लकीर पानी के / राजकमल चौधरी

Gadya Kosh से
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“अच्छा किशन, मैं जाती हूं। कॉफी आदि के लिए धन्यवाद”, शम्पा ने अपने दुबले से कंधों को झटका देते हुए कहा। खड़ी हो गई। किशन ने बहुत ही गुस्से में आकर उसे एक कड़ा पत्र लिखा था। पत्र उसने टेबुल पर ही रहने दिया। उठकर खड़ी हो गई। मुसकराती हुई बोली, “अच्छा किशन मैं जाती हूं। कभी फुरसत मिले, हमारी तरफ आओगे। वैसे... वैसे...”

अपना वाक्य शम्पा ने पूरा नहीं किया। वैसे क्या? वैसे, किशन तो आज एक बार भी शम्पा के घर नहीं गया है। हमेशा वही आती रही है। किशन के कमरे में, कनाटप्लेस के रेस्तराओं में। उस बड़ी दुकान में, जहां किशनलाल सेल्स मैनेजर है। शम्पा चली गई। वह ओडियन सिनेमा-घर में चाय-खाने की कुरसी पर बैठा रहा और शम्पा के बारे में सोचता रहा। उसकी जेब में अभी के फिल्म-शो की दो टिकटें हैं। रविवार की शाम-ऊंचे दर्जे की दो टिकटें। टेबल पर एक पत्र, जो उसने गुस्से में आकर शम्पा को लिखा था। वह चली जा चुकी है। फिल्म शुरू होने में अब कितनी देर है? कौन-सी फिल्म है? ‘ब्लू-हवाई?‘ हवाई द्वीपों की गरमी और ताजगी और नीलेपन के बारे में कोई नमकीन और तेज कहानी!

शम्पा के लिए लिखा गया, किशनलाल का पत्र यों शुरू होता था-तुम इस गलतफहमी में नहीं रहा करो कि तुमसे मिलने-जुलने वाले सारे लोग तुम्हें प्यार और आदर करते हैं। ऐसी बात नहीं है। तुम खूबसूरत तो नहीं, बहुत हद तक एट्रैक्टिव लड़की हो और ऐसे कपड़े पहनना जानती हो, जिससे तुम्हारी सांवली देह के चढ़ाव-उतार हमें दिख सकें। प्यार और आदर और ऐसी कितनी ही अच्छी चीजें तुम्हें मिल सकती थीं, मगर, धुआं-धुआं-सा मौसम, कांच की दीवारें तुम्हारी देह की हर तराश को उजागर करके पेश कर सकें, तुमने अपनी हर अच्छी चीज गंवा दी है...

किशनलाल ने पत्र मोड़कर जेब में रख लिया और मुस्कराया। कितना प्यारा उसने लिखा है। मगर शम्पा को बहुत बुला लगा होगा। इसलिए वह रुकी नहीं, गुस्से में भरकर चली गई। अब वह इन टिकटों का क्या करे? किशन अकेला ‘ब्लू हवाई‘ जाना नहीं चाहता था। फिर? वह बाहर आकर स्कूटर लेना ही चाहता था कि रमेश और मिसेज रमेश पर उसकी नजर पड़ी। वे दोनों बरामदे में फिल्म के पोस्टर देख रहे थे। किशन मुस्कराया। चलो, टिकटों का तो सदुपयोग हो गया।

