रोने का राज / राजकिशोर
वह सड़क के किनारे एक बेंच पर बैठा पर रो रहा था। मैंने सोचा, या तो कोई मर गया होगा या उसकी प्रेमिका ने उसे धोखा दिया होगा। यह भी हो सकता है कि भूमंडलीकरण की आँधी में उसकी कई साल पुरानी नौकरी सूखे पत्ते की तरह उड़ गई हो। आजकल जैसा समय चल रहा है, उसमें रोने के हजार कारण हो सकते हैं। फिर भी मुझसे रहा न गया। वह जिस तरह फूट-फूट कर रो रहा था, उसे देखते हुए कोई रुके भी नहीं और उसे सांत्वना भी न दे, तो यह रोते जाने का एक नया कारण बन सकता था। इसीलिए एक आदर्श नागरिक की तरह आचरण करते हुए मैं आहिस्ता-आहिस्ता उसके पास गया और उसका काँपता हुआ हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा - क्यों रो रहे हो, भाई?
उसने धीरे से सिर उठाया, मुझे गौर से देखा, फिर फफक कर पूछा, रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? ठठा कर हँसूँ? मेरी जुबान पर आ रहा था कि अगर चुनाव रोने और हँसने के बीच हो, तो हँसना ही बेहतर है, पर मैंने अपने आपको रोक कर कहा, क्या मामला ऐसा अजीबो-गरीब है कि उस पर रोया भी जा सकता है और हँसा भी जा सकता है?
वह मुझे इस तरह घूरने लगा जैसे मैं बहुत दिनों के बाद विदेश से लौटा होऊँ और भारत की स्थिति से बिलकुल अनभिज्ञ होऊँ। फिर अपने आँसू पोंछते हुए बोला, अखबार नहीं पढ़ते हो? यह देखो, क्या लिखा है।
उसने अपने झोले से दिल्ली के एक हिंदी अखबार का पन्ना निकाला और रेखांकित पंक्तियों को पढ़ने का इशारा किया। समाचार राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए और वाम दलों की उम्मीदवार के बारे में था। मैंने पढ़ा, 'प्रतिभा पाटिल के रूप में न सिर्फ उन्हें (सोनिया गाँधी को) एक स्वीकार्य, नरम और आज्ञाकारी राष्ट्रपति मिल जाएगा, बल्कि महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे कइयों की (मैंने 'कइयों की' ही पढ़ा, हालाँकि छपा था 'कईयों की') महत्त्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने वाली एक समांतर हैवीवेट प्रतिमा भी खड़ी हो जाएगी।' उसके रुदन का कारण मैं समझ गया, फिर भी खुलासा करने के लिए पूछा, ठीक तो है। इसमें तो प्रतिभा जी की तारीफ ही छपी है। आपको रोना किस बात पर आ रहा है?
उसने मुझे इस तरह देखा जैसे किसी बहुत बड़े उल्लू से उसकी मुलाकात हो गई हो। फिर बोला, क्या खाक तारीफ लिखी है? भावी राष्ट्रपति के बारे में अखबार लिख रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष को एक आज्ञाकारी राष्ट्रपति मिल जाएगा। सोनिया गाँधी को ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत हो सकती है, पर देश को तो ऐसे राष्ट्रपति पर शर्म ही आएगी, जो किसी दल विशेष के नेता का आज्ञाकारी हो। सोचिए जरा, पाँच साल लंबी शर्म... एक देश के रूप में हम कहाँ आ गए हैं!
मैंने उसे तसल्ली देना चाहा, लेकिन यह कोई नई बात तो है नहीं। इस मामले में तो हम पहले भी शर्मिंदा होते रहे हैं। वह कांग्रेस का ही चुना हुआ राष्ट्रपति था, जिसने इमरजेंसी के फरमान पर आज्ञाकारी पुत्र की तरह दस्तखत कर दिए थे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह तो इंदिरा गांधी के घर में झाड़ू तक लगाने को तैयार थे।
उसकी आँखों की उदासी गहराने लगी, बीच में हम ऐसे राष्ट्रपतियों के अभ्यस्त हो चले थे जो पूरी तरह से आज्ञाकारी नहीं थे। उन्होंने कैबिनेट के कई प्रस्तावों को लौटा भी दिया था। लेकिन एक बार फिर...क्या यह सचमुच सच है कि भारत जितना बदलता है, वह उतना ही अपनी जड़ों की ओर लौट आता है?
मैंने फिर तसल्ली देने की कोशिश की, फालतू में क्यों बात बढ़ाते हो? शिवराज पाटिल, मोतीलाल वोरा, कर्ण सिंह वगैरह से तो यह बेहतर उम्मीदवार है। समझो, देश एक बड़े हादसे से बच गया। जहाँ तक छोटे हादसों का सवाल है, तो वे राजनीति में होते ही रहते हैं।
वह चौंक-सा गया। बोला, इसे छोटा-मोटा हादसा कहते हो? राष्ट्रपति पद पर लोग किसी जानी-मानी हस्ती का इंतजार करते हैं। जिसका कुछ कद हो, जिसकी कुछ उपलब्धियाँ हों, जिसने कुछ किया हो... इसके बजाय हमें दी जा रही है एक गृहिणी जैसी महिला, जिसे पता नहीं वर्तमान परिस्थिति की पेचीदगी का कुछ ज्ञान है भी या नहीं।
मैंने जवाब दिया, मुझे तो आज ऐसे ही लोगों में कुछ उम्मीद नजर आती है, जिनका सीवी सबसे छोटा हो। क्या पता, यह गृहिणी अपनी ईमानदारी में दूसरे राष्ट्रपतियों से आगे निकल जाए।
वह बोला, हो सकता है, तुम्हारी बात ठीक हो, पर यह तो भविष्य ही बताएगा। अभी तो मुझे रोने का अधिकार है और तुम चले जाओगे तो मैं फिर रोना शुरू कर दूँगा। मैं तो मानता हूँ कि इस वक्त रोना मेरा राष्ट्रीय कर्तव्य भी है। मुझे अपने कर्तव्य का पालन करने दो। क्यों नहीं तुम भी मेरे साथ बैठ कर थोड़ी देर रो लेते? तुम्हारा अंतःकरण धुल जाएगा।
मैंने कहा, मैं इतना बदकिस्मत हूँ कि मेरे पास रोने के लिए भी समय नहीं है। मुझे घर जाकर एक लेख लिखना है। मैं अपने आँसू अपने लेखों में ही उँड़ेल देता हूँ। खैर, इस पर तो खुश हुआ ही जा सकता है कि पहली बार एक महिला राष्ट्रपति का पद सँभालने जा रही है। उसने जोर से उसाँस भरी, फिर मुझे अनवरत घूरने लगा। अब उसकी आँखों से आग निकल रही थी। उसके होंठ थरथरा रहे थे, लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे। साफ था कि वह जो कहना चाह रहा था, कह नहीं पा रहा था।