लकवा / शोभना 'श्याम'

Gadya Kosh से
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रीमा भौचक्की-सी रिक्शा में बैठी थी। आँखे देख तो सामने रहीं थी, लेकिन उन्हें दिखाई कुछ और ही दे रहा था।

शहर के सबसे व्यस्त बाजारों में से एक की एक गली में है उसका घर। गली से बाहर आते ही एक अजीब-सा कोलाहल घेर लेता है। वाहनों का और इंसानों का शोर, साईकिल रिक्शाओं की घंटियाँ, जिनकी रिक्शा में घंटियाँ नहीं, उनकी: हटना बाऊ जी, हटना भैंजी, ओ बच्चे! बचके भाई आदि-आदि की मोटी, भारी, खुरदुरी हर तरह की आवाजें, रेहड़ी वालो की पुकारें। कितनी भी बड़ी दुकान हो जब तक सड़क का दो-चार फुट हिस्सा कब्जिया कर सामान न रखा जाये तब तक दुकानदार को अपना सामान बिकने का भरोसा नहीं होता। आखिर हदों में रह जाये वह हिंदुस्तानी कहाँ! ऊपर से आधी सड़क घेर कर दुकानों के लिए समान उतारते टेम्पो और ठेले रस्ते को भी संकरा और दुर्गम कर देते हैं। ऐसे में ट्रैफिक जाम का अनवरत सिलसिला चलता ही रहता है। साथ ही जाम में अटके ऑटो, कारों आदि का हॉर्न बजा-बजा कर सारे बाज़ार को सर पर उठा लेना भी। वह उधर किसी रिक्शा कि बीच सड़क पर चेन उतर गयी, पीछे अटकी कार को चलाते युवक का धैर्य अब जवाब दे गया सो कार से उतर कर-"अबे यहीं चढ़ाएगा चेन! स्साले साइड कल्ले।" हालाँकि पता उसे भी है कि साइड में जगह हो तो साइड करे न। अभिप्राय यह कि भीड़ और शोर यही इस बाज़ार का चरित्र है। रीमा को न भीड़ दिख रही है, न उसके कान में ये शोर जा रहा है। उसके अंदर का शोर इतना ज़्यादा हो गया है कि बाहर का शोर बेमानी हो रहा है।

अंदर के शोर में सबसे ऊँची आवाज सात वर्ष पहले उसके पति रवीश की थी जो जाने कैसे घर की सीधी खड़ी सीढ़ियों से उतरते पहली सीढ़ी से सीधे नीचे आ गिरा था। उस समय दर्द के कारण उनके मुँह से निकली चीख रीमा के भविष्य की चीख में बदल जाएगी, यह कहाँ सोच पायी थी तब। चोट किसी के भी अंदाज़े से ज़्यादा निकली थी। सर के एक हिस्से में अंदरूनी चोट लगने से रवीश के दायीं ओर के शरीर को लकवा मार गया था।

