लक्ष्मी से अनबन / राजेन्द्र वर्मा

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शुभ दीपावली की शुभ सन्ध्या! बिजली की झालरों से जगमग-जगमग करता शहर! हैसियत के मुताबिक़ घरों के सजे हुए मस्तक! दसों दिशाओं में पटाखों और बमों का धुआंधार शोर! बच्चे तो बच्चे, बड़ों के मन में भी कसक: वे अधिक पटाखे और बम क्यों नहीं फोड़ पा रहे? बेचारों की 'हैसियत' आड़े आ रही है। हाय रे त्योहार! पैसों में आग न लगा पाने का मलाल। तू क्यों आती है दीवाली?

नये-नये मित्र बने शर्माजी बताने लगे-पटाखों की दुकान पर बड़े साहब मिल गये। वे भी बच्चों के लिए पटाखे लेने आये थे। बिना पूछे ही बताने लगे कि क्या करते, उन्हें खुद ही आना पड़ा। नौकर ऐन वक़्त पर गांव चला गया-त्यौहार मनाने! साहब के बेटे को पटाखे-बम, अनार, चटाई, फिरकी, फुलझडि़याँ आदि खरीदवाना पड़ा-ढाई हज़ार का चूना लग गया। अपने बच्चों के लिए हज़ार के भीतर ही रहना पड़ा! दौ सौ मीटर की चटाई लेना चाहते थे, पचास में ही तसल्ली करनी पड़ी! ... बच्चों का मुँह अभी तक फूला है। साहब से पैसे तो ले नहीं सकते थे, भले ही वे देने को आतुर दिखते थे।

पटाखों के साथ नये लक्ष्मी-गणेश भी आये हैं। स्वयं को पुजवाने के लिए वे परेशान हैं। अगले साल जब ये पुराने हो जायेंगे, तब यह परेशानी नहीं रहेगी। तब वे विसर्जित होने के लिए परेशान होंगे, जैसे आज पिछले वर्ष वाले हो रहे हैं।

पत्नी पूजा की तैयारी में जुटी हैं। सवेरे से पकवान बनाने में लगी हुई थीं। तब भी कोई हाथ नहीं बँटा रहा था। अब पूजा की वेला है। अब भी कोई हाथ नहीं बँटा रहा। ... वे मुझसे पूजा करने के लिए कहती हैं। मैं पूजा करने नहीं बैठ रहा। वे समझाते हुए मुझे प्रेरित करती हैं कि गणेश जी विघ्नहर्ता हैं, विघ्नों से रक्षा करते हैं। ... लक्ष्मीजी धन की देवी हैं, वे धन की वर्षा करती हैं।

पोथी भी यही कहती है-गणेश महराज विघ्नहर्ता हैं। इनकी पूजा करो, नहीं तो पुट्ट से कोई विघ्न डाल देंगे। टापते रह जाओगे! लक्ष्मी तो धन की देवी हैं ही। इनकी पूजा करो, तभी ये धन देंगी। पूजा नहीं, तो धन नहीं! कंगले ही मर जाओगे! ...वाह साहब! क्या धाँधली है? बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होगा? हमने जो काम किया है, मेहनत की है, ख़ून-पसीना एक किया है-वह सब बेकार? जीवन के अस्सी वसन्त देखने के बाद तुलसीदास ने इसीलिए उसाँस छोड़ते हुए कहा होगा-'भय बिनु होय न प्रीति!'

क़ायदे से पूजा मेरी पत्नी ही करती हैं, मैं तो उनका पिछलग्गू बना रहता हूँ- 'स्टेपनी' की तरह! यहाँ वे लीडर हैं और मैं उनका फॉलोवर! देवी-देवताओं में मेरी कोई आस्था नहीं, परन्तु पत्नी मुझसे लक्ष्मी की पूजा करवाना चाहती है। वह मुझे लक्ष्मीभक्त बनाने पर तुली हुई है। इसके पीछे उनका स्वार्थ है-लक्ष्मी प्रसन्न होंगी, तभी तो नयी साड़ी और नये ज़ेवर आयेंगे! कूलर के बदले ए.सी. आयेगा, किचन की चिमनी आयेगी, नयी कार आयेगी! मकान दुमंजि़ल बनेगा! तभी तो वे दोस्तों-रिश्तेदारों और पड़ोसियों में अपना मान प्रदर्शित कर सकेंगी। ...तो सारी क़वायद मान-प्रदर्शन की है।

