रोला बार्थ / शिवप्रिय
साँचा:GKCatShodh रोलां-बार्थ का जन्म 12 नबंबर 1915 में नौरमैंडी चेर्बौर्ग नामक शहर में हुआ था। अपने उम्र के ग्यारहवें वर्ष में इनका परिवार पेरिस में रहने चला आया। वहां से इन्हें एक मजबूत बौद्धिक आधार प्राप्त हुआ। रोलां बार्थ को संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद के योजक कड़ी के रूप में जाना जाता है। फ्रांस के संरचनावादी विचारकों में रोलां बार्थ का स्थान अग्रिम पंक्ति में रखा जाता है। इसका कारण उसकी विलक्षण प्रतिभा एवं क्रांतिकारी स्वभाव में छिपा था। वह किसी भी प्रकार के एकत्व (यूनिफिकेशन) के विरूद्ध था। बार्थ बुर्जुआ मानसिकता और उसके चाल-चलन के सख्त खिलाफत में था। अपने लेखन में बार्थ ने बुर्जुआ वर्ग के धुर्तता को रेखांकित करते हुए बताता है की किस प्रकार यह वर्ग अपने घटिया उत्पादों को सामाजिक मिथकों में मूल्यों के प्रतिरोपन द्वारा समाज में प्रतिष्ठित कर रहा था। इतना हीं नही बार्थ हर उस चीज का, मत का, चलन को नकार देता था, जिसे उसके समय के बुर्जुवाजों ने बौद्धिकता के रूप में स्वीकार कर रखा था।
रोलां-बार्थ की प्रमुख रचनाओं में “राईटिंग डिग्री जीरो”(1953) “माइथॉलॉजिज”(1957) “एलिमेंटस ऑफ सिमियॉलॉजी”(1965) “एस/जेड” (1970) “दी प्लेजर ऑफ टेक्स्ट”(1973) “रोलां-बार्थ बाई रोलां-बार्थ” (1975), “इमेज-म्युजिक- टेक्स्ट”(1977), “टेक्सचुअल एनालिसिस ऑफ ए टेल बाई एडगर एलन पो”(1973), “दी ब्लेस ऑफ दी टेक्स्ट” (1975), “ए लवर्स डिस्कोर्स रू फ्रेगमेंट्स”(1977), “दी लास्ट हैपी राईटर”(1971) “दी ईफेल टॉवर एण्ड अदर माईथॉलाजिज”(1979), “ऑन रेसाइन” (1979)आदि।
रोलां बार्थ उत्तर-संरचनावादी लेखन पर विचार करने के क्रम में “तेल-क्वेल” के समय से उत्तरार्द्ध के वर्तमान समय तक के लेखन को सिद्धांतीकरण की प्रक्रिया से गुजारना जारी रखता है।
अपनी पुस्तक “दी डेथ ऑफ दी ऑथर” में बार्थ पाठ और अन्तरपाठ की उत्तर-संरचनावादी अवधारणाओं का ग्राफ खींचता है। वह यहां लेखक और पाठक की प्रचलित मान्यता पर रोक लगाते हुए, इनके नये स्वरूपों की घोषणा करता है वह कहता है कि लेखन हर प्रकार से अपने हीं मूल के विध्वंस का आगाज करता है। अर्थात बार्थ पाठ से उसके उत्पादक को विलगित कर देता है। ठीक इसी जगह वह लेखक के मृत्यु प्रदान करते हुए, पाठक को प्रस्तुत करता है। बार्थ अनुसार लेखक नही लिखता या बोलता है, बल्कि रचना की भाषा लिखती, या बोलती है, संरचनावादी भषिकी में कहा भी जाता है रू “लैंग्वेज स्पीक्स नॉट मैन” स्पष्ट है की लेखक की जगह न तो कृति या रचना में है, न ही लेखक भाषा पर पितृवत अधिकार हीं रखता है, और नहीं वह उत्पादक की हैसियत बना सकता है। बार्थ के इस कार्य का सीधा अर्थ यह निकला की पाठ का लक्ष्य उसके आरंभ (लेखक) में सीमित न होकर पाठ के अंत या उद्देश्य पर लक्षित है, यानी पाठ का उत्स अब लेखक न होकर पाठक या पठनीयता थी। पूर्व प्रचलित मान्यता की रचनाकार कई प्रकार की शक्तियों से लैश होता है, रचनाकार पहले से अस्तित्वान है, वह लेखन के लिए प्रसव-पीड़ा झेलता है, वह पिता जैसे बच्चों के प्रति जिम्मेदार होता है, वैसे हीं लेखक अपनी पुस्तकों के लिए जिम्मेदार होता है आदि,आदि.......