दो बच्चों, पति पत्नी और माँ सहित पांच सदस्यों वाली यह मध्यमवर्गीय गृहस्थी जो अब तक ठीक-ठाक ही चल रही थी, अचानक घुटनों पर आ गयी। ऐसे में रीमा कि बी.कॉम की डिग्री काम आयी। उसे एक कम्पनी में अकाउंटेंट की नौकरी तो मिल गयी, लेकिन डिग्री और अब तक के बीच सात वर्ष के गैप के कारण उसे कम तनख्वाह पर संतोष करना पड़ा। रवीश की माँ ने कुछ हद तक घर और बच्चों को संभाला लेकिन असल समस्या रवीश की देखभाल की थी। उसके कामों के लिए-लिए दिन भर के लिए एक लड़का रखना पड़ा। पूरा दिन उसे रखने की हैसियत न होने के कारण सिर्फ़ रीमा के ऑफिस टाइम के लिए ही रखा गया और इतवार की छुट्टी। हैसियत तो इतने की भी नहीं थी मगर ये तो मजबूरी थी। सुबह घर के ज़्यादा से ज़्यादा काम निपटा, रवीश को नित्य कर्मों से फारिग करवा उसे नाश्ता खिला कर पाँच वर्षीय बेटी और तीन वर्षीय बेटे को तैयार कर स्कूल छोड़ते हुए अपने ऑफिस जाना और फिर आते ही रवीश की देखभाल और अन्य काम में जुट जाना यही मशीन-सी ज़िन्दगी मिली रीमा को। कहने को तो रात के बारह बजे से सुबह पांच बजे तक का समय उसे भी सोने और शरीर को कुछ आराम देने को मिला हुआ था लेकिन वही जानती थी कि इस बीच भी कभी बेटे को तो कभी उसके पिता को कॉल ऑफ़ नेचर के लिए उसकी ज़रूरत पड़ती ही थी। इस सब के ऊपर समय-असमय मरीज को देखने आने वाले रिश्तेदार जो कुछ करा तो नहीं सकते मगर अक्सर एक कप चाय की उम्मीद ज़रूर रखते थे। इसमें तो कोई शक है ही नहीं कि हमारे देश में बीमार से ज़्यादा काम उसे देखने आने वालों का हो जाता है। रीमा ये सब कुछ नितांत धैर्य से किये जा रही थी।

इस काले बादल की एक ही सुनहरी लाइनिंग थी, डॉक्टर्स का कहना था कि रवीश उन तीन से पाँच प्रतिशत लकी मरीजों में से है जो पक्षाघात होने पर चार घंटे के विंडो पीरियड में ही अस्पताल पहुँचा दिए गए, जिससे मस्तिष्क को परमानेंट क्षति नहीं पहुँचने पाई थी। डॉक्टर्स ने रीमा कि प्रशंसा करते हुए ये भी कहा था कि पक्षाघात में टाइम ही ब्रेन है। यानी पहले चार घंटे में जो डाक्टरी सहायता और इजेक्शन मिलते हैं, उसी पर पूरी तरह ठीक होने का दारोमदार रहता है। हमारे देश में बहुत सारे मरीज समय से अस्पताल नहीं पहुँच पाने के कारण ठीक होने की संभावना खो देते हैं, फिर उनके घरवाले सरकार और डॉक्टरों को कोसते हैं। रवीश को क्योंकि दो घंटे के अंदर ही अस्पताल ले जाया गया था इसलिए रवीश के पूरी तरह ठीक होने की संभावना काफी ज़्यादा थी। इसके लिए स्वयं रवीश सहित सभी रिश्तेदार रीमा कि प्रशंसा करते थे क्योंकि उसी ने अस्पताल ले जाने की जल्दबाजी दिखाई थी। जबकि रवीश की माँ तथा अन्य पास पड़ोस वाले तो हल्दी का दूध देकर सुलाने के पक्ष में थे लेकिन रीमा ने बचपन में अपनी एक चाची की समय पर अस्पताल न ले जाने से ब्रेन हेमरेज से मृत्यु देखी थी अतः उसके मन में डर की एक ग्रंथि बन गयी थी। इसी ग्रंथि ने उस दिन रवीश को बचा लिया था। डॉक्टरों की दी हुई उम्मीद की इसी डोर पर वह दिन भर की थकान को टाँग कर बच्चों के साथ ही अपने सारे सपनों को थपकी देकर सुला देती थी। लेकिन इंतज़ार के दिन सुरसा के मुँह से बढ़ते गए।

पहले तीन महीने तो ठीक होने की रफ्तार काफी अच्छी थी। रवीश की बोली काफी हद तक समझ में आने लायक हो चुकी थी। वह बिस्तर पर तकिये के सहारे बैठने तथा दो लोगों के सहारे से येन केन प्रकारेण कमरे में बने बाथरूम तक जाने लगा था। लेकिन इसके बाद के तीन महीनों में बस मामूली सुधार हुआ इतना कि अब उसे बाथरूम जाने के लिए दो नहीं एक ही सहारे की ज़रूरत पड़ती थी और अब बिस्तर पर स्पंज के बजाय बाथरूम में नहलाना मुमकिन हो गया था।

