रौशनीवाला / राजेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
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लखनऊ के हजरतगंज इलाके के एक गेस्ट हाउस में बारात सज रही थी। बच्चे, बूढ़े और जवान-सभी अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक सज-धज रहे थे। कोई नया सूट निकाल रहा था, तो कोई ड्राईक्लीन किया हुआ। किसी की टाई की नॉट खुल गयी थी, या किसी ने शरारतन खोल दी थी और वह उसे बाँधने में लगा हुआ था। नवविवाहित स्त्रियाँ तय नहीं कर पा रही थीं कि वे साड़ी पहनें या सूट! प्रौढ़ाएँ अवश्य इस समस्या से उबर चुकी थीं, लेकिन वे अपनी साड़ियाँ बार-बार ठीक करने में लगी थीं।

'सोनी ब्रास बैंड' के कलाकार तो अपनी दुकान से ही सज-धज कर निकले थे। कुछ लोग ज़रूर सजे नहीं थे। वे थे इस सज-धज को रौशन करने वाले सिर पर रौशनी के हंडे उठाये मजदूर!

ऐसे ही मजदूरों में इंटर तक शिक्षित एक नौजवान था—कन्हैयालाल विश्वकर्मा। लखनऊ से सटे गाँव के गरीब बाप का बेटा। उसने जब साइंस साइड से इंटर पास किया, तो उसकी माँ ने अपने ज़ेवर गिरवी रखकर इंजीनियरिंग की कोचिंग करायी, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि सेकेंड डिवीजन पास वालों के लिए सरकारी कालेजों में इंजीनियरिंग का मौक़ा न के बराबर होता है! उनके लिए तो बी.बी.डी., रामस्वरूप जैसे कालेज ही हैं जिनमें लाखों रुपये खर्च कर वे इंजीनियर बन सकते हैं। लेकिन क़िस्मत आज़माने की बात थी, सो कन्हैया ने भी आज़मायी। पर क़िस्मत की बात तो क़िस्मत लिखने-वाला ही जानता है। काम करने वाला तो अपने काम की क़ीमत ही वसूल पाता है, वह भी मुश्किल से। बल्कि, कभी-कभी वह भी डूब जाती है। डूबी हुई क़ीमत का मिलना ही शायद क़िस्मत है!

कुछ भी हो, कन्हैया के मामले में, माँ-बाप की हिम्मत और बेटे की मेहनत रंग नहीं दिखा पायी और सयानों की बात ही सच साबित हुई. चार महीने का वक़्त ज़ाया हुआ और सात-आठ हज़ार रुपयों की चपत लगी, सो अलग! ... गाँव के कुछ महीन लोगों को छोड़ किसी को खुशी नहीं हुई.

नतीज़े पर कन्हैया का गला रुँध गया। उसने अगले साल पूरी मेहनत से तैयारी का भरोसा दिलाया, पर घर की हालत देखते यही तय पाया गया कि अब वह अपने पुश्तैनी काम, अर्थात् बढ़ईगीरी सँभाले और बाप का हाथ बँटाये, लेकिन कन्हैया को बसूला, आरी और रंदा से उतनी ही चिढ़ थी, जितनी कि बचपन में उसके बाप को काग़ज़, क़लम और दवात से।

कन्हैया को उम्मीद थी कि उसे कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल जायगी—सरकारी न सही, प्राइवेट ही, लेकिन बाप ने जब बिना काम-धाम के बेटे का खाना-पीना हराम कर दिया और माँ ने भी भीगे मने से उससे पुश्तैनी धंधे के अपनाने की बात की, तो वह घर से भाग निकला और कानपुर में अपने मामा के पास पहुँचा। वे एक प्राइवेट फर्म में चपरासी थे। वहाँ रहकर वह लिखने-पढ़ने वाली किसी नौकरी के लिए हाथ-पाँव मारे, मगर नतीज़ा 'जीरो बटा सन्नाटा' ही रहा। महीने-भर यों ही चलता रहा, पर जब मामा ने भी यही समझाया कि लखनऊ में ही रहकर नौकरी का जुगाड़ करना ठीक रहेगा, तब कन्हैया की समझ में आ गया कि मामाजी भी अब उसका साथ नहीं देना चाहते। ... तब लखनऊ वापस आने के अलावा उसके पास कोई चारा न बचा।