रमेश टिकटों के पैसे देना चाहता था। मगर किशन इतना अशिष्ट नहीं था। खासकर जब रमेश की पत्नी साथ थी, टिकटों के पैसे वह किस तरह ले सकता था! रमेश उसका दोस्त है। दोनों कभी साथ ही दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे। मगर, पढ़ाई खत्म करने के बाद एक चौराहे पर दोनों अलग हो गए। रमेश ने यूनिवर्सिटी की एक स्मार्ट लड़की से शादी कर ली, और सर्विस कमीशन के रास्ते से एक अच्छी सरकारी नौकरी पर आ गया। किशनलाल ने शादी नहीं की। शुरू में कविताएं लिखकर रेडियो-स्टेशन और पत्रिकाओं के दफ्तरों में आता-जाता रहा, अपने को कम्युनिस्ट पार्टी का हमदर्द समझता रहा, फिर अचानक एक दिन यह सब बंद करके वह लेडीज गार्मेन्ट की एक बड़ी दुकान में नौकर हो गया। शो-काउंटर पर खड़ा किशनलाल। खूबसूरत टाई, टेरीलिन की शर्ट, हल्की-मीठी मुस्कराहटें, पतली-पतली मूंछें और नपी-तुली हुई लेकिन शहर में डूबी हुई बातें। किशनलाल को इस लाइन में तरक्की करते देर नहीं लगी। औरतें बहुत जल्दी उसकी शहद-भरी बातों पर फिसल जाती थीं। खासकर अफसर-क्लास की औरतें।

“भाई, इससे मिलो। यह है यूनिवर्सिटी का मेरा दोस्त किशनलाल। और यह मेरी पत्नी है, बसंतप्रभा। हम हिन्दी डिपार्टमेन्ट में थे। बसंत फिलासफी में थी। तुम तो हमारी शादी पर आए नहीं थे किशन?” - रमेश ने अपनी पत्नी का परिचय देते हुए कहा। किशन बसंतप्रभा को जानता था। किशन उन दिनों यूनिवर्सिटी की हर खूबसूरत लड़की को जानता था। मगर, बसंत भी उसको जानती होगी, इसका उसे जरा भी अंदाजा नहीं था। वह बोली, “मैं तो आपको जानती हंू, किशन साहब! आप सेन्चुरी गार्मेन्टूस में हैं न? मैं ज्यादातर आपकी दुकान से कपड़े खरीदती हूं। आप लोग बड़ी शानदार पोशाक बनाते है। अपनी कितनी ही सहेलियों को आपके यहां मैंने इंट्रोड्यूस किया है। मुझे तो आपसे कमीशन मिलना चाहिए। और, अब तो इनके दोस्त भी निकल आए...” शम्पा के व्यवहार से किशनलाल दुखी मन अचानक बसंतप्रभा की बातों से खुश लगा। बसंत उसे महज साढ़े पांच सौ रूपए पाने वाला सेल्स मैनेजर नहीं समझकर, दुकान का एक मालिक मानती है तो क्या बुरा है! बसंत भी बुरी नहीं है। शादी के बाद और भी निखर गई है। जरा मोटी हो गई है, मगर तंग कपड़ों में इसे छिपा लेना जानती है।

“अच्छा, अब आप लोग अंदर जाइए। फिल्म शुरू होने में देर नहीं है। ... अच्छा भाभी, अब चलता हूं? मेरा एक दोस्त आने वाला था, आया नहीं। उसके घर जाना पड़ेगा....”

“ब्वाय-फ्रेंड है या गर्ल-फ्रेंड? किशन साहब, देखिए, हमारी शादी में नहीं आए, न सही, अपनी शादी में हमें भूल नहीं जाइएगा।” बसंतप्रभा ने कहा और किशन की आंखों में देखती हुई हंसने लगी। रमेश टिकटें हाथ में लिए देख रहा था कि किस क्लास की टिकटें हैं। फिर बोला, “रविवार को हम लोग भी कनॉटप्लेस में ही डिनर लेते हैं। ऐसा करो न, शो टूटने के वक्त इधर चले आओ। साथ ही कहीं बैठकर डिनर ले लेंगे।”

“ठीक है, कोशिश करूंगा” किशनलाल ने कहा और जल्दी-जल्दी उनसे छुटकारा पाकर आगे बढ़ गया। उसे लगा था कि दूसरे पर फुटपाथ पर शम्पा जा रही है। शम्पा नहीं थी, पूरे कनॉटप्लेस में नहीं थी। न लस-बोहीम में, न कॉफी हाउस में, न स्टैंडर्ड में। और कहीं वह जाती नहीं है। रविवार की शाम जम नहीं सकी। शम्पा नाराज होकर चली गई। किसी भी रेस्टरां में जगह नहीं है, जहां बैठकर किशन अपने को अकेला महसूस कर सके। चारों ओर लोगों की भीड़ है। कहीं जा रहे हैं, कहीं से आ रहे हैं। किशन लाल कहां जाए?

