लंका में हनुमान / राजनारायण बोहरे

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मैंने एक बहुत लम्बी छलांग लगा कर समुद्र का बहुत बड़ा हिस्सा पार कर लिया था और इस लम्बी छलांग के बाद जब मेरा पैर नीचे आने ही वाला था कि मैंने देखा नीचे एक टापू दिख रहा है। मैंने टापू पर पांव रखा तो लगा कि टापू कुछ हिला है। मैं अचरज में था। अचानक एक वनवासी जाने कहाँ से मेरे सामने प्रकट हुआ। मैं चौंक गया।

वनवासी बहुत अच्छा आदमी था। उसने अपने हाथ में लिये हुए एक छोटे से टोकरे में कुछ फल रखे हुए थे। वह बोला "लीजिये बानर वीर, कुछ फल ग्रहण कीजिये ताकि आपकी थकान मिट सके और मुझे बताइये कि मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?"

मुझे पता था कि लंका से लेकर यहाँ तक रावण के अनेक गुप्तचर जाने क्या-क्या रूप् धारण करके घूमते रहते हैं। इसलिए मैंने उसके दिये हुए फल नहीं खाये। मैं बोला "मैं अभी श्रीराम के काम से लंका जा रहा हूँ। वहाँ मुझे रावण की जांच-पड़ताल करना है। जब तक यह काम नहीं कर लेता मुझे कुछ भी खाना पीना नहीं सुहा सकता। इसलिये आपका धन्यवाद।"

वनवासी बोला "मैं मैनाक नाम का वनवासी हूँ। मेरे मालिक इन्द्र ने मुझे यहाँ इसलिए तैनात किया है कि मैं लंका के लिए जाते हुए रावण के दुश्मनों की मदद कर सकूं। आप जिस जगह खड़े हैं वह दिखने में तो टापू लगता है लेकिन यह एक बड़ी नाव है जिसके ऊपर लकड़ियों के पटिये डालकर मिट्टी जमाई गई है। आप चाहें तो मैं इस नाव से ऐसी जगह तक आपको ले चल सकता हूँ, जहाँ से लंका के पहरेदारों की नज़र न पड़ सके।"

मैंने अचरज से टापू को देखा। सचमुच उस टापू में बहुत धीमा-सा कंपन हो रहा था। मुझे मैनाक की बात का विश्वास हो गया। मैंने उसे सहमति दे दी तो वह खजूर के एक पेड़ को पकड़ कर खड़ा हो गया। उसने खजूर पेड़ इस तरह से आगे से पीछे किया जैसे नाव को चलाने वाले मल्लाह चप्पू चलाते हैं। मुझे फिर अचरज हुआ िक वह टापू आगे खिसकने लगा था। फिर तो मैंने भी मैनाक की मदद की और हमारी टापू नुमा नाव की गति काफ़ी तेज हो गयी। हम तेजी से लंका की दिशा में खिसकने लगे।

जब समुद्रतट दिखने लगा तो मैनाक ने अपनी नाव रोक दी।

मैंने मैनाक से विदा दी और समुद्र में छलांग लगा दी। मैं पूरी ताकत से लंका के टापू की ओर तैरने लगा।

मैं पूरा चौकन्ना था, तभी तो अचानक मुझे लगा कि मेरे शरीर को चारों ओर से कोई कंटीली-सी लम्बी भुजायें जकड़ रही है। मैंने अपने बदन को सिकोड़ा और उन भुजाओं से मुक्त हो कर थोड़ा दूर जाकर देखा तो पाया िक छाते की तरह के शरीर वाला ऊपर से गोल एवं भीतर से पोला वह कोई जलचर जीव है जिसकी बहुत-सी आँखेें मुझे घूर रही है। उसकी दस-दस हाथ लम्बी भुजायें मुझे पकड़ने को फिर लपकीं तो मैं उनसे दूर रहने का प्रयत्न करने लगा। फिर मुझे लगा कि जल में वह ज़्यादा ताकतवर है और मेरा अमूल्य समय यों ही समाप्त हो रहा था सो मैं उछला और उस जन्तु के सिर पर जा खड़ा हुआ। फिर मैंने पूरी ताकत से उसके शरीर में अपनी गदा से हमला करना शुरू कर दिया। ईश्वर की कृपा रही कि मेरे प्रहारों से वह जीव पहले शिथिल हुआ और बाद में शायद मर भी गया। रात का अँधेरा था सोे मैं उसे यों ही छोड़ कर लंका के किले के उस त्रिकूट द्वीप की ओर तैरने लगा जहाँ लंका का क़िला बना हुआ था।