छह महीने बाद सुधार की रफ्तार जैसे थम गयी। आगे प्रत्यक्ष सुधार दिखाई न देने के कारण रवीश के मन में हताशा और अवसाद घर करने लगे। वह पहले तो "अब कोई फायदा" नहीं कहकर अपनी फिजियोथेरेपी के लिए नानुकर करने लगा फिर दवाइयाँ बंद करने पर उतर आया। डॉक्टर के काफी समझाने कि बेशक रिकवरी प्रत्यक्ष नहीं दिख रही है, लेकिन अंदर-अंदर सतत चल रही है, इसलिए दवाइयाँ और फ़िज़िओ बंद न करे; के बावजूद रवीश दवाइयों और फ़िज़िओ के लिए इतना झिका देता कि घर में तो सब परेशान थे ही, फिजियोथेरेपिस्ट भी परेशान होकर छोड़ देते। रीमा फिर ढूँढकर किसी नए थेरेपिस्ट को लाती और फिर वही सब होता। इसी तरह तीन बरस बीत गए।

अब अचानक सास की उम्र भी उसके पीछे से घर और स्कूल से आये बच्चों को संभालने में असमर्थता जतलाने लगी सो वह शरीर को पहले-सा आराम देने की गरज से अपने दूसरे बेटे के घर चली गयी। रीमा बस हैरान होकर रह गयी कि एक माँ ऐसा कैसे कर सकती है। उनका जो थोड़ा बहुत सहारा था, वह भी अब खत्म हो गया। काम से भी ज़्यादा समस्या थी, बच्चों को स्कूल बस से लाने की और उन्हें खाना खिलाकर ट्यूशन भेजने की। रवीश का सुझाव था कि उसका अटेंडेंट बच्चो को ले आएगा लेकिन रीमा को आठ वर्ष की बेटी के लिए ये जोखिम प्रतीत हुआ। फिर ले भी आये तो खाना देना, ट्यूशन भेजना, ये सब कैसे होता? हार कर रीमा को एक रास्ता बच्चों के स्कूल में अध्यापन का ही नज़र आया क्योंकि इससे बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने और लाने का झंझट खत्म हो जाता। बी एड न होते हुए भी उसकी परिस्थितियों पर तरस खाकर स्कूल ने नौकरी तो दे दी मगर तनख्वाह और भी कम हो गयी।

सबसे पहले तो अटेंडेंट का समय और कम कर दिया गया क्योकि ऑफिस जहाँ नौ घंटे का था वहीँ स्कूल सात घंटे का। जब खर्चों में कटौती का थोड़ा-सा असर रवीश के लिए आने वाले फलों आदि पर पड़ा तो वह तिलमिला उठा। एक तो बीमारी ने उसे चिड़चिड़ा बना दिया था। ऊपर से एक हीन-ग्रंथि भी पलने लगी। उसे लगता था, रीमा अब उससे परेशान हो चुकी है, वह उसे बोझ समझने लगी है। इस कारण अब उसका व्यवहार रीमा के प्रति बहुत खराब हो गया। बात-बात पर ताने, छोटी-छोटी चीजों पर क्लेश करना, उसके काम में ज़रा देर होते ही खरी-खोटी सुनाने लगना: इन सब ने रमा का जीवन नर्क बना दिया। बढ़ती महँग़ाई और बढ़ते बच्चों की बढ़ती ज़रूरतें, ऊपर से रविश का महंगा इलाज, इस सब के निर्वाह के लिए स्कूल के बाद रीमा ने घर में ही ग्यारवीं, बारहवीं क्लास की एकाउंट्स की ट्यूशन लेना शुरू कर दिया। उसके आराम की कीमत पर पैसों का अभाव थोड़ा कम हुआ मगर रवीश इंसानियत इस कदर खो बैठा था कि वह ट्यूशन पढ़ने आये बच्चों के सामने ही चीखता-चिल्लाता रीमा का अपमान करने लगा। उसके बच्चे भी उसके क्रूर व्यवहार से नहीं बच सके। वह बिन बात उन पर भी बरस पड़ता। तो कभी पानी पिलाने आयी बेटी के थप्पड़ तक जड़ देता। उस छोटी-सी बच्ची का सारा बचपन पिता को बिस्तर पर देखते बीता था। अब पिता का यह व्यवहार आँसू बनकर उस की आँखों से बहने लगता। वह रीमा कि गोद में छिपकर रोने के सिवा और कुछ भी नहीं कर सकती थी। बच्ची के आँसू देख रीमा का कलेजा मुँह को आ जाता था। रीमा ने कई बार कोशिश की, रवीश की गलतफहमी दूर करने की। लेकिन वह जितना विनम्र होती गयी, रवीश उतना ही उग्र होता गया। एक तरफ घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारी और दूसरी तरफ रवीश का असहनीय व्यवहार, रीमा चक्की के दो पाटों के बीच पिस रही थी। बस एक ही आशा उसके लिए टॉनिक का काम करती थी कि रवीश किसी दिन ठीक होकर फिर से काम करने लगेगा।

