रौशन हूँ मैं / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रौशन हूँ मैं (डॉ.स्वामी श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन')

हिन्दी हाइकु-काव्य के क्षेत्र में डॉ सत्यभूषण वर्मा जी ने जिस पौधे को रोपा था, डॉ भगवत शरण अग्रवाल जी ने अपने रचनाकर्म, सम्पादन और हाइकु भारती पत्रिका के माध्यम से पल्वित-पुष्पित करके एक बड़े वर्ग को उससे जोड़ा। डॉ सुधा गुप्ता जी ने इस विधा को निरन्तर सृजनरत रहकर उदात्त साहित्य की श्रेणी में स्थापित किया। युवा पीढ़ी में डॉ भावना कुँअर और डॉ हरदीप सन्धु ने इसको साहित्यिक गरिमा प्रदान की। हिन्दी के अलावा नेपाली में भी यही रूप विधान अपनाया गया। अब हिन्दी के साथ-साथ पंजाबी में भी डॉ हरदीप सन्धु ने इसी रूप विधान को स्थापित करने का प्रयास 'हाइकुलोक' द्वारा शुरू कर दिया है। इस रचनात्मक गरिमामय कार्य से कोसों दूर ऐसे अकवि भी आ जुटे हैं; जो 5-7-5 के वर्ण-विधान में कुछ भी भरने को आतुर हैं। इनसे भी आगे वे तथाकथित छन्दशास्त्री भी हैं; जिन्हें जापानी भाषा की प्रवृत्ति का ज़रा भी आभास नहीं है। वे कहीं उर्दू की कोई बहर इस पर थोप कर हाइकु ग़ज़ल के पुरोधा बनने को आतुर हो रहे हैं या कुछ अंग्रेज़ी की सिलेबल पद्धति का आँख मूँदकर समर्थन कर रहे हैं, जबकि ये प्रयोग हाइकु की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं हैं। काव्य-साम्राज्य से शून्य कुछ यशलोलुप लोग तो हाइकु-सम्राट भी बन बैठे हैं, जबकि इनके अश्वमेध का घोड़ा अब तक इनके मुहल्ले की गली से बाहर भी नहीं निकल सका है।

इस आपाधापी के बीच कुछ ऐसे भी समर्थ कवि भी हैं, जिनकी विशेष चिन्तन धारा है, जिनके पास जीवन के विविध अनुभवों की पूँजी है और जिनके पास साहित्य और समाज को परखने की एक विशिष्ट दृष्टि भी है। डॉ.स्वामी श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' उन्हीं में से एक हैं। इनके हाइकु संग्रह 'रौशन हूँ मैं' इनके जीवन के इन्द्रधनुषी चिन्तन का प्रतिरूप है। जीवन के प्रति अनासक्त भाव रखते हुए भी स्वामी जी आज भी सृजनरत हैं। यहाँ अनासक्त भाव का अर्थ जीवन और जगत् की उपेक्षा नहीं, विरक्ति नहीं, वरन् कर्त्तव्य-पथ का अनुसरण करते हु निर्लिप्त रहकर भी सांसारिक सुख-दु: ख के साथ आनन्द की अनुभूति करना है। प्रकृति से लेकर मानव तक सब कुछ सुन्दर है। उस सुन्दर का संधान ही ईश्वर का सन्धान है। कवि ईश्वर को यहाँ गोधूलि में भी पा लेता है-

बजी घण्टियाँ / गोधूलि के समय / तूने पुकारा।

जीवन का रूपक पतंग के माध्यम से ऊर्ध्वगामी बताकर इसमें जीवन का उद्देश्य भी समाहित कर दिया कि मानव की मानवता ऊँचाई छूने में है, अधोगति में नहीं। जीवन केवल मधुरताओं से ही नहीं, वरन् चुनौतियों से भी भरा है। पीठ दिखाकर चुनौतियों से नहीं निबटा जा सकता। कवि का प्रश्न और उसका उत्तर एक साथ समाहित हैं-

जीवन क्या है? / सतत सुलगता / प्रत्येक पल

'सुलगता' का प्रयोग यहाँ जीवन-संघर्ष की याद दिला जाता है। जीवन में प्रेम-सौन्दर्य ही दो ऐसे कारक हैं, यदि ये न हों तो जीवन नारकीय बन जाए. जीवन में माधुर्य ही उसे सर्वग्राह्य बनाता है। बाँसुरी के माध्यम से जीवन के सुरों की व्याख्या की गई है-

प्रेम-बाँसुरी / रूप के अधर छू / बज उठे है।

इस रूप-माधुरी को भी देखिए-

गालों की लाली / विधूटी की माँग में / भरा सिन्दूर।

यही सौन्दर्य प्रकृति के सहज मार्ग से होकर दिल में बस जाए तो फिर क्या कहना!