उसने गोलार्ड से शम्पा के घर फोन किया। नौकर ने कहा, “बीवी जी कल शाम से नहीं लौटी हैं! आपको मिलें तो तुरंत घर भेज दीजिएगा। बेबी बहुत रोती है।...”

शम्पा की बड़ी बहन नीलिमा अपने किसी नए दोस्त के साथ शिमला गई है और चार साल की अपनी बच्ची शम्पा के पास छोड़ गई है। नए दोस्त को बेबी का पता नहीं चलना चाहिए। जब दोस्ती पक्की हो जाए, भीतरी बातें तब ही बतानी चाहिए। नीलिमा अपने पति से तलाक ले चुकी है। और अब नया पति तलाश कर ले चुकी है। और अब नया पति तलाश कर रही है। शम्पा की तरह क्वांरी जिंदगी बितानी में उसे विश्वास नहीं है। साधारण औरत है, घर-परिवार चाहती है, शांति चाहती है। किशनलाल की इच्छा हुई, वह शम्पा के घर चला जाए और चार साल की बेबी को साथ लेकर वापस कनॉट प्लेस आ जाए। बेबी को कंधे पर बिठाकर कनॉटप्लेस के पूरे गोल दायरे में चक्कर काटता रहे। मैदान में बेबी के पीछे-पीछे दौड़ता रहे। चाकलेट-टाफियां खरीदे। रबड़ का बड़ा-सा फुटबॉल खरीदे। बेबी-सूट खरीदे। मगर रमेश की बीवी बसंतप्रभा ने मुस्कराते हुए कहा था, “देखिए, शो टूटने पर जरूर आइएगा। आप हमारे साथ पिक्चर नहीं चल रहे हैं, यह भारी अपराध आपने किया है। अब हमारे साथ डीनर नहीं लीजिएगा, तो मैं बुरा मान जाऊंगी...”

और यह बात रमेश को बड़ी अच्छी लगी थी। शम्पा चली गई तो क्या है। आदमी को किसी का साथ चाहिए। किसी की मीठी बातें। किसी की मुस्कराहटें। किसी का शरमाकर उदास हो जाना। और क्या चाहिए? किशनलाल यहां-वहां घूमता रहा और ‘ब्लू-हवाई‘ के खत्म होने की प्रतीक्षा करता रहा। प्रतीक्षा का समय कितनी धीमी चाल में बीतता है!


बैंगर्स में डिनरटेबुल पर बैठी हुई बसंतप्रभा जैसे नशे में डूबी हुई निगाहों से किशनलाल की तरफ देखती रही थी। किशन कितने तरीके से छूरी-कांटा उठाता है। किस तरह नैपकिन में हाथ पोंछता है। कितनी सधी हुई भाषा में हल्के-फुल्के मजाक करता है। डिनर खत्म होते-होते उसने कह ही दिया, ‘तुम बहुत ही दिलचस्प शख्स हो, किशन साब!” और, यह कहकर यों ही शरमाने लगी। तीर हाथ से छूट चुका था। किशन समझ रहा था, बसंतप्रभा अपने पति से ऊबी हुई है। ऊब गई है और थोड़ा परिवर्तन चाहती है। रमेश फिल्म देखकर खुश था। कह रहा था, “देखो किशन, मैं तो इन अमेरिकन फिल्मों का कायल हूं। दिल भी बहल जाता है और कई नई बात सोचने-समझने को भी मिल जाती हैं। इसी ब्लू-हवाई में सेक्स की आदिम समस्या को इतनी खूबसूरती से डील किया गया है...”

