लंपू और गुलाबी / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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घर के लोग उनको मूडी नानाजी कहते हैं, किंतु अकेले में धीरे-धीरे, कहीं सुन लिया तो फिर समझो कि सुनामी ही आ गई। प्रसन्न हुये तो बंदर बनकर कूदने लगते हैं और‌ गुस्सा हुये तो अल्लाह जाने क्या होगा आगे..."। वैसे तो वह हैं मीरा और मोहन के नानाजी किंतु जब ये दोनों ननिहाल में होते हैं और नानाजी का शब्द बार-बार गुंजायमान करते हैं तो मुहल्ले के सब बच्चे उन्हें नानाजी कहने लगते हैं। बच्चे उन्हें बहुत पसंद करते हैं। आख़िर वह चीज भी तो ऊंची हैं। सॆना के रिटार्ड कर्नल, छ: फुट ऊंचे, बड़ी बड़ी

झब्बेदार मूंछें, रोबीला चेहरा और कहानी सुनाने के विशेषग्य। कहते कि उन्होंने कहानियाँ सुनाने में डाक्ट्रेट की है। परियों प्रेतों नदी नालों पर्वतों किन्नरों गंधर्वों... ऐसा कौन-सा विषय है जिस पर उनका मुंह न

चला हो। बस सुनाने का मूड और कोई हाँ में हाँ करने वाला होना चाहिये। अंतरिक्ष की कहानियाँ तो ऐसे सुनाते हैंजैसे अभी-अभी सेटेलाइट से उतरकर अंतरिक्ष घूमकर आये हों।

"नानाजी आपकी मूंछें कितनी बडी बड़ी हैं, राजाओं जैसी।" मीरा ने मस्खा मारा।

" ए लड़की चापलूसी क्यों कर रही है। ' नानाजी गुर्राये।

"नानाजी नानाजी आप कितने बोल्ड हैं, चाचा चौधरी जैसे, छोटा भीम जैसे, बालवीर जैसे, लुट्टापी जैसे..."

"ए लड़के एक दूंगा खींचके, अब ज़्यादा बोला तो।" नानाजी ने मोहन की बात बीच में ही काट दी।

"ये क्यों नहीं कहता कि कहानी सुनना है एँ।"

"सो तो है नानाजी, बस हो जाये एकाध, बस मज़ा आ जायेगा।" एक मझे हुये कलाकार की भाँति मीरा और मोहन एक साथ बोल पड़े।

"तो सुनों आज तुम लोगों को लम्पू और गुलाबी की कहानी सुनाते हैं।" नानाजी बोले।

"यह् क्या बला है नानाजी?" मीरा को शीर्षक कुछ जंचा नहीं।

"चुप, पहले सुनों फिर गुनों फिर पूछो।" नानाजी का मूड सरकने लगा था।

"साँरी नानाजी वेरी साँरी" मीरा ने दोनों कान पकड़ लिये।

एक गाँव में रहती थी लम्पू। उम्र बारह साल तीन माह सात दिन, उँचाई चार फुट पांच इंच..."

" और वज़न, वज़न कितना था नानाजी? मोहन ने चुटकी ली।

"वज़न उसने कभी तुलवाया ही नहीं, गाँव में वज़न तौलने की मशीन तो थी ही नही, कैसे तुलवाती बेचारी'" नानाजी ने ठहाका लगाया।

"कोई बात नहीं नानाजी, चालीस किलो मान लेते हैं इतना तो होगा ही।" मीरा

हँसने लगी।

"तुम कहती हो तो मान लेते हैं। हाँ उसका एक भाई भी था लट्टूसींग।" नानाजी आगे बढ़े।

"यह सींग क्या होता है नानाजी? नाम के आगे तो सिंह लगना चाहिये।" मोहन ने प्रश्न किया।

"होता तो सिंह ही है, परंतु यह कहानी गाँव की है और गाँव वाले तो सींग का उच्चारण करते हैं न। जैसे रामसींग मोहन सींग लालूसींग..." नानाजी ने समाधान किया।

"फिर नानाजी आगे क्या हुआ?" मीरा ने पूँछा।

"लट्टूसींग बहुत ही प्यारा था। साल भर का रहा होगा गोरा चिट्टा गोल मटोल। साँवली-सी लम्पू उसे प्यार करती थी। दिन भर खिलाती। कभी गोदी में लेकर तो कभी झूले में लिटाकर। कभी-कभी कंधे पर लाद लेती और बाहर सड़क पर निकल जाती और ख़ूब घुमाती।"