फूलों की बस्ती / हृदय में बसे तो / साँसें महकें।

आन्तरिक सौन्दर्य की यह छटा बाहरी आकर्षण में बँधकर और मनमोहक हो उठती है। चितवन में इन्द्रधनुषी रंग भर जाते हैं-

आँखें बिजली / आपकी चितवन / इन्द्रधनुष।

कवि का सौन्दर्यबोध यह आभास कराता है कि स्वामी जी जीवन के प्रति कितने आशावान् है! जीवन को बोझ समझने वाली पीढ़ी को यह समझ लेना चाहिए कि जीवन के प्रति आकर्षण ही जीवन को सरस और विकर्षण नीरस बनाता है। रूप का यह मनोहारी आकर्षण भला किसको नहीं लुभाएगा-

चन्द्र न तुम / किन्तु चन्द्र से कुछ / कम भी नहीं।

अस्वीकार के साथ स्वीकार का यह सौन्दर्य और आगे निकल जाता है यानी उपमान को भी पीछे छोड़ जाता है-

रूप तुम्हारा / देखकर चाँदनी / जलने लगी।

रूप भी ऐसा कि मुखर हो उठे। स्वामी जी ने तीन पंक्तियों के इस छन्द में सौन्दर्य का सागर उड़ेल दिया है-

आँखें तो आँखें / बोल पड़ीं पलकें / भीगी अलकें।

कहीं यह रूप कचनार की कली की तरह खिलता हुआ है। यही नहीं यह रूप कभी पूस की धूप-सा गुनगुना और सुखद भी होता है। भला इसका आकर्षण किसका मन न मोह लेगा!

पूस की धूप / दिखाती है मुझको / तुम्हारा रूप।

तुम्हारा रूप / कचनार-कली-सा / खिलता हुआ।

मन के हर कोने को अभिभूत करने वाला यह सौन्दर्य कभी सीमाएँ भी तोड़ने लगता है। इसको सँभालना भी ज़रूरी है। कवि उफनते दरिया से इसका साम्य प्रकट करते हुए सचेत भी करता है-

जोबन क्या है? / उफनता दरिया / सँभालो इसे।

यह भौतिक रूप ज़्यादा गर्व करने का साधन भी नहीं है; क्योंकि प्राणों का पंछी कब उड़ जाएगा, किसे पता-

प्राण का पंछी / कब भरे उड़ान / किसे ख़बर?

कवि की संवेदनशीलता हर मोड़ पर नज़र आती है। घर छोड़ने का दु: ख सभी ने महसूस किया होगा। इन पंक्तियों में देखिए-

घर छोड़ा तो / घर की याद आई / फूटी रुलाई.

प्रेम के पथ में प्रतीक्षा का अपना महत्त्व है। इन्तज़ार के सहारे विगलित करने वाले पल भी कट जाते हैं। इन्तज़ार का यह सात्त्विक भाव आतुरता को वाणी देता है-

मेरी पलकें / तेरा पथ बुहारें / तुझे पुकारें।

कवि का प्रयास कुछ अच्छा ही करने का है, यही मानव-जीवन की सार्थकता है-

फैले जग में / उजास ही उजास / करें प्रयास।

कोई है पास / जिससे है उजास / मुझे विश्वास

इस सबके मूल में है आस्था, आशा और विश्वास। जीवन की आँधियों से आस्था ही बचाती है और स्थिर होकर खड़े रहने की शक्ति देती है; खुशबू का काम है औरों को भी खुशी देना। यही लक्ष्य आस्थावान् और परमार्थ में संलग्न व्यक्ति का भी होता है-