बसंतप्रभा के मना करने पर भी डीनर का बिल किशनलाल ने ही दिया। रात के दस बज चुके होंगे। एक टैक्सी ली गई। किशन पूसा रोड के एक फ्लैट में रहता है और रमेश भी आगे ईस्ट पटेल नगर में। बीच में बसंत बैठी, दोनों किनारे दोनों दोस्त। बेहद गरमी थी, बीच में बैठी हुई बसंतप्रभा पसीने से भीगने लगी। भारी शरीर, चुस्त-दुरुस्त कपड़े, बात-बात पर मुस्कराहटें, किशन खुश था और यह भूल गया था कि बसंत का पति भी टैक्सी में चल रहा है। रमेश अमेरिकन फिल्मों की बातें कह रहा था। मरलिन मुनरो की फिल्में। आद्रे हेप्बर्न की फिल्में। ब्रिजिता बार्दोत। सोफिया लारां।

पूसा रोड में टैक्सी रुकी तो किशनलाल बोला, “भाई रमेश, यहां तक आ गए हो, मेरा कमरा भी देख ही लो। क्यों?”

“मुझे प्यास लगी है। किशनलाल शादीशुदा नहीं है तो क्या, एक गिलास पानी तो पिलवा ही सकते हैं” -बसंतप्रभा ने कहा और किशन के साथ टैक्सी से नीचे उतर आई। रमेश भी उतरा। टैक्सी रुकी रही और तीनों लोग अंदर चले आए। ग्राउंड फ्लोर पर तीन कमरों का छोटा-सा फ्लैट किशनलाल के पास है। कुल एक सौ चालीस रुपयों में इतना बढ़िया फ्लैट अब दिल्ली शहर में कहीं नहीं मिल सकता। सामने छोटा-सा लॉन है। बरामदे में देशी फूलों के गमले रखें हैं। ड्राइंगरूम में आकर रमेश सोफे पर बैठ गया। बसंत खड़ी रही और जैसे पूरे कमरे को अपनी आंखों में डालती रही। कितना प्यारा कमरा है! और कमरे की हर चीज कितनी तरतीबी से रक्खी हुई है। कोई चीज बेजगह नहीं है। कोई चीज फालतू नहीं। दीवार पर कुल एक तस्वीर है, जिसमें किशनलाल हंस रहा है। बसंतप्रभा को लगा जैसे किशन उसी को देखकर हंस रहा है। ऐसी हंसी, जिसमें व्यंग्य ही व्यंग्य भरा है। बसंतप्रभा की बंधी-बंधाई जिंदगी के प्रति, उसके सरकारी नौकरी के पति, केवल व्यंग्य विद्रूप। मगर, विद्रूप के बावजूद यह हंसी किशनलाल को और भी आकर्षक बना देती है। और किसी रूप में न सही, केवल देखने-सुनने के आकर्षक। किशन विनम्र है, आंखें झुकाकर बातें करता है, यह नहीं देखता कि बसंतप्रभा कितने गुस्से से उसकी व्यंग्यभरी हंसी वाली तसवीर देख रही है और उस गुस्से में कितना आकर्षण भरा हुआ है! फ्रिज से बर्फीले पानी की बोतल और गिलास निकालकर वह छोटी-सी तिपाई पर रखता है और इस तरह तीन गिलासों में झागदार पानी ढालता है कि एक बूंद पानी भी टेबुल पर नहीं छलकता। गिलास लबालब भरे हैं, मगर पानी नहीं छलकता। हल्के नीले रंग के गिलास। शायद हमारा किशनलाल इन्हीं गिलासों में व्हिस्की पीता होगा, बसंत सोचती है। एक दिन शरण साहब के यहां पार्टी में रमेश ने व्हिस्की पी थी। हां, व्हिस्की ही होगी। बसंत ने नहीं पी, मगर, शरण साहब ने बहुत आग्रह किया तो बियर का गिलास सामने लिए बैठी रही। शरण साहब जरा दूसरी तरफ गए, उसने बियर टेबुल के नीचे घास पर बहा दी। उस दिन घर लौटते वक्त टैक्सी में रमेश कैसी पागल जैसी हरकतें कर रहा था! कह रहा था, शरण साहब उनके बॉस हैं तो क्या हुआ। कह रहा था, स्वीसाइड कर लेगा। क्या-क्या कह रहा था। पी लेने पर आदमी कितना पागल हो जाता है! तब, किशनलाल मुस्कराया और बोल पड़ा, “बसंत भाभी, गिलास का रंग नीला है, पानी का नहीं! आप घबड़ाइए नहीं।...”

