लक्ष्यहीन होने का सुख / गिरीश पंकज

Gadya Kosh से
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लक्ष्यहीन जीवन का सुख ही अलग है, बॉस! मैं लगातार इस सुख को एंजॉय कर रहा हूँ। देर रात तक मोबाइल में लगा रहता हूँ, मुन्ना भाई की तरह। और सुबह आराम से उठता हूँ, दस बजे तक। कई बार तो दैनिक दिनचर्या करने का भी मन नहीं होता और बिना मुँह-हाथ धोए ही घर के बाहर निकल जाता हूँ। पास के पान के ठेले पर जाकर गुटका चबाता हूँ। सिगरेट फूँकता हूँ। वहाँ मेरी ही तरह लक्ष्यहीन जीवन को एन्जॉय करने वाले दो- चार बंदे मिल जाते हैं। उनसे डिसकस करता हूँ कि पार्टनर! आज कौन- सी फिल्म देखनी चाहिए और किस मॉल में? अरे! मेरा भी अपना कुछ स्टेटस है! अब मैं शहर के सिनेमा हॉल में जाकर फिल्में नहीं देखता। और मुझमें रईसी इतनी है कि क्या कहूँ! जब तक सात सौ रुपये का पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक न पीऊँ तो ज़बरदस्त ‘रिच फीलिंग’ ही नहीं आती। जब तक इतना खर्च न हो, लगता ही नहीं कि मॉल में आकर फिल्म देखी है।

यह और बात है कि घरवाले अक्सर मुझ पर चिल्लाते रहते हैं- “काम के न काज के, दुश्मन अनाज के। तुम फिजूलखर्ची बहुत करते हो। अरे, पहले तय तो कर लो कि तुम्हें जीवन में करना क्या है?”

तब मैं अपने डैड को साफ- साफ कह देता हूँ- “वन्स अपॉन ए टाइम, गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा था न-' होइहै वही जो राम रचि राखा'- राम ने जो सोच लिया है, वही तो होगा न! इसलिए डोंट बॉदर अबाउट माय करियर। जो होगा अच्छा होगा।”

उस दिन डैड फटकारते हुए कहने लगे, “अरे, अच्छा तब होगा न, जब तू ग्रेजुएट हो जाएगा। फर्स्ट ईयर तेरे लिए रेस्ट ईयर हो गया। दो बार फेल हो चुका है। दो साल से वहीं पड़ा हुआ है।”

तब मैंने अकड़ते हुए कहा था कि “फेल होने के पीछे भी मेरा एक फंडा है, डैड। नींव मजबूत हो। मेरे जो सब्जेक्ट हैं, उनको मैं गम्भीरता से रट रहा हूँ। सबको कंठस्थ कर रहा हूँ। देखना, अगले साल में टॉप करूँगा।”

मेरी बात सुनकर डैड बहुत जोर से हँसे। यह शायद पहली बार हुआ कि उन्हें इस तरह हँसते हुए देखा। मुझे खुशी हुई। अपने आप पर गर्व हुआ कि मैं अपने डैड की प्रसन्नता का कारण बना। हालाँकि यह और बात है कि अगले साल मैं थोड़ा फ्लॉप हुआ। यानी परीक्षा पास कर ली मगर नम्बर पाए थर्ड क्लास।