पानी से बाहर निकल के मैं उस पार ज़मीन पर निकल कर खड़ा हुआ और रात के अंधेरे में चमकता सोने का बना वह सुनहरा क़िला देखने लगा जो अंगद के नाना मय दानव ने बनाया था। बहुत सुन्दर और मज़बूत क़िला था वह।

मैंने बिना आवाज़ किये लंका के किले की ओर बढ़ना शुरू किया और ठीक बड़े द्वार के सामने जा पहुँचा। देखा कि बड़ा दरवाज़ा उस समय बन्द था और एक छोटी-सी खिड़की खुली हुई थी। मैंने सिकुड़ कर उस खिड़की में से बहुत सतर्क हो कर भीतर प्रवेश किया और भीतर जाकर सामने जाते लम्बे गलियारे को देख ही रहा था कि अचानक मेरे सामने अट्टहास करती एक बहुत भयानक दिखती एक विशालकाय हृश्ट-पुश्ट महिला आ खड़ी हुई।

उस महिला ने मुझे डांटते हुए कहा "अरे ओ चोर, तू चुपचाप लंका में कैसे घुसा चला जा रहा है? जानता नहीं, मैं लंकिनी हूँ। यहाँ की रखवाली मेरे जिम्मे है।"

मैं कुछ जवाद देता उसके पहले ही उस महिला ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ एक विशाल मुदगर नुमा हथियार मेरे सिर पर दे मारा।

मैं एक तरफ़ हट कर उससे बच गया और सोचने लगा कि एक महिला से लड़ना तो मेरे सिद्धान्तों के खिलाफ है सो मैंने भीतर जाते गलियारे में दौड़ लगा दी। लेकिन लंकिनी भी बहुत सतर्क थी। मुझसे भी तेज दौड़ कर मेरे सामने आ खड़ी हुई। इस बार उसने बिना कोई चेतावनी दिये अपना हथियार फिर से मेरे ऊपर पटक दिया।

मैं फिर बच गया और मुझे लगा कि इसका काम-तमाम किये बिना यहाँ से निकलना संभव नहीं होगा। सो मैंने बड़ी फुर्ती से एक ऊंची कंूद लगाई और लंकिनी की कनपटी पर अपनी वजनदार गदा दे मारी।

मेरा वार सही निशाने पर लगा था इस कारण लंकिनी एकदम शिथिल-सी हो गई। उसके कान और नाम से खून बह उठा। फिर वह धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी।

उसे मूर्छित छोड़कर मैं तेजी से गलियारे में बढ़ता हुआ नगर में प्रवेश कर गया।

लंका एक देखने योग्य नगर है, वहाँ की सुंदर अट्टालिकायें और भवन देख कर मेरा मन हो रहा था कि हर मकान को भीतर से घुस कर देखा जाये लेकिन मुझे तो रावण का महल खोजना था, क्योंकि मुझे लग रहा था कि सीताजी का वहीं क़ैद करके रखा गया होगा। मैं इसलिए भी परेशान था कि रात के सन्नाटे मेंं भला किससे पूछूंगा कि रावण का महल कौन-सा है? और भला मुझे बतायेगा भी कौन? मैं बाहरी आदमी वहाँ कैसे पहुँचा, हर आदमी पहला प्रश्न यही करेगा।