कई बार ऐसा लगता कि उसकी तपस्या सफल हो रही है, रवीश में ठीक होने के कुछ चिह्न दिखाई भी देते, रीता सारी तकलीफें भूल कर दुगुने उत्साह से उसकी देखभाल में जुट जाती लेकिन फिर होता वही ' ढाक के तीन पात। रवीश को बिस्तर पर पड़े चार वर्ष हो चुके थे। रीमा न जाने कितने मंदिरों में, मजारों पर मन्नत मांग चुकी थी पर सबने जैसे उसकी पुकार न सुनने की कसम खा ली थी।

संयोग से एक दिन उनके एक दूर के रिश्तेदार शादी का कार्ड देने आये। उन्होंने रवीश की हालत देखी और शहर के बाहर एक रिहेबिलिटेशन सेंटर के बारे में बताया जिसके बारे में सुना था कि वहाँ आए अस्सी प्रतिशत लकवे के मरीज़ ठीक हो जाते हैं। रीमा तुरंत वहाँ पहुँच कर उसे चलाने वाले डॉक्टर से मिली। हालाँकि डॉक्टर आशीष अपने सेंटर में ही मरीज़ों का इलाज किया करता था मगर जब रीमा अपनी परिस्थितिओं और रवीश की मनस्थिति के बारे में बताते-बताते रो पड़ी तो वह हफ्ते में तीन दिन शाम को घर आकर इलाज करने के लिए तैयार हो गया।

डॉक्टर आशीष आयुर्वेद से लकवे का इलाज करता था। पहले तो उसने सबको बैठा कर ये समझाया कि छह महीने बाद न्यूरोप्लास्टिसिटी की प्रक्रिया रुकने से सिर्फ़ प्रत्यक्ष रिकवरी ही रुकी थी। लेकिन अंदर धीमी रिकवरी चल रही थी। उन्होंने फिजिओथेरेपी और एक्सरसाइज़ बंद करके ग़लत किया। शरीर का जो भाग निष्क्रिय है वह खराब नहीं हुआ है बल्कि दिमाग का वह हिस्सा क्षतिग्रस्त हुआ था जो उसे कंट्रोल करता है। इसलिए अब दिमाग को अभ्यास के द्वारा सब कुछ नए सिरे से सिखाना होगा और इसके लिए सतत प्रयास ज़रूरी है। इनको सब कुछ ऐसे ही सीखना होगा जैसे एक शिशु सीखते हुए बड़ा होता है। उसने बताया कि एलोपैथिक में दिमाग के लिए कोई खास दवाई नहीं है। जो दवाइयाँ उन्हें दी जा रही है वह ब्लड प्रेशर, शुगर और कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करने वाली और आवश्यक विटामिन और मिनरल ही हैं, जिससे दुबारा स्ट्रोक न हो। दिमाग के लिए तो उन्हें उन अंगों से काम लेने की ज़रूरत है। जैसे एक बच्चा चीजों को पकड़ने की कोशिश करता है, बार-बार गिरता है मगर चलने की कोशिश नहीं छोड़ता। इसी तरह उन्हें भी लकवाग्रस्त पैर से ही चलने की और लकवाग्रस्त बाजु से ही काम करने की कोशिश करनी होगी। जैसे परिवार में अगर आपका काम कोई और संभाल ले तो आप बेफिक्र हो जाते हैं इसी प्रकार यदि आप अपने दूसरे हाथ और पैर से काम लेंगे तो दिमाग का जो हिस्सा क्षति ग्रस्त है वह और भी लापरवाह हो जायेगा। अतः उसी से काम लीजिये। हाँ नई कोशिकाओं के विकास के लिए आपको प्रोटीन, पोटाशियम और मैग्नीशियम आदि ज़्यादा मात्रा में लेना होगा। उसने जबरदस्ती उन्हें एक्सरसाइज़, सैर आदि करानी शुरू की।

