लक्ष्य से दूर / गणेशशंकर विद्यार्थी
हम अपने लक्ष्य से दूर हटते जा रहे हैं। देश की आजादी का सवाल हमारे सामने है। कुछ समय पहले अधिकांश कार्यकर्ताओं को रात-दिन उसी की धुन थी, परंतु इस समय वे शिथिल हैं। शिथिल ही हों, सो नहीं, क्योंकि अधिक परिश्रम के साथ कुछ समय तक काम कर लेने के पश्चात्, कुछ शिथिल पड़ जाना स्वाभाविक-सा है, किंतु वे भ्रम में भी पड़े हुए हैं, क्योंकि देश की स्वाधीनता के लक्ष्य की ओर, उनका ध्यान इस समय उतना नहीं है और उनमें से बहुतों की शक्तियाँ इधर-उधर और किसी-किसी दिशा में तो हानिकारक दिशाओं तक में लग रही हैं। हम सब इस बात को भली-भाँति जानते हैं कि देश के साधारण आदमी जब तक मिल-जुलकर इस योग्य न बनेंगे कि वे अपने बल को जानने लगें और अत्याचार और अन्याय के मिटाने के लिए उस बल का संयत प्रयोग करने लगे, तब तक जिन सत्ताओं ने हमारी बाढ़ रोक रखी है, वे पीछे नहीं हटेंगी और हमारे हाथ-पैर नहीं खुलेंगे। साधारण आदमी की शक्तियों के संघटन की आवश्यकता न केवल इसलिए है कि उसके बल पर हमें देश के वर्तमान हाकिमों के हाथों से शक्तियाँ छीननी हैं, किंतु उसकी आवश्यकता सबसे अधिक इसलिए भी है कि देश में जो स्वराज्य आगे चलकर स्थापित हो वह सच्चे अर्थ में स्वराज्य हो और उससे देश के इने-गिने आदमियों ही को लाभ न हो, उससे देश के साधारण से साधारण मनुष्य तक को विकास का पूरा अवसर मिले, परंतु इस अमोघ शक्ति की उपासना और उसकी प्राप्ति की ओर से इस समय लोगों का ध्यान बे-तरह हटता जाता है। असहयोग की समाप्ति हो चुकी है जो लोग अपने को अपरिवर्तनवादी दल का कहते हैं वे भी बदल चुके। कम से कम उन्होंने असहयोग तो छोड़ ही दिया। इस समय वे चर्खा और खद्दर ही पर बहुत जोर देते हैं। काम दोनों बहुत अच्छे हैं, परंतु वे ही सब कुछ नहीं हैं। उनका महान क्षेत्र देहातों में कहा जाता है। उन्हें देहात के आदमियों का त्राता कहा जाता है। यह बात है भी ठीक, परंतु देश के अधिकांश गाँव अभी तक अछूते पड़े हुए हैं। उनमें न उन्हें सबल बनाने वाला कोई काम है और न इस प्रकार का कोई काम करने वाला ही।
इस प्रकार, देश के इस सिरे से लेकर उस सिरे तक करोड़ों व्यक्ति गाँवों में ऐसे पड़े हुए हैं, जो समेटे और समझाये जायें तो देश की बड़ी भारी पूँजी और शक्ति बन जायें। वे वैसे नहीं बनते तो फिर बनते हैं गले के बोझ। अत्याचार के शिकार और अत्याचारियों के हाथ की कठपुतली। अपरिवर्तनवादी शांति के बड़े उपासक है, उनका काम शांतिपूर्ण और उनका ढंग भी शांति से आच्छादित। देश की इस अमूल्य संपत्ति को अपने हाथों में उठा लेने के लिए, वे शांति की महा-थाली को किसी हड़बड़ाहट की भेंट नहीं चढ़ाना चाहते। हमारे स्वराजी देश-भाई शांति के उतने उपासक नहीं। इसी से घबराहट, चपलता के साथ उन्होंने कदम आगे बढ़ाया, परंतु इस समय उनका जो बुरा हाल है, उसे देखकर तरस आता है। नमक की खान में जा गिरे हैं और नमक के ढोके बन गये हैं। गये थे सरकार की नाकों में दम करने के लिए, द्वैध शासन के अंजर-पंजर ढीले करके उसे मृत्यु-शैय्या पर लिटा