मैं पत्नी से कहता हूँ-"तुम्हें पूजा करनी है, करो, मुझे क्यों लपेटती हो?" , पर वे मुझे पल्लू में बाँधे बैठी हैं; कहती हैं-"पूजा करना पुण्य का कार्य है। इससे अच्छे संस्कार आते हैं। बच्चों में संस्कार भरने का काम भी तो करना है! वर्षों पुरानी परम्परा भी निभानी है! वे कहती हैं-आप अपनी सरस्वती अपने पास रखिए. मुझे तो बस, लक्ष्मी जी से काम है!"

मैं प्रतिवाद करता हूँ-"देखो, हम कितने वर्षों से लक्ष्मी की पूजा करते आये हैं, पर क्या वे प्रसन्न हुईं? नहीं, वे पूजा से प्रसन्न होने वाली नहीं! उनका काम करना पड़ता है, उनकी पसन्द की राह पर चलना पड़ता है!"

मेरी बात से उत्साहित हो पत्नी कहती हैं-"वही तो कर रही हूँ।"

"क्या कर रही हो?"

"अरे, पूजा और क्या?"

"इस पूजा से क्या होगा? यह तो सारी दुनिया करती है। तो क्या, लक्ष्मी सारी दुनिया को धनवान बना दे? असली पूजा है-ठगी, लूट, चोरबाज़ारी, घटतौली, मिलावट, नक़ली माल का उत्पादन, कर की चोरी, दूसरों का हिस्सा मारना, भाई का भी हिस्सा दबा जाना! भ्रष्टाचार को आगे बढ़ाना-हज़ार रुपये पुलिस को देकर एक लाख की हेरा-फेरी करना। अधिक लाभ ही तो एक दिन बचत में बदलता है; बचत पूँजी में; और पूँजी ही हमें धनवान बनाती है! ... नौकरीपेशा तनख़्वाह पर ही न भरोसा रखें। रिश्वत लेना शुरू करें, तभी कुछ बचापायेंगे। बिना बेईमानी के आखि़र क्या बचाया जा सकता है? ईमान बेच कर ही अमीर बना जा सकता है! ... समझीं कुछ?"

पत्नी मुझ पर बरसते-बरसते रह जाती हैं। त्यौहार का वास्ता देकर चुप रहने को कहती हैं। उनका भीतरी गुस्सा इतना बढ़ गया है कि वे भुकुटियाँ ताने हाथ जोड़ कहती हैं-"अब बस भी करो अपना प्रवचन!"

मैं भी पत्नी-प्रेमी जीव हूँ; चुप लगा जाता हूँ। पत्नी बड़े प्यार से मुझे लक्ष्मी-गणेश के सामने बिठाकर किचन से कुछ पकवान लेने जाती हैं। उन्हें आने में देर लग रही है। ... मैं उकता रहा हूँ। इधर-उधर देखते हुए लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ देखने लगता हूँ। मूर्तिकार ने कितनी मेहनत से इन्हें गढ़ा है! अपना रंग चढ़ाया है, पर ये उसके रंग में नहीं रँगे। रँगे होते, तो पिछले दस सालों में उसकी दशा कुछ तो सुधरती। भरपेट रोटी तो मिलती!

वह क्षण कैसा दुर्भाग्यपूर्ण होता है कि जब देवी-देवता चाहते हैं कि मनुष्य उनकी पूजा-अर्चना कर कुछ मांगें और वे प्रसन्नपूर्वक वरदान दें, परन्तु मनुष्य तार्किक होकर ऐसा नहीं करता। पत्नी सहित तमाम लोग इसे 'कलिकाल' कहते हैं। मैं जानता हूँ कि लक्ष्मी मुझे धनवान होने का वरदान दे ही नहीं सकतीं। यह उनके बूते के बाहर है, क्योंकि जिन शर्तों पर वे मुझे धनवान होने का वरदान देना चाहती हैं, उन पर मैं धनवान नहीं बनना चाहता। ... मैं बेईमानी करना नहीं चाहता, रिश्वत लेना नहीं चाहता, लूट-खसोट करना नहीं चाहता! और तो और काले धन की कामना भी नहीं करता! मैं तो ईमानदारी और मेहनत के रास्ते चलकर धनवान होना चाहता हूँ! ऐसे में लक्ष्मी मुझे कैसे धनवान बना सकती हैं? वे मुझे झाँसे में रखकर अपनी पूजा करवाना चाहती हैं, पर मैं उनके झाँसे में नहीं आने वाला! वे चाहती हैं कि मैं अवसरवादी हो जाऊँ! ... कोई देवी-देवता अपने चरित्र से गिरे, तो गिरे; मैं क्यों गिरूँ? मैं तो मनुष्य हूँ!