इससे पहले कि वह लखनऊ पहुँचता, दुर्भाग्य ने दुर्दिन दिखला दिया। हुआ यह कि एक शाम पहले जब उसके पिता शहर में काम ख़त्म कर साइकिल से घर लौट रहे थे, तो वे एक अनियंत्रित कार की चपेट में आ गये। सिर में गंभीर चोंटे आयीं। राह चलते लोगों ने किसी तरह मेडिकल कालेज पहुँचाया, लेकिन सुबह तक उन्हें होश न आया। एक्सीडेंट की ख़बर जब तक घर पहुँच पाती, वे स्वर्गवासी हो चुके थे। कन्हैया के लखनऊ पहुँचने तक लाश पोस्टमार्टम होकर भैंसाकुंड पहुँच रही थी। वह सीधे घाट पर पहुँचा। ...

नौकरी की कोई बात नहीं बन रही थी। घर की हालत ख़स्ता थी ही। कन्हैया के सामने अब कोई विकल्प नहीं था कि वह नौकरी की तलाश में ख़ाली बैठे। दसवाँ-तेरही में भी जो खर्च आया था, उसे मामा ने उठाया ज़रूर, लेकिन वह एक तरह से क़र्ज़ ही था। इस राशि से दान-दक्षिणा कर उसे आत्मसंतोष कम, ग्लानि अधिक महसूस हो रही थी।

इंजीनियर बनने के सपने को वह स्वयं ही तोड़ बढ़ई बनने को तैयार था, पर यह काम भी उसे नहीं मिल रहा था। एकाध बार मिला भी, पर उसकी अनुभवहीनता के चलते छिन गया। पेट की आग और माँ की बीमारी ने उसे बढ़ई से मजदूर बनने पर विवश कर दिया।

दो साल पहले उसका विवाह कर दिया गया था। पत्नी ने नाम लिखना-भर सीखा था, बाक़ी काला अक्षर भैंस बराबर! बीमार माँ की सेवा के लिए घर में बहू की तुरंत ज़रूरत थी। न चाहते हुए उसे विवाह करना पड़ा था। माँ की तरह उसे भी उम्मीद जगी कि शायद बहू के भाग्य से उसे नौकरी मिल ही जाय, पर भाग्य की बातें तो भाग्य लिखने वाला ही जाने।

समय बीता। ...आज वह एक बच्चे का बाप है, मगर नौकरी के मामले में मजदूर-का-मजदूर! कभी-कभी वह सोचता है कि उसके जैसे लोगों को जब सपने देखने का अधिकार ही नहीं है, तो फिर स्कूली शिक्षा उसे सपने देखने को क्यों विवश करती है? उससे तो उसकी पत्नी ही अच्छी, जिसे सामाजिक या सरकारी व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं, अगर कुछ है, तो बस क़िस्मत से, जो भगवान आदमी के कर्मों की स्याही से लिखता है। अब अगर क़िस्मत में ही खोट है, तो भला दुनिया वालों को दोष देने से क्या फायदा?