देने के लिए परंतु इस समय स्वयं, अपने अस्तित्व को बुरी तरह मिटा रहे हैं। मध्य प्रदेश के स्वराजी डॉ. मुंजे, मिस्टर राघवेन्द्र आदि आज से बहुत पहले मंत्री-पद और सहयोग-प्रति सहयोग नीति की ओर झुके हुए थे। उनकी रोकथाम बहुत की गयी। बाग बहुत कड़ी रखी गयी, परंतु अब इस समय वे धर्म के जाल में गिरते दिखायी दे रहे हैं। बंगाल में द्वैध शासन के विध्वंस कर देने की घोषणा की गयी थी, परंतु जिन्होंने समझा था कि हमने हाकिमों के इस खिलौने को कब्र में दबाते हुए अपने हाथों से उस पर खाक डाली है, वही मंत्री बनने के लिए ललक रहे हैं, स्वराज्य कैम्प में एक खासी खलबली है और लोलुपता उनके कदमों को भी लड़खड़ा रही है। हवा का रुख तो बहुत पहले से बदल चुका था। वह बदल चुका था उसी समय से जब पं. मोतीलाल ने टाटा कंपनी के लोहे के व्यवसाय में मदद देने के लिए सरकार का साथ दिया था और ब्रिटिश गायना से आये हुए, इस देश के आदमियों को कुलीगिरी के लिए फाँसने की इच्छा रखने वाले डेपुटेशन के सरकारी भोज में शिर्कत फरमायी थी। बंगाल में भी, बहुत पहले से रंग पलट चला था। स्वराज्य दल ने सरकार के सामने छोटी-छोटी शर्तें रखना आरंभ कर दी थीं। आप राजनैतिक कैदियों को छोड़ दीजिये, आप बंगाल आर्डिनेंस को उठा लीजिये, आप अमुक-सुधार योजना के अनुसार काम करा दीजिये - ये क्या बातें थीं? क्या इन कामों के हो जाने से, द्वैध शासन का अंत हो जाता? वर्तमान शासन-पद्धति का रूप बदला जाता? और शासन के उस पलटे हुए रूप में जनता की ध्वनि प्रतिध्वनित होती दिखायी देती? होता कुछ भी नहीं, परंतु बाहर से, लोगों को बिगड़ी बात का बना हुआ रूप दिखाने भर को यह ढंग अच्छा था। संक्षेप में, स्वराज्य दल के सारे ऐंच-पेंच बेकार गये और अब वह वर्तमान शासकों के सामने कहीं पर दंड-प्रणाम कर रहा है और कहीं पर निराशा से भरी थोड़ी-बहुत लड़ाई लड़ रहा है और यह सब है परिणाम उस कार्य-प्रणाली का जिससे हमारे कार्यकर्ता अपने व्यक्त्वि, अपनी योग्यता, अपनी वाग्मिता का भरोसा तो बेहद करते हैं, परंतु उन्हें देश के महान् भविष्यत् और देश के करोड़ों व्यक्तियों की गुप्त और अविकसित शक्ति का भरोसा बहुत कम है।
उनमें से कुछ के मन में यह बात भी अत्यंत बल के साथ काम करती हुई मालूम पड़ती है कि हमारे शासक अत्यंत बलवान हैं, हम उन्हें नहीं हटा सकते, वे सिर पर सवार रहेंगे ही, इसलिए अपने सिर को चट्टान से टकराने से क्या फायदा? जो इस विचार के हैं, उनसे हमें कुछ भी नहीं कहना। परंतु जिन कार्यकर्ताओं के मन मन में इस विश्वास का अणुमात्र भी हो कि देश का साधारण आदमी घास-फूस से अधिक महत्व की वस्तु है, घास-फूस में लगी हुई आग तो केवल विनाश का काम कर सकती हैं, परंतु इस साधारण आदमी के कलेजे में दहक पड़ने वाली ज्वाला देश के घर-घर में प्रकाश पहुँचा सकती है और इस प्रकार अन्याय और अत्याचार के घोर अंधकार के लिए कोई गुंजाइश नहीं रख सकती, वे दया करके अपनी दृष्टि अपने ऊपर से तथा अपने आसपास की अवस्था से हटाकर देश के दूर-दूर स्थलों तक भी फेंकना सीखें। कौंसिल में आपके प्रस्ताव पास ही हो जायें तो क्या? आप सरकारी आय-व्यय के लेखे को ठोकर भी मार दें तो उससे क्या? हमारे हाकिम कच्चे खिलाड़ी नहीं। उन्होंने फुसलाने को, दम-दिलासा देने को, कौंसिलों के नाम की बहस-मुबाहसा करने वाली समितियाँ खोल दी हैं। आइये, वहाँ खूब व्याख्यान दीजिये, चुटकियाँ काटिये और नाराजगी दिखाइये। कभी नाखुश हों, तो कभी-कभी, ढंग से, आप खुश भी कर दिये जायेंगे।