डॉक्टर्स द्वारा पहले बताई गयी डाइट के उलट उसने संतरे, अंगूर जैसे सभी फल, छाछ, पनीर आदि जिनमे जरा-सी भी खटास हो वह सब लेने को मना कर दिया कि उसकी आयुर्वेदिक दवाई के साथ कोई भी खट्टी चीज नहीं खाई जा सकती। साथ ही ऐसे आहार जिनसे वजन घटता हो वह भी बंद कर दिए। अधिक नमक, मीठा तथा मिर्च मसाले पर भी रोक लगा दी। रवीश ने इस पर भी रीमा के साथ कलेश किया कि ज़रूर उसने अपना खर्चा बचने के लिए डॉक्टर से ये मना करने को कहा है। भला कोई डॉक्टर ताकत की चीजें लेने को कैसे मना कर सकता है। और वह मरीजों का खाना कब तक खाता रहे। इस बात से आहत हो रीमा ने उसका साथ देने के लिए वही खाना-खाना शुरू कर दिया।

कुछ दिनों बाद डॉ आशीष बच्चों को एल्फाबेट सिखाने वाली कर्सिव राइटिंग की किताब ले आया कि आपको अपने लकवाग्रस्त हाथ से ये लिखने का अभ्यास करना है। इस पर रवीश बुरी तरह भड़क गया कि वह क्या छोटा बच्चा है। वह चलने और अन्य एक्सरसाइज़ के लिए भी दर्द का बहाना बना आनाकानी करने लगा। डॉ आशीष अब तक नरम रवैया अपनाये हुए था, अब वह सख्ती से पेश आने लगा। इधर रीमा ने शाकाहारी होते हुए भी रवीश को आशीष की सलाह पर अंडा और मछली आदि बना कर खिलाये। साथ ही उसके बताये अनुसार अदरक, लहसुन, काली मिर्च आदि का सूप और अन्य काढ़े बना-बना कर पिलाये। दोनों की साझी मेहनत रंग लाने लगी थी रवीश की हालत में तेजी से सुधार होने लगा। रवीश ने अपने लिए व्हील चेयर मांगी लेकिन आशीष ने वह मना कर उसके लिए एक बैसाखी मंगवाई कि आपको एक बैसाखी के सहारे से ही चलना है।

जब पहली बार रवीश बैसाखी के सहारे चलकर घर के आंगन तक आया तो रीमा कि आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गए। उसने तुरंत जाकर हनुमान जी का भोग लगा कर डॉ आशीष समेत सबको प्रसाद दिया। छह महीने गुजरते रवीश बैसाखी के सहारे से गुसलखाने, रसोई, बालकनी तक जाने लगा था। अब वह डॉ आशीष की हिदायत के अनुसार आंगन में रोज बीस पच्चीस चक्कर भी लगाने लगा। एक आध बार उसने स्वयं पानी लेकर भी पिया। उसने कई बार अपने दाएँ हाथ की मुट्ठी से चम्मच पकड़कर खाने की भी कोशिश की। जिस दिन भी वह कोई नया काम करता, रीमा जाकर भगवान को प्रसाद चढ़ाती।

