रोम वाज नाट बिल्ट इन ए डे / सुशील यादव
तब अंग्रेजी का अपना एक अलग रूतबा हुआ करता था, एक सख्त किसम के टीचर हमें पढाते थे, क्लास में उनके घुसते ही एक वीरानी, सन्नाटा या सच कहें तो मनहूसियत का माहौल हो जाता था।
पता नहीं उनकी याददाश्त या डिक्शनरी में कम शब्द या प्रोवर्भ थे .जो आए दिन कहा करते थे ;
“रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे”......।
इस वाक्य के बोलते समय, उनका चेहरा एक अलग किस्म के तनाव से भर जाता था, टीचर जी पढ़ाते –पढाते कहीं खो जाते थे। उनकी वापसी तब होती थी जब कोई प्यून रजिस्टर ले के आता, या छात्रों की गपशप की आवाज ऊँची गूंजती .या स्कूल में पिरीयड बदलने की टन्न बजती।
मैं उन दिनों अखबार पढ़ लिया करता था, इसलिए मुझे अतिरिक्त ज्ञान हो गया था, मसलन मै,घपलो-घोटालो, राजनीतिक पहुँच, उपरी लेन-देन, पैसों के लिए बाबू से मंत्री तक के,चारित्रिक स्तर के बारे में जानने लग गया था।
टीचर जी के उस वाक्य के मायने कि, “ रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे .....” यू लगता था कि, “रोम” चाहे चार दिन में बना हो या चार सौ सालों में, हमारा क्या वास्ता? दूसरी बात ये खटकती कि, रोम के ठेकेदार, कारीगर ज्यादा सुस्त रहे होंगे, या “रोम” में वो कौम नहीं रही होगी जो ‘स्पीड- मनी’ पर विश्वास करती थी?
शायद रोम में अच्छे ‘बाबू –इंजीनियर-नेता’ लोग पैदा होना भूल गए थे , कि ‘रोम’ को बनने-बनाने में बरसो लग गए?
कौतुहल के और अनेक कारण भी थे, जो रोम को एक बार देखने की वजह आज भी बने हुए हैं ।
हमारे तरफ की बात अलग है,इधर आर्डर हुआ नही कि रातो-रात “रोम” बस जाता है।
पूरी की पूरी राजधानी बन जाती है।
ठेकेदार, इंजीनियर जेब में एक से एक डिजाइन का ‘रोम-रोमियो’ का नक्शा लिए घूमते रहते हैं।
एक-एक दिन की खबर रहा करती है, कब केबिनेट की मीटिंग हो रही है, फाइल किस टेबल तक पहुची है।
किसने रोड़ा डाला।रोड़ा डालने वाले की कितनी औकात है।कितना वजन डालना होगा। कितने तक में मामला सेट होगा। उन तक पहुचने का अप्रोच रोड क्या है?
वो सब के सब टकटकी लगाए बस ये देखते रहते हैं कि, कब साहब का फरमान हो, रोम की लेन लगा दें।
स्वीमिंग –पुल, रोड, नाहर बिजली –पानी सब का दुरुस्त इन्तिजाम। मिनटों में जहाँ कहे रोम-रोम में फिट कर दें।
डिस्काउंट के बतौर, मेम साहिबानों के लिए छोटे-छोटे रोम की अलग से भेट।
कहते हैं, पैसा बोलता है। इन इन्तिजमो को देख के लगता है, पैसा लाउडस्पीकर की आवाज भी रखता है .तभी तो इसकी आवाज क्लर्क –बाबू . ठेकेदार, इंजीनियर, सांसद-विधायक, मंत्री –संतरी सभी एक साथ सुनकर “रोम”,बनाने में हाथ बंटाते हैं।
कुछ पत्रकार अडंगेबाज होकर, रोकने की मुद्रा में खड़े होते हैं।
नए रोम के बारे में वे अनाप-शनाप लिखते हैं, बताते है नया रोम संस्कृति के खिलाप है। कई खामियां गिनाते हैं।
उधर विधायक विपक्ष, सांसद विपक्ष अकड़े हुए से आंकड़े फेकते हैं, थू-थू से माहौल थर्राया सा लगता है।
लगता है ये सब रोम के पाए को कहीं भी, कभी भी जमने नही देंगे। जिस-जिस ने रोम के पाए पर अपना कंधा दिया है, वे उनको ही दफना के डीएम लेंगे।