धीरे-धीरे मुझे महसूस होने लगा कि मैं सही दिशा में बढ़ रहा हूँ क्योंकि जिस रास्ते पर मैं जारहा था उस तरफ़ से कुछ शोरगुल-सा हो रहा है।

और फिर एक बड़े से मैदान में बना एक विशाल और शानदार महल मेरे सामने था। मैंने देखा कि महल के सामने बहुत से सैनिक तैनात हैं लेकिन इस वक़्त वे सब के सब मदिरा पी रहे थे और अपने सामने रखे बड़े-बड़े थालों में जाने किस-किस जानवर का मांस रखे गये कच्चा ही खाये जा रहे थे।

उन्हे अपने आप में व्यस्त पा कर मैं रावण के महल में दाखिल हो गया।

भीतर एक विशाल पलंग पर बहुत विशालकाय और कालाकलूटा-सा आदमी नशे में बेसुध होकर अपने पलंग पर अस्त-व्यस्त दशा में लेटा था। उसके खुर्राटों से पूरा पलंग हिल रहा था। उसके पास ही एक बहुत संुदरी स्त्री सो रही थी। वे ज़रूर ही महारानी मन्दोदरी रही होंगी। उसी महल में हर कमरे में कोई न कोई महिला ज़रूर थी, लेकिन सब की सब बहुत संुदर और सजी-धजी। मुझे पता था कि सीताजी तो यहाँ सज धज कर नहीं रहती हांेंगी सो मेरी तलाश जारी रही।

पूरे महल में ऐसी एक भी स्त्री न थी जिसे मैं सीताजी के रूप में पहचानता।

फिर क्या था मैं तुरंत ही महल के सबसे ऊपरी हिस्से में जा पहुूंचा। वहाँ से मैंने चारों ओर का जायजा लिया तो पता लगा कि पास की गली में ही एक मकान ऐसा है जो बाक़ी मकानोंसे कुछ अलग है। उस मकान के आंगन में दीपक जलाये एक आदमी बैठा था जो पीले रंग के चादर को लपेटे किसी भजन-पूजन में तल्लीन था। मुझे अंदाजा लगा कि यह व्यक्ति ज़रूर ही विभीषणजी होंगे।

मैं महल की छत से दूसरे महल पर कूदा और कुछ ही देर में गली में मौजूद था।

उस मकान के सामने पहुँचा तो देखा कि बाक़ी मकानों पर पहरा लगा था लेकिन इस मकान पर कोई पहरा न था। मैंने देखा कि दरवाजे के बाहर ओम लिखा हुआ था और धनुष बाण के चित्र बनाये गये थे। भीतर आंगन में तुलसी का पौधा लगा था, जिसके पास वे सज्जन आँख मंूद कर बेठे किसी भजन में डूबे हुए थे।

मैंने अपनी गदा छिपाई और जय श्रीराम कहते भीतर प्रवेश किया तो वे सज्जन चौंक कर उठे और मुझे देख कर हाथ जोड़ कर बोले "जय जय श्रीराम"

मुझे तसल्ली हो गई कि मैं सही जगह आ पहंुचा हूँ।

वे सज्जन बोले "हे सज्जन, पधारिये।"

मैं उनके एकदम निकट जा पहुँचा तो वे बहुत धीमी आवाज़ में बोले "कृपा करके बताइये कि आप कौन हैं और कहाँ से पधारे है। सीता की खोज में लंका में आगये श्रीराम या लक्ष्मण में ही तो कोई नहीं हो?"