वैसे तो उसने अब तक कई बारातों में रौशनी के हंडे उठाये थे, लेकिन आज जब बैंडवाली गाड़ी पर 'अजय वेड्स आभा' का बोर्ड देखा, तो वह चौंक गया। उसे अपने क्लास फेलो, अजय की याद आ गयी, जो उससे एक साल आगे था, मगर फ़ेल होकर उसी के साथ दसवीं में था।

अजय पढ़ने में औसत था, जबकि कन्हैया अच्छा! जूनियर हाईस्कूल और हाईस्कूल, दोनों में उसकी फ़र्स्ट डिवीज़न थी। फ़र्स्ट इयर में केवल दो मार्क्स से फ़र्स्ट डिवीज़न रह गयी थी, लेकिन इंटर में तो वह जैसे ख़ुद से ही पिछड़ गया था। जैसे-तैसे सेकंड डिवीज़न आ पायी जिसका उसे आज तक मलाल है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वह अजय से कमतर है। अजय बाबू तो इंटर में मुश्किल से पास हुए थे—अंग्रेज़ी में ग्रेस मार्क्स लेकर। पर इससे क्या होता है? वह सचिवालय में कार्यरत पी.ए. का बेटा है। ग्रेजुएशन कराकर एक सरकारी विभाग में एल.डी.ए. भरती करा दिया गया और तीन ही साल में यू.डी.ए.! आज बढ़िया शादी हो रही है। जब तक बच्चे होंगे, श्रीमान सेक्शन ऑफिसर हो जायेंगे। फिर उनके बच्चे बड़े होकर अभिजात कहलायेंगे, क्योंकि तब तक वे मध्यमवर्गीय हो चुके होंगे और कन्हैया जैसे लोग मज़दूर से बहुत से बहुत मेट या छोटे ठेकेदार जिनकी कोई सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं, बस खा-कमा लो और अपने बच्चों को लगाओ किसी छोटे-मोटे काम-धंधे में, वरना वे भी मजदूर! आज का तो यही मान्य सिद्धांत है कि बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए पैसा और माँ-बाप को शिक्षित और सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित होना ही चाहिए.

कन्हैया को अपने आप पर तरस भी आ रहा था और ग़ुस्सा भी। उसने पहली ही बार पूरी ताक़त क्यों नहीं लगायी? ग़रीबों को एक ही बार मौक़ा मिलता है। अगर उसने पूरी ताक़त लगायी होती, तो किसी सरकारी कालेज में सेलेक्शन ज़रूर हो जाता! एक बार एडमीशन हो जाता, तो वह एजूकेशन लोन ले लेता। मामा गारंटर तो बन ही जाते! ...पर, अब क्या हो सकता है?

सिर पर रौशनी का हंडा लादे कन्हैया तसल्ली कर लेना चाहता है कि दूल्हा अजय ही है, लेकिन दूल्हे की गाड़ी उससे बीस-पचीस फ़ीट पीछे है। रौशनी के स्टैंड को हाथों से पूरी ताक़त से उठाकर वह मुड़कर देखता है, लेकिन कोशिश बेकार! उल्टे डाँट पड़ती है कि वह सीधे देखे, वरना दूसरे मज़दूरों की बत्तियाँ उलट जायेंगी। कहने को तो वह 'अनस्किल्ड लेबर' है, लेकिन बिना स्किल के दो वक़्त की रोटी नसीब है क्या?

दारू चढ़ाये सूटेड-बूटेड बाराती कूल्हे मटका रहे हैं, 'मेरे यार की शादी है! ... ।लगता है जैसे सारे संसार की शादी है!' या फिर, 'यह देश है वीर जवानों का, मस्तानों का अलबेलों का!' रोज़-रोज़ का यह सीन देख कन्हैया झल्ला उठता है, 'अगर ये दो फ़िल्मी गानें देश को न मिले होते, तो न जाने क्या होता? कैसे बाराती नाचना शुरू कर पाते?'

