लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा... / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 अक्तूबर 2019
मनोरंजन उद्योग का मेरुदंड है अधिकतम की पसंद और गणतंत्र व्यवस्था का भी यही आधार है। विरोधाभास है कि भारत में प्रदर्शित सफलतम फिल्म को भी मात्र 5 करोड़ लोग ही सिनेमाघर में देखते हैं। टेलीविजन पर प्रसारित फिल्म के दर्शक अधिक हैं। एकल सिनेमाघरों की संख्या तेजी से घट रही है और मल्टीप्लेक्स में मात्र 30% दर्शक आते हैं अर्थात 200 सीट के मल्टीस्क्रीन में देखने वालों की संख्या 60 से अधिक नहीं होती। वीकेंड में शो फुल रहते हैं परंतु अन्य दिनों में संख्या न्यूनतम रहती है। मल्टीप्लेक्स का आर्थिक आधार उसका फूड कोर्ट है। जहां 10 रुपए की वस्तु 60 रुपए में बेची जाती है। मीडिया में 100 करोड़ क्लब का छलावा रचा गया है, क्योंकि इस धन में सिनेमाघर का किराया, जीएसटी और अन्य टैक्स भी शामिल हैं। फिल्म उद्योग की संपन्नता एक मिथ है। आधा दर्जन सितारे खूब कमाते हैं परंतु चरित्र भूमिकाएं अभिनीत करने वाले कम धन पाते हैं और भीड़ के दृश्य में भाग लेने वाले बहुत ही कम धन पाते हैं। उनके मेहंताने का कुछ प्रतिशत धन उनके संगठन को जाता है। यही हाल ग्रुप डांसर्स का भी है।
एक नेता ने अपना निराधार बयान वापस लिया है कि 100 करोड़ कमाने वाली फिल्मों के होते हुए आर्थिक मंदी की बात करना कोई मायने नहीं रखता। हर बयान तो वापस भी नहीं लिया जाता। एक जमाने में टूरिंग टॉकीज गांव और कस्बों के मेले तमाशों में फिल्में प्रदर्शित करते थे। ज्ञात हुआ कि राजस्थान में एक दल ने टूरिंग टाॅकीज पुनः सक्रिय की है। दरअसल सेटेलाइट द्वारा फिल्म प्रदर्शन के कारण टूरिंग टाॅकीज चलाना कठिन है, परंतु पेन ड्राइव द्वारा किया जा सकता है। धर्म प्रधान भारत में मेले तमाशों की संख्या बढ़ गई है, परंतु टूरिंग टॉकीज व्यवस्था पूरी तरह विकसित नहीं हुई है। सबसे कम सिनेमाघर सबसे अधिक जनसंख्या वाले प्रांतों में मौजूद हैं। सिनेमा लाइसेंस इनके बाबा आदम के जमाने के पुरातन नियमों में समय अनुसार परिवर्तन नहीं किए गए हैं। सिने उद्योग के संगठन समय-समय पर प्रार्थना पत्र भेजते हैं जो अफसर की रद्दी की टोकरी में दम तोड़ते हैं या किसी फाइल के ताबूत में जिंदा दफन कर दिए जाते हैं। टेलीविजन पर प्रस्तुत अधिकांश कार्यक्रम के फॉर्मेट विदेश से आयात किए गए हैं और उन्हें रॉयल्टी भेजी जा रही है। हमने अपना कोई फॉर्मेट इजाद नहीं किया है। मौलिकता के प्रति हमारा कोई आग्रह नहीं है। मनोहर श्याम जोशी को दूरदर्शन ने सोप ओपेरा के अध्ययन के लिए विदेश भेजा था। जोशी जी ने 'हम लोग' और 'बुनियाद' लिखकर सोप ओपेरा को भारतीय मनोरंजन जगत में स्थापित कर दिया परंतु वर्तमान में जादू टोना, सर्पकथा इत्यादि फूहड़ता से यह क्षेत्र पटा पड़ा है। इस विधा को सोप ओपेरा कहा जाता है क्योंकि दोपहर में प्रसारित कार्यक्रम गृहणियां देखती हैं और प्रायोजक साबुन बनाने वाली कंपनियां रही हैं।
बच्चे धरती पर लट्टू घुमाते हैं। चतुर बालक घूमते हुए लट्टू को अपनी हथेली पर उठा लेते हैं। हमारा देश भी लट्टू की तरह किसी एक हथेली पर घूम रहा है और यही विकास कहला रहा है। अधिकतम अवाम ने इसे स्वीकार कर लिया है और वे संतुष्ट हैं। अतः शिकायत का कोई अर्थ नहीं है। अगर अवाम को गुदेली हथेली पसंद है तो वह गलत नहीं हो सकता। वर्तमान में शिकायत करने वाले उन जलकुकड़ी ननदों की तरह हैं जो नई नवेली बहू के परिधान और जेवर देख कर कुढ़ रही हैं। विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता में किया गया विवरण ही हमारा यथार्थ है कि...घोंघे धरती पर रेंग रहे हैं, परिंदे आकाश में उड़ रहे हैं, सब कुछ सुखद और सामान्य है। किसी दौर में शेखर कपूर पश्चिम में बनी 'टाइम मशीन' फिल्म का भारतीय संस्करण बनाना चाहते थे। कदाचित वर्तमान टाइम मशीन पर सवार गुजश्ता सदियों में विचरण कर रहा है। याद आती है दुष्यंत कुमार की गजल- 'कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए, कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। न हो कमीज तो पैरों से पेट ढक लेंगे, कितने मुनासिब हैं यह लोग जम्हूरियत के सफर के लिए।' आज हमारे पास गणतंत्र एक अनूठा मॉडल है और इसी का निर्यात हम कर सकते हैं। बच्चों के खेलने के लिए एक रॉकिंग हॉर्स होता था और इस पर सवार बालक एक ही जगह रहते हुए भी गति के भरम का आनंद लेता था। रॉकिंग हॉर्स नामक एक मार्मिक कथा का सारांश यह है कि परिवार का नन्हा शिशु रॉकिंग हॉर्स की सवारी करते हुए रेसकोर्स में दौड़ने वाले घोड़े का नंबर बोलता है। उसके पिता रेसकोर्स में उसी नंबर के घोड़े पर दांव लगाकर धन कमाते हैं। एक बहुत अधिक धन की डर्बी रेस होने वाली है और पिता शिशु से आग्रह करता है कि वह काट के घोड़े की सवारी करके जीतने वाले घोड़े का नंबर उसे बताएं। बच्चा निरंतर लकड़ी के घोड़े की सवारी करता है पर उसे विजेता के नंबर का आभास नहीं होता। पिता की जिद है कि वह रॉकिंग हॉर्स की सवारी करता रहे। भूखा प्यासा बच्चा घंटों यह काम करता हुआ लुढककर मर जाता है। अनर्जित धन की कामना अनर्थ करती है। सत्ताधारियों को यह कथा पढ़नी चाहिए।