बार्थ की अवधारणाओं ने उपरोक्त मान्यताओं को जड़-मूल से निकाल फेंका। बार्थ का नया लेखक अपने को पूर्व के केंद्र से हटा कर उसने स्वयं को विकेंद्रित कर लिया था। वह अब हर पाठ में अलग-अलग किस्म की उपस्थिति दर्ज कर सकता था।प्रत्येक पाठक अब लेखक की हैसियत रखता था। परंतु कोई भी नया लेखक दूसरों के लिए लेखक की भूमिका नही ले सकता था।यह नया लेखक अपने समय के समानांतर था न आगे न पीछे। यह न हीं अपने समय का अतिक्रमण कर सकता था।
उपरोक्त स्थापनाओं के आलोक में देखा जा सकता है की बार्थ ने पाश्चात्य काव्य-शास्त्र के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को जड़ से उखाड़ फेंका विशेष रूप से अभिव्यंजना सिद्धांत और अनुकरण-सिद्धांत। अभिव्यंजना सिद्धांत ’रचना’ को लेखक के आत्मा, हृदय के प्रतिचित्रण के रूप में प्रस्तुत करता रहा था। अभिव्यंजना सिद्धांत का जनक क्रोचे के अनुसार “सहजानुभूति” (इंट्युशन) से ही व्यक्ति को यथार्थ की जानकारी होती है। रचनाकार जगत में जो कुछ देखता है, उसके यथार्थ का बोध उसके मन में उभरता है जो एक अमूर्त प्रतीति-सी होती है। “लेखक के अतीत-अनुभव, उसकी निजता, साथ हीं साथ लेखक के जीवनवृत, मनोविश्लेषण खोजबीन एवं इतिहास आदि जो कुछ भी जिससे लेखक के (स्व) सेल्फ को जाना जा सके उसका पूर्ण निषेध कर दिया। अब इसके बाद सारा दायित्व का केंद्र सिर्फ पाठ का बचता है। वह स्वंय को “सैच्युरेटेड डोमेन” अर्थात पाठ किसी अन्य पर आलंबित न हो कर स्वंय के स्थितिओं में घटित होने को तैयार होता है। इस अवधारणा के कारण रचनाकार और पाठक दोनों हीं उपस्थित समय में पाठ को गतिशील बना देते हैं। इसके प्रभाव स्वरुप लेखन की स्थिति नये रूप में अभिलेखन, अवधारण और निरूपण की से मुक्ति में फलित होती है तथा अब वह निष्पादक या उत्पादक भर की हैसियत रखता है। इसके सहारे बार्थ काव्यशास्त्र के अनुकरण सिद्धांत को भी खारिज करता है, जो रचनाकार की रचना को पूर्वतरू अस्तित्वान जीवन या यथार्थ के दर्पणीकृत (मिरॉरड) उपस्थित चित्र के रूप ग्राह्य बनाता है, अर्थात अनुकरण का आशय यहां समान व्यवहार या समान निर्माण। कलाकृति मूल वस्तु का पुनरूत्पादन है। रचनाकार भाषा का उपयोग लेखन हेतु करता है। इसके निमित्त वह तत्काल निर्मित, अनिर्धारित शब्दकोष, आधुनिक संदर्भ में कहें तो विकीपिडिया को उपयोग में लाता है। जो की रचनाकार के भीतर की उपलब्ध हीं रहता है। यह जानकारी, सूचना, विद्या-अभ्यास एवं संकेतों के भंडार के रूप में होती है, यह संस्कृति एवं अनुभव आदि न जाने कितने हीं क्षेत्रों से जुटाई गई होती है, और उनका भी आपस में घाल-मेल