“अरे यार, बसंत क्यों घबड़ाएगी! बियर तो यह गिलास के गिलास पी जाती है, लाइक ए फिश! शादी नई-नई हुई थी, तब घबराती थी। अब तो शी इल ए वेरी गुड कंपेनियन!” रमेश ने पानी का नीला गिलास उठाया और जैसे पुराने शराबी बियर पीते हैं, एक ही घूंट में पूरा गिलास खाली कर गया। फिर, बोतल उठाकर अपने लिए दूसरा गिलास भरने लगा। अपने पति की यह अदा देखकर बसंतप्रभा को हंसी आ गई। अपने हाथ का अधखाली गिलास तिपाई पर रखकर, वह हंसने लगी। हंसती-हंसती कहने लगी, “अंग्रेजी फिल्में देखते ही तुम नशे में आ जाते हो, एकदम नशे में आ जाते हो।”

किशनलाल के हाथ में एक बोतल थी और एक गिलास था, और वह खड़ा-खड़ा पानी पी रहा था। बेहद गरमी है। गर्म पैंट और खादी की बुशशर्ट के नीचे देह पसीने से गली जा रही है। किशन नहाना चाहता है। बाथरूम में बैठकर सारी रात टैप के नीचे बैठा रहना चाहता है। तभी उसकी निगाहें कोने में रखे ड्रेसिंग टेबल पर जाती है। टेबल पर फूलदान के पास शम्पा का रुमाल रखा है, और रुमाल के पास उसकी घड़ी। कीमती घड़ी है, दो महीने पहले किशनलाल ने उपहार में दी थी। मगर, वह अपनी घड़ी वहां क्यों छोड़ गई है? लापरवाह लड़की! किशनलाल ने उसे बहुत बड़ी चिट्ठी लिखी थी।

चिट्ठी पाकर वह किशनलाल के घर चली आई थी। वह जानता था, शम्पा आएगी। कितनी भी व्यस्त हो, जरूर आएगी। उसके बाद वह थोड़ी देर तक चुपचाप बैठी रही। चिट्ठी की बातों का कोई जिक्र नहीं किया। फिर, बियर की बोतल फ्रिज से निकालकर अकेली पीती रही। शायद, वह अंदर ही अंदर उदास थी, और थकी हुई थी। एक ही किशनलाल नहीं है। कई लोग हैं जो उससे शादी करना चाहते हैं। कई लोग हैं, जो उसे बड़े होटलों के प्राइवेट जलसों में ले जाते हैं। रायपुर कॉटन मिल्स का मालिक उसे श्यामगढ़ एंड रायपुर कंपनी लिमिटेड का नया ‘बिजनेस‘ डील बिना किसी झिझक के कामयाब हो सके। शम्पा अकेली है और पराई कारों में, पराए दफ्तरों में, पराए होटलों-रेस्तराओं में, पराई कोठियों-बंगलों में घूमती रहती है। मगर यह किशनलाल उस पर अधिकार क्यों जताना चाहता है? किसलिए?

बियर के बाद शम्पा अपनी घड़ी उतारकर टेबल पर रखती है। बालों के पिन खोलती है। रिबन खोलती है। फिर, बाथरूम में चली जाती है। कहती है, “मैं जरा मुंह हाथ धो लूं! तुम मुझे कहीं ले जाकर चाय-कॉफी पिलाना चाहो तो तैयार हो जाओ। मैं बहुत थकी हुई हूं। कहीं एयरकंडीशंड जगह में घंटे-दो-घंटे बैठना चाहती हूं!”