मुझे तो लक्ष्मी पर ही तरस आ रहा है-कैसे-कैसे धूर्तों के चंगुल में फँसी हुई हैं। तीन-तीन पाटियों ने उन्हें दबोच रखा है-एक ने तो उन्हें कमल के फूल पर ही विराजमान कर रखा है। दूसरी ने अपना पंजा देकर उनसे गिन्नियाँ बरसाने पर विवश कर रखा है; और तीसरी ने हाथियों से उन्हें घेर रखा है-भागो, कहाँ जाओगी भागकर? ... ये तीन तो कहने भर को हैं, इनके पीछे कितनी ही और पार्टियाँ और देसी-विदेशी ताक़ते हैं। कौन ले सकता है इनसे टक्कर? लेकिन लक्ष्मी हैं कि बन्दिनी होकर भी मुस्कुरा रही हैं। यह है उनकी अकलमंदी! मुझे उनका यही 'एटीट्यूट' नहीं पसन्द आता, लेकिन धन की देवी का अकल से क्या काम!

ऐसा नहीं कि मैं फि़ज़ूल ही अड़ा हुआ हूँ। मैं अभी भी कहता हूँ कि लक्ष्मी यदि उल्लू की सवारी करना छोड़ दें, बेईमानी और भ्रष्टाचार की चमचागीरी पर अपना घर लुटाना छोड़ दें और अमीरी-गरीबी की खाई पाट दें। पति को विश्वास में लेकर मेहनत और ईमानदारी के रास्ते पर चलने वालों को दो वक़्त की रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई और दवाई का इन्तज़ाम कर दें, तो मैं उनकी पूजा कर सकता हूँ; लेकिन क्षमा कीजिए, हीरे-जवाहरात जड़े भारी-भरकम सोने के मुकुट के भीतर दबे लक्ष्मी के कानों तक मेरी आवाज़ नहीं पहुँचती! ...मैं फिर कहता हूँ कि लक्ष्मी अगर लाखों-करोड़ों के गहने उतार आम गृहणी की भाँति अपना घर-बार सँभाल लें और धूर्त-अमीरों का पल्ला झाड़ हम जैसे ग़रीबों के साथ रहना सीख लें, तो मैं उनकी पूजा कर सकता हूँ; पर इसके लिए वे तैयार नहीं! उन्हें डर है कि ऐसा करने पर उनका अवमूल्यन हो जायेगा: टके सेर भी उन्हें कोई नहीं पूछेगा; पूजा तो कोई करेगा ही नहीं...!

पत्नी अभी भी किचन में हैं। मैं लक्ष्मी की मुस्कुराहट में विवशता की खिसियाहट देख रहा हूँ। एक दैवी खिसियाहट! ...मैं फिर सोच में डूब जाता हूँ: कैसा समय है कि बेईमानों के चंगुल से निकलने के लिए लक्ष्मी को धन लुटाना पड़ रहा है? धन की वर्षा करके वे उनसे मुक्त होना चाहती हैं। फ़िरौती चुकाकर मुक्त तो हुआ जा सकता है, पर इसकी क्या गारंटी है कि कल, फिर से फ़िरौती नहीं माँगी जायेगी? फि़रौती देकर लक्ष्मी बड़ी भूल कर रही हैं। वे उन्हें मुक्त करने वाले नहीं! वे कोई मूर्ख हैं जो लक्ष्मी को चंगुल से मुक्त कर दें। अपनी अमीरी लुटा दें; ग़रीब की ग़रीबी हटा दें; मतलब, खुद मिट जाएँ?

