लखि बाबुल मोरे / आकांक्षा पारे
शाम फूल गई है, अब शायद बारिश न हो। मेरे आने के दो घंटे बाद उनका यह पहला वाक्य था। उनके कहने पर मैंने अपनी किताब से आंखें उठाकर खिड़की से बाहर टिका दी। धूप का रंग पीला था। लग रहा था धूप ने यह पीलापन उनके बीमार मुंह से उधार मांग लिया है। मैंने असमंजस भरी आंखों से उन्हें देखा। हल्की आवाज में उन्होंने कहा, जब शाम ऐसी धुंधली पीली हो जाती है तो उसे शाम फूलना कहते हैं। इसके बाद बारिश नहीं होती। यह बरसात खत्म होने का संकेत है। ज़रूर खेतों में कांस भी फूल गया होगा। कांस तो तुम्हें पता है न वह सफेद रंग का चमकीला-सा जिसे तुम बचपन में सफेद झाड़ू कहा करती थीं। बारिश के बाद यदि खेत में यह खूब उगता है। तुम देखोगी न तो पहचान जाओगी। जब ऐसी चमकीली सफेद फुनगियां आ जाती हैं तो किसान समझ जाते हैं कि बारिश अलविदा कह रही है।
अलविदा... बहुत देर तक उन्होंने इस शब्द को खुद ही खुद में मुंह में चुभलाया। जैसे कोई बच्चा च्विइंगम चुभलाता है ताकि बाद में उसका गुब्बारा बना सके. वह खुद से ही बातें करने में लगी हुई थीं। यह जाने बिना कि मैं उनकी सुन भी रही हूँ या बस ऐसे ही सिर हिला रही हूँ। अच्छा तुम्हें नहीं लगता कि कांस या शाम फूलने की तरह इंसान के पास भी ऐसा कोई साधन होना चाहिए जिससे वह जान सके की उसका भी अलविदा कहने का वक्त आ गया है। उन्होंने मेरे चेहरे पर निगाह टिका दी। मैंने उन्हें ऐसे देखा जैसे कहना चाह रही हूँ, आपके हाथ में लगी यह ड्रिप की सिरींज, बांह पर कसा ब्लड प्रेशर नापने का पट्टा, तमाम चिप्पियों से लैस आपकी छाती जो पल-पल दिल की धड़कन का हाल कह रही है, मानना चाहें तो क्या यह अलविदा कहने के संकेत नहीं हैं। लेकिन मुझे पता था एक बीमार से खास कर अस्पताल में तो ऐसी बातें बिलकुल नहीं कहीं जा सकतीं। पर वह भी हैं पूरी दुनियादार। तुरंत समझ गईं की मैं क्या कहना चाहती हूँ। तपाक से बोलीं, वैसे तो अब मेरा जीवन मौत के पास रहन रखा हुआ है। हर दिन तक मौत चाहेगी जीवन को उधार देती रहेगी। जिस दिन नहीं चाहेगी मैं आजाद हूँ और तुम भी। तुम भी पर उन्होंने विशेष जोर दिया। आगे उन्होंने धीरे से जोड़ा, फिर तुम्हें हर रोज यहाँ आकर बैठना नहीं पड़ेगा। उसके बाद तुम जहां चाहो जा सकती हो। जैसे चाहो रह सकती हो। शायद उन्होंने जानबूझ कर नहीं बोला, जिसके साथ चाहो रह सकती हो। बिलकुल अपनी बाप की तरह। वह अकसर उलाहना देती थीं कि मैं पिता की तरह जिद्दी हूँ और बिलकुल उन पर गई हूँ। उनकी तरह हमेशा अपनी मर्जी का करना चाहती हूँ। मैं उन्हें कोई जवाब देती उससे पहले कमरे में उनके दाखिल होने की आहट दाखिल हो गई. वह किसी को झिड़क रहे थे। शायद सफाई पर। मैंने उनकी दुबली कलाई थामी और जल्दी से उनका हाथ चूम लिया। आश्चर्य का एक नन्हा परिंदा उनकी आंखों में आया और जल्द ही कहीं दुबक गया। मैं बाहर निकलती उससे पहले उनकी खुशबू में फिनाइल की गंध मिल गई और मैं अपने लहराते स्कर्ट को समेटती पोछा लगाने वाले से बचती हुई ऐसे काफूर हो गई जैसे यदि उनसे सामना हो जाएगा तो वह मुझे बोतल में बंद कर हमेशा के लिए कैद कर लेंगे।
