लंबी कविता कि पहचान / प्रताप सहगल

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यों लंबी कविता का लगभग 75 वर्षों का इतिहास हमारे सामने है, लेकिन लंबी कविता चर्चा के केंद्र में सातवें दशक में ही आई और आठवें दशक में उसके रचना विधान को लेकर चर्चाएँ हुईं। बाद में कवियों द्वारा उसे एक ज़रूरी काव्य माध्यम के रूप में महसूस किया जाने लगा।

लंबी कविता कि चर्चा करते हुए अपने अनुभव को साथ जोड़ कर देखने से संभवतः लंबी कविता कि पहचान को प्रामाणिकता के साथ रेखांकित किया जा सकता है। यूँ कविता लिखना मैंने सन् 1961 के आसपास ही शुरू कर दिया था या कहना चाहिए कि छंद रचना होने लगी थी, लेकिन पहली लंबी कविता लिखने का दबाव 1969 में ही बना। कुछ कवि-मित्रों ने मिलकर लंबी कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित करने की योजना बनाई थी। तब सचमुच हमें लंबी कविता के कारक मालूम थे या नहीं, निश्चित तौर पर कहना संभव नहीं, लेकिन एक दबाव हम सभी महसूस कर रहे थे कि अपनी बात को कहने के लिए और उसके विभिन्न आयामों को समझने-पकड़ने के लिए लंबी कविता ही उपयुक्त माध्यम हो सकती है। सुरेश धींगड़ा, रमेश शर्मा (अब दिविक रमेश) , कृष्ण कुरड़िया तथा विजय गुप्ता मेरे साथ थे। लंबी कविताओं का संग्रह प्रकाशित करने की योजना तो बनी, लेकिन लंबी कविताएँ प्राप्त नहीं हुईं। ज़ाहिर है कि दबाव के बावजूद लंबी कविता कि सर्जना कि मानसिकता इन सभी कवियों की तब तक नहीं बनी थी। बाद में विजय गुप्ता और कृष्ण कुरड़िया ने लिखना ही बंद कर दिया और योजना लटकती रही।

कालांतर में इसी योजना में मेरे और सुरेश धींगड़ा के साथ जगदीश चतुर्वेदी, गंगा प्रसाद विमल और नरेंद्र मोहन जुड़ गए और इन पाँच कवियों की पाँच लंबी कविताओं का संग्रह सन् 1981 में 'एक दूसरे से अलग' नाम से छपकर आया। सन् 1986 में यही पाँच कवि अपनी नई पाँच लंबी कविताओं के साथ 'अलग-अजग होने के बावजूद' संग्रह में उपस्थित हुए। इससे पूर्व 'कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती' (संपादक नरेंद्र मोहन) हमारे सामने आ चुका था और लंबी कविता के रचना विधान पर चर्चा शुरू हो चुकी थी।

लंबी कविता के सर्जना के साथ मेरा रिश्ता सन् 1969 में ही 'कटी हुई यात्राओं के पंख' नाम से लिखी गई लंबी कविता से जुड़ा। यह कविता रजनीगंधा के सन् 70 के अंक में प्रकाशित हुई। बाद में यही कविता अपने बदले हुए रूप में 'मोतीलाल' नाम से 'एक-दूसरे से अलग' नामक संग्रह में संकलित है। कहने का अर्थ यह है कि पिछले लगभग तीस सालों से लंबी कविता मेरी काव्य-मानसिकता में ऊहापोह करती रही है और इसकी सर्जना के पीछे तरह-तरह के दबाव महसूस होते रहे हैं।

इस छोटी-सी पृष्ठभूमि के बाद एक बड़े फलक पर फैली विविध रूपों एवं धर्मों वाली लंबी कविताओं पर बात की जा सकती है। इस बीच 'बीसवीं शताब्दी की लंबी कविता' (संपादक नरेंद्र मोहन) , 'आखि़री दशक की लंबी कविताएँ' खंड एक एवं खंड दो (संपादक नागेश्वर लाल, रमणिका गुप्ता) , 'कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती' , 'विचार और लहू के बीच' (संपादक नरेंद्र मोहन) , 'कितना अँधेरा है' (संपादक मोहन सपरा) , 'एक दूसरे से अलग' तथा 'अलग-अलग होने के बावजूद' (संपादक प्रताप सहगल) , रमेश गौड़ की पतनगाथा, तथा अनेक दूसरे कवियों के संग्रहों एवं पत्रिकाओं में लंबी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। यानी कुल मिलाकर लंबी कविता कि सर्जना का परिदृश्य बहुत उत्तेजक है और हमें लंबी कविता कि सही पहचान करने के लिए प्रेरित करता है।