मैने सोचा अब कुछ भी छिपाना उचित नहीं है सेा मैंने विभीषण जी को हाथ जोड़ कर अपना परिचय दिया। फिर कहा कि रात पूरी होनेेवाली है, ऐसे में मेरा इस नगर में छिपे रहना संभव नहीं होगा। इसलिए आप जल्दी से बताइये कि सीताजी कहाँ हैं और मैं वहाँ तक कैसे जा सकता हूँ।

विभीषणजी ने मुझे बताया कि वे रावण के छोटे भाई विभीषण हैं और मैं उन्हे अपना दोस्त समझूं। सीताजी को अशोक वन नामक रावण के निजी बागीचे में खुले में क़ैद किया गया है।

अशोक वन विभीषण के मकान से बहुत पास था। उन्होंनेमुझे वहाँ जाने का रास्ता समझाया तो मैंने तुरंत ही उनसे विदा ली और अशोकवन के लिए चल पड़ा। रास्ते में मैंने देखा कि गेंहू और चावल के बोरों में भर कर बहुत बड़ी मात्रा में अन्न का भण्डार कर के रखा गया है। मुझे लगा कि अगर मौका मिला तो इस भण्डार को नश्ट करके लंका में खाने-पीने की समस्या पैदा की जा सकती है।

जब मैं अशोकवन के पास पहुँचा तो वहाँ से आ रही खुशबूदार फूलों की सुगंध और फलों की महक से मेरा मन प्रसन्न हो उठा। मैंने देखा कि वन दो भागों में है। एक में दूब का मैदान है जिसमें अशोक वृक्षों की एक लम्बी कतार लगी है जबकि दूसरे हिस्से में फलों के वृक्ष है उन वृक्षों की रक्षा के लिए कुछ सैनिक तैनात हैं और वे सो नहीं रहे पूरी तरह जाग कर पहरा दे रहे हैं। अशोकवृक्षों वाले हिस्से में महिला सैनिक घूम करपहरा दे रहीं थीं। विभीषण जी ने बता दिया था कि सीताजी अशोकवृक्षों वाले हिस्से में क़ैद हैं।

मैं चुपचाप वहाँ प्रवेश कर गया। फिर सेनिको की नज़र बचाकर मैं पेड़ पर चढ़ गया और मैंने तुरंत ही पहचान लिया कि सीताजी कहाँ है। एक विशाल अशोकवृक्ष के नीचे एक तेजस्विनी महिला उदास भाव से बैठी थी, उनके उदास चेहरे को देख कर ही मुझे अहसास हुआ कि ये ही सीताजी हैं।

मैं सोच रहा था कि क्या करूं पर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। इसी ऊहापोह में अँधेरा खतम होने लगा और पक्षीयों की चहचहाहट से सन्नाटा भंग होने लगा। मुझे लगा कि अब पूरे दिन मुझे छिप कर बैठना पड़ेगा।

अचानक एक महिला सैनिक ने आवाज़ लगाई "सावधान! सावधान! लंकाधिपति महाराज रावण पधार रहे हैं।"

मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं मुझे किसी ने पेड़ पर देख लिया तो क्या होगा? खैर मैं चुपचाप बैठा रहा। सोचा कि जो होगा देखा जायेगा।

कुछ देर बाद बहुत सारी स्त्रियों को साथ लेकर लंकेश रावण अपने हाथ में चांदी की तरह चमकती तेज धार वाली तलवार लिये हुए वहाँ हाज़िर हुआ और सीताजी के सामने आन खड़ा हुआ।

उसे देख कर सीताजी ने दूसरी ओर मुंह फेर लिया तो रावण बहुत जोरसे हंसा और अपनी गरजदार आवाज़ में बोला "हे सुन्दरी, तुम मुझे देख कर उधर मुंह क्यों कर लेती हो? तुम्हे लंका में आये हुए इतना समय बीत गया, तुमने इसी वन में चार महीन तक बरसात को झेला है लेकिन तुम्हे अब भी उस तपस्वी की प्रतीक्षा है। अरे पगली उसे आना होता तो वह अब तक कब का आ चुका होता।"