होता रहता है। इस प्रकार लेखन को अस्तित्व में लाया जाता है। इस तरह देखा जाय तो कोई भी लेखन विभिन्न लेखनों का समुच्चय भर होता है। लेखन कई प्रकार के सांस्कृतिक प्रभावों, वादो, विवादों, संवादों एवं विमर्शों के संघनित उलझावों की निर्मिति होती है। बार्थ यहीं चोट करता है, की अभिव्यक्ति या रचनाकर्म की आंतरिक आत्मा एवं अनुकरण के यथार्थमूलक संसार वस्तुतरू दोनो की हीं अवस्थिति पाठन के अंदर के विभिन्नतामूलक कोश को स्थापित करता है। सच्चाई यह है की किसी भी रचनाकार का लेखन उन संकेतकों का जाल होता है, जो भाषा के पाठकीय भंडार से गृहीत होता है। यही वह स्थल है जहां इसके बहुमुखी स्वरूप को देखा जा सकता है निस्संदेह यह स्थल पाठक में फलित होता है।
किसी भी रचना का लेखक जब अस्तित्ववान होता है तब वह अपनी क्षमताओं, सीमाओं एवं अपने सामर्थ्य को पाठक के सामने प्रस्तुत करता है। अतरू किसी रचना को पढना इन स्थितिओं में उस लेखक को एक बार फिर से संजीवनी प्रदान करने जैसा है अथवा पहले से अस्तित्वान सत्य का उदघाटन करने जैसा हीं है। अब आलोचना फक्त रचना के तले की काया को फिर से जीवन प्रदान करती है। इसका लक्ष्य अंतिम संकेतित तक अपनी पहुंच बनाना, निरूपित करना होता है। यहां कोई भी पाठ, अर्थ के लिए एक पूर्वपाठ की भुमिका अख्तियार कर लेता है।
इन सबके अतिरिक्त बार्थ ने दर्शन के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण उपकरण को भी लाता है। जिसके सहारे वह अपनी दार्शनिक सरणी को अमली जामा पहानाता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण “डॉक्सा” है। डॉक्सा का प्रयोग बार्थ विरोधाभास के संदर्भ में करता है। डॉक्सा अर्थात वस्तु और परिस्थिति की वह स्वीकृत अवधारणा जिसे बहुसंख्या स्वीकार करती हो, दूसरे शब्दों में यह अपना साम्य “कॉमनसेंस” से रखती है।बार्थ ने बौद्धिक समाज को इसका बोध कराया कि यथार्थता की वह प्रचलित अवधारणा,जिसे सामान्यतया लोग नही समझते है, यथार्थ की अनेकों अवधारणा में सिर्फ एक भर होती है।
बार्थ ने लेखक को पुनरूव्याख्यायित करते हुए लेखक को परंपरा से प्राप्त प्रजापति ब्रह्मा की भुमिका से अपदस्थ कर बताता है कि - लेखक (टंकक), जिसकी एकमात्र शक्ति इस बात में निहित होती है की वह पूर्व से उपलब्ध पाठ को नये तरीकों से अभिव्यक्त कर सके, बार्थ मानते हैं की लेखन अपने पूर्व के पाठों का दुहराव मात्र है। बार्थ लेखक को टंकक मानते हुए उसे किसी भी प्रकार के (पास्ट) अतीत के महात्मय से वंचित करते हुए उसके जन्म को उसके द्वारा टंकित पाठों के माध्यम से मानते हैं, अर्थ एवं व्याख्या के परंपरागत अधिकार से मुक्त करते हुए सक्रिय पाठक को स्थापित कर अर्थ-नियंत्रण हेतु अनंत स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। रोलां बार्थ का प्रसिद्ध कथन भी इसी आलोक में देखा जा सकता है “लेखक के मृत्यु की परिणति पाठक के जन्म के साथ हीं होती है।