किचन से वापस आकर पत्नी पूजा प्रारम्भ कर देती हैं। मैं बैठा-बैठा उन्हें निहार रहा हूँ-कितनी मोहिनी लग रही हैं! बच्चों और मेरे जैसे नास्तिक को धनवान बनाने के लिए लक्ष्मी की पूजा-अर्चना कर रही हैं। आज के अख़बार में प्रकाशित, पं। लक्ष्मीनारायण शास्त्री की पूजा-विधि के अनुसार पूजा कर रही हैं। पूजा के दौरान लक्ष्मी का माहात्म्य बखानते हुए पत्नी मुझको लक्षित कर कहती है-"लक्ष्मी अपने भक्तों को निराश नहीं करतीं, उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं। ... वे बड़ी दयालु हैं।"

उनकी बात में दम लगता है। वे देवाधिपति विष्णु की पत्नी हैं। किसी सरकारी उच्चाधिकारी की पत्नी की तरह दयालु होने की हैसियत रखती हैं। उनकी तरह वे सरकारी धन का दान कर चमचों की लेवड़ी तर कर सकती हैं और अपनी दयालुता का ढिंढोरा पीट सकती हैं। इसमें उनका अपना क्या जाता है? पुराणों से मिली जानकारी के अनुसार, लक्ष्मी की कोई अर्निंग नहीं; उनका कोई अपना व्यवसाय नहीं! पूरी तरह विष्णु पर आश्रित! आश्रित न होतीं, तो विष्णु के पाँव क्यों दबातीं? ऐसे में, जो स्त्री अपने पति पर निर्भर हो, वह दान कहाँ से करेगी? अगर वह ऐसा करती है, तो ज़रूर अपने पति का ही घर लुटाती है!

सयानों के अनुसार कोई पत्नी पति का घर तभी लुटाती है जब उनमें कुछ तनातनी हो। तनातनी का कारण कुछ भी हो सकता है, पर एक 'कामन काज' , जो मानसिक चिकित्सकों ने खोजा है, वह है-मियां-बीबी में उम्र का अन्तर होना! मियाँ अगर उमरदराज़ हो और बीवी जवान, तो उनमें अनबन होती ही है रहीम ने पाँच सौ साल पहले इनके प्रकरण को दोहे में बाँध दिया था—

कमला थिर न 'रहीम' कह, यह जानत सब कोय।

पुरुख पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय?

लगता है कि लक्ष्मी की विष्णु से तनातनी काफ़ी पुरानी है। तभी विष्णु उन्हें अपना वाहन उपयोग में नहीं लाने देते। मजबूरी में उन्हें उल्लू जैसे वाहन पर सन्तोष करना पड़ता है। यह भी कोई बात हुई कि मियाँ चले गरुड़ से बीवी चले उल्लू से! कहाँ मर्सडीज़ और कहाँ मारुति 800! 'न दीजिए आप अपना वाहन, घर न लुटा दिया, तो कहना!'

पूजा समाप्त कर वे मुझे प्रसाद खिलाती हैं। मैं उसे मिठाई समझ खा लेता हूँ। बच्चों ने प्रसाद समझ खाया। फिर हम सबने एक-एक, दो-दो पकवान खाये और पत्नी की पाक-कला की प्रशंसा की। ...पत्नी मुस्कुरा उठीं। मेरा मन आनन्द से भर उठा!

बच्चे देहरी पर छोटे-छोटे दीये सजा रहे हैं। अन्य जगहों पर पत्नी और मैं दीये रख रहे हैं। बिजली की रौशनी है, फिर भी हम लोग घर को दीयों से रौशन कर रहे हैं। चलो, एक दिन ऐसा करने में क्या हर्ज़ है! सारा घर 'जगमग-जगमग' कर रहा है-लक्ष्मी आये न आये, हम घर-भर प्रसन्न हैं! मैंने बच्चों से पूछा-"पटाखे कब छुड़ाओगे?"

"खाना खाने के बाद!"

मैंने कहा-'ठीक ही है, जब पेट भरा हो, तो रुपयों में आग लगायी जा सकती है!'

मेरी बात सुनकर पत्नी और बच्चे मुझे अजनबी नज़रों से देखने लगे।