सीताजी की आवाज़ यों तो मीठी थी लेकिन वे बहुंत गुस्से में बोल उठीं "अरे दुश्ट, तू अपने आपको जाने क्या समझता है? तुझे शायद पता नहीं कि श्रीराम के अमोघबाण का क्या प्रताप है। तुझे याद नहीं है कि तेरे रिश्तेदार खर और दूशण को एक ही बाण से मार देने वाले मेरे पति कितने बलशाली हैं।"

रावण बोला "सीते, तुम्हे लंका की संपत्ति का पता नहीं है। अरी बावली स्त्री, मेरे यहाँ के नौकर भी सोने के मकान में रहतेे हैं।"

सीता तड़ाक से बोली "मुझे तेरी संपत्ति से कुछ नहीं लेना देना। अरे दुश्ट, सोने-चांदी के मकान से कोई आदमी बड़ा नहीं बन जाता। तू सिर्फ़ मकान और महल देखता-फिरता है। लोगों के आचरण नहीं देखता। तेरे नगर के सोने-चांदी के मकान में रहने वाले लोग भीतर से तो बहुत ही गरीब हैं।"

"सीता, मैं तुम्हे लंका की महारानी बनाना चाहता हूँ। तुम ख़ुद मान जाओं इसके लिए विचार करने को तुम्हे एक महीने का समय देता हूँ। ध्यान रखना एक महीने के बाद या तो तुम मेरी रानी बन जाओगी या फिर तुम्हे मेरी यह चंद्रहास नाम की तलवार मौत के घाट उतार देगी।" इतना कह कर रावण वहाँ से चला गया। उसके पीछे स्त्रियों का झुण्ड भी चला गया।

रावण के जाते ही सीता की सिसकी भर के रोने की आवाज़ आई तो मेरेे सारे बदन में गुस्सा भर उठा। लगा कि मेरे होते हुए सीताजी रो रही हैं। यह तो मेरे लिये शर्म की बात है!

नीचे ध्यान दिया तो देखा कि तीन जटाओं वाली एक महिला सैनिक सीताजी के पास बैठी है और सीताजी उससे बातें कर रही है। मुझको याद आया कि जामवंत ने कहा था कि त्रिजटा रावण की विरोधी है और हमारी मदद कर सकती है।

"हे माता, आपने मुझे धीरज बंधाकर अब तक आत्महत्या करने से रोका है, अब मुझसे सहा नहीं जाता। कहीं से आग की एक चिन्गारी लाकर दे दीजिये मैं इसी अशोकवृक्ष की लकड़ी की चिता बना कर अपने आप को ख़त्म कर देना चाहती हूँ।"

त्रिजटा ने ऊपर देखा तो हनुमान को लगा कि अब वे दिख जायेगे और सारा खेल ख़त्म हो जायेगा। लेकिन त्रिजटा ने शायद कुछ नहीं देख पाया था। उसने अपनी भारी आवाज़ में कहा "हे राज कुमारी, आप धीरज धरो सब ठीक हो जायेगा।" फिर अपनी साथी महिला सैनिकों से बोली "सुनो सब सुनो! मैंने आज एकअजीब सपना देखा है। मैंने देखा कि हमारी लंका में जाने कहाँ से एक बानर जाति का बहुत बलिश्ठ वीर घुस आया है। उस बानर ने हमारी लंका नगरी को जला कर राख कर दिया और हमारे लंका के बहुत से सैनिकों को मार डाला है। हमारे राजा रावण की हालत तो बहुत खराब देखी मैंने। उनका सिर मुड़ा हुआ है और वे गधे पर बैठ कर दक्षिण दिशा की ओर भगा दिये गये है, लंका का राज विभीषण को मिल गया है। मुझे तो यह लगता है कि अपन सब सीता को अकेला छोड़ कर अपने घर लौट जायें।"

मैं चौंक उठा। त्रिजटा ये क्या कह रही है, क्या सचमुच उसे कोर्इ्र सपना आया है। उसने बानर के आने की बात क्यों कही? किसी दूसरे समाज के नागरिक के आने की बात कयों नहीं कही। फिर लंका को जलाने और यहाँ की सेना के कुछ सैनिकों को मारने की आगे की घटनाओं को बता कर कहीं उसने मुझे यहाँ जो-जो काम करने हैं वे तो नहीं बता दिये। हो सकता है इस बीच जामवंत ने त्रिजटा के माध्यम से मुझे यह संदेश भेजा हो।