किशनलाल के कमरे में गर्म हवा बहती है। संभ्व नहीं है कि गर्म हवा को रोककर ठंडी कर लिया जाए। वह शम्पा की बात समझता है। वह शम्पा की हर अच्छी बुरी बात समझ लेता है। मगर, वह अपनी घड़ी क्यों छोड़ गई? क्या इसे लौटा देना चाहती है? और रुमाल? अपनी यादगार के लिए? किशनलाल बोला, “मैं एक मिनट में आया, सिर्फ एक मिनट में!” और, बगल के कमरे में आकर शम्पा को फोन करने लगा। फोन उसकी नौकरानी ने उठाया। बोली, “हां, किशन साब, छोटी मेमसाब आ गया है। उसका तबीयत बहुत खराब है। जी हां, जी हां, सो रहा है। बेबी भी सो गया...”

“देखो आया, शम्पा को उठाकर कहो, किशन बुला रहा है। जरूरी काम है!” किशन ने कहा और शम्पा की प्रतीक्षा करने लगा। नौकरानी फोन रखकर उसे बुलाने चली गई। फिर, वापस आकर कहने लगी, “किशन साब, छोटी मेम साहब नहीं आता है। कहता है, तबीयत बुहत खराब है। किशन साब, सुनता है, छोटी मेम साहब रो रहा है। अभी फोन पर नहीं आ सकता। अभी रोएगा। थोड़ी ठीक हो जाएगा, तब आप ही आप आपको फोन करेगा। हमको बोलता है, साहब को बोलो, हम बात करना नहीं चाहता। हैलो, किशन साब! हैलो...”

किशन ने फोन रख दिया था। उसने शम्पा के रोने की बात सुनकर तय किया था कि रमेश और बसंतप्रभा के चले जाने के बाद वह शम्पा के यहां जाएगा और उससे कहेगा कि वह, यानी किशनलाला सेन्चुरी गार्मेंट्स का सेल्स मैनेजर यानी जिसकी तनख्वाह साढ़े पांच सौ है और लगभग इतना ही ऊपर से कमा लेता है और शम्पा जैसी औरत जिसकी जिन्दगी में आ जाए तो अपनी मेहनत और अक्लमंदी के बल पर, जो साल, दो साल में अपना कोई बितनेस जमा ले सकता है, अपनी कार और अपनी कोठी खरीद सकता है, वह यानी किशनलाल अब किसी भी शर्त पर शम्पा से शादी करने को तैयार है।

यह तय करके उसने फोन रख दिया और मन-ही-मन खुश होता हुआ, ड्राइंगरूम में वापस आ गया। उसने बसंतप्रभा से कहना चाहा कि वह जल्दी ही शादी करने वाला है। उसने ठीक उसी तरह हंसना चाहा, जैसे वह दीवार पर टंगी अपनी तस्वीर में हंस रहा था। मगर, उसकी निगाहें अचानक ड्रेसिंग टेबुल पर चली गईं फूलदान के पास शम्पा का रुमाल पड़ा था, मगर रुमाल के पास शम्पा की घड़ी नहीं थी। घड़ी टेबुल पर कहीं नहीं थी। रमेश बुक-केस के पास खड़ा कोई किताब देख रहा था। बसंतप्रभा ड्राइंगरूम की खिड़की के पास खड़ी थी और टैक्सी वाले से कह रही थी, “बस, हम लोग आ रहे हैं...”

तो शम्पा की घड़ी क्या हो गई? किशनलाल ने रमेश की आंखों में देखा। वह किताबें देख रहा था। घूमकर बोला, “अब हमें इजाजत दो भाई!” किशनलाल ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया और बसंत की ओर देखने लगा। वह किशन को बड़ी ही प्यार-भरी निगाहों से देख रही थी। पास आती हुई कहने लगी, “तुम्हारे पास बहुत अच्छा फ्लैट है किशन, मगर अकेले क्यों रहते हो? एक साथी तलाश करके शादी कर लो। कोई भी अच्छी लड़की इस फ्लैट में रहने को तैयार हो जाएगी! कोई भी...”

