लगाव / बलराम अग्रवाल
माता जी के रहते दूसरा कोई भी बाबूजी के कमरे को नहीं झाड़ता-बुहारता था। उनकी किस चीज़ को कहाँ रखना है-वही जानती थीं। लेकिन, जब से माता जी स्वर्ग सिधारी हैं, रमा ही उनका कमरा बुहारती है।
इधर, एक बात ने रमा का ध्यान कई दिनों से अपनी ओर आकर्षित कर रखा है। एक ओर को रख दी गई अम्माजी की ढुलमुल-सी पुरानी मसनद को स्टोर से निकालकर बाबूजी ने अपने पलंग पर दीवार के सहारे रख लिया है। अपने कमरे में अब वे कुर्सी पर कम, पलंग पर मसनद से पीठ टिकाकर ज्यादा बैठे नजर आने लगे हैं।
“पीठ में दर्द हो तो आपके लिए ‘मूव’ मँगा दूँ बाबूजी?” रमा ने मौका पाकर एक शाम उनसे पूछा।
“अरे नहीं,” वे बोले,“दर्द-उर्द कुछ नहीं है...इसे तो मैं ऐसे ही उठा लाया हूँ स्टोर से।”
“इनसे कहकर नया मसनद मँगवा दूँ बाजार से? ज्यादा आरामदायक रहेगा।” उसने पुनः पूछा।
“अरे नहीं बहू,” वे इस बार सीधा बैठते हुए बोले,“कहा न, भला-चंगा हूँ।”
उसके बाद रमा ने उनसे कुछ नहीं कहा। अलबत्ता पति को फोन करके ‘मूव’ की एक छोटी ट्यूब लेते आने को जरूर कह दिया। वह ले आया।
“किसके लिए चाहिए थी?” ट्यूब को पत्नी के हाथ में पकड़ाते हुए रवि ने पूछा।
“बाबूजी की कमर में दर्द है शायद।” वह बोली,“उनकी मेज पर रख आती हूँ। जरूरत समझेंगे तो लगाते रहेंगे।” इतना कहकर वह बाबू जी के कमरे की ओर बढ़ गई।
कमरे में कदम रखते ही, बाहर से पड़ते हल्के प्रकाश में उसने देखा—सिरहाने से पीठ लगाए बाबू जी पलंग पर बैठे हैं। मसनद उनकी गोद में रखी है। उनकी आँखें मुँदी हैं और आँसुओं की अविरल धारा उनसे बह रही है।