एडलर ऐलन पो की टिप्पणी से ही शुरू करें तो कहना होगा कि प्रदीर्घ सर्जनात्मक तनाव को लेकर उसकी नकारात्मक धारणा आज हिन्दी काव्य-लेखन के संदर्भ में बिल्कुल ग़लत साबित हो चुकी है। वैसे भी हम सबके अनुभव का दायरा अपनी-अपनी सीमाओं में ही होता है और अपने सीमित अनुभव के आधार पर दूसरों के अनुभव अथवा संवेदन-जगत को ख़ारिज़ कर देना युक्तिसंगत नहीं लगता। वैसे तो पो की धारणा का खंडन बाद में इलियट ने कर ही दिया था, पर हम अपने अनुभव से यह कह सकते हैं कि अन्य धर्मों की तरह से प्रदीर्घ सर्जनात्मक तनाव भी मन का धर्म है। मन के चांचल्य के कारण इसमें थोड़ी-बहुत टूट-फूट होती रहती है, वह बार-बार टूटता है तो, बार-बार तनता भी है, बिखरता है तो फैलता भी है। यह बहुआयामी फैलाव अंततः लंबी कविता कि शक्ल अख्तियार करता है। संभव है ऐसा न हो, पर ऐसा न ही हो, ऐसी स्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती। वैसे भी क्रोचे के अभिव्यंजनावाद के मुताबिक कला कि सृष्टि मन में ही होती है, बाहर जो आता है, वह अधूरा ही होता है। उस अधूरेपन की क्षतिपूर्ति ही कलाकार अपने क्राफ्ट से करता है। इसलिए प्रदीर्घ सर्जनात्मक तनाव के शब्दों में ढलने तक हुई टूट-फूट या बिखराव से बहुत घबराने की ज़रूरत भी नहीं है।

अब प्रश्न यह है कि लंबी कविता कि पहचान कैसे हो? क्या कविता कि मात्र जैविक लंबाई ही उसे लंबी कविता का गौरव प्रदान कर सकती है? इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। तब? तब जो भी लंबी कविताएँ हमारे सामने हैं, उनके भरोसे ही हम लंबी कविता कि पहचान कर सकते हैं। फिर प्रश्न है कि क्या जैविक लंबाई ग़ैरज़रूरी है? जवाब में कहा जा सकता है नहीं। मात्र जैविक लंबाई किसी भी कविता को लंबी कविता नहीं बनाती। लंबी कविता या तो एक ही मनोदशा को लेकर विभिन्न सीमाओं में फैलती है या गहरे उतरकर अपनी वस्तु का विस्तार करती है या फिर ब्यौरों को मूल वस्तु से जोड़ते हुए अंदर से बाहर की ओर गमन करती है। इधर जो लंबी कविताएँ आई हैं, उनमें से अधिकांश कविताएँ आत्मकथात्मक हैं। ऐसा होते हुए भी कई कवियों ने तीसरे पुरुष का सहारा लिया, तो कइयों ने आख्यान या मिथक को लेकर 'अपनी वस्तु' को रचा है। पहले कुछ आत्मकथात्मक कविताओं को लें। इस तरह की लंबी कविताएँ कवियों की आत्मकथा का अंश ही लगती हैं। उन्हीं को गद्य में ढाल दिया तो ब्यौरे विस्तार से आएँगे। कुछ स्थितियाँ आएँगी, कुछ घटनाएँ, स्थान, व्यक्ति आदि, लेकिन लंबी कविता में यह सब पार्श्‍व में चला जाता है, गद्यात्मक ठोसपन की जगह एक एम्बीगुटी ले लेती है। यही कविता का गुण भी है। पतनगाथा में रमेश गोड़ जब लिखते हैं-'आप इसे चाहें जो कहिए / नासमझी / कायरता / कम अक्ली / लेकिन मैं पहले ही स्वीकार कर लेता हूँ / कि तपती रेत में पाँव जलने / या बर्फ में उंगलियाँ गलने पर / मेरा सीना कभी नहीं तना है' या जगदीश चतुर्वेदी की यह पंक्तियाँ 'यह युद्ध लड़ते-लड़ते थक गया हूँ / और देना चाहता हूँ आखि़री वक्तव्य' तो वे अपनी आत्मकथा या उसके ही किसी अंश को कविता में ढालने की तैयारी कर रहे होते हैं। ज्यों-ज्यों कविता आगे बढ़ती है, वह आत्म के दायरे का विस्तार करती जाती है। यह विस्तार नितांत आत्मगत भी हो सकता है और वस्तुगत भी। दोनों ही स्थितियों में कविता को कविता के स्तर पर ही ताने रखना लंबी कविता कि पहचान है। इस तरह की लंबी कविताओं में हम भारत भूषण अग्रवाल की 'चीर-फाड़' और मणि मधुकर की 'घास का घराना' को रख सकते हैं। आप देखेंगे कि इन तथा इस स्वभाव की कविताओं में कवि स्वयं कहीं तो 'मैं' के रूप में तो कहीं 'वह' के रूप में उपस्थित रहता है। जैसे कि नरेंद्र मोहन की कविता 'एक अग्निकांड: जगहें बदलता'। यह कविता भी आत्मकथात्मक है, लेकिन धीरे-धीरे फैलती हुई वह अपने समय से मुठभेड़ करने लगती है। समय से मुठभेड़ करने वाली कविताओं में हम 'अँधेरे में' (मुक्तिबोध) , 'इतिहास के जर्राहों से' (गिरिजा कुमार माथुर) , 'आत्महत्या के विरुद्ध' (रघुवीर सहाय) , 'पटकथा' (धूमिल) , 'कुआनो नदी' (सर्वेश्वर) , 'हरिजन गाथा' (नागार्जुन) , 'फिर वही लोग' (रामदरश मिश्र) तथा 'बूचड़खाना' (प्रताप सहगल) को रख सकते हैं। इनमें भी मुठभेड़ के आधार आपको अलग-अलग मिलेंगे। वाम विचारधारा से प्रतिबद्ध, आबद्ध तथा वेष्टित, वाम विचारधारा से प्रेरित या फिर वाम विचारधारा का सर्जनात्मक उपयोग। जो भी हो, इन कविताओं में राजनीति और राजनीतिक मूल्यहीनता का विशद काव्यात्मक फलक मौजूद है, इसलिए इन्हें लंबी कविता के रूप में ही पहचाना जा सकता है।

