लंबे गाउन की छोटी-सी कहानी / जयप्रकाश चौकसे

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लंबे गाउन की छोटी-सी कहानी
प्रकाशन तिथि :04 मई 2017


सर रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' के एक दृश्य में गांधीजी नदी के तट पर देखते हैं कि किस तरह एक गरीब स्त्री अपनी पहनी हुई साड़ी को ही धोकर पुन: उसे पहन रही है, क्योंकि उसके पास यही एकमात्र वस्त्र है। उसी क्षण वे एक ही धोती से अपना तन ढंकने का निर्णय लेते हैं। यह न्यूनतम के सहारे जीवन जीने का आदर्श है। अनावश्यकताओं को तिलांजलि देने का निर्णय इस तरह किया गया। दरअसल, यह असमानता को मिटाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। हाल ही में जानकारी मिली कि अमेरिका में आयोजित समारोह में प्रियंका चोपड़ा के लंबे गाउन को बहुत पसंद किया गया। इस तरह के गाउन को प्राय: विवाह की रस्म के समय पहना जाता है। दुल्हन की सहेलियां पोशाक को संभाले रहती हैं। इसके पुछल्ले से फर्श पर पोंछा भी लग सकता है।

उत्सव के पोशाक की रचना उस समय हुई, जब ब्रिटिश साम्राज्य पर कभी सूर्यास्त नहीं होता था गोयाकि उनके अधीन देशों की संख्या इतनी अधिक थी कि हर समय किसी न किसी अधीन देश में दिन का समय होता था। अधीन देशों के लोग परिश्रम करते, जिससे उत्पन्न मुनाफा इंग्लैंड जाता था। उनके साम्राज्यवाद का वह सुनहरा दौर था। इस तरह से यह पोशाक और उसकी अनावश्यक लंबाई साम्राज्यवाद का प्रतीक भी बन जाती है। समय का चक्र ऐसे घूमा है कि किसी समय उनके अधीन रहे भारत की एक सुंदरी को अपने लंबे गाउन के लिए सराहा जा रहा है और नियति का व्यंग्य देखिए कि यह समारोह साधनहीन लोगों की सहायता के लिए रचा गया था। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ऊपर बैठे ठहाका लगा रहे होंगे। अारके लक्ष्मण की उंगलियां तड़प रही होंगी कार्टून बनाने के लिए। हमने व्यंग्यकारों के लिए स्वर्ण-युग रच दिया है। विसंगतियों और विरोधाभास का यह कालखंड व्यंग्य रचना के लिए महान अवसर है और इसके प्रतीक सत्तासीन लोगों को इसके लिए सलाम करना चाहिए।

एक आदिवासी क्षेत्र की कन्या कुछ समय शहर में बिताकर वापस लौटी तो वह ब्लाउज पहने हुए थी। पूरा गांव ब्लाउज देखने के लिए एकत्रित हो गया। कुछ की तो आंखें ही फटी रह गई, मुंह खुला का खुला रह गया। ब्लाउज पहनी कन्या लजा गई। साधन पर शर्मिंदगी रचना कोई साधारण काम नहीं है। साधनहीनता का उत्सव मनाती यह व्यवस्था कितनी मजबूत हो चुकी है कि इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। साधनहीन का शोषण कितने स्तर पर कैसे-कैसे होता है, इसका उदाहरण यह है कि मुंबई के कलाकार जेपी सिंघल ने आदिवासी कन्याअों की पेंटिंग्स और छायाचित्र बेचकर ढेरों धन कमा लिया। कला के नाम पर नारी शरीर के चित्र खूब बिके, क्योंकि लम्पटता की बुझी हुई सिगड़ी में राख के ढेर के नीचे भी कुछ दहकते कोयले मिल ही जाते हैं। अवचेतन की कंदरा के रहस्य अबूझ होते हैं। बस्तर में एक जगह का नाम ही अबूझमाड़ है।

बस्तर में एक क्षेत्र के सारे आदिवासी गोरे चिट्‌टे रंग के हैं और सरकार इस प्रजाति को नष्ट नहीं होने देना चाहती, इसलिए पूरे क्षेत्र के चारों ओर कटीले तार लगा दिए गए हैं। उन आदिवासियों को सभ्यता से केवल नमक की ही आवश्यकता पड़ती है। कंटीले तारों के भीतर नमक की थैली रख दी जाती है, जिसे रात में आदिवासी उठा लेते हैं परंतु वे नमक के बदले शहद और जड़ी-बूटियां छोड़ जाते हैं। यह उनके आत्मसम्मान का प्रतीक है कि वे मुफ्त कुछ नहीं चाहते। मुफ्तखोरी को सभ्यता और लालच ने जन्म दिया है। कितने ही लोग सारा जीवन बिना परिश्रम किए बिना कोई कार्य किए मजे में गुजार लेते हैं।

आणविक युद्ध के पश्चात दुनिया का क्या हाल होगा- इस आकल्पन की एक फिल्म बनी थी, जिसका नाम था 'द डे ऑफ्टर' और उसके अंतिम दृश्य में दिखाया गया था कि केवल तिलचट्‌टे ही बचे रहेंगे, क्योंकि उनके शरीर में रक्त नहीं केवल मवाद ही होता है,जिस पर आणविक विकेंद्रीकरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्या सारी जद्‌दोजहद इस मवाद के लिए ही हो रही है? क्या 'रक्तहीन क्रांति' का यही अर्थ रह गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि तर्कहीनता के उत्सव के रूप में गढ़ी गई फिल्म इस समय आय के नए कीर्तिमान रच रही है। तर्कहीनता ने अपना झीना वस्त्र भी उतार फेंका है और उसका नृत्य जारी है। समय आ गया है कि हम कबीर को उनकी उलटबासी की तरह ही बांचें, 'घूंघट के पट खोल तोको पीव मिलेंगे। सच वचन बोल कि तोह पीव मिलेंगे।'