मैंने नीचे देखा कि-कि त्रिजटा का कहा हुआ सपना सुनना था कि एक-एक कर सब महिला सैनिक वहाँ से अपने घर के लिए चली गई। त्रिजटा बैठी रहीं फिर सीता से बोली, "राजकुमारी, मेरा सपना एक अच्छा सगुन है, तुम्हे बहुत जल्दी कोई ठीक ख़बर मिलने वाली है।"

त्रिजटा के जाने के बाद सीताजी रूआंसी हो उठीं और बोलीे "आज मुझे कोई भी साथ नहीं दे रहा। चंद्रमा तुम्ही आग दे दो। हे अशोक वृक्ष तुम्ही मेरा शोक दूरकर दो।"

मुझको लगा कि यह अच्छा मौका है सो मैंने अपने जनेऊ में बाँधी अंगूठी निकाली और सीताजी के सामने उछाल दी। सूरज की किरणों से दमकता अंगूठी का हीरा सीताजी के सामने गिरा तो वे चौंकी।

उन्होंनेअंगूठी उठाई और तुरंत पहचान लिया कि यह कौन की अंगूठी है। वे चकित थीं कि श्रीराम अंगूठी यहाँ कहाँ से आ गई। वे बोलीं "यह अंगूठी कौन लाया। मैं प्रार्थना करती हूँ कि जो भी इस अंगूठी को लाया है वह मेरे सामने प्रकट हो जाये।"

मैं कूद कर सीताजी के सामने जा पहुँचा।

सीता ने आदिवासी कबीले बानर बिरादरी के एक अजनबी सदस्य को सामने खड़ा देखा तो वे मुंह फेर कर बैठ गईं। मैंने कहा "आपको शंका होगी कि एक बानर आपके पास प्रभुू का संदेश लेकर क्येां आया इसलिए पहचान के लिए करूणायनिधान ने यह अंगूठी मुझे दी है।"

सीता फिर चौंक गई। क्योंकि श्रीराम और सीता ही जानते थे कि सीताजी उन्हे करूणानिधान कहती हैं। उन्होंनेसकुचाते हुए पूछा "आप बानर और वे अयोध्या के राजकुमार। आपका मिलन कैसे हुआ?"

मैंने उनके हरण से लेकर समुद्र पार करके मेरे आने तक की सारी कथा सुनाई तो उन्हे कुूछ विश्वास हुआ। फिर मैंने उन्हे वह गुप्त संदेश दिया जो उन्होंनेमेरे चलते वक़्त श्रीराम ने मेरे कान में कहा था। अब उन्हे पूरा विश्वास हो गया था।

मैंने उनसे कहा कि आप धीरज धरिये हमारे पूरे दलके साथ बहुत जल्दी श्रीराम यहाँ आयेंगे और रावण को उसके कर्मो की सजा देंगे।

अचानक मुझे ध्यान आया कि दिन आधा हो चुका है, लेकिन मैंने कुछ भी नहीं खाया है, पेट में चूहे कूद रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि मुझे भूख लग रही है, यदि अनुमति दें अशोक वन के दूसरे हिस्से में लगे पेड़ों से कुछ फल खा लूं। सीताजी ने मुझे बताया कि लंका में चार तरह के सैनिक हैं-भट, सुभट, महाभट और दारूणभट। दारूण भट पूरे संसार में अकेला एक है और वह है मेघनाद। इस बागीचे की रखवाली भट श्रेणी के सैनिक करते हैं और सुभट श्रेणी का सैनिक उनकी टुकड़ी का नायक है।

मैंने कहा कि आप आज्ञा दे ंतो आज हर श्रेणीके सैनिकों की ताकत का परीक्षण कर लेता हूँ।