कभी अच्छे-अच्छे गाने गाती कभी मन ही मन गुनगुनाती। लट्टू बहुत खुश होता, खिलखिलाकर हँस पड़ता। लगता जैसे पुरनमासी का चाँद हँस रहा हो। झूले में लट्टू झूलता तो झूला भी गाना गाता चर्र-चर्र‌ चूं-चूं चर्र-चर्र‌ चूं-चूं। लम्पू झूले की नक़ल करती, कर्र-कर्र कूं-कूं, कर्र-कर्र कूं-कूं। उसे बड़ा मज़ा आता। बच्चे उसे बहुत अच्छे लगते। दोपह‌र होते-होते मुहल्ले के बहुत सारे बच्चे लम्पू के घर‌ आ जाते। लम्पू सबको बड़े प्यार से खिलाती। किसी को गुड्डा देती किसी को गुडिया देती तो किसी को फुग्गे। सब बच्चे मजे सॆ खेलते। बच्चे हँसतॆ तो लट्टू भी हंसता। उसे लगता कि लड़के आसमान से उतरे छोटे-छोटे राजकुमार हों और लड़कियाँ छोटी छोटी-सी देवियाँ हों सुंदर सीं प्यारी सीं। "


"फिर नानाजी, फिर क्या हुआ?" मोहन ने पूंछा।

"लम्पू के पड़ोस में रहती थी गुलाबी, लम्पू की हम उम्र। लम्पू के घर से उसका घर बामुश्किल पाँच सौ फुट दूर था।" नानाजी बड़े अच्छे मूड में कहानी सुना रहे थे।

"सिर्फ पांच सौ फुट" अब मीरा को कुछ तो बोलना ही था।

"और कितना होगा गाँव में तो मकान ऐसे ही होते हैं, गांव भी नज़दीक और दिल भी नज़दीक। कोई शहर थोड़ी है जो जहाँ घर भी दूर-दूर होते हैं और लोग दिलों से भी दूर-दूर ही रहते हैं।" नानाजी ने मार्मिक बात कही।

" फिर नानाजी? मीरा ने जैसे हूंका दिया।

"गुलाबी बच्चों से बिल्कुल भी प्यार नहीं करती थी। अपने छोटे भाई बहिनों से भी वह ठीक से नहीं बोलती थी, लड़ती थी और उन्हें मारती भी थी। उसके खिलोने तो कोई छू भी नहीं सकता था। बड़ों का कहना भी वह नहीं मानती थी और मुहल्ले के बच्चों से तो हर दिन लड़ाई करती रहती थी। किसी के खिलोने छीन लेना किसी के कपड़े फाड़ देना उसका रोज़ का काम था।"

"आगे नानाजी" उत्साहित होकर मीरा बोली।

" एक दिन गुलाबी अचानक लम्पू के यहाँ पहुँच गई। लम्पू लट्टूसींग को खिला रही थी। लट्टू हँस रहा था और लम्पू गा रही थी। गुलाबी लम्पू के पास जाकर बैठ गई और उसके गाने सुनने लगी। लम्पू गा रही थी, 'मोरा भईया सोवन लागा रूं-रूं रूं, रूं-रूं रूं'। गुलाबी ने देखा कि लट्टू जो अभी-अभी झूले में हँस रहा था

गाना सुनते ही गहरी नींद में सो गया है।

"अरे अरे यह तो सो गया" , आश्चर्य से गुलाबी बोली। " उसे उठाओ मैं उसे खिलाऊंगी। '

"ठीक है मैं अभी उठा देती हूँ।" लम्पू ने हंसते हुये कहा और वह गाने लगी।

"मेरा भईया खेलन लागा रूं-रूं रूं, रूं-रूं रूं।" गुलाबी ने देखा लट्टू झूले में पड़ा-पड़ा हाथ पैर हिला रहा है, जोर ज़ोर से हँस रहा है, उछल कूद रहा है। गुलाबी आश्चर्य‌ में पड़ गई।

लम्पू क्या जादू जानती है।

"लम्पू और गाओ न कितना अच्छा गाती हो तुम," गुलाबी ने उसकी ओर निहारते हुये कहा।

"मेरा भईया दौड़न लागा रूं-रूं रूं रूं रू रूं-रूं रूं रूं..." लम्पू उसकी प्रत्येक फरमाईश पूरी कर रही थी।

गुलाबी ने देखा गाने की आवाज़ सुनकर लट्टू झूले से उड़कर कमरे में दौड़ लगाने लगा। ।

"इतना-सा लट्टू दौड़ रहा है, अरे-अरे यह तो सरे कमरे में फुदक रहा है, क्या कोई चमत्कार हो रहा है"