आँधियों में भी / बुझने नहीं दिया / आस का दिया।

तू ऐसा कर / गन्ध जैसा बिखर / ऐसे सँवर।

यह आस का दिया कौन जला सकता है और कैसे? दृढ़व्रती ही यह कार्य सम्पन्न कर सकता है, जो विरोधी शक्तियों को चुनौती भी दे सके-

हम हँसेगे / जितना बन सके. आप रुलाएँ।

फिर भी एक डर है-आस्था और विश्वास सकारात्मक ऊर्जा देने वाले हैं, लेकिन तर्क को कुतर्क में बदलते देर नहीं लगती। कुतर्क जब चाहे भारी भीड़ को गुमराह कर सकता है। दर्पण और पत्थर के प्रतीकों के माध्यम से हाइकु में कवि ने गम्भीर अनुभव-सम्पदा सँजो दी है-

कैसे न डरे / दर्पण-सा विचार / तर्क पत्थर।

चालाक और सुविधाभोगी लोग सत्य का सामना करने के स्थान पर झूठ का सहारा लेना ज़्यादा पसन्द करते हैं; क्योंकि उनके लिए वह आसान है

सत्य कहना / आग पर चलना / और जलना।

लेकिन यह भी सच है कि जो दूसरों को दु: ख देता है वह खुद भी दु: ख पाता है; कील और हथौड़े के जीवन से इस सत्य का दर्शन किया जा सकता है-

कील बनोगे / तो हथौड़े की चोटें / खानी पड़ेंगी।

जीवन में हमारे जितने भी सम्बन्ध होंगे, उतनी ही बेड़ियाँ हमें बाँधने को तत्पर हो जाएँगी। निर्णय हमारे हाथ में है कि हम अपना जीवन कैसा बनाएँ!

सम्बन्ध कब / बेड़ियाँ बन गए / पता न चला।

कायर और कमज़ोर व्यक्ति पलायन के मार्ग पर चलते हैं। संयमशील व्यक्ति संसार में रहकर भी सांसारिक सुख-वैभव में लिप्त नहीं होता। यह तृष्णाओं का त्याग करके अपने पथ पर चल पड़ता है। यही स्वामी जी का अनासक्त योग यहाँ प्रस्तुत है-

किसने कहा / घर-आँगन त्यागें / त्यागें तृष्णाएँ।

जब जीवन है, तो दु: ख भी अनिवार्य हैं। संसार में ऐसा कोई पीर-पैगम्बर नहीं हुआ है, जिसको दु: ख न झेलने पड़े हों। सुख के महत्त्व को समझने के लिए कभी-कभी यह ज़रूरी भी हो जाता है। स्वामी जी का मन्तव्य है-

दिल रोता है / कभी-कभी रोना भी। अच्छा होता है।

स्वामी जी ने हाइकु के माध्यम से गहन अनुभवों को अनुभूति परक वाणी दी है। इन पंक्तियों में 'थकन' का भाषिक दृष्टि से नया प्रयोग देखिए-मैं सो जाता हूँ / ओढ़कर थकन / साथी सपन।

स्वामी जी ने हाइकु रूबाई, हाइकु मुक्तक, हाइकु गीत जैसे नए और सार्थक प्रयोग भी किए हैं। प्रयोग का निर्वाह केवल वही कर सकता है जो दोनों शैलियों के मूल रूप को बरकरार रख सके.

इस संग्रह के हाइकु का व्यापक विषय-क्षेत्र इस छन्द की शक्ति का परिचायक है। यहाँ यह छन्द मात्र नहीं है; बल्कि उस काव्य शक्ति का परिचायक है, जो पाठकों को रस-मग्न करने में सक्षम है। कवि का जीवन-उल्लास इस संग्रह में प्रखर रूप में दृष्टिगोचर होता है। स्वामी जी इस उक्ति में सारी बात का सार समेट देते हैं-

कविता वही / जो धरा से जुड़के / नभ को छुए.

वितराग होकर भी संसार से अनुराग रखना, उस अनुराग को जीना, उस जीवन को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। मुझे आशा है कि स्वामी जी के ये सरस हाइकु सहृदय पाठकों के हृदय को ज़रूर स्पर्श करेंगे, ऐसी आशा है।

-0-

1, सितम्बर, 2012