लक्ष्मी का दीया / सरस्वती माथुर
आज फिर दीवाली का त्यौहार है, बच्चे पटाखे फुलझडियाँ छुडा रहे हैं। दादी माँ भी गाँव से यहाँ इस अवसर पर आ गयीं थीं।
बच्चों ने दादी माँ के लिए बरामदे में कुर्सी लगा दी थी ताकि वह भी देख सकें शहर की दीवाली की रंगीनियाँ। अस्सी साल की दादी माँ पोते पोतियों को देख रहीं थीं, पास ही बहुएँ लैपटॉप खोले बैठी थीं, छोटी बहु ने तुरंत ऑनलाइन एक डिस्काउंट वाला होटल खोज लिया था और अब फोन पर बुकिंग कर रहीं थीं।
पूजा हो चुकी थी, एक थाली में बाज़ार से लायी मिठाई, नमकीन और फल चढ़ा कर मंदिर को छोटे लट्टुओं से सजा दिया था! बाहर मुंडेर पर भी छोटे छोटे रंगीन बल्बों की लडियां लटकीं थीं। सब खुश थे बस दादी माँ सोच रही थीं, कहाँ खो गए वो माटी के दिए, खील बताशे, लक्ष्मी माँ की पन्नियाँ, रसोई घर से उठी पूरे घर आँगन को महकाती पकवान की लार टपकाती खुशबू! सभी तैयार थे रेस्तरां जाने को। बहुओं ने लाइफ स्टाइल से सेल में खरीदीं नए जींस और टॉपर अमेरिकन ज्वेलरी के साथ पहन रखीं थीं। घर आँगन में रौनक थी पर न नाते रिश्तेदार थे न पहले सा अपनापन, बाहर पटाखों का कानफोडू शोर था, रेस्तरां में भी गजब की भीड़ थी। सभी खुश थे दादी माँ भी सर पर पल्लू लिए बैठीं थीं, भोंचक्की सी इधर उधर देख रहीं थीं। सब चटकारे ले लेकर पिज़्ज़ा, नूडल्स और सिज्लर खा रहे थे। बच्चों के साथ थी दादी माँ पर न जाने क्यों मन वहां से दूर गाँव में था और वह सोच रहीं थी कि पड़ोस की नारंगी काकी ने लक्ष्मी की पूजा करके खीर पूड़ी का भोग लगा कर उनके आवाहन के लिए रात भर जलने वाला दिया अब तक जरुर जला दिया होगा!