लक्ष्मी कमल और हाथी / वीरेन्द्र जैन
दीवाली सिर पर आ गयी थी ओर ढेर सारे काम करने को पड़े थे। यथा राजा तथा प्रजा- हमारा हाल भी नेताओं की तरह है कि जब चुनाव सिर पर आ जाते हैं तब याद आता है कि दलित एजेन्डा निकालना है, महिलाओं को आरक्षण आदि देना है, किसानों के पाँच हार्स पावर के बिल माफ करने हैं सवर्णों के आरक्षण का प्रस्ताव केन्द्र को भेजना है, सच्चर कमेटी और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्टों पर विचार करना है वगैरह वगैरह।
रास्ते में याद आया कि रक्षाबंधन के अवसर पर बहिनों को लाने की तरह दीवाली पर लक्ष्मीजी को घर पर लाना है- चूँकि लक्षमीजी तो घर पर आ नहीं सकतीं इसलिए उनका फोटो ही आ जाये तो ठीक है। मैंने लक्ष्मी जी का पना, जो शायद उस पन्ना का अपभ्रंश है जिस पर छपा हुआ लक्ष्मी जी का फोटो बाजार में मिलता है, खरीद लिया। जो छोटी बच्ची उसे बेच रही थी उसने शायद कभी उसे गौर से देखा नहीं होगा, जैसे पत्रिकाएँ बेचने वाले उन्हें कभी पढ़ते पहीं हैं।
घर लौटा तो उसी उम्र की पड़ौसी की बच्ची मेरे घर खेल रही थी, लक्षमी का पना देख कर पूछा “यह क्या लाये अंकल, मैं देखूँ?”
मैंने उस चित्र को बहुत नरमी से उसके हाथ में दिया ताकि लक्ष्मीजी और मेरी गृहलक्ष्मीजी की भावनाएँ आहत न हों, क्योंकि मुझे लक्ष्मीजी से उम्मीदें और गृहलक्ष्मी से भय अभी है। सुना है कि लक्ष्मीजी दीवाली के दिन चुनावों के दिनों की तरह दीवाली को खूब राहतें लुटाती हैं, हो सकता है एकाध मुझे भी मिल जाये।
“ये क्या है अंकल?” बच्ची ने फिर पूछा
“ये लक्ष्मीजी हैं बेटे” मैंने स्वर में अपार श्रद्धा लपेटते हुये कहा।
“ये वाटर में क्यों खड़ी हैं, इन्हें क्या बहुत गरमी लगती है अंकल?”
“हाँ बेटे ये धन की देवी हैं, और पैसों में बहुत गरमी होती है इसलिए इन्हें बहुत गरमी लगती होगी। देखो गरमी कम करने के लिए इनके हाथ से मैल की तरह पैसे छूट रहे हैं।”
“हाँ मेरे पापा भी कहते हैं कि पैसा हाथों का मैल होता है, पर अंकल मेरे हाथ जब गंदे हो जाते हैं तो मम्मी उन्हें धुलवा देती हैं पर उनमें से तो कभी भी पैसे नहीं निकलते?”
“हाँ बेटे यह लक्ष्मीजी के ही हाथों का मैल होता है।”
बच्ची मान गयी पर फिर पूछा “लक्ष्मीजी के दोनों ओर क्या हैं अंकल?”
“ये हाथी हैं बेटे।”
“आपको पक्का पता है?”
“हाँ बेटे, आपके स्कूल में भी किताब में ऐलीफैंट का चित्र दिखाया गया होगा।”
“हाँ अंकल वो तो पता है, पर ये हाथी ही क्यों है, हथिनी क्यों नहीं है?”
मैं चकरा गया, क्योंकि मैंने इस दिशा में कभी सोचा भी नहीं था। अचकचा कर बोला “बेटे सवारी गाँठने और अंकुश चुभाने के लिए पुल्लिंग ही चुना जाता है, इसलिए ये हाथी ही है।”
“पर मैंने तो सुना है कि लक्ष्मीजी हाथी पर कभी नहीं बैठतीं, उनकी सवारी तो उल्लू है।”
“हाँ बेटे वे रोड और रेल मार्ग से यात्रा नहीं करती, हमेशा वायु मार्ग से आवागमन करती हैं इसलिए उनकी सवारी उल्लू होती है। हाथी तो दिखाने और सलामी देने के लिए खड़े कर रखे हैं।”
“पर अंकल मैंने उनका ऐसा कोई चित्र नहीं देखा जिसमें वे उल्लू पर सवार हों, जब भी देखा है उन्हें कमल के फूल पर खड़े देखा है। उनके घर चेयर नहीं हैं क्या?”
“बेटे उन्हें जब भी जरूरत होती है वे कमल के फूल को ही कुर्सी बनाती हैं या उल्लू पर सवार होकर फुर्र हो जाती हैं। उनका उल्लू बहुत तेज उड़ता है इसलिए वह फोटों में नहीं आ पाता।”
“ये हाथी क्यों पालती हैं, बेच क्यों नहीं देतीं जबकि इनके पास उल्लू और कमल का फूल दोनों ही हैं।”
बच्ची की माया मेरी समझ में नहीं आ रही थी। उसके सवालों के आगे मैं लक्ष्मीवाहन का पट्ठा नजर आने लगा था मैंने झुंझला कर कहा- “बेटे हाथी बिकने के लिए ही होते हैं, बिकेंगे बस कोई ठीक ठाक दाम चुकाने वाला भर मिल जाये, हाथी मंहगा बिकता है तथा ज्यादा पैसे वाला ही उसको खरीद पाता है- और हाँ अब तुम घर जाओं क्योंकि बहुत देर हो चुकी है।”
देश की जनता की तरह मासूम बच्ची नमस्ते अंकल कहती हुयी घर चली गयी और मैं हाथी के भविष्य पर विचार करने लगा
ऐसा लगा कि पना की लक्ष्मी मेरे ऊपर कुटिलता से मुस्करा रहीं थीं।