रोमहर्षण: व्यास गद्दी पर दलित / अमरनाथ शुक्ल
रोमहर्षण का जन्म सूत जाति में हुआ था। शास्त्रों में लिखा है कि ब्राह्मणी माता तथा क्षत्रिय पिता से उत्पन्न सन्तान सूत जाति में गिनी जाती है। इस जाति का मुख्य काम रथ-सारथ्य तथा घोड़ों के साधने संचालन का था। ज्यों-ज्यों जाति का विस्तार होता गया, राजा ने सारथी के काम से इन सबकी जीविका का प्रबन्ध न होने से स्तुति पाठ तथा वंश-कीर्ति का काम भी इन्हें दे दिया, पर वेद विद्या ग्रहण करने का इनको अधिकार नहीं था।
महर्षि वेद व्यास बहुत ही उदार विचारों के थे। रोमहर्षण के स्तुति पाठ तथा शास्त्रों-पुराणों में उनकी रुचियों को देख व्यास जी ने रोमहर्षण को अपना शिष्य बना लिया। रोमहर्षण ने पुराण विद्या का ऐसा पारायण किया कि उनकी प्रतिभा चमत्कृत हो गयी। जाति से अन्त्यज होते हुए भी व्यास जी की कृपा से पुराणों-शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया और कई ग्रन्थों की रचना की।
रोमहर्षण की गिनती पुराण-शास्त्र के विद्वानों में होने लगी। एक बार कई हजार ऋषियों ने मिलकर नैमिषारण्य में एक बहुत बड़ा यज्ञ-सत्र किया। यज्ञ-सत्र एक हजार दिनों का होता है। इसमें कई ऋत्विक तथा होता होते हैं। यज्ञ के मुख्य यजमान शौनक ऋषि थे।
इस प्रकार के यज्ञ में आहुति तथा मन्त्र-पाठ का काम प्रतिदिन थोड़े समय का होता है। शेष समय खाली रहता है। पर यज्ञ में भाग लेने वाले ऋषि न तो यज्ञ-स्थल से अन्यत्र कहीं जा सकते हैं और न ही कोई लौकिक काम कर सकते हैं। इसलिए समय बिताना कठिन हो जाता है।
सारे ऋषियों ने मिलकर एक दिन विचार किया कि खाली समय को बिताने के लिए भगवान वेद व्यास द्वारा आविष्कृत पुराण पर अपना विचार बताया तो व्यास जी बड़े प्रसन्न हुए और कहा, “पुराण गाथाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आप लोग रोमहर्षण को यज्ञ-स्थल पर आसन देकर अपना खाली समय बिताने हेतु नवीन ज्ञान को प्राप्त करें।”
व्यास जी की ऐसी बात सुनकर कुछ ऋषियों ने कहा, “भगवन्! रोमहर्षण तो सूत जाति के हैं? उन्हें गद्दी पर कैसे बैठाया जा सकता है।”
व्यास ने कहा, “ऋषियो, विद्या किसी जाति और धर्म की अपेक्षा नहीं करती। उत्तम विद्या लीजिए जदपि नीच पै होय, आप गुणग्राही बनिए। जाति मत देखिए। रोमहर्षण ने अपने अध्यवसाय से वह विद्या प्राप्त की है जो जाति और धर्म से परे है।”
यज्ञ-सत्र के ऋषियों की समझ में बात आ गयी। शौनक ने भी सूत जाति के रोमहर्षण से पुराण-कथा सुनने के लिए इन्हें व्यास गद्दी के ऊँचे मंच पर बैठाकर व्यास का पद दिया।