कन्हैया को आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा है—न गाना, न संगीत और न डांस! लगता है कि उसके तन-बदन में सैकड़ों खटमल चिपक गये हों, लेकिन वह अपने हाथों का इस्तेमाल सिर्फ़ रोशनी का हंडा सँभालने ही में कर सकता है, खटमलों को हटाने या मारने में नहीं। ... कोई एक घंटे के फूहड़ डांस के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के बाद बारात मंडप के द्वार तक पहुँची। दूल्हे के कार से उतरने तक इंतज़ार करना कन्हैया को खल रहा था। डर था कि जब तक दूल्हे महाराज कार से उतरें तब तक कहीं उसे पीछे लौटने के लिए न कह दिया जाए, क्योंकि उस समय रौशनी वाले मज़दूरों को इस ढंग से वापस आना होता है कि केवल बैंड पार्टी ही वहाँ रह जाये ताकि दूल्हे के यार-दोस्त भाई-वाई, बचा-खुचा डांस प्रोग्राम पूरा कर सकें और उन पर न्यौछावर किये गये क़रारे नोटों को बैंड मास्टर लूट सके! इस लूट में मजदूरों का कोई हिस्सा नहीं होता।

आखिर वही हुआ जिसकी आशंका थी। कन्हैया दूल्हे को नहीं देख पाया। बैंड मास्टर ने मजदूरों को पीछे लौटने के लिए कह दिया था। पता नहीं कन्हैया क्यों तेज़ कदमों से लौटने लगा। उसकी इस तेजी से दूसरे मजदूरों की बत्तियाँ गड़बड़ाने लगीं। दो तो उलट भी गयीं। कन्हैया को गालियाँ और नसीहतें मिलने लगीं। पैसे कटने का भी डर था, मगर अब क्या हो सकता था? नुक़सान तो भरना ही पड़ता है। मज़दूरों की ग़लती का कहीं इन्श्योरेंस होता है? गनीमत थी कि बत्तियाँ टूटी नहीं।

बत्तियाँ रखकर कन्हैया जब वापस शादी के मंडप पर पहुँचा, उस समय द्वार पर एक-दो चौकीदारों के अलावा कोई न था। बिना प्रेस की हुई पैंट और गंदी-सी कमीज़ पर हाफ स्वेटर पहने वह अंदर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। कोई टोक दे तो? अभी चौकीदार ही रोक सकता है। स्वयं को मन के दर्पण में देखा-उतरा हुआ चेहरा, रूखे-बिखरे बाल, गले में मुड़़ा-तुड़ा मफलर, गंदे कपड़े और धूल भरे पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें-कहीं से वह बाराती नहीं लगता! हाँ, जनाती ज़रूर हो सकता है, क्योंकि जनातियों की विनम्रता ऐसी-ही वेशभूषा में फबती है।

उसे अपनी बारात की याद हो आयी जिसमें ज्यादातर मज़दूर क़िस्म के लोग थे। बमुश्किल पंद्रह-बीस लोग नये कपड़े पहने होंगे, बाक़ी सबके सब वही रोज़ के कपड़े। हाँ, धुले और प्रेस कराये हुए ज़रूर थे। पैरों में जैसे-तैसे जूते-चप्पल। छोटे लड़कों के पास ही अच्छे कपड़े थे। लेकिन सभी बाराती प्रेम और उत्साह से भरे! और अजय की बारात में एक-से-एक शानदार कपड़े पहने लोग, फिर भी चेहरों पर कोई रौनक़ नहीं। लगता है, वेशभूषा के कंपटीशन में शामिल होने आये, लेकिन दो-चार को छोड़ सभी फ़ेल हो गये। दिखावे की भीड़। हुँह! यह भी कोई बारात है? शाम को नौ बजे लोग इकट्ठे हुए, घंटे-भर में नाश्ता-पानी हो गया फिर बारात चढ़ी। ख़ुद ही नाचे-गाये और पहुँच गये वधू को माला पहनाने! खाना-पानी हुआ और ग्यारह बजते-न-बजते हो गयी उठ गयी बारात! वर और वधू अगर एक-ही शहर के हुए, तो सबेरे आठ बजे तक घर ही के चार-छः लोग बचेंगे।