तब मैंने डैड से कहा, देखा! “आखिर निकल गया न!” लेकिन पता नहीं क्यों, डैड अपने सिर को ठोकते हुए आगे बढ़ गए। मैं समझ गया कि वह मेरे नम्बर से खुश नहीं हैं लेकिन उनको समझना चाहिए कि दुनिया में संतोष बहुत बड़ी चीज होती है। जितना नंबर मिला, उतना ही बहुत है। लेकिन अब इन बूढ़ों को समझाए कौन! ये तो चाहते हैं कि चौबीस घंटे इनका लड़का पढ़ता रहे, बस! अपनी लाइफ को एंजॉय ही न करें का? इस दुनिया में भला आए किसलिए हैं? यह जवानी मिली है भोगने के लिए। खैर! जैसी उनकी सोच। हमारी सोच तो अलग है। वह सोचते हैं, बेटा बड़ा अफसर बन जाए। अरे, बड़ा अफसर बनकर कौन- सा तीर मार लूँगा। आखिर एक दिन रिटायर होना है। धीरे-धीरे ग्रेजुएशन कर लूँगा। कहीं-न-कहीं छोटी- मोटी नौकरी मिल जाएगी। नहीं तो परचून की दुकान ही खोल लेंगे। इसलिए बॉस! मैं बड़े- बड़े सपने देखता ही नहीं। अपना तो विशुद्ध फंडा है, आराम बड़ी चीज है, मुँह ढकके सोइए। जिन बंदों को जीवन में कुछ करके दिखाना है, वे सुबह चार बजे उठ जाते हैं। मेहनत- मशक्कत करते हैं। शरीर बनाते हैं। मन लगाकर पढ़ाई करते हैं। अपना लक्ष्य तय करते हैं कि हमें यह बनना है। लेकिन हम तो लक्ष्यहीन बाण की तरह हैं। अपना कोई लक्ष्य ही नहीं। जो बनना होगा, बन ही जाएँगे। अरे, किस्मत में जो लिखा है, वही तो होगा न! उसे कोई मिटा नहीं सकता। इसलिए तो ज्यादा फ़िक्र ही नहीं करता। नो टेंशन। डैडी को जल्द मिलने वाली है पेंशन, उसी से पूरे कर लूँगा अपने सारे पैशन। घर वाले लाख फटकारें, मैं तो आराम से देर रात तक जगता हूँ और सुबह देर रात तक घोड़े बेचकर सोता रहता हूँ। मुझे कोई खास आदमी नहीं बनना। सच बोलूँ तो आम आदमी बनकर बहुत खुश हूँ, जिसे इस दुनिया में क्या हो रहा है, इससे कोई मतलब नहीं। उसका पूरा फोकस अपने जीवन को एंजॉय करने में होता है। हम भी उसी रास्ते के राही हैं।

मुझे आम बहुत प्रिय है। मैं जमकर आम खाता हूँ। भले ही महँगा हो, मुझे कौन- सा खरीदना है। माता- पिता खरीदके लिए आते हैं और मैं बड़े चाव से खाता हूँ। लेकिन अब मुझे सावधान होना होगा। मेरे आलसपन से डैडी ऊब चुके हैं। उस दिन मैंने सुना, माँ से कह रहे थे कि इस लड़के का यही रवैया रहा तो मैं इसे ‘जय हिंद’ कर दूँगा।

‘जय हिंद कर दूँगा?’ मैं कुछ समझा नहीं। फिर बहुत देर बाद यह बात मुझे समझ में आई कि वे कह रहे हैं, इस घर से निकाल दूँगा। उनकी बात सुनकर मैं घबराया और सुबह जल्दी उठकर शरीर बनाने की कोशिश में भिड़ गया। मन लगाकर कुछ किताबें भी पढ़ने लगा। लेकिन एक दिन मुझे अपना पुराना फंडा ध्यान आया कि जीवन में कोई खास तो कुछ करना- धरना नहीं है। हम निष्क्रिय बनकर ही खुश हैं, इसलिए अब डैडी को दिखाने के लिए कभी-कभार जल्दी उठ जाता हूँ और कोर्स की किताब के बीच में अपने महँगे मोबाइल को रखकर आड़ी- तिरछी फिल्में देखता हूँ। मम्मी दूर से देखकर खुश होती हैं कि लड़का मन लगाकर पढ़ रहा है। लेकिन उन्हें क्या पता कि बेटा मन लगाके पढ़ नहीं रहा, मन लगाकर बर्बाद होने की दिशा में पढ़ रहा है। खैर, कोई बात नहीं। भूख लग रही है। पिज़्ज़ा का आर्डर कर देता हूँ। मम्मी तो हैं न। पेमेंट कर ही देंगी। अच्छा, देखूँ, किस मॉल में कौन-सी हॉट फिल्में लगी हुई हैं। आज रात वही देखने जाऊँगा।

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