लंका में अंगद / राजनारायण बोहरे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राम दल में चर्चा चल रही थी कि आगे की रणनीति क्या बनाई जाय?

कोई कहता कि अब देर करना उचित नहीं, सीधे हमला कर देना चाहिये। किसी का कहना था कि एक ख़बर भेजकर रावण को युद्ध का आमंत्रण दिया जाय। कोई सलाह देता था कि हमारी सेना की मौजूदगी की ख़बर से बौखला कर रावण ख़ुद हम पर हमला करेगा, इसलिए धीरज से उसके आगे बढ़नेकी उम्मीद की जाय।

जामवंत ने कहा "प्रभू, कूटनीति और राजनीति की नज़र से मेरा एक विचार है कि क्यों न हम एक बार एक दूत भेज कर अपना संदेश भेजें कि वह चुपचाप सीताजी को हमारे हवाले कर दे और आपकी अधीनता स्वीकार कर ले। युद्ध में बहुतसे लोग मारे जायेंगे, जाने कितने घायल हों्रगे। हमारा दूत जाकर कहे कि रावण लड़ाई का विचार त्याग कर शांति की बात करे।"

राम को यह विचार अच्छा लगा। वे बोले "आप ही बताओ कि किसको दूत बना कर भेजा जाये?"

"मेरा विचार है कि बाली पुत्र अंगद को अपना दूत बना कर भेजा जाय। एक तो ये बाली के लड़क हैं जनसे रावण युद्ध में हार गया था, दूसरे एक राजकुमार का दूत बन कर जाना रावण के लिए भी सम्मान की बात होगी।"

सको विचार अच्छा लगा तो राम ने अंगद को बुलाया और कहा "अंगद, तुम्हारी बुद्धि और बल पर मुझे पूरा विश्वास है। तुम दूत बन कर लंका जाओ। रावण से तुम वही बात करना जिससे हमारा काम हो जाये और उसका भला हो।"

अंगद ने राम के चरणों में सिर झुका कर आशीर्वाद लिया और अपनी गदा को संभालते हुए लंका के किले की ओर चल पड़े।

दूर से ही अंगद को भी लंका का क़िला बड़ा सुन्दर और मज़बूत दिखा। ख़ूब बड़ा प्रवेशद्वार इस समय खुला हुआ था।

प्रवेशद्वार से अन्दर जाते ही अंगद ठिठक गये, क्योंकि एक कड़कती आवाज़ ने उन्हे टोक दिया था "तू कौन है रे बानर? बिना अनुमति लंका नगर में कैसा धंसा चला आ रहा है?"

अंगद ने मुड़ कर देखा। उन्ही की उम्र का एक युवक उन्हे टोक रहा था। अंगद ने शांति से जवाब दिया "मैं किष्किन्धा का राजकुमार अंगदहूँ। आप कौन हैं भाई?"

"अरे तू भी बानर हुआ न। आदिवासी बिरादरी का है न। मैं लंकाधिपति महाराज रावण का पुत्र हूँ। तू मेरी अनुमति के बिना कहाँ घुसा चला आ रहा है?"

"अरे भाई, मैं महाराज रावण के ही दरबार में जा रहा हूँ। मुझे उनके पास जाने का रास्ता बताइये।"

"अरे बनरवा, तू बड़ा होशियार बन रहा है, तुझ जैसे बच्चे से तो महाराज लंकेश बात भी नहीं करेंगे। जा वापस लौट जा।"

अंगद को गुस्सा आ गया बोले "वापस क्यों लौटूं? मैं राजदरबार तक ज़रूर जाऊंगा।"

"तो तो अपनी जगह से एक अंगुल भी नहीं हिल पायेगा।"

वह युवक अपनी तलवार उठाकर अंगद की ओर झपटा तो अंगद भी सावधान हो गये, उन्होंनेअपनी गदा पर उस युवक का वार झेला और पूरी ताकत लगा कर उसे पीछे धकेलदिया और जब तक वह धक्का खाकर संभले तब तक तांे अंगद ने अपनी गदा का एक जबरदस्त प्रहार उसकी खोपड़ी में कर दिया।

उस राजकुमार में तो दम ही नहीं ंनिकला। गदा की चोट पड़ी तो उसका सिर तरबूज की तरह फट गया और वह ज़मीन पर गिर कर तड़पने लगा।

आसपास जमे लोग वहाँ से इधर-उधर भाग निकले। अंगद गलियारे में आगे बढ़े।

फिर तो लोग उन्हे बिना पूछे ही रावण के दरबार का रास्ता बताते गये और वे दरबार के प्रवेशद्वार तक जा पहुँचे।

बाहर प्रहरी ने रोका तो उन्होंनेप्रहरी के मार्फत अपना परिचय भेज कर मिलने की अनुमति मांगी।

उन्हे तुरंत ही अनुमति मिल गयी। अंगद भीतर पहुँचे।

देखा, एक बहुत ऊंचे सिंहासन पर रावण बैठा है और उसके सारे दरबारी बहुत नीचे अपनी-अपनी जगह पर बैठे एक नर्तकी का नृत्य देखरहे हैं।

अंगद को देख कर किसी ने संकेत किया तो नर्तकी ने तुरंत अपना नृत्य बंद किया और अपने साजिन्दों के साथ बाहर चली गई।

अंगद सीधे रावण के सामने जा पहुँचे और उन्हे प्रणाम किया।

रावण ने अभिमान के साथ अंगद के प्रणाम का जवाब दिया और ऐंठ भरे स्वर में पूछा "हे बानर, तू कौन है?"