गुलाबी अवाक रह गई।

लम्पू ने फिर गाया-मेरा भईया उड़ने लागा रूं-रूं रूं रूं रूं..." अब तो लट्टू ऊपर छत में उड़ने लगा। इस कोने से उस कोने, उस कोने इस कोने। गुलाबी ने देखा कि लट्टू के छोटे से सुंदर शरीर में दोनों तरफ़ पंख निकल आये हैं, सिर पर मोतियों सॆ जड़ा प्यारा-सा मुकुट लगा है, भुजाओं में चाँदी से चमक‌दार बाजूबंद बंधे हैं। वह छोटी-सी पीत वर्ण की धोती पहने कृष्ण कन्हैया लग रहा है। गुलाबी को लगा कि वह बॆहोश होकर गिर जायेगी। वह हांफते हाँफते अपने घर आ गई।

थोड़ी देर में जब वह आश्वस्त हुई तो लम्पू के घर का सारा दृश्य उसके सामने आ गया। लट्टू का ऊपर उड़ना ... दौड़ना ..."जब लम्पू कर सकती है तो मैं क्यों नहीं कर सकती, यह सॊचकर‌ उसने झूले में रोते हुये अपने भाई बल्लू को चुप कराने का प्रयास किया। जब वह चुप नहीं हुआ तो वह गाने लगी 'मेरा भईया खेलन लागा रूं-रूं रूं रूं रूं...' मगर भईया काहे को चुप हॊने चला उसने गुस्से के मारे बल्लू के गाल में जोरदार तमचा जड़ दिया।" नालायक चुप ही नहीं होता रोये जा रहा है। " वह चिल्लाने लगी।

अब तो बल्लू ने आसमान ही गुँज दिया। गुलाबी की माँ दौड़ी आई।

"क्यों मार रही है उसको" वह गुलाबी पर चिल्लाई। "छोटे भाई को ऐसे मारतॆ हैं क्या?" वह उसको डांटने लगी।

गुलाबी रोने लगी "मां यह मेरी बात बिल्कुल नहीं मानता। लम्पू का वह जो लट्टू है न वह तो..."

उसने माँ को लट्टू के दौड़ने उडने, हँसने जो भी लम्पू के यहाँ देखा था, सभी बातें बताई। माँ आश्चर्य में डूब गई "ऐसे कैसे हो सकता है"

"माँ बिलकुल सच कह रही हूँ राम कसम।" उसने सच होने का प्रमाण क़सम खा कर दिया।

"अब क़सम काहे के लिये खाती है, सच ही होगा, उससे ही पूँछ के आ ऐसा कैसे होता है।" माँ ने सलाह दी।

गुलाबी दौड़ गई लम्पू के घर।

"लम्पू लम्पू बता तेरा भईया तेरे गाने सुनकर तेरा कहना क्यॊं मान जाता है। उड़ने को कहो तो उ।ड़ने लगता है दौड़‌ने को बोलो तो दौड़ने लगता है...और..."

"हसने को कहॊ तो हँसने लगता है रोने को कहो तो रोने ।" " गुलाबी का प्रश्न पूरा होने के पहले जैसे धर‌ती के नीचे से ज‌बाब आने लगा।

"अरे यह तो लट्टू बोल रह है" गुलाबी चौंक गई।

"मेरी दीदी बच्चों से बहुत‌ प्यार करती है सच्चा प्यार उन्हें कभी नहीं डांटती, न ही मारती है। उन्हें अपने सब खिलोने खेलने देती है। मन की भोली है मेरी दीदी, देवी का अवतार। भगवान भोले भाले लोगों की सब बातें पसंद करते हैं। चूंकि बच्चे भी भगवान होते हैं, इसलिये सच्चे मन वालों की सभी मान लेते हैं।" लट्टू बोलॆ जा रहा था।

"लट्टू भईया मैं भी तो सबसे प्यार।"

"तुम, तुम‌ चुप रहो। सबसे लड़ती हो तुम‌, झग‌ड़ती हो। न तो बड़ों का कहना मानती हो न ही छोटों सॆ प्यार करती हो। तुम्हारे खिलोने कोई छू भी न‌हीं सकता, कौन तुम्हारा कहना मानेगा।"

"भईया मुझे माफ़ कर दो, आगे से किसी से नहीं लड़ूंगी...मुहल्ले के सब ब‌च्चों से प्यार करूंगी।" गुलाबी रोने लगी।

वाह वाह नानाजी क्या कहानी है-फेंटेसी, मज़ा आ गया। मीरा और मोहन ठिल-ठिलाकर हंस रहे थे।