कुछ लंबी कविताएँ ऐसी आई हैं जो न तो आत्मकथात्मक स्वरूप में अँटती हैं और न ही अपने समय से सीधे-सीधे मुठभेड़ करती हैं, बल्कि वे 'मैं' से शुरू होकर परिवेश में फैलती हैं। विनय की 'यात्रा के बीच' में एक निश्चित परिवेश हमारे सामने उपस्थित होता है। शुरू में ही कविता कहता है-'नहीं-नहीं, तुम इस तरह से / एक जीवंत अध्याय को नहीं बदल सकती / इतिहास की पड़ताल भी करने लगती है। जीवंत अध्याय से इतिहास खंड में बदल जाने का भय कहीं हमारी धमनियों में बहता है, इसलिए हम हमेशा अतिरिक्त रूप से सतर्क रहकर, जीवंत होकर ही स्थितियों के भोक्ता बने रहना चाहते हैं। प्रायः स्थिति-जन्य भय, स्मृति-जन्य भय में बदल जाता है। ऐसे में हम स्मृति की ओर लौटने लगते हैं। देखा जाए तो बिना स्मृति के व्‍यक्ति है भी क्या? जीवन भी क्या है? स्मृति भी परंपरा है। बिना स्मृति के हम जीवन को मात्र जैविक स्तर पर ही जी सकते हैं। तमाम कलाएँ और साहित्य हमें जैविक स्तर से ऊपर ले जाते हैं। बार-बार स्मृति हमें कुछ कहने, कुछ रचने के लिए ठेलती है। इस' रचना' के लिए लंबी कविता के एक समर्थ माध्यम के रूप में हमारे सामने उपस्थित हुई है।

स्मृति एवं स्मृति-जन्य संवेदना से अनुप्रेरित कविताओं के रूप में गंगा प्रसाद विमल की लंबी कविता 'स्मृति की खोज' तथा सुखबीर सिंह की लंबी कविता 'बयान बाहर' का ज़िक्र किया जा सकता है। विमल की कविता स्मृति से वर्तमान तक की अनुभव यात्रा है तो सुखबीर सिंह की कविता स्मृति दंश भोगने की। इधर अनेक कवि स्मृति के नाम पर कविता में 'हाय-हाय' करने लगते हैं या फिर पंत वाला 'अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है!' जैसी उक्तियाँ कहने लगे हैं, जो हमारे समय के लिए व्यर्थ लगती हैं। इसलिए स्मृति को विलाप में बदलने की तमीज़ करना भी ज़रूरी है। प्रयाग शुक्ल जैसे अनेक ऐसे कवि हैं, जो कविता में विलाप करते दिखाई देते हैं, जबकि विमल या सुखबीर सिंह उसे सर्जनात्मक लोक में बदल देते हैं।