किशन बसंत प्रभा को समझ रहा था। वह ऐसी औरतों को पहचानता है। उसकी दुकान में अक्सर ऐसी औरतें आती हैं। और वह उन्हें देखते ही पहचान लेता है। बड़ी मीठी बातें करती हैं। दुकान की तारीफों के पुल बांध देती हैं। फिर, कभी तो वे साथ अपना पर्स लाना ही भूल जाती हैं और कभी काउंटर तक जाकर खरीदे कपड़ों की कीमत देना भूल जाती हैं। शम्पा से किशन की पहली मुलाकात ‘सेन्चुरी‘ में हुई थी। वह अकेली दुकान में आई थी और बेहद शोख कपड़े पहने थी। किशन उन्हीं दिनों नया-नया सेल्स मैनेजर हुआ था और दुकान के भीतरी हिस्से में बनी शीशे की छोटी-सी केबिन में बैठता था। शम्पा सेल्स-काउंटरों पर यहां-वहां घूम रही थी और नई स्टाइल के स्कर्ट और ब्लाउजें देख रही थी। अपनी केबिन के भीतर से किशनलाल उसे देख रहा था। दुकान में शाम की भीड़ थी, खरीदने वाली औरतें कम, चीजें पसंद करने वाली औरतें ज्यादा थीं। औरतों की भीड़ में वह दुबली-पतली सांवली-सी लड़की शम्पा नरगिस की हरी टहनी ने बड़ी ही तेज उंगलियों से एक कीमती ब्रेसरी उठाकर अपने हैण्ड बैग में डाल ली है। काउंटर की सेल्सगर्ल दूसरी औरतों में फंसी थी। वह देख नहीं पाई। हैंड बैग हाथ में झुलाती हुई, शम्पा आगे बढ़ गई। शो-केश के पास जाकर हाथ-करघे की बनी साड़ियां देखने लगी।

किशनलाल केबिन से बाहर निकला और शम्पा के पास जाकर खड़ा हो गया, “मैं यहां सेल्स मैनेजर हूं। आप जरा मेरे साथ आइए, एक बात कहनी है!” किशन ने इतने धीमें लहजे में और साथ ही इतने ठंडे दिल से यह बात कही थी कि शम्पा सहम गई, “क्या कहना चाहते हैं, यहां कहिए।” जाहिर था, वह किशनलाल की बात समझ गई थी और अब किसी तरह जान बचाना चाहती थी। किशन ने और भी मद्धिम आवाज में कहा, “यहां कहूंगा तो आपका इनसल्ट हो जाएगा! अंदर मेरे केबिन में चलिए...” किशनलाल ठीक यही बात अब बसंतप्रभा से कहना चाहता था मगर उसे कहने का साहस नहीं हुआ। यह ‘सेन्चुरी गार्मेंट्स‘ की दुकान नहीं थी, उसका अपना घर था। वह इस पकी हुई औरत की इनसल्ट कैसे कर दे, उसका पति साथ है, मगर शम्पा? मगर शम्पा की घड़ी का क्या होगा?

तीनों आदमी ड्राइंगरूम से बाहर आए। रमेश ने टैक्सी की पिछली सीट का दरवाजा खोला और अंदर घुसकर बैठ गया। बसंत स्नेहमयी दृष्टि से किशनलाल के फ्लैट को और किशनलाल को देखती रही और टैक्सी में बैठ गई। किशन बोला, “अच्छा, तुमसे मिलकर बहुत खुशी हुई! अच्छा भाभी, फिर मिलेंगे...” और उसने अपना हाथ बसंत की ओर बढ़ा दिया। बसंतप्रभा झिझकी नहीं, शरमाई नहीं, उसने किशन का हाथ जोरों से दबा दिया।

दूसरे दिन दोपहर में किशनलाल ने बसंतप्रभा को फोन किया। बसंत जातनी थी, किशनलाल फोन करेगा। दरअसल वह किसी अच्छे और एअरकंडीशंड रेस्तरां में लंच लेना चाहती थी और किशन के फोन का इन्तज़ार कर रही थी।