लखनऊ जेल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
एक दिन अचानक जेलर ने आ कर कहा कि आप चारों ही लखनऊ जाने के लिए तैयार हो जाए। आप लोग तो फर्स्टक्लास के कैदी हैं। इसलिए सरकार का हुक्महैकि यहाँ नहीं रह सकते। उन्हें लखनऊ भेजो। हम लोग तैयार हो गए। मैं तो यह बात नापसंद करता था। लेकिन एक खुशी भी हुई कि साथियों को, जो कभी स्वतंत्रभारत केकर्ता-धार्ताबनेंगे, जरा नजदीक से देर तक देख सकेंगे और आगे के लिए निष्कर्ष निकालेंगे। हमारे तीन साथियों को तो खुशी हुई कि लखनऊ चल कर घी-दूध उड़ाएँगे औरों की तरह।
यह भी एक निराली बात थी कि बेमुरव्वती के साथ इन्कार करने पर भी प्रथम श्रेणी का व्यवहार हमसे हटाने को सरकार तैयार न थी। महाभारत में एक स्थान पर लिखा है कि जब मैं दुनिया के पदार्थों को तिरस्कार की दृष्टि से देखता और बेमुरव्वती से इन्कार करता हूँ तो वे मेरे पास गिरे पड़ते हैं। मगर जब चाहता हूँ तब न जाने कहाँ चले जाते हैं! उसी का नमूना हमें देखने को मिला।
हाँ, तो हम लोग ट्रेन में बैठे और लखनऊ स्टेशन पर जा धमके। वहाँ से जिला जेल में पहुँचाए गए। वहाँ सभी पुराने साथी फिर मिले। वहीं पर मुरादाबाद के एक साथी ने हमसे बातें कर के हमारी आम वाली तकलीफ के निवारणार्थ जल चिकित्सा का प्रयोग बताया। उनकी सब बातें सुन कर मैं उसके लिए तैयार हो गया। क्योंकि यह चीज मेरे स्वभाव के अनुकूल ही थी। मैं स्वभाव से ही दवाइयों का विरोधी एवं संयम का समर्थक हूँ और जलचिकित्सा में यही दोनों बातें हैं। फिर वह मुझे रुचती क्यों नहीं? फलत: उसके लिए टब मँगवाया और सोचा कि केवल रोटी खाऊँगा जो उस चिकित्सा के अनुकूल हैं। जलचिकित्सा की बात आगे लिखी हैं।
लेखनऊ जेल में हमारे तीन साथी तो सभी चीजें खाने-पीने लगे। मगर मैंने तो इन्कार किया था। फलत: यदि वह बात रखनी थी तो या तो जेलवालों से साफ कह देता कि मैं ये चीजें नहीं लेता जैसा कि बाबा राघव दास करते थे या चीजें आने देता। लेकिन उन्हें काम में न ला कर किसी कैदी को देता। मैंने दूसरा मार्ग स्वीकार किया। पहले रास्ते में मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कुछ खास प्रचार भले ही हो जाए कि मैंने फिर भी इन्कार किया उन रिआयेतों को स्वीकार करना। परंतु कोई और लाभ नहीं। मैं ऐसे प्रचार और ऐसी ख्याति को ज्यादा पसंद नहीं करता। इसलिए सामान सभी आते थे। मगर मैं चुपचाप सब चीजें उस कैदी को देता था जो मेरा काम करने और पानी वगैरह लाने के लिए दिया गया था। सिर्फ आटा ले लेता। सो भी एक समय के खाने भर ही। पर, जलचिकित्सा में तो चोकर मिला हुआ आटा चाहिए। इसलिए थोड़ा आटा जेलवालों को लौटा कर बदले में चोकर लेता और उसे ही आटे में मिलाता था। केवल उसी की रोटी बिना साक, दाल, घी, दूध, आदि के ही खा लेता। एक ही समय भोजन करता। रोटी बनाने में तरद्दुद होता देख और जलचिकित्सा के लिए अनुकूल समझ मैंने कलकत्ते से 'इक मिककुकर मँगवा लिया। जलचिकित्सक ने भी इसे पसंद किया। मैं उसी में रोटी पकाता।