उन दोनों से अबोले का यह चौथा या पांचवां महीना था। उन दोनों की मर्जी के विरुद्ध मैंने दूसरे शहर में नौकरी शुरू कर दी थी और अपने बचपन का शहर छोड़ कर एक नए शहर में अनजान चेहरों से जूझ रही थी। उन्होंने मुझे फोन पर अपनी बीमार पत्नी का हवाला दिया था। वह तुम्हें आखरी बार देखना चाहती है। उनकी आवाज डूब गई थी। मुझे लगा यह मुझे वापस लौटने का बहाना होगा। फिर भी बैग में चार कपड़े डाल कर मैं चल ही दी। मैंने सोचा था बस उन्हें देखूंगी और वापस लौट आउंगी इस अनजान दुनिया में। आखिर अब तक मैं उस घर में अनजान की तरह ही तो रही थी। परिचितों के साथ अनजान बन कर रहने से अच्छा तो अपरिचितों के साथ हर दिन परिचय का युद्ध लड़ा जाए. लेकिन कुछ था सलवट वाले उस चेहरे में की जब उन्होंने मुझे अस्पताल से घर लौटने को कहा तो मैंने एक बार भी ना-नुकूर नहीं की। उनके हिसाब से फूली हुई शाम गहरी स्याही-सी घर पर उतर रही थी। घर बिलकुल वैसा ही था जैसा मैं छोड़ गई थी। हर सामान करीने से रखा हुआ। धूल के कण जिन पर बैठने को तरस जाएं। परदे इतने साफ कि लगे यह रोशनी इन्हीं परदों से हो कर घर में गुजर-बसर करती है। तौलिए ऐसे की मैं हाथ पोंछने से पहले हर बार सोचती थी, वाकई मैंने हाथ ठीक से धो लिए हैं। सफाई और करीने से सामान रखने की इस खब्त से हॉस्टल में नमिता हमेशा कहा करती थी, तुम ज़िन्दगी नहीं नियम जीती हो। कभी नियम तोड़ कर बाहर निकलो तुम्हारा कुछ खास नुकसान नहीं होगा। सच्ची। मैंने बचपन से ही यह नियम जीना सीख लिया था। इस घर में नियम ही जिए जाते थे सदा से। कौन कैसे जिएगा यह बिलकुल स्पष्ट था। सुबह की चाय ठीक सात बजे, रात के खाने का पहला कौर मुंह में जाए और घड़ी साढ़े सात का डंका न पीट रही हो तो समय खुद पर ही शर्मिंदा हो जाए. घर पहुंच कर मैंने फिर वही घुटन महसूस की। मेरा मन फिर कह रहा था कि मुझे अपने गहरे गुलाबी बैग में उन चारों जोड़ी कपड़ों को ठूंस कर यहाँ से फौरन निकल कर जाना चाहिए. मैं यह सोच ही रही थी की मेरी नजर उस फोटो पर अटक गई जिसमें वह अपने दुबले हाथों में मेरी ट्रॉफी उठाए खड़ी थी। मैं बगल में उनकी कोहनी में हाथ डाले उन्हें देख रही थी। उस तस्वीर के अलावा मैंने उनकी ऐसी हंसी दोबारा कभी नहीं देखी। आखिर मैं उन्हीं के लिए तो यहाँ हूँ। वह एक बार ठीक हो जाएं तो फिर मुझे यहाँ कौन रोक सकता है। मैंने वहाँ रह जाने के लिए खुद को दलील दी। मैं उनकी विशाल घड़ी के पेंडुलम में खुद को देख रही थी। न तन से वहाँ नहीं थी और न मेरा मन वहाँ जाने को तैयार था जहां वाकई मैं जाना चाहती थी।
