लंबी कमीज में बांधी गई गिरह का किस्सा / जयप्रकाश चौकसे

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लंबी कमीज में बांधी गई गिरह का किस्सा
प्रकाशन तिथि : 07 जुलाई 2014


एक प्रकाशित खबर के अनुसार, फिल्म 'दीवार' में अमिताभ बच्चन के फिल्मी दर्जी ने उनकी कमीज अधिक लंबी बना दी थी इसलिए निचले हिस्से को गठान की तरह बांधा गया आैर कंधे पर रस्सी रख दी गई गोयाकि मजबूरी के कारण बांधी गठान फिल्म के लोकप्रिय होने के बाद कॉस्ट्यूम की कला मान ली गई। फिल्म में शूटिंग के कई दिन पूर्व पात्रों की ड्रेस डिजाइन की जाती है आैर कलाकार का नाप लेकर वस्त्र बनाए जाते हैं तथा ड्रेस डिपार्टमेंट का कम से कम एक व्यक्ति सेट पर मौजूद होता है कि आवश्यकता पड़ने पर चीजें दुरुस्त की जा सकें। 'दीवार' के निर्माता गुलशन रॉय थे उस दौर के सबसे धनाड्य पूंजी निवेशक थे और निर्देशक यश चोपड़ा के सभी कामों को योजनानुसार करने के लिए हमेशा प्रसिद्ध‌ रहे हैं, अत: यह मान लेना कि 'दीवार' के नायक की कमीज भूलवश लंबी सिल गई, यह आसानी से गले नहीं उतरता। उस फिल्म में नायक बंदरगाह पर काम करने वाला व्यक्ति था, इसलिए उसे रफ-टफ लुक दिया गया था। सेट पर कंघा नहीं होने के कारण उनके बाल बिखरे सूखे नहीं थे, वरन् वह एक मेहनतकश व्यक्ति का 'लुक' खूब विचार करके बनाया गया था।

अमिताभ बच्चन भी गलत बयानी नहीं कर रहे हैं, अत: यह संभव है कि यूनिट ने उन्हें यह आभास दिया था कि यह दर्जी की गलती है। कलाकार प्राय: अपने चरित्र चित्रण को लेकर सवाल पूछते हैं। इस तथ्य के बावजूद, यह बात सही है कि कई बार मजबूरी होती है आैर सफलता के बाद उसे सोचा-समझा काम कहा जाता है। यह भी गौरतलब है कि 'दीवार' का प्रदर्शन लगभग चालीस वर्ष पूर्व हुआ था आैर दर्जी की गलती की बात इस दरम्यान कभी कही नहीं गई। सफलता के साथ अनेक किवदंतियां जोड़ दी जाती है, कथाएं इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित या विक्षिप्त होती रहती है। फिल्म के लेखक सलीम साहब का कहना है कि हर पात्र को वेशभूषा इत्यादि का विवरण पटकथा में दर्ज था आैर हर चीज बहुत विचार करके गढ़ी गई तथा उस दौर में गोदी पर काम करने वाले मजदूर प्राय: इस तरह कमीज की गिरह बांधते थे। यश चोपड़ा ने ताउम्र एक मुकम्मल पटकथा पर ही फिल्में बनाई हैं आैर वे आशु कवि की तरह त्वरित कुछ करने वाले फिल्मकार नहीं थे।

बहरहाल कमीज दर्जी की गलती थी या नहीं, यह मुद्दा नहीं है। अमिताभ बच्चन के जीवन की श्रेष्ठतम अभिनीत फिल्मों में 'दीवार' शिखर की फिल्म है आैर अमिताभ बच्चन नामक किवदंती का प्रारंभ 'जंजीर' से हुआ परंतु 'दीवार' उनके अभिनय यात्रा में मील का पत्थर है। लेखक सलीम- जावेद की भी यह श्रेष्ठ रचना है। 'शोले' यकीनन 'दीवार' से बहुत बड़ी सफलता थी परंतु सिने कला के मानदंड पर 'दीवार' कही अधिक महत्वपूर्ण फिल्म है आैर 'दीवार' की पटकथा फिल्म निर्माण संस्थानों के पाठ्यक्रम में शामिल है। अब 'शोले' में तो गब्बर जैसे भयावह डाकू के 'तथाकथित गुप्त अड्डे' पर सारे पात्र पहुंच जाते है, केवल नायकों को पता नहीं मालूम। फिल्म में तो ऐसा अहसास होता है, मानो वहां डाकिया भी गब्बर की डाक दे जाता हो। गौरतलब यह है कि हर क्षेत्र में भव्य सफलता तमाम त्रुटियों को अनदेखा करने के लिए बाध्य करती है। इसी तर्ज पर नरेंद्र मोदी कोई गलती नहीं करते आैर जेटली साहब ही सही फर्मा रहे हैं कि जुलाई से सितंबर तक कुछ चीजों के भाव बढ़ते हैं आैर महंगाई के लिए सरकार को दोष देना गलत है। जाने क्यों ये नादान जनता को इतनी चीजें लगती है। सत्य इसी तरह परिभाषित होता है,'समरथ को नहीं दोष गोसाई'।

फिल्म के प्रदर्शन के समय राजकपूर ने सलीम से कहा कि 'दीवार' लगभग निर्दोष पटकथा है परंतु यदि नायक सफल आैर अमीर बनने के बाद भी अपना रफ-टफ लुक नहीं बदलता आैर अमीरों की होटलों या महफिलों मेंं उसी पोशाक में आता तो पात्र का कद आैर अधिक बढ़ जाता कि उसके लिए धन आैर सफलता का कोई अर्थ नहीं है, वह तो केवल अन्याय का प्रतिकार ले रहा है। कल्पना कीजिए कि वही लंबी कमीज में गांठ बंधी है आैर रूखे-सूखे बिखरे बालों वाला नायक महफिल में आता है तो उसकी शक्ति के भय से सभी तब भी उसका सम्मान करते हैं तो क्या नाटकीय प्रभाव उत्पन्न होता। सलीम साहब ने राजकपूर की बात से सहमति जताई आैर उन्हें आज भी मलाल है कि यह किया जाना चाहिए था।