उनकी अनुमति लेकर मैं फल वाले हिस्से में गया और पेड़ पर चढ़ कर फल खाने लगा। सहसा किसी सैनिक ने मुझे देखातो गालियाँ देता हुआ वह अपना भाला लेकर मेरी ओर दौड़ा। मैं पेड़ों पर छलांग लगाता हुआ उसके ठीक ऊपर जाकर गिरा। फिर उसका भाला लेकर मैंने उसकी पिटाई शुरू कर दी तो वह सिर पर पैर रखकर भागा। एक-एक करके मैंेने बारह के बारह रखवालों को मार भगाया। गुस्सा आया तो मैंने पेड़ उखाड़ कर फेंकने लगा।

कुछ देर बाद एक तगड़ा सेनानायक अपने साथ ढेर सारे सैनिक लेकर चिल्लाता हुआ वहाँ आया। एक सैनिक ने चिल्ला करकहा अरे ओ बानर, आज तू अक्षयकुमारसे भिढ़ रहा है, इसलिए तेरा काम-तमाम हेाने वाला है। मैं समझ गया कि यह रावण का बेटा अक्षय कुमार है, चलो इसी से दो-दो हाथ करता हूँ। मैं ज़मीन पर कूद गया और उसे कुश्ती के लिए ललकारा तो वह अपने हथियार फेंके बिना मुझसे कुश्ती लड़ने आया और अचानक अपनी तलवार निकाल कर मुझ पर हमला किया तो मैंने उसकी तलवार छीन करउसी के पेट में घुसेड़ दी।

वह चीख मार कर अपनी जगह पर गिरा तो मुझे ध्यान आया कि मैंने बैठे-ठाले एक आफत मोल ले ली है। खैर, जो होगा देखा जायेगा सोच कर मैं फिर से फल खाने लगा।

कुछ देर बाद अचानक आवाज़ आई "हे मेघनाद जी, वह रहा उत्पाती बानर।"

मेघनाद ने मुझे देख कर अपना धनुष बाण संभाला और मुझ पर बाणों की बौछार कर डाली। मैं इधर-उधर झुक कर बाण बचाता रहा। फिर मैंने सुना िकमेघनाद चिल्ला कर मुझसे कह रहा है कि ओ बानर तुम्हारे बदन पर पहना हुआ जनेऊ यह इशारा कर रहा है कि तुम ब्राह्मण हो, तुम्हे ब्रह्मा की सौगंध है कि अब इस वन को उजाड़ना बंद कर दो और अपने आपको मेरे हवाले कर दो।

मुझे बड़ा अचरज हुआ। युद्ध में क़सम और सौगंध का क्या काम? विभीषण बता रहे थे कि रावण को यह बागीचा अपने पुत्रों से भी बढ़कर प्यारा है, इसे उजाड़ना रोकने के लिए शायद मेघनाद ने मुझे सौगंधदी है।

मैं जहाँ खड़ा था वहीं खड़ा हो गया।

वह लपकता हुआ आया और मुझे पकड़ लिया। एक रस्सी से मुझे बाँध दिया गया। वे लोग मुझे अपने साथ लेकर चल पड़े।

कुछ देर बाद हम लोग रावण के दरबार में हाज़िर थे।

दुःखी स्वर में मुझसे रावण ने पूछा "हे बानर, तुम कौन हो? तुमने यह बागीचा क्यों उजाड़ दिया!"