जब ऐसा ही करना है, तो क्या ज़रूरत है बरात-वरात की? अरे कोर्ट में जाइए और शादी का रजिस्ट्रेशन कराइए और शाम को अपने घर पर दावत दे दीजिए, ताकि लोग जान लें कि शादी हो गयी...क्या ज़रूरत है ढोंग और फिजूलखर्ची की? बारात तो वह होती है कि जिसमें रिश्तेदार लड़के के घर पर दिन में आयें, मिले-जुलें, साथ बैठे-उठें, किसी साधन से एक साथ जनवासे में पहुंचें। फिर बारात चढ़े। उसमें जिसका मन हो नाचे-गाये, लेकिन कम-से-कम सब लोग रात-भर तो साथ रहें। नाच-गाना, नाटक-नौटंकी का कुछ मनोरंजन हो, फिर सबेरे बहू को विदा कराकर सब लोग साथ-साथ लौटें! ...पर, ये सब तो बीते ज़माने की बातें हैं। अब किसे फ़ुरसत है इतना समय देने की। अब तो लोग थोड़ा-सा वक़्त इसलिए निकालते हैं ताकि उनकी ज़रूरत पर दूसरे आ सकें! उन्हें आपके सुख-दुख से कुछ थोड़े ही लेना-देना है?

बारात-विश्लेषण में वह इतना खो गया कि उसे यह भी याद नहीं रहा कि उसे अभी क्या करना है? अचानक याद आया कि उसे दूल्हे महाराज को देखना है। वह यदि अजय हुआ तो उसे बधाई देनी है और यह भी देखना है कि श्रीमान उसे पहचान पाते हैं कि नहीं? या पहचानकर भी न पहचानने का अभिनय करते हैं? उसे अब तक ऐसे अभिनय देखने का काफी अनुभव हो चुका था। वह सोच में पड़ गया, यदि अजय उसे न पहचान पाये या फिर, पहचानने के बावज़ूद न पहचाने तो?

वह उधेड़बुन में था कि अंदर जाये या नहीं, पंद्रह-बीस क़दम पर खड़े चौकीदारों में से एक ने डपट कर पूछा, "कौन है बे? कहाँ घुसा जा रहा है?"

वह ठिठककर चौकीदार के पास आने की प्रतीक्षा करने लगा। जब चौकीदार पास आ गया तो वह बहुत धीमे स्वर में बोला, " अगर आप इजाज़त दें तो मैं अजय जी से मिलना चाहता हूँ, मैं उनका क्लासफेलो हूँ। पहले तो चौकीदार ने समझा कि कोई उचक्का या मुफ्तखोर होगा जो खाने-पीने की फ़िराक़ में है, पर उसकी विनम्रता और भोलेपन पर दया दिखलाते हुए उसे इस चेतावनी के साथ जाने दिया कि अगर कुछ भी गड़बड़ हुई तो फिर पुलिस की पिटाई की शिकायत मत करना! तुम्हारे ताऊ, दारोगाजी अंदर ही हैं। वास्तव में, चौकीदार ने समझा था कि वह किसी जनाती से मिलना चाहता है। अजय के माने अगर वह दूल्हे राजा समझता, तो शायद ही उसे जाने देता! बहरहाल, उसे इंट्री मिल गयी।

अन्दर की सजावट देखते ही बनती थी। खुले लान को तीन हिस्सों में बाँटकर पंडाल सजाया गया था। एक ओर नाश्ते का सामान, दूसरी ओर खाना और तीसरी ओर वरमाला के कार्यक्रम हेतु विशेश सजावट। वरमाला के लिए सजे पंडाल में क़रीब दो सौ कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं, जिनमें से आधे से अधिक पर औरतों का क़ब्ज़ा था। बच्चों की टोलियाँ तो भालू बने गुब्बारे के आगे-पीछे घूम रही थीं। पंडाल के सामने पंद्रह-बीस प्लास्टिक की गोल मेजें और किनारे-किनारे पांच-छः प्लास्टिक की रंगीन कुर्सियाँ लगी थीं। उन पर गोलबंदी किये हुए लोग घरेलू अथवा देश की राजनीति करने के लिए प्रदान किये गये अवसर का पूरा लाभ उठा लेना चाहते थे।