लेकिन नियति को रीमा कि ये ख़ुशी मंजूर नहीं थी। एक दिन आंगन में पड़े एक खिलौने पर पैर पड़ जाने से जो वह गिरा तो फिर बिस्तर से लग गया। डॉ आशीष ने बहुत समझाया कि उसकी हालत में जो सुधार आया है वह अभी भी वैसे ही है, वह फिर से चल सकता है लेकिन रवीश ने तो जैसे न चलने की जिद ही पकड़ ली थी।

यही नहीं उसने रीमा और आशीष पर संदेह करना शुरू कर दिया और एक दिन ग़लत लांछन लगा कर, आशीष को उसके घर आने से मना कर दिया। रीमा कि ज़िन्दगी में फैलते उजाले को फिर से बेबसी के अंधेरों ने निगल लिया। कितना बड़ा मजाक था। जैसे किसी ने खाना परोसकर फिर थाली सामने से उठा ली हो वैसा ही कुछ हुआ था रीमा के साथ। रवीश के रिश्तेदारों, मित्रो सबने उसे समझाने की कोशिश की लेकिन रवीश ने फिर से बैसाखी के सहारे चलने की हिम्मत ही नहीं की। हाँ वह उलटे हाथ से खाना बेशक खाने लगा। लेकिन नहाने और ब्रश आदि कराने का काम रीमा से ही करवाता रहा। रीमा अपनी किस्मत को दोष देते फिर से उसे ठीक करने के प्रयत्नों में जुट गयी। लगातार दिन रात जागने और मेहनत करने से अब उसका स्वास्थ्य भी खराब होने लगा था मगर उसे इसकी परवाह नहीं थी। बस दो ही लक्ष्य थे उसके जीवन में, एक रवीश को ठीक करने का और दूसरा बच्चों को अच्छी तरह पाल पोस कर बड़ा करने का।

आज सुबह हलके बुखार में भी रीमा स्कूल चली गयी थी ताकि ज़्यादा से ज़्यादा छुट्टियाँ कैश हो सकें, लेकिन थोड़ी ही देर बाद उसकी तबीयत ज़्यादा खराब होते देखकर उसके सह कर्मियों ने उसे छुट्टी लेकर घर जाने को मजबूर कर दिया। लेकिन घर से ठीक पहले बाज़ार से गुजरते हुए... जैसे पिछले आठ साल उस पर हँस रहे थे उन बरसों के पलछिन एक-एक कर उसकी आँखों में उभरते, उसे चिढ़ाते और विलीन हो जाते। रीमा का सर चकरा रहा था, दर्द का एक स्याह समंदर उसे लील रहा था, रवीश सामने एक हलवाई की दुकान के आगे एक बैसाखी के सहारे अपने दोनों पैरों पर खड़ा अपने बाएँ हाथ में दौना पकड़े दाएँ हाथ से मुँह में कौर डालता कचौरियों का लुत्फ़ उठा रहा था।

नफ़रत का एक बुलबुला दिल से उठा और दिमाग में जाकर फट गया।

दरवाजे पर खटखटाहट तेज होती जा रही थी।

"रीमा! दरवाजा खोलो रीमा, मैं थक गया हूँ, बाहर खड़े-खड़े, रीमा! प्लीज मुझे एक मौका तो दो! मैं तुम्हें सब बताता हूँ। रीमा, ज्यादा दिन नहीं हुए, मुझे ठीक हुए ...सच कह रहा हूँ...! मैं तुम्हें सरप्राइज़ देता! रीमा! सुनो तो!"

कौन सुनता उसकी? रीमा के अंदर के उस पत्नी वाले हिस्से को लकवा मार चुका था।