इस प्रकार रोमहर्षण खाली समय में पुराण कथाएँ सुनाने लगे। जिस समय यह यज्ञ हो रहा था, उसी समय महाभारत का युद्ध शुरू हो गया। भगवान कृष्ण तो पाण्डवों के पक्ष में इस शर्त पर हो गये कि वह युद्ध में सलाह तो देंगे, पर हथियार नहीं उठाएँगे। उन्होंने यह प्रतिज्ञा भी शायद इस कारण से की कि कहीं उनके बड़े भ्राता बलभद्र, जो दुर्योधन के शास्त्रगुरु थे, दुर्योधन के पक्ष में न चले जाएँ और इन दोनों भाइयों में भी कलह हो जाए।
उधर बलभद्र ने सोचा-कृष्ण पाण्डवों के पक्ष में युद्ध करेंगे नहीं, उनके कारण शिष्य दुर्योधन का कोई अहित होगा नहीं। इधर अर्जुन को अपनी बहन ब्याही है, इसलिए मैं इस युद्ध में तटस्थ रहूँगा तो ज्यादा ठीक है। पर यहाँ द्वारका में रहने से न जाने कैसी समस्या आ जाय। अतः मैं इस समय का उपयोग तीर्थाटन में करूँगा। ऐसा विचार कर वे तीर्थाटन के लिए निकल पड़े। तीर्थों में घूमते-घामते वे नैमिषारण्य पहुँचे। इस यज्ञ सत्र में उन्होंने देखा कि मन्त्र-पाठ तथा यज्ञाहुति के बाद सारे ऋषिगण एक मण्डप के नीचे बैठे हैं और अवर जाति का एक व्यक्ति ऊँचे व्यास गद्दी पर बैठा पुराण-कथा कह रहा है।
बलभद्र के उस मण्डप में पधारने पर सारे ऋषिगणों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया तथा अभ्यर्थना की, पर व्यास आसन पर बैठे रोमहर्षण उसी प्रकार निर्विकार भाव से व्यास गद्दी पर बैठे रहे। उस बीच उन्होंने थोड़ी देर के लिए प्रवचन बन्द कर दिया।
रोमहर्षण का ऐसा व्यवहार उन्हें उद्दण्डतापूर्ण तथा अहंकार से भरा लगा। एक तो अवर जाति का व्यक्ति ऊँची व्यास गद्दी पर बैठा विद्वान ऋषियों के समक्ष प्रवचन कर रहा है, यही अनुचित है, दूसरे मेरे सम्मान में जब इतने बड़े ऋषि-मुनि उठकर मेरी अभ्यर्थना कर रहे हैं तो यह अपने आसन से हिला तक नहीं। बलभद्र को यह सहन नहीं हुआ। वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा-भंग के लिए रोमहर्षण को दण्ड देना ही होगा। इसके अहंकार को नष्ट करना होगा। ऐसा विचार करते हुए वे क्रोध में अपने को सँभाल न सके तथा मुख्य यजमान शौनक तथा ऋषियों से यह पूछने की बजाय कि इसे वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा भंग करने का किसने अधिकार दिया? इस अवर जाति के व्यक्ति को किसने व्यास गद्दी पर बैठाया? उन्होंने मन्त्र-विद्ध कुश के प्रहार से व्यास गद्दी पर बैठे-बैठे ही रोमहर्षण का वध कर दिया।
बलभद्र के इस कार्य से सारे यज्ञ-मण्डप में खलबली मच गयी। यज्ञ क्षेत्र में यह तो नरबलि हो गयी। सारे ऋषिगण बहुत ही क्षुब्ध तथा दुखी हुए। महर्षि शौनक को जब यह पता चला तो वे बलभद्र के पास आये और कहा, “आपने यह बड़ा अनर्थ कर दिया। ऐसा कदम उठाने से पहले मुझसे पूछा तो होता। कारण बिना जाने अकारण आपने एक निर्दोष का वध कर दिया। रोमहर्षण भगवान वेद व्यास का पुराण-शास्त्र पारंगत विद्वान शिष्य था। उनके परामर्श से इनकी विद्वत्ता का लाभ उठाने हम सबने अवकाश काल में उनसे पुराण-गाथा श्रवण करने के लिए उन्हें व्यास आसन दिया