मुझे आए चार दिन हो गए थे। धीरे-धीरे उनकी हालत में सुधार हो रहा था। वह बीच-बीच में आंखें खोल कर देखती थीं। मुझसे नजरें मिलने के बाद वह इत्मीनान से आंखें बंद कर लेती थीं। चार दिन में वह जान गईं थी कि मैं दिन चढ़ने पर आऊंगी और दिन जब अपने हिस्से की रोशनी खर्च कर देगा तभी मैं वहाँ से हिलूंगी। जब मैं उनके कमरे में गई तो एक डॉक्टर उनकी कलाई थामे अपनी कलाई पर नजरें गड़ाए खड़ा था। दो-तीन ऐसे ही सफेद कोट वालों ने उन्हें घेर रखा था। नारंगी कुरते वाली एक सांवली-सी लड़की उसके बगल में फाइल थामे खड़ी थी, उसके बालों में खूब सारी लहरे समाई हुई थीं। उन लहरों को उसने बेपरवाह-सा पीछे लाकर कांटे से रोक दिया था। मेरा मन किया धीरे से उस कांटे को निकाल दूं और लहरों का वह तटबंध खोल दूं ताकि इस नीरस वातावरण में रुमानियत भर जाए. लेकिन वह इस सब से बेखबर धीरे-धीरे डॉक्टर के कहने पर पेंसिल से कुछ लिखती जा रही थी। डॉक्टर ने लगभग चहकते हुए कहा, मिसेज तिवारी कल रात से आपका टेम्परेचर बिलकुल ठीक है और पल्स रेट भी। मुझे लगता है अब आपको ज़्यादा दिनों तक हम लोगों की शकल नहीं देखना पड़ेगी। बस ऐसे ही खुश रहिए और देखिए हम आपको खुद घर तक छोड़ने चलेंगे। डॉक्टर की आवाज ऐसी थी जैसे उस आवाज को किसी ने रेगमाल से घिस दिया हो। लेकिन उस खुरदुरी आवाज में आत्मीयता इतनी थी की उसकी खरजती आवाज पर ध्यान सबसे बाद में गया। मैं उस वक्त उनका चेहरा देखना चाहती थी लेकिन वह ऐसे घिरी थीं कि उन्हें देखने के लिए मुझे उन लोगों को ठेल कर परे करना पड़ता और जबर्दस्ती वहाँ जगह बनानी पड़ती।
भीड़ छंटी तो उनकी निगाह मुझ पर पड़ गई. इस बार रोज के मुकाबले उनके होंठ ज़्यादा फैले। मैंने तो सोचा तुम... कह कर वह रूक गईं और फिर मुस्करा दीं। उनकी निगाह ने वाक्य पूरा किया, कल तो तुम अलविदा बोसा भी दे गईं थी न तो मैंने सोचा। बदले में मैंने सिर्फ़ पलकें झपका दीं। मैंने उनकी निगाह के आइने में ही खुद को देखा जो कह रही थीं, अस्पताल वाले मुस्कराने का बिल नहीं लेंगे सो दिल खोल कर मुस्करा लो। मैंने स्टूल पास खींचा और उस पर बैठ गई. आप कुछ खाएंगी, मैं फल लाई हूँ। तीन दिन में यह मेरा पहला वाक्य था। उन्होंने मुझे पास खींचा और मेरा माथा चूम लिया। मेरे सुनहरे बाल उनकी मुट्ठी में थे और गेहूँ की बाली में तांबई रंग घुले जैसे मेरे गाल लाल पड़ गए थे। मेरी नीली आंखें भीग गईं थी यह उन्होंने जान लिया था। वह भर्राए गले से बोली, हो सके तो यहीं रह जाओ मेरी खातिर। उनकी आवाज में एक प्रार्थना थी। मेरी आंखों से पानी के कतरे उनकी कलाई पर गिर पड़े। वह चौंक गईं और पूरी ताकत लगा कर उठ बैठीं। उन्होंने