नयी उमर के युवक और युवतियाँ शरीर को सौंदर्य का प्रतीक बनाये हुए एक-दूसरे पर रौब जमा रहे थे। अधेड़ रसिक अलग आनंदमग्न थे। कुछेक कानफोडू संगीत पर ऐसे डांस कर रहे थे जैसे उन्हें डी.जे. नाइट की रिहर्सल आज ही कर लेनी हो। यह ऐसा समाज था जो कन्हैया को फूटी आँख न सुहाता था—बेकार की शानोशौक़त पर रीझते हुए लोग, उनका चरित्र, उनका दर्शन, उनका संस्कार, उनका धन! सब कुछ दो कौड़ी का!

बारातियों का नाश्ता चल रहा था। नाश्ते में एक-से-एक आइटम—फलों की चाट, अंकुरित बीज, आलू की टिक्की, मटर, पानी के बताशे, चाउमीन, दोसा, इडली, ढोकला, पनीर पकौड़े, मिठाइयाँ, हलुवा, आइसक्रीम, चाय-काफी, कोल्ड ड्रिंक, रियल जूस...! कन्हैया के मुँह में पानी आ रहा था, लेकिन उसकी निगाहें दूल्हे महाराज को खोज रही थीं, जो द्वारचार की रस्म समाप्त कर अपने ख़ास दोस्तों और साले साहब के साथ पंडाल से सटे कमरे में नाश्ता कर रहा थे। कन्हैया कभी इधर जाता, कभी उधर, पर जिसे वह खोज रहा था, वह उसकी निगाह से बाहर था। एकाध लोग उसे जाने-पहचाने लगे, लेकिन उनके ठाट-बाट देख उनसे मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। गनीमत थी कि अब तक उसे टोका नहीं गया। उसने वेटर से अजय के बारे में पूछा, तो बड़ी मुश्किल से पता लगा कि महाशय कहाँ हैं!

वह दूल्हे के कमरे में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। सोचा, जब बाहर आयेंगे, तो मिल लेंगे, बधाई दे देंगे। ... वह कमरे के बाहर एक किनारे जमीन पर बैठ गया। भूख-प्यास तो लगी थी, लेकिन जब तक कोई कहे नहीं, वह कैसे खा सकता है? पर उससे कहे कौन? किसी ने उसे बुलाया तो था नहीं, वह अपने आप पर मुस्कुरा उठता है। ... उसका मन हुआ कि एक टिक्की खाकर एक गिलास पानी और एक चाय पी ले, पर उसकी हिम्मत फिर जवाब दे गयी!

कभी-कभी खाने-पीने का त्याग खा-पी लेने से अधिक तृप्ति प्रदान करता है-इसका अनुभव कन्हैया को आज एक बार फिर हुआ। वैचारिक तृप्ति पाकर वह थोड़ा चैतन्य हुआ, लेकिन प्रतीक्षा करते हुए वह जल्दी ही थककर ऊंघने लगा! ... थोड़ी ही देर हुई होगी कि उसे किसी का पैर लगा। वह हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। कमरे के भीतर से लोग निकलने लगे थे। संभवतः दूल्हे महाराज का नाश्ता हो चुका था और अब वे वरमाला कार्यक्रम के लिए तैयार थे। वीडियो वाले और अन्य फोटोग्राफर अपनी-अपनी जगह मुस्तैद थे। कन्हैया भी अनजाने ही 'शूट' हो चुका था। यह उसे अच्छा लगा—उसका भी अस्तित्व है, भले-ही वह इस सामाजिक पिरामिड में निचली पंक्ति में है। यह सोच उसे पता नहीं क्यों अजीब-सी तसल्ली हुई कि अजय भी इस पिरामिड में कहीं बीच में ही है, शीर्ष पर तो वह भी नहीं! फिर, क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कौन कहाँ है? यह बात और है कि आज वह दूल्हा है, तो सबसे अलग है। यों जब कन्हैया दूल्हा बना था, तो वह भी तो अपनी बिरादरी और तमाम जान-पहचान वालों से अलग-ही था, लेकिन आज उसकी उन लोगों के बीच क्या हैसियत है—क्या उसे मालूम नहीं?