मै बहुत झुक कर बोला " हे लंकेश, मैं उन श्रीराम का दूत हूँ जिनकी पत्नी को तुमने अपने यहाँ क़ैद कर रखा है। मुझे भूख लग रही थी सो मैंने कुछ फल खा लिए। फल खाना इतना बड़ा गुनाह तो न था कि मुझे मारा-पीटा जाता। वे लोग मुझे मारने लगे तो मैंने उन्हे मारा। आपके एकबेटे ने मुझे जान से मार देना चाहा तो गलती से वह मेरे हाथों मारा गया, फिर आपके इन राजकुमार ने ब्रहमा की सौगंध देकर मुझे बाँध लिया।

रावण गुस्से में आ गया और बोला "इस बानर ने बहुत बड़ी गलती की है। इसे तुरंत मौत के घाट उतार दिया जाय।"

तभी जाने कहाँ से विभीषण राज दरबार में आ पहुँचे और बेाले "भैया, आप बहुत बड़ी गलती कर रहे हो। किसी दूत को जान से नहीे मारा जाता।"

माल्यवंत नाम के बूढ़े मंत्री ने भी यही कहा। फिर सबने एक निर्णय लिया कि मेरी देह पर कपड़ा लपेट कर आग लगा के मुझे थोड़ा-सा झुलसा दिया जाय।

तुरंत ही सारी तैयारियाँ की जाने लगीं।

मेरे बदन पर कपड़ा लपेट कर ख़ूब सारा तेल उड़ेला गया और आग लगा दी गई, वे आगसे बचते वक़्त मेरे उछलने कूदने का तमाशा देखना चाहते थे लेकिन मेरे मन में कुछ और याद आ गया था। मैं तुरंत ही ज़मीन पर लेट गया और अपनी आग बुझाने लगा, मेरी आग तेजी से बुझ गयी और उल्टा हो गया, ज़मीन पर बिछे कालीन में आग लग गई। में फुर्ती से उठा और मैंने आग लगाने के लिए मशाल लेकर आये एक सैनिक से मशाल छीनी और दरबार वाले कमरे से ऊपर की ओर जाने वाले सीड़ियों पर सरपट भाग चला। ऊपर ही तो रावण का रनिवास था, मैंने वहाँ की हर चीज से मशाल छुआई और आगे बढ़ताचला गया। छतों से कूदता कुछ ही देर में मैं उस जगह था जहाँ अन्न का भण्डार था। यदि इस जगह आग लग गई तो लंका का कई महीनो ंका भोजन समाप्त हो जायगा यह सोच कर मैंने मशाल को लहराते हुए उस तरफ़ फेंका और दौड़ता हुआ सीधा अशोक वन में जा पहुँचा।

सीताजी के पास बैठी त्रिजटा राजदरबार के सारे समाचार उन्हे सुना रही थी। मुझे देख कर वह उठी तो मैंने उसे प्रणाम किया और सीताजी से बोला " आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैंने एंेसा खेल शुरू किया है कि लंकेश बौखला उठे हैैंं। बाहर मेरी तलाश जोरों पर हो रही है। अब मैं तुरंत लौटना चाहता हूँ।

सीताजी बोेलीं "ठीक है हनुमान, तुम अपना ध्यान रखना। प्रभु से कहना वे जल्दी आवें।"

मैंने उन्हे प्रणाम किया और छिपता-छिपाता लंका नगर की चहार दिवारी की तरफ़ बढ़ने लगा। एक जगह सुनसान थी वहाँ मैं चहारदिवारी पर चढ़ गया और फुर्ती से सामने दीख रहे समुद्र में छलांग लगा दी। थोड़ाही आगे बढ़ा था कि मैनाक अपनी टापु नुमा नाव के साथ मेरी राह देखते मिले। उनके साथ मैं आपके पास चला आया हू।

इतना कह कर हनुमान जी से अपनी लंका यात्रा का किस्सा समाप्त किया।

हम मन ही मन हनुमानजी की तारीफ कर रहे थे।

रात गहरी हो चुकी थी। जामवंत ने आदेश दिया कि हनुमानजी की बात पूरी हो चुकी है, अब सब सो जाओ। कल सुबह उठ कर हमे वापस किष्किन्धा चलना है। लम्बी यात्रा होगी। इसलिए बिश्राम ज़रूरी है।

हम सब कुछ ही देर में नींद में गाफिल हो गये।