गौर भी नहीं किया की इसकी वजह से उनके हाथ में लगी ड्रिप में खिंचाव आ जाएगा। वह दर्द से चिंहुक उठीं। मैंने घबरा कर देखा, हाथ खिंचने से उनकी ड्रिप में हल्की लाली उपर उठ रही है। मैं उन्हें दोबारा लेटाती उसके पहले ही बालों में लहरों वाली वह लड़की आ गई. उसने अजीब निगाहों से मुझे देखा और बहुत ही सख्ती और रूखेपन से कहा, आप मरीज को आराम करने दें तो बेहतर होगा। वैसे भी अब ये ठीक हो रही हैं। जो वह कह नहीं पाई वह यह था कि अब रोने की ज़रूरत नहीं अब वह कहीं और जाने के बजाय घर ही जाएंगी। मैंने गौर से लड़की को देखा उसके चेहरे पर छोटे-बड़े कई गड्डों ने मिल कर तरह-तरह की आकृति बना दी थी। उसके चेहरे में उसके बालों की मासूमियत का ज़रा भी अंश नहीं था। सभी के दो चेहरे होते हैं यह तो मैं जानती थी लेकिन लोग आगे और पीछे से भी अलग-अलग दिखते हैं यह मुझे बस अभी थोड़ी देर पहले पता लगा। जिसकी पीठ इतनी मासूम हो क्या उसका चेहरा इतना सख्त हो सकता है। वह लेट गईं लेकिन मेरा हाथ अब भी उनके हाथ में था। लड़की जैसे ही पलटीं उन्होंने अपना हाथ मेरी गिरफ्त से छुड़ाया और तर्जनी को कनपटी पर लगाकर चाबी घुमाने के अंदाज में उंगली घुमा दी। हंसी का एक बुलबुला कमरे में तैरा और लड़की पलट गई. हम दोनों हंस रहे थे। पता नहीं कितने दिनों बाद। वह कम ही हंसती थी। मुझे पता ही नहीं था कि वह इतनी जिंदादिल हैं।
अगली सुबह मैं इतने तड़के उनके पास थी की उन्होंने हैरत से मुझे देखा और बिना लाग-लपेट कर बोल पड़ीं, तुम तो देर तक सोती हो। तिवारी खानदान की शायद मैं पहली सदस्य थी जिसे सूर्योदय के बाद भी बिस्तर नसीब होता था। मैंने कुछ बोलने के बजाय बस इतना ही कहा, आज ये लोग आपको छुट्टी दे रहे हैं। मैं आपको... मैं अपना वाक्य पूरा करती इससे पहले खरजती आवाज ने सूचना दी कि उनका बिल बन रहा है वह अपने जाने की तैयारी करें। उसने एक बार फिर उनकी कलाई थामी और अपनी कलाई में बंधे समय पर नजरें टिका दीं। वह निकलता उसके पहले उसकी निगाह मुझ से टकराई और बहुत अनौपचारिक ढंग से उसने पूछ लिया, यह कौन है आपकी, बड़ी सेवा करती है। मेरी निगाहें उनके चेहरे पर जम गईं। उनकी धड़कने नापने के लिए लगा ईसीजी क्लिप यदि मेरे सीने में लगा होता तो पता चलता कि मेरी धड़कने आसमान छू रही थीं। उन्होंने मेरे चेहरे को देखते हुए कहा, पोती है मेरी। मेरे बड़े बेटे की बेटी. धक से मेरी धड़कने धराशायी हो गई. मुझे समझ ही नहीं आया क्या कहूँ। यह एकदम विदेशी लगती है। वह उनका ब्लड प्रेशर चेक करते हुए सामान्य ढंग से बोला। हां। इसकी माँ रशियन थीं। मुझे लगा पसीने से भीगे मेरे तलवे और हथेलियां सुन्न पड़ गए हैं। जिस सच को मैं यहाँ वहाँ से सुनती आई थी उसे आज पहली बार उनके मुंह से सुन रही थी। सुनी-सुनाई में मुझे