आप समझते हैं कि आपको जो करना था वह आप कर चुके। हमारे हाकिम समझते हैं कि अच्छा बेवकूफ बनाया। आप अधिक बिगड़ जायें, तो आप बिगाड़ ही क्या लेंगे? हमारे हाकिम जानते हैं कि इस जाल में घसीट लाने से बहुत लाभ हुआ है खरी-खोटी सुननी पड़ती है तो इससे अपना बिगड़ता ही क्या है वे उपद्रवी लोग तो इस काम में फँसकर, साधारण आदमी से दूर हो गये, इसलिए अब वे दूर तक, आग फैलाने के काबिल नहीं रहे और यह भी हुआ कि साधारण आदमी के संसर्ग में रहने से जितने वे बलवान थे, उतने बलवान भी न रहे। प्रत्येक सरकारी आदमी इस बात को भली-भाँति समझता है। वह समझता है कि यदि मि. पटेल धमकी देते हैं कि सरकार रेलवे बोर्ड का बेजा खर्च यदि बढ़ा देगी और प्रजा के हित का कोई ख्याल नहीं रखेगी तो प्रजा ऐसा आंदोलन करेगी कि सरकार की नाम में दम हो जायेगा, तो इस धमकी में तनिक भी सार नहीं है, यह पूरी हो ही नहीं सकती। इन लोगों को साधारण प्रजा से अलग कर, उन्हें शिमला और दहली के सोने के पिंजड़ों में चहकने की सुविधा देकर, हमने इनके हाथ-पैर बाँध दिये हैं। ये चीजें, जितना चाहें - कर ये कुछ नहीं सकते। हम अत्यंत नम्रता के साथ अपने इस प्रकार के देश-भाइयों से पूछते हैं कि हमने चित्र का जो रूख आपके सामने पेश किया है, क्या वह गलत हैं? हमारा नम्र निवेदन है कि हमारे कार्यकर्ता शक्ति के स्त्रोत, साधारण जनता से दूर न हटते जायें, उन्हें अपने व्यक्तित्व, अपनी योग्यता और अपने रटे हुए शब्द-आदर्शों का मोह अधिक पथभ्रष्ट न करे। वे देश की आजादी के स्पष्ट लक्ष्य से दूर न होते जायें। साधारण आदमियों की सामूहिक शक्ति के विकास और उसके संघटन के बिना हम अपने लक्ष्य को कदापि प्राप्त न कर सकेंगे। यह विकास और संघटन देश के झोंपड़ों के लिए काम करने से ही हो सकता है। जब गाँव का गरीब आदमी देखेगा कि आपके उद्योग से, उसके बेगार के कष्ट दूर हो गये, उस पर पुलिस और जमींदार के अत्याचार कम हो गये, उस पर बीमारियों और आपत्तियों के प्रहार कम हो गये, तो वह आपके आदेश के अनुसार, देश के कल्याण के लिए, अपनी भावनाएँ और शक्तियाँ श्रद्धा और प्रेम के साथ अर्पित कर देगा। इस अपार बल को पाकर आप देश के शासकों का क्या, किसी का भी मुकाबला कर सकेंगे। ऐसे बड़े शुभ और आवश्यक काम को छोड़कर कौंसिल और सहयोग-प्रति-सहयोग के साधारण काम में देश के कार्यकर्ताओं का बल क्यों लगे? देश-भाई, हमारे सर तेज बहादुर, मि. चिंतामणि और पं. कुंजरू - इस काम को कहीं अच्छी तरह सँभाल सकते हैं। हमारे अधिक क्रियाशील आदमी इस काम में लग कर और उस बड़े काम से अलग रहकर, लक्ष्य से दूर क्यों हटते जायें?