कुछ लंबी कविताएँ दर्शन और जीवन में द्वंद्वात्मक रूप को लेकर उपस्थित हैं। विजयदेव नारायण साही की 'अलविदा' तथा गंगा प्रसाद विमल की ही 'ढोते हुए काल' जैसी कविताओं को इस दृष्टि से परखा जा सकता है। पंत की 'परिवर्तन' भी ऐसी ही कविता है, लेकिन उसे एक लंबी कविता माना जाए या नहीं, इस पर विचार होना शेष है। गिरिजा कुमार माथुर की 'इतिहास के जर्राहों से' , मानव-इतिहास के साथ गहरी संपृक्ति की कविता है-'कि जानने का अर्थ समझना नहीं होता! सिर्फ़ शास्त्र पढ़ने से दृष्टि नहीं मिलती / कि उम्र बढ़ने से ही अक्ल नहीं बढ़ती' गिरिजा कुमार माथुर के संदर्भ में एक जगह बोलते हुए पवन कुमार माथुर ने कहा था कि उन्हें दिक् काल की गहरी समझ थी और वे उसके जीवन की व्यर्थता का बोध होने के बावजूद जीवन की संपूर्णता को पूरी तरह ललक के साथ लेते थे। संभवतः यह कविता उनकी इसी दृष्टि का बोध कराती है।

यानी इस कथ्य या वस्तु के स्तर पर इधर आई अनेक लंबी कविताओं पर अलग-अलग तरह से टिप्पणी की जा सकती है। लंबी कविता कि पहचान का एक नज़रिया और भी हो सकता है। इसे कवि का रचना-विन्यास भी मान सकते हैं। मसलन कुछ लंबी कविताएँ अतीत से शुरू होकर वर्तमान से गुज़रती हैं, जैसे 'एक अदद सपने के लिए' , कुछ वर्तमान से अतीत की ओर लौटती हैं जैसे 'अतीत से गुज़रते हुए' या 'स्मृति की खोह में' , कुछ वर्तमान से मुठभेड़ करते हुए भविष्य की ओर देखती हैं जैसे 'राम की शक्ति पूजा' , 'अँधेरे में' , कुछ वर्तमान से मुठभेड़ करते हुए उस पर अपना सार्थक वक्तव्य देती लगती हैं, जैसे-'फिर वही लोग' , 'कुआनो नदी' या 'पटकथा' । कुछ कविताओं में अतीत और वर्तमान गड्डमड्ड रूप में एक टिप्पणी करता उपस्थित होता है जैसे 'उप नगर में वापसी' , 'यात्रा के बीच' या 'सहमी हुई शताब्दी'।

लंबी कविता के वस्तु विन्यास पर इन कुछ संकेतात्मक टिप्पणियों के बाद लंबी कविता के माडल पर बात की जा सकती है। वैसे तो हर कवि अपने ढंग से ही लंबी कविता रचता है, लेकिन इतनी लंबी यात्रा के बाद यह समय है कि हम लंबी कविता के लक्षण या प्रतिमान तय करें। यानी लंबी कविता का शास्त्र क्या हो? हालाँकि यह कोशिश कोई बहुत अच्छी कोशिश नहीं है, लेकिन लंबी कविता के नाम पर बनी हुई संभ्रम की स्थिति से निपटने के लिए कुछ-कुछ रेखाएँ खींचना तो ज़रूरी लगता ही है। लंबी कविता रचने का दबाव या फिर कवियों द्वारा यह महसूस करना कि आज एक मुकम्मिल कवि-व्यक्तित्व के लिए लंबी कविता एक अनिवार्यता बन चुकी है, ऐसी वजहें हो सकती हैं कि हम लंबी कविता के व्यक्तित्व की पहचान करें। अतः पहचान पूरी तार्किकता के साथ होनी चाहिए।

इसलिए लंबी कविता के कुछ मॉडलों पर बात करना चाहता हूँ, मिसाल के तौर पर 'राम की शक्ति पूजा' , 'अँधेरे में' , 'इतिहास के जर्राहों से' , 'प्रमथ्यु गाथा' , 'अलविदा' , 'पटकथा' , 'मुक्ति प्रसंग' , 'लुकमान अली' और 'संवाद गाथा'। माडल संभवतः और भी हो सकते हैं, लेकिन यह कविताएँ अपने रचना-विधान के कारण विशिष्ट लगती हैं। अन्य लंबी कविताओं के रचना-विधान में एक सम्यकता खोजी जा सकती है और वे कुल मिलाकर माडल बनती लगती हैं। इन कविताओं के रचना-विधान की प्रकृति देखी जाए तो इनमें स्वप्न और यथार्थ, फैंटेसी और यथार्थ तथा यथार्थ और विचार का इस्तेमाल तो है ही, संरचनागत भिन्नता भी है।