इतना तो पता था कि मेरे पिता ने उनके पिता की मर्जी के खिलाफ विदेशी लड़की से शादी कर ली थी और मुझे जन्म देने के कुछ घंटों में ही वह चल बसी. लेकिन यह बातें सिर्फ़ हवा में तैरती थीं कभी ठोस जमीन पर आई नहीं की मैं पूछ पाती। उनके पति जिन्हें कायदे से मुझे दादाजी कहना चाहिए उन्होंने एक निश्चित दूरी हमेशा मुझ से रखी। मेरे सुनहरे बाल, नीली आंखें गवाह थी कि दिखने में मैं माँ पर गई हूँ। लेकिन जब भी मैं कोई काम करती तो अकसर उनका बुदबुदाना सुनती थी, बाप पर गई है। लेकिन जिस पिता पर मैं गई थी वह मुझे इन दोनों बुजुर्गों के हवाले कर पता नहीं कहाँ चल दिए थे। मेरी माँ विदेशी थीं सावर्जनिक रूप से यह पहली स्वीकारोक्ति थी। अच्छा डॉक्टर ने अपनी एक भौंह को ऊपर किया और गौर से एक बार फिर मुझे देखा। मैं उनसे कुछ पूछने ही वाली थी कि उनके पति हाथ में बिल लिए चले आए. वह तुरंत ऐसे चुप लगा गईं जैसे सुबह से उन्होंने एक भी शब्द न बोला हो। मैं उनसे कहने आई थी कि अब आप ठीक हो गईं हैं इसलिए मैं दोबारा हॉस्टल जा रही हूँ। लेकिन मैंने खुद को फिर उसी करीने से सजे घर में पाया। माँ को ढूंढ़ा नहीं जा सकता था लेकिन मेरे कई बार पूछने पर भी उन्होंने पिता के बारे में कभी कोई जवाब नहीं दिया था। क्या मुझे रोके रखने के लिए उन्होंने डॉक्टर को यह बात मेरे सामने बताई थी। वह अस्पताल से लौटीं थीं और उन्हें आराम करने की हिदायत दी गई थी यह जानने के बावजूद मैं उनके कमरे में पहुंच गई. यह चिंता किए बगैर कि वह कुछ घंटे पहले ही उन्होंने मौत के पास गिरवी रखी अपनी ज़िन्दगी को छुड़ा है मैंने सवाल उछाल दिया, पापा कहाँ रहते हैं। मुझे लगा मैंने चेहरे को कुछ ज़्यादा ही सख्त बना लिया है। उन्होंने बहुत शांति से मेरे चेहरे को देखा और हाथ से ईशारा कर पलंग पर बैठने को कहा। जितने बेतुके ढंग से मैंने पूछा था उतने ही शालीन तरीके से उन्होंने कहा, तुम्हारी माँ के देहांत के बाद हम तुम दोनों को लेने रूस गए थे। बहुत मुश्किल से मना कर हम उसे यहाँ ला पाए थे। सोचा था उसकी दूसरी शादी कर देंगे। जब तुम्हारे दादा ने उस पर दूसरी शादी का बहुत दवाब बनाया तो वह बिना बताए लंदन चला गया और अपनी निशानी के तौर पर तुम्हारे अलावा सिर्फ़ एक पुर्जा छोड़ गया। जिस पर लिखा था प्यार एक बार होता है और अपने हिस्से का प्यार मुझे मिल चुका है। मैं बाकी ज़िन्दगी उन्हीं यादों के सहारे काटूंगा। हमने उसे बहुत खोजा। साल भर बाद हमें उसकी चिट्ठी मिली जिसमें उसने बताया था कि वह लंदन में आगे की पढ़ाई कर रहा है और अब वही रहेगा। तुम्हारे दादा फौरन उससे लंदन मिलने गए लेकिन उसने वापस आने से इनकार कर दिया। बाद में उसने तुम्हें लंदन भेजने के लिए बहुत दबाव बनाया लेकिन तुम्हारे दादा ने तुम्हें सौंपने से साफ इनकार