वह अपनी तसल्ली की गणित में खोया हुआ था कि अजय अपने दोस्तों-रिश्तेदारों से घिरा बाहर आता दिखायी पड़ा। उसे देखते ही कन्हैया पहचान गया। वह पुकारना ही चाहता था कि अजय को फोकस किये हुए विडिओ-वाले आगे आ गये। रोशनी इतनी तेज़ कि सामने कौन-कौन है, अजय को ठीक से पता ही नहीं चला—कन्हैया का तो बिल्कुल ही नहीं, क्योंकि उसका साथ छूटे आज पाँच साल हो रहे थे और उसका सम्बोधन भी वह नहीं सुन पाया। कन्हैया को धकेलते हुए फोटोग्राफर टीम आगे बढ़ी, फिर सधे क़दमों से धीरे-धीरे पीछे की ओर चलते हुए शूट करने लगी। ...कन्हैया मन मसोस कर रह गया।

वर को घेरे हुए लोग 'सिंहासन' की ओर बढ़ चले। कन्हैया भी पीछे-पीछे चला, लेकिन दस क़दम चलते-ही वह ठिठक गया और पता नहीं क्या सोच वापस लौटने लगा। पंडाल के किनारे साधारण कपड़ों में कुछ लोग खड़े थे। उसने स्वयं को उनमें शामिल करने की असफल चेष्टा की। फिर वहाँ से दूर हटकर कोई दस मिनट तक वह इधर-उधर देखता रहा कि कोई जान-पहचान का चेहरा दिख जाय, मगर कोई पहचानी सूरत नहीं दिखायी दी। हाँ, खाने के पंडाल के पास कैटरर के दो-तीन मज़दूर अवश्य दिखायी दिये जो कभी उसके साथ रौशनी के हंडे उठाते थे। वह उन्हीं के पास जाने को हुआ कि एक आदमी जो शक्ल-सूरत से बाराती लग रहा था, ने उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली। कन्हैया घबरा गया लेकिन उसने उत्तर में हाथ जोड़ लिये। वह आदमी मुस्कराकर आगे बढ़ गया। कन्हैया धीरे-धीरे मजदूरों के पास पहुँच गया, लेकिन उनमें से किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह उनसे मेल-जोल के लिए कुछ कहना चाह रहा था, पर उसको कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या बात करे? तभी उनमें से एक ने पूछ लिया, "तुम यहाँ कैसे?"

कन्हैया जैसे सकपका गया। सफाई देते हुए बात बनायी, "यार! अपने यार की शादी है, हम दोनों साथ पढ़े हैं।" मजदूर ने चौंकते हुए कहा, "अच्छा, तो आप बाराती हैं! न्योते में आये हैं! आइए-आइए, कुछ जल-पान कीजिए! फिर अपने साथी मजदूर की ओर मुखातिब हो व्यंग्य में बोला," अरे महावीर! साहब के लिए कुर्सी लाओ, नाश्ता-पानी लाओ, आप हमारे मेहमान हैं भई! "

कन्हैया तिलमिला कर रह गया। उल्टे पाँवों जयमाल वाले पंडाल की ओर लौटने लगा। ऐसा लग रहा था कि उसके पाँवों में दो-दो ईंटें बाँध दी गयी हों। पैर उठ नहीं रहे थे। कोई चार-छह क़दम चला होगा कि लौटना पड़ा, क्योंकि वधू को ला रही लड़कियों और औरतों की टोली आ रही थी। वह एक ओर हो गया, पर किनारे होने की कोशिश में वह एक ऐसे बाराती से टकरा गया जो उसे मजदूर के रूप में जानता था। उसने फटकार लगायी, "चलो बाहर, यहाँ कहाँ घुसे आ रहे हो!"

