लक्ष्मण रेखा (कविता-संग्रह): ज़ेहरा जै़दी / सुधा गुप्ता
स
लक्ष्मण रेखा (कविता-संग्रह) : सुर्ख़ गुलाब की सूखी पत्तियाँ———
न दामन ही सिया
न आँसू ही पोंछे
न ज़ख़्म ही धोये
न दर्द ही बाँटा
और शाम हो गई——
अब ज़िन्दगी, उम्र भर का हिसाब माँगती है।
इन ख़ूबसूरत पंक्तियों को रचने वाली कवयित्री सुश्री नायाब ज़ेहरा जै़दी का कविता संग्रह 'एक और लक्ष्मण रेखा' मेरी मनपसंद किताबों में से एक है। यूँ मिस ज़ैदी से मेरी जान-पहचान महज़ पाँच-सात साल पुरानी है और शुरू-शुरू में यह काफ़ी औपचारिक-सी ही रही-बस, अखिल भारतीय बुद्धिजीवी महिला मंच, मेरठ चैप्टर की अध्यक्षा होने के नाते मिस ज़ैदी कभी-कभी मुझे अपने किसी कार्यक्रम में निमंत्रित करतीं, मैं अपने संकोची और घर-घुस्सू स्वभाव के कारण्, जो एक हद तक 'आत्म-निर्वासन' की शक्ल ले चुका है, कभी उनके कार्यक्रम में पहुँचती, कभी ग़ायब रहती; लेकिन उससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता। दो-चार महीने बाद फिर कोई निमंत्रण लेकर मिस ज़ैदी बाक़ायदा, ख़ुद कार चलाकर आतीं, बिना किसी गिले-शिकवे के फिर से मुझे शिरकत करने की दावत देकर अलविदा कहतीं और 'ख़ुदा हाफ़िज' के साथ रुख़सत———
धीरे-धीरे मिस ज़ैदी की कविता ने मुझे अपने जादू में बाँध लिया, मिस जै़दी से मेरी अच्छी-ख़ासी दोस्ती हो गई और फिर ऐसा वक्त आया जब मैं इस बात को लेकर परेशान होने लगी कि हाय! यह दोस्ती इतनी देर से क्यों हुई-पहले क्यों न हुई?
मिस जै़दी एक बेहद अच्छी कवयित्री हैं-सशक्त शायरा हैं। उनकी कविता बड़ी 'सहज' है, दिल से निकली है और इसीलिए उसमें सुनने-पढ़ने वाले के दिल को छू लेने की ग़ज़ब की ताक़त है।
'एक और लक्ष्मण रेखा' कविता संग्रह में दर्जनों ऐसी ख़ूबसूरत और पुर-असर कविताएँ हैं कि एक-एक के बारे में बीस-बीस वर्क़ लिखें जायें तो शायद कम पड़ेंगे! 'जब इंसान हैवान बन जाता है' तो विद्या लावारिस हो जाती है! 'बंद दरीचों में झाँक कर देखो' उम्र भर की तल्खियाँ मिलेंगी——'।नफ़रतों से मुहब्बतें बेहतर हैं' : नफ़रतों की मंजिलें: आग का समन्दर, इसलिए नफ़रतों को मुहब्बतों में बदल डालो——'वह मेरा कोई नहीं था' जैसी कविताएँ आज के परिवेश में सच्चा दर्पण हैं तो 'वो तो पागल है मगर——' और 'बेगुनाह' जैसी कविताएँ हमारे समाज में 'नारी' की सनातन दुर्दशा को रेखांकित करती हैं। संग्रह की बेहद ख़ूबसूरत कविता है 'तुमसे किसने कहा था वतन से मुहब्बत करो' जिसमें आजादी पाने से कुछ पहले जन्मी हुई पीढ़ी जो आज़ादी प्राप्ति के संघर्षों की चश्मदीद गवाह रही है और मौजूदा भारत की राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों से शर्मसार भी,जिसने सच्चे दिल से भारत को प्यार किया और बदले में पाया हौलनाक ग़मों का सिलसिला—-की निराशाओं की कहानी है। इस कविता ने मुझे इसलिये भी ज़्यादा प्रभावित किया है कि मेरे और मिस ज़ैदी के ग़म बिल्कुल एक जैसे हैं कि हम-उम्र होने से हम एक जैसे दौर से गुज़रे हैं-जुनून की हद तक देश की समस्याओं से वाबस्ता है, रहेंगे।
मेरा बस चलता तो इस संग्रह का शीर्षक रखती 'सुर्ख़ गुलाब की सूखी पत्तियाँ'और जितनी बार इस पंक्ति को दोहराती हूँ, उतनी ही बार आँखों के सामने हैदराबाद (आँध्र) के पाँचवे अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन मंच पर, माइक पर यही कविता पढ़ती हुई एक सौम्य, संकुचित, श्वेत केशा, वरिष्ठ नागरिक मिस ज़ैदी की तस्वीर आ जाती है-'न दामन ही सिया, न आँसू ही पोंछे, न ज़ख़्म ही धोये, न दर्द ही बाँटा और शाम हो गई-मैं दिया जला भी न पाई कि रात हो गई-' और मेरी हथेलियों में सुर्ख़ गुलाब की सूखी पत्तियों की महक भर जाती है…
नहीं मिस जै़दी, यह आपकी खाम-ख़याली है, इससे बाहर आइए——आपने तो न जाने कितनों के ज़ख़्म सिले हैं, कितनों के आँसू पोंछे, दर्द बाँटें हैं! इंसानियत के गीतों के जो 'दीये' आपने जलाए हैं, हर अंधेरी रात पर वे भारी पड़ेंगे——उन दीयों की झिलमिलाती रौशनी में हर सफ़र आसान होगा…।