कर दिया। उसके बाद उसके न खत आए न उसने हमारे खतों का जवाब दिया। आप झूठ बोल रही हैं। मैं आक्रमक हो गई थी। उनकी आंखें आश्चर्य से फैल गईं। यह तुम्हारी नाइंसाफी है। वह खांसते हुए सिर्फ़ इतना ही बोल सकीं। आपका बेटा चला गया और आपने परवाह नहीं की। परवाह तो उसने नहीं की। वह भी जिरह पर उतर आईं थीं। कुछ तो आप लोगों ने भी किया होगा न। मैंने उन पर एक आरोप जड़ दिया।
हां हमने किया था। खूब प्यार किया उसे। उसकी हर जिद मानी। उसके पिता उसे इंजीनियर बनाना चाहते थे लेकिन उसने डॉक्टरी पढ़ने की ठानी। चूंकि उसके दोस्त रूस जा रहे थे सो वह भी उनके साथ रूस चला गया। हमने उसे वहाँ जाने दिया। हम चाहते थे वह डॉक्टरी पढ़ कर भारत लौट आए उसने वहीं बसने का फैसला ले लिया। वह जानता था उसके पिता सख्त हैं। वह जब दूसरी जाति की बहू ही स्वीकार नहीं कर पाएंगे तो विदेशी बहू की तो सोचना भी ग़लत था। वह सख्ती करते थे और वह विद्रोह करता था। उनके इस खेल में सिर्फ़ मैं और तुम ही पिसी हो। यह बात सिर्फ़ मैं जानती हूँ कि तुम्हारे दादाजी हर हफ्ते उसके कॉलेज फोन करते हैं और उसकी आवाज सुनते हैं। लेकिन वह इनता निष्ठुर हो गया कि अपनी माँ की याद भी उसे नहीं आती। वह हांफने लगी थी। उनकी आंखों के डोरे लाल हो गए थे। मैंने उन्हें लेटाया और पानी पिलाने लगी। मैं कुछ देर उनके पास बैठी रही और फिर उठ कर अपने कमरे में चली आई. पहले इसी बात पर बहस कर मैं घर छोड़ हॉस्टल चली गई थी। लेकिन इस बार मेरा मन ऐसा कुछ भी करने का नहीं हुआ। उनके शब्द बार-बार मेरे कान में गूंज रहे थे। इस खेल में सिर्फ़ मैं और तुम ही पिसी हो। मैं दोबारा उनके कमरे में गई. उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। वह तकिए पर अधलेटी हाथ में एक पुराना एलबम लिए पलटा रही थीं। मुझे देखते ही उन्होंने एलबम बंद कर आंसू पोंछ लिए. मुझे कुछ पैसे चाहिए. मैंने उनसे कहा। कितने। जितने में लंदन का टिकट आ जाए. उन्होंने सपाट निगाह से मेरा चेहरा देखा, इतने पैसे तो मेरे पास नहीं हैं। इसके लिए तुम्हारे दादा से कहना होगा। तो उनसे कहिए अभी। मैंने ऐसे जिद की जैसे लंदन का टिकट एक चॉकलेट हो।
वे दोनों मुझे बाहर तक छोड़ने आए थे। मैंने उनसे कहा, मैं आपको बिना बताए भी जा सकती थी, लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि बीस साल बाद दोबारा आपके एक पुर्जे से पता चले कि घर का एक सदस्य कम हो गया है। इस बार मैं उन्हें ले कर ही लौटूंगी। मैंने देखा एक चेहरे पर आश्वस्ति और दूसरे पर अविश्वास था। मैंने टैक्सी की खिड़की से चेहरा निकाल कर हाथ हिलाया। तुम्हें यकीन है ऐसा होगा उन्होंने कांपती आवाज में मेरे हाथ पकड़ लिए. ये ज़रूर कर पाएगी। बहुत जिद्दी है। मैं तो शुरू से कहता हूँ, बिलकुल बाप पर गई है।