ही यह पर्सनल मामला उठा दिया। कितनी मजेदार बात चल रही थी और वह जाने कहाँ मैक्सिम को ले कर पर्सनल बात कह बैठा। मैक्सिम ने क्षण भर को किशन को देखा और फिर खुद में डूबता सा कहने लगा -

'...न जाने कहाँ से तो आते हैं आँसू? क्यों आते हैं मित्र? क्यों? बार-बार प्रमाणित करने अपनी अर्थहीनता।'

मैक्सिम झटके से उठा। अपना कैमरा उठाया और चलने को तैय्यार होने लगा।

'मैं जा रहा हूँ। वापस।'

'तुम उस जगह की फोटो नहीं लोगे। उन औरतों की तस्वीरें जिनके लिए तुमने मुझे पैसे दिए थे।'

'न।'

एक फीकी-सी मुस्कान मैक्सिम के चेहरे पर तैर गई। वह चला गया। किशन को उसकी मोटर साइकिल स्टार्ट करने की आवाज सुनाई दी।

...रामाधार की जोरू का विलाप से भरा क्रंदन किशन के घर को भीतर तक कँपा गया। उसका दर्द भरा विलाप किशन के भीतर तक उतरा और किशन तैय्यार होने लगा।

उसे पता था कि सारा गाँव जानता है आज वह गाँव में है। ऐसे में उसे अवश्य ही गमीवाले घर जाना चाहिए। वह बरसों से उस मृतक से नहीं मिला था। वह उसे जानता भी नहीं था। पर अगर न जाए तो गाँव में उसको ले कर गलत बातें फैलने में देर न लगेगी। हर कोई कहेगा, यहीं था फिर भी गमी में नहीं आया। वह जानता है यह सब सिर्फ औपचारिकता ही है। पर फिर भी इसे उसे पूरा करना पड़ेगा।

गमीवाले घर के बाहर वह चबूतरे पर बैठ गया। वहाँ गाँव के तमाम लोग इकट्ठा थे। उसका मन वहाँ नहीं लग रहा था। उसे एक के बाद एक सारी बातें याद आ रही थीं, फिल्मी रोना-गाना, गाँव का सस्वर विलाप, फ्रांस की सुबुकती काले चश्मेवाली औरतें, रुदाली, राग-रागनियों पर रोना-गाने की फिल्मी परंपरा...

...तभी फिर से रामाधार के जोरू का दर्द भरा क्रंदन सुनाई दिया। उसके क्रंदन के साथ ही बहुत-सी औरतों का विलाप गूँजने लगा। कुछ बुजुर्गों की आँखों में आँसू आ गए। कुछ आदमियों ने अपनी आँखें पोछीं।

किशन मुस्कुरा दिया। उसके भीतर एक चुहलती हँसी आकार लेने लगी।

मृतक के घर से आनेवाली रोने की आवाज तेज हो गई। एक बुजुर्ग रोते-रोते जमीन पर बैठ गया। देसरा बुजुर्ग उसे सँभालने उसकी तरफ लपका। एक आदमी अपने बच्चे को अपने सीने से लगा कर बुरी तरह से सुबुकने लगा।

किशन की हँसी छूट गई। वह हँसने लगा लगातार। उसकी हँसी रुक ही नहीं रही थी। गाँव के तमाम लोग भौंचक से उसे घूरने लगे। किशन की हँसी सुन औरतों का रोना अचानक रुक गया।

कहते हैं, गाँव के इतिहास में किशन पहला आदमी था, जो किसी की मृत्यु पर इस तरह खिलखिला कर हँसा था।