था। भले ही जाति से वे ब्राह्मण नहीं थे, पर ब्राह्मणोचित विद्वत्ता के कारण वे इस व्यास आसन पर बैठने के पात्र थे। व्यास आसन पर बैठा व्यक्ति व्यास की पदवी प्राप्त होता है। सब उस पद उस मर्यादा का सम्मान करते हैं। उस पर बैठा व्यक्ति उठकर किसी अन्य व्यक्ति की अभ्यर्थना करे तो उस व्यास आसन का अपमान होता है। उसी आसन की मर्यादा तथा सम्मान के लिए रोमहर्षण आपके पधारने पर उठे नहीं और आपने इसे अपना अपमान समझकर उनका वध कर दिया। यह आपने बहुत अनुचित किया। व्यास गद्दी पर बैठा व्यक्ति ब्राह्मण ही होता है। उसका वध करके आपने एक प्रकार से ब्राह्मण की हत्या की है। इसके लिए आपको ‘ब्रह्महत्या’ का दोष लगेगा।
रोमहर्षण का वध करके जहाँ आप ब्रह्महत्या के दोषी हुए, वहीं आपने हम ऋषियों का भी बहुत अहित किया। रोमहर्षण के वध से पुराण विद्या के लोप होने का भय हो गया है। बिना सोचे-विचारे किए गये कार्य का दुष्परिणाम स्वयं अपने के अलावा बहुतों का अहित करता है।”
महर्षि शौनक की व्यथाभरी बात सुनकर बलभद्र स्तब्ध रह गये, पर अब क्या कर सकते थे। खेद तथा दुख से सिर झुकाकर कहा, “ऋषिवर! निश्चय ही मैं अपराधी हूँ। मुझे नहीं पता था कि आप लोगों ने स्वयं रोमहर्षण को यह सम्मान दिया था। मैं तो यही समझता था कि वह अभिमान से इस आसन पर बैठकर उद्दण्ड हो गया है। अपने अविवेक से मैंने जो कर्म किया है इसका कर्मफल मैं भोगूँगा, पर पुराण गाथा आगे चले, इसके लिए क्या होगा?”
शौनक ने कहा, “रोमहर्षण का पुत्र उग्रश्रवा इससे भी अधिक विद्वान है। हम उसे बुलाकर पुराण-गाथा श्रवण करने का प्रबन्ध करेंगे। इस विद्या का लोप नहीं होने देंगे। श्रुति के माध्यम से हम इसे ग्रहण कर इसकी परम्परा बढ़ाते रहेंगे।”
बलभद्र शौनक के चरणों पर गिरकर बोले, “मुनिवर! आप उग्रश्रवा को बुलाकर इस व्यास गद्दी पर बैठाइए। मैं उनके आसनासीन होने पर उनसे अपने अपराध की क्षमा-याचना करूँगा तथा ब्रह्मा-हत्या दोष के निवारण के लिए तीर्थों में घूम-घूमकर प्रायश्चित्त करूँगा।”
ऋषि शौनक ने उग्रश्रवा को बुलाकर सारी स्थिति बतायी तथा उसे व्यास गद्दी पर बैठाया। बलभद्र ने अपने अपराध की क्षमा माँगी और प्रायश्चित्त के लिए चले गये।
उग्रश्रवा ने पुराण सुनाना प्रारम्भ किया। आजकल जो पुराण उपलब्ध हैं, उसमें कई में रोमहर्षण का संवाद मिलता है, कई में उग्रश्रवा का मिलता है। रोमहर्षण के जीवनकाल में ही उग्रश्रवा को ऋषि तथा ब्राह्मण समाज में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उग्रश्रवा ऋषियों की श्रेणी में थे।
इससे विदित होता है कि प्राचीन काल में जाति से अधिक गुण का सम्मान होता था। प्राचीन काल में प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा विद्या अर्जित करने में जाति बाधक नहीं होती थी।
-(पद्मपुराण)