रोटी पकाना क्या था , आटा गूँध कर एक कटोरे में रखता और कुकर में चढ़ा देता था। भाफ से वह पूरा सिद्ध हो जाता था , वही मेरा भोजन था जिसे पूरे डेढ़ घंटे में खाता था। कभी-कभी पतली रोटियाँ बना के तले-ऊपर कटोरे में उन्हें रख देता। वे आपस में चिपक नजाएइसलिए दो रोटियों के बीच जरा सा सूखा आटा छिड़क देता। चाहे रोटियाँ हों या गूँधेआटे का एक ही पिंड हो, स्वाद समान ही होता था।बेशक मिठास बहुत होती थी। यह चीज बराबर आठ-नौ महीने चलती रही। इतना ही नहीं, जेल से बाहर आने पर भी प्राय: बहुत दिनों तक वही खाता रहा। कुकर से मेरा पहला परिचय लखनऊ जेल में हुआ और तभी से वह मेरा पक्का साथी हो गया है। कभी गेहूँ की दलिया भी पकाता और कभी-कभी खरा गेहूँ ही सिझा लेता। दलिया से भी मेरा प्रेम वहीं हुआ और तबसे फल के बाद वह मेराप्रधानभोजन बन गई। यदि फल हो तो ठीक हीहै। नहीं तो दलिया चाहिए।
लुईकुने ने , जो जलचिकित्सा के आविष्कर्ता हैं , कहा है कि मनुष्य को अपना स्वाभाविक भोजन करना चाहिए जो फल और साग-पात के सिवाय और कुछ नहीं है। सो भी पहले हरा फल, न होने पर सूखा, उसके अभाव में खड़ा-खड़ा कच्चा गेहूँ, उसके अभाव में उसका आटा चोकर के साथ ही और आटे के अभाव में उसकी रोटी। बस, एकेबाद दीगरे यही हमारा खाद्य है। मैंने कभी कच्चा आटा भी खाया और खड़ा गेहूँ भी। मैंने अनुभव किया कि थोड़े ही गेहूँ या आटे में तृप्ति हो जाती है। असल में देर करने पर खाद्य पदार्थ में एक प्रकार की स्वाभाविक मिठास भी प्रतीत होतीहै। खाने का मूलमंत्र है खूब चबा के खाना और पानी यादूधपीना जरा-जरा सा मुँह में चारों ओर चला-चला के, जिसे अंग्रेजी में सिप (Sip) करना कहते हैं। खाने और पीने में यदि ऐसा कियाजाएतो अपच आदि की शिकायत तो हर्गिज रह नहीं सकती।
प्रथम श्रेणी की सुविधाओं की बात निराली ही निकली। सरकार ने एक प्रकार से लोगों को ठग ही लिया जहाँ तक खाने-पीने का प्रश्न था। पहले तो, जहाँ तक याद है, हरेक आदमी को रोजाना डेढ़ रुपए मिलते थे। मगर थोड़े ही दिनों में वह बंद कर दिए गए। यह बात बनारस जेल में ही थी। लखनऊ जेल में आने पर, मेरे समय में तो रुपयों की जगह घी, चीनी, दूध वगैरह सामान मिलने लगा था। मैं नहीं जानता कहाँ तक सही है, क्योंकि मेरे सामने की बात नहीं है, लेकिन जैसा कि मुझे बताया गया कि जब रुपयों को केवल खाने-पीने में न लगा कर हमारे कुछ साथी और तरह से भी खर्च करने या जमा करने लगे तो सरकार ने उनके बजाए सामान (Ration) देना शुरू कर दिया। लेकिन यह बात भी बराबर जारी न रही। कुछ समय बीतने पर एकाएक सरकार की ओर से कहा गया कि मामूली कैदियों के ही खाने-पीने का सामान आप लोगों को भी मिलेगा। यदि ज्यादा खाना-पीना है तो घर से मँगा कर खा-पी सकते हैं!
मैंने देखा कि बहुतेरे लोग तो मुर्झा गए। वे बाहर से मँगा सकते न थे। फिर भी कुछ लोगों ने तो बाहर से मँगा-मँगा के खाया ही। आखिर करते भी क्या? आदत तो बिगड़ गई थी। बिना मँगाए काम चलता न था। सरकार ने भी हमारी कमजोरियाँ खूब समझीं। वह जान गई कि ये लोग अब चसक गए हैं। खामख्वाह घर से मँगा के खाएँगे ही, यदि चाहेंगे। इस प्रकार उसने भिगा-भिगा के हमें मारना चाहे तो हमें होश भले ही नहीं हुआ। मैंने तो देखा कि सब प्रकार से मैं ही अच्छा रहा। उस मौके पर जो आनंद मुझे हुआ वह वर्णनातीत था। मैंने साफ देखा कि यह तो 'गुनाह बेलज्जत' वाली बात थी और मैं बाल-बाल इससे बचा।