'राम की शक्ति पूजा' की सामसिकता इसे क्लासिकी रचना के तौर पर भले ही प्रतिष्ठित करती हो, संभवतः आज के रचनात्मक परिवेश में वह माडल नहीं हो सकती। प्रसंगवश यह भी कह दूँ कि यह कविता अपनी पूरी शक्ति के बावजूद प्रोफेटिक नहीं है, जैसा कि कुछ आलोचक इसे मानते हैं। 'होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन' कहकर निराला भारतीय स्वतंत्रता कि पूर्व-घोषणा कर रहे थे। यह व्याख्या हमारी हो सकती है, कवि का मंतव्य नहीं। जबकि 'अँधेरे मे' आई स्थितियाँ सचमुच प्रोफेटिक लगती हैं। साथ ही फैंटेसी का टुकड़ों-टुकड़ों में जिस तरह से इस्तेमाल मुक्तिबोध ने किया है और पूरी कविता को वैचारिक प्रतिबद्धता से दबने भी नहीं दिया तो यह एक तरह का मॉडल हो सकती है। 'इतिहास के जर्राहों से' को गिरिजा कुमार माथुर ने जिस तरह से तर्क एवं त्वरा के सहारे खड़ा किया है, वह भी एक माडल हो सकती है। 'प्रमथ्यु गाथा' को कई विद्वान लंबी कविता के रूप में देखते हैं, जबकि वह एक नाटिका के रूप के अधिक ग़रीब है। उसे लंबी कविता माना ही नहीं जाना चाहिए। लंबी कविता कि पहचान भी 'नेति-नेति' की प्रक्रिया से होनी चाहिए। 'सरोज स्मृति' को शोक गीत की कोटि में रखना ठीक है, जबकि 'प्रमथ्यु गाथा' को काव्य नाटक की कोटि में। इसी तरह से अनेक तरह की काव्य-शृंखलाएँ हिन्दी में आई हैं और कतिपय विद्वान उन्हें लंबी कविता कहने लगे हैं, जबकि वे लंबी कविता के रचना-विधान में अँटती नहीं हैं। मिसाल के तौर पर केदारनाथ सिंह की कविता 'बाघ' को एक लंबी कविता के रूप में सामने लाया गया है, जबकि 'बाघ' लंबी कविता न होकर काव्य-शृंखला ही है। स्वयं कवि ने भी उसे काव्य-शृंखला के रूप में ही कंसीव किया है। सुमन राजे की कविता 'उसके उन्नीसवें जन्म-दिन पर' भी लंबी कविता नहीं ठहरती। उसकी प्रकृति प्रगीत के निकट है। लंबी कविता का एक गुण अनेक भाव दर्शाना है या एक ही भाव दशा को कई-कई रूपों में बाँधने की क्षमता को भी, जबकि सुमन राजे की इस कविता कि भाव-दशा इकहरी और क्षणिक ही है। यह कविता न तो कवयित्री के अंतस् में फैलती है और न ही अपने परिवेश में।

'लुकमान अली' तथा 'मुक्ति प्रसंग' विभिन्न मनोदशाओं की उपज हैं। अपने-अपने रचना-विन्‍यास में यह अलग भी हैं और अपनी फ्लाइट और फैंटेसी के कारण कहीं एक-दूसरे के क़रीब भी आ जाती हैं। यह दोनों कविताएँ एक माडल पेश करती हैं। 'संवादगाथा' पत्र शैली में लिखी हुई होने के काण तथा एक कवि की संवेदना दूसरे कवि की संवदना को ध्वनित करने की क्षमता के कारण अलग तरह की लंबी कविता है।

अनेक ऐसी लंबी कविताएँ हैं, जिनकी चर्चा यहाँ नहीं हुई है, लेकिन वे तमाम लंबी कविताएँ लंबी कविता के प्रतिमान रचने में मदद कर सकती हैं। कुछ समान धर्म, समान व्यवहार, समान योजना तथा समान विन्यास उन्हें एक पाले में ला सकता है। जिन कविताओं की चर्चा इस आलेख में अलग से की गई है, वह एक भेदक दृष्टि के उपस्थापन के लिए ही हैं।