"हे दसकंधर, मैं रघवीर श्रीराम का दूत हूँ।" अंगद ने उसी स्वर में जवाब दिया।

"तू मेरे दरबार में क्यों हाज़िर हुआ?"

"लंकेश, आप मेरे पिता किष्किन्धा नरेश महाराज बाली के मित्र रहे हो इसलिए मैं आपको भले के लिए यहाँ आया हूँ। मैं यह संदेश लाया हूँ कि आप चुपचाप ही रघुवीर की पत्नी सीता को उनके पास सोंप दो और उनकी अधीनता स्वीकार कर लो। आपको अब तक हुई गलतियाँ श्रीराम माफ़ करदेंगे।"

अंगद ने अनुभव किया कि महाराज बाली का नाम सुन कर रावण हड़बड़ा गया और बोला "अच्छा तुम उस बाली की बात कर रहे हो पहाड़ों में रहता था। हाँ, मैं उसे जानता था। वह मेरा दोस्त कभी नहीं रहा।"

"आप तो संभवतः सहस्रार्जुन को भी नहीं जानते होंगे, जिन्होेने आपको देख कर अपने बच्चों के मनोरंजन के लिए अपने महल में ले जाकर आपको रख लिया था। बाद में आपके दादाजी पुलस्त्य मुनि ने आपको उनकी क़ैद से छुड़ाया था।"

"तुम आयु में तो बहुत छोटे हो, लेकिन बातें बहुत बड़ी-बड़ी करते हो बानर।"

"बड़ी बातें करने की तो आपके परिवार की आदत है लंकेश। मुझे हनुमान जी ने बतायाथा।"

"अरे तुम उसे बानर की बात कररहे हो जिसने हमारे महल के कुछ कपड़े-लत्ते जला दिये थे।"

"हाँ लंकेश उस अकेले बानर ने तुम्हारी नगरी में त्राहि-त्राहि मचा दी थी। उन्ही ने तुम्हारे सारे अन्न भण्डार ख़त्म कर दिये थे। इसीलिए तुम्हारे यहाँ इन दिनों खाने-पीने की भुखमरी फैल गई है।"

"फालतू की बात मत करो अंगद। तुम तो अपने मालिक को जाकर बोलना कि हम ताल ठोंक कर उनसे लड़ने के लिए तैयार हैं। वे अब बातें न करें। अगर हिम्मत हैं तो आकर लड़ें नहीं तो हम उन्हें उठा कर अयोध्या के लिए फेंक देंगे।"

अंगद ने इतना सुना तो वे एकदम गुस्सा हो उठे। उन्हे याद आया कि बचपन से ही उनको पिता ने वह कला सिखाई है जिसमें ज़मीन पर मजबूती से पांव जमाकर खड़े होने के बाद कोई कितनी भी ताकत लगा दे उनका पांव नहीं उठा सकता।

अंगद बोले " मेरे प्रभु को उठा कर फेंक देना तो बहुत बड़ी बात है लंकेश। मैं चुनौती देता हूँ कि आपके पूरे दरबार में से कोई योद्धा मेरा पांव उठा कर बतादे। मैं वायदा करता हूँ कि हम लोग बिना लड़े ही आपसे यह युद्ध हारा हुआ मान लेंगे।

अंगद ने अपना पांव ज़मीन पर ठोंक कर जमा दिया। वे इंतज़ार करने लगे कि कोई उनका पांव उठा कर दिखाये।

एक एक कर कई योद्धा उठे लेकिन ताज्जुब था कि अंगद का पांव नहीं उठ रहा था। अंत में रावण ख़ुद उठने लगा तो अंगद ने फटाक से अपना पांव हटा लिया और बोले "आप तो मेरे पिता जैसे हैं आपसे मैं अपना पांव नहीं छुआना चाहता।"

फिर अंगद को लगा कि रावण ने अपना अंतिम जवाब सुना दिया है, अब यहाँ कोई काम की बात नहीं हो सकती इसलिये यहाँ से रामदल में वापस चल देना ठीक होगा।

वे रावण से बोले "लंकेश, मैं चलता हूँ। अब आपसे लड़ाई के मैदान में ही भेंट होगी।"

चलते-चलते उन्होंनेअचानक रावण के ऊपर बने झरोखे में देखा तो चौंक गये। वहाँ उनकी माँ जैसी शक्ल-सूरत की एक बहुत सुन्दर महिला बैठी थी। वे समझ गये कि ये महारानी मंदोदरी हैं। अंगद ने उन्हे प्रणाम किया और बाहर की ओर क़दम बढ़ा दिये।