सरकार सोते से जागती है, वो रोम निर्माण में अनर्थ ढूढने की जी तोड़ कोशिश करती है।उंनसे अनर्थ ढूढा ही नही जा पाता। वो थक-हार के निर्णय लेती है, ‘निगरानी-आयोग” के हवाले मामला दे दिया जाए। सरकार के पास और भी काम है वो अगले इलेक्शन की तैय्यारी में लग जाती है। सरकार की उपलब्ध्दियो में रोम -कथा, कम समय, कम खर्च में बना हुआ बताया जाता है। गरीबों से इसे जोड़ते हुए श्रम उपलब्ध कराने का जरुरी तरीका बताया जाता है। ये कहा जाता है कि मंनरेगा के तहत काम उपलब्ध कराए गए। पक्ष वालो को वोट की फसल लहलहाते दिखती है।
एक ठेकेदार को मै करीब से जानता हूँ, हमेशा बड़े दुखी मन से मिलते रहे। वो पर्यावरण, स्वास्थ्य परिवार-नियोजन, जेल इत्यादि सभी मंत्रालयों की विस्तृत जानकारी रखते हैं, भले वे अपने लड़के का फोन नंबर भूल जाए. तमाम दूसरो के नम्बर तात्कालिक –मौखिक याद रखते हैं।
वे मिल कर, इस बात का रोना –रोते हैं ... कि अब की बार अच्छी बारिश हो गई है, नहर का काम शायद रुक जाए...।बाजार में अच्छे टीके आ रहे हैं लोग बीमार नहीं पड़ेंगे...। अगला सप्लाई आर्डर केंसिल हो न जाए।... बच्चे कम पैदा हो रहे हैं, लोग घरो में दुबक गए हैं, आगे काम कम हो जाएगा।
मै उनको आश्वस्त कर कहता हूँ, ऐसा कुछ नहीं होने वाला, यहाँ तुम्हे घबराने की जरूरत नहीं।
ऊपर से खुद –ब-खुद फरमान आएगा, फलां पुल जर्जर हो गया है, तोड़ के बना दो,/ कही से मेट्रो निकाल दो, इंटरनेश्नल स्वास्थ्य का हवाला देकर, गरीबो के लिए आलीशान फाइव-स्टार नुमा हास्पिटल बना दो। कसाब की सुरक्षा खतरे में है, जेल को सद्दाम के बख्तरबंद –नुमा महल में तब्दील कर दो।
हम उस जगह है जहां काम की कमी ही नही?
वो एक गहरी सांस में, ‘आमीन की मुद्रा’ लेकर मुझसे बिदा ले चल देता है ।
मुझे उनसे रोम-टाइप के कई डिटेल –अपडेट मिलते रहने का सिलसिला बरसों तक चला।
मै भी करीब-करीब ठेकेदार जैसा हो गया था। किसी बनते हुए पुल या रोड को देखकर, घंटों वहीं खड़े होकर, उसके बनाने वालो की हैसियत का अंदाजा लगाने लगता।
निर्माणाधीन –स्थल को देखकर, यह भी बताने की स्तिथि में रहता कि, फाइल कहाँ होनी चाहिए?
मेरे तजुर्बे से कई लोग फ़ायदा उठाने की कोशिश में रहते कोई फ़ायदा उठा भी लेते, कहते आपकी वहां पहुंच है, ये काम करवा दीजिए, एहसान मानेंगे, वो एहसान से कभी आगे बढ़े नहीं और मै वही का वहीं रह गया......।
अरे हाँ, टीचर जी का ‘रोम’ वाला वाकिया “नाट बिल्ट इन अ डे” पीछे छुट गया...। बहरहाल, उन दिनों, हम छात्रो की जुबान में भी रोम चढने लग गया था।बात –बात में हम लोग भी कहने लग गए थे “ रोम वाज नाट बिल्ट इन अ डे”।
हमारी जुबान का ये ‘तकिया-कलाम’ हो, इससे पहले, भला हो हमारे क्लास के, विवेक नाम के एक लड़के का, जिसने पता लगा कर बताया कि, यार अपने अंग्रजी वाले सर जी कई दिनों से अपना मकान बनवा रहे हैं। सस्ताहा टाइप ठेकेदार –मिस्त्री को काम दे रखे हैं। किसी के पास पूरा सेंट्रिंग-मटेरियल नहीं तो कोई मजदूर होली मनाने गया तो लौटा नहीं। काम कई महीनो से रुक-रुक कर धीरे–धीरे चलने से टीचर जी परेशान से रहे। कर्जा भी ख़ूब हो गया, लगता है। मगर हाँ, गनीमत समझो, कल छत की ढलाई हो गई। शायद टीचर जी अब चैन की सांस लें।अब रोम के बनने –बिगड़ने का असर उन पर न पड़े। और सच ही, वो उसके बाद ‘रोम-विहीन’ हो गए।
हम ‘रोम’ की गली से गुजर कर कब अगली क्लास में पहुँच गए? पता ही नहीं चला।