कन्हैया की हिम्मत अब जवाब दे गयी। अजय से मिले बिना ही वह पंडाल से बाहर आ गया।

घर पहुँचते-पहुँचते रात के ग्यारह बज रहे थे। अजय से मिलने के चक्कर में उसे मजदूरी लेने की भी सुधि न रही थी। पत्नी ने कल मायके जाने की बात दुहरायी। वहाँ एक विवाह में उसे कन्हैया सहित शामिल होना था। कुछ कपड़े वग़ैररह भी लेने थे। घर में क़रीब दो सौ रुपये थे। अगर आज के सौ रुपये मिल जाते, तो काम बन जाता। अब समस्या थी कि सबेरे आठ वाली गाड़ी कैसे पकड़ी जाए? इतनी जल्दी सौ रुपयों का इंतज़ाम कैसे हो? आख़िर यह तय हुआ कि पत्नी चली जाये, वह बाद में आयेगा। वैसे भी, दो दिन पहले जाकर वह क्या करता! ससुराल में खाली बैठ रोटियाँ तोड़े?

सबेरे जब कन्हैया पत्नी को ट्रेन में बिठाकर लौट रहा था, तो रास्ते में उसकी साइकिल के आगे एक सजी-धजी गाड़ी धीमी गति में चल रही थी जिसमें नवदंपत्ति बैठे हुए थे। गाड़ी के अचानक ब्रेक लगा देने पर कन्हैया की साइकिल उससे टकरा गयी और वह सँभलते-सँभलते गिर पड़ा। ड्राइवर और उसके बगलवाली सीट पर बैठे एक नवयुवक दोनों ने लगभग एक साथ भद्दी-सी गाली देते हुए कन्हैया को फटकारा। इस प्रकार की हल्की-फुल्की टक्करें और गालियाँ सुनने का वह आदी हो चुका था, पर पता नहीं क्यों, आज वह जवाब दे बैठा।

गाड़ी में दूल्हे के साथ बैठे नवयुवक को कन्हैया का जवाब बर्दाश्त न हुआ। वह झट से कार से उतरा और कन्हैया के एक थप्पड़ जड़ दिया। साइकिल के साथ-साथ वह लड़खड़ा गया। यह कन्हैया से सहा न गया। साइकिल छोड़ उसने नवयुवक को घूसे से जवाब दिया।

नवयुवक इसके लिए तैयार न था। तन से अधिक मन आहत हुआ। नवयुवक कन्हैया पर पिल पड़ा। कन्हैया दम-खम में उससे बीस था और अवस्था में थोड़ा बड़ा भी। सामर्थ्य-भर उसने जवाबी हमला किया। ... दोनों की गुत्थम-गुत्था देख ड्राइवर सहित राह चलते लोग बीच-बचाव के लिए आने लगे। गाड़ी में बैठे नवविवाहित युवक से भी न रहा गया। वह भी कार से बाहर निकल आया।

कन्हैया ने उसे पहचाना तो, परन्तु ग़ुस्से के मारे मुँह फेर लिया।

लेकिन यह क्या? अजय लपककर कन्हैया के पास पहुँचा और उसका हाथ पकड़कर कहा-"अरे दोस्त! अपने साले को माफ़ नहीं करोगे?"

उसका इशारा नवयुवक की ओर था। कन्हैया और नवयुवक, दोनों, अभी भी गुस्से में थे, पर प्रेम के आगे क्रोध चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। कन्हैया शर्मसार था, तो नवयुवक भी शर्मिदा था।

अगले पल मित्रता अतीत के सागर में डुबकियाँ लगा रही थी। दोनों दोस्त अमीरी-ग़रीबी को विस्मृत कर एक-दूसरे के गले लगे हुए थे। कन्हैया की अश्रुपूरित आँखें वह सब कह रहीं थीं जो वाणी की सामर्थ्य से परे था।

नववधू अजय के इस रूप पर न्यौछावर थी।