लगा हुआ स्कूल / अशोक भाटिया
नए साल में स्कूल खुल गए थे। रामगढ़ गाँव का यह सरकारी स्कूल मिडिल से हाई स्कूल बन गया था। कुछ दिन पहले वहां एक नया अधिकारी बिना पूर्व सूचना दिए पहुँच गया। उस समय स्कूल में एक सेवादार के अलावा कोई जिम्मेवार व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। बच्चे खुले में कूद-फांद रहे थे। गाड़ी को देख वे अपनी-अपनी कक्षाओं में दुबक गए। कमरों में लाइट नहीं थी, गर्मी और अँधेरा था।
-क्या बात, किधर हैं सब लोग?’ युवा अधिकारी का पारा चढ़ गया। सेवादार उनके निर्देशानुसार हाजरी का रजिस्टर ले आया। उसमें सभी अध्यापकों की हाजरी लगी हुई थी। अधिकारी को दाल में काला ही काला नज़र आ रहा था। उसने दोषियों को देख लेने की सख्त भाव-मुद्रा बना ली। सेवादार बड़ा अनुभवी था। ऐसे हालात से वह कई बार निपट चुका था। उसने साहब को खुद ही बता दिया कि हेडमास्साब बैंक तक गए हैं। आने ही वाले होंगे।
अध्यापकों के बारे पूछने पर वह तफसील से बताने लगा। पहला नाम सबसे सीनियर टीचर रामफल का था।
-जी रामफड़ गाम मैं ड्राप आउट बाड़कां का पता करण गए हैं।
-और श्रीचंद?
-वो आज बाड़कां खात्तर सब्जी खरीदण ने जा रया सै। मिड डे मील बणेगा।
-और ये कृष्ण कुमार कहाँ जा रहा है?’ कड़क अधिकारी ने सेवादार से ही सारी जानकारी लेना ठीक समझा या उसकी यह मजबूरी थी- कहा नहीं जा सकता।
-जी किशन भी दूध-धी खरीदण जा रया सै।
-सुबह-सुबह क्यों नहीं चला गया?’ अधिकारी ने टांग पर दूसरी टांग रखते हुए पूछा।
-जी वा बच्यां की गिणती करके ले जाणी थी। ’सेवादार ने स्पष्टीकरण दिया, जैसे सारी जिम्मेदारी उसी की हो।
अधिकारी ने ठोड़ी पर हाथ फेरते हुए सोचा– सारे बाहर के काम इन टीचर्स को ही दे रखे हैं। अब बाकी के टीचर तो पक्का फरलो पर होने चाहिएं।
-वो संस्कृत वाले शास्त्री कहाँ हैं?
-जी वा नए बाड़काँ खात्तर यूनिफाम का रेट पता करण शहर नै जाण लाग रे। इहाँ गाम मैं तो मिलदी कोन्या।
अधिकारी सकपका गया, पर उसे चौकीदार की बातें सच लग रहीं थीं। अब तक जितना उसने सुन रखा था, उसमें उसे अध्यापक ही दोषी और काम न करने वाले लगते थे। लेकिन यहाँ तो उसे माजरा कुछ और ही लग रहा था। उसे अपना इरादा पूरा होता नहीं दिख रहा था। उसने इधर-उधर देखा,धीरे-धीरे पानी के दो घूँट भरे, फिर चौकीदार से कहा- ये गणित वाले भूषण की भी रामकहानी सुना दे फिर। ’
-साब वो हर साल स्टेशनरी अर बैग खरीदया करे है। इब्बी आ ज्यागा।
इतने में कैंटीन वाला बुज़ुर्ग चाय ले आया था। कक्षाओं में से बच्चे रह-रहकर बाहर झाँकते हुए उस अधिकारी को देख लेते, मानो वह चिड़ियाघर से भागा हुआ कोई जंतु हो। अधिकारी को बहुत मीठी चाय भी कड़वी लग रही थी। उसने दो घूँट भरकर अपना काम पूरा करने की कवायद फिर शुरू की।
-ये अनिल कुमार भी किसी काम गया है?
-जी, गाम की मर्दमशुमारी की उसकी ड्यूटी लग री सै।
-जनगणना तो खत्म हो चुकी है!’ अधिकारी की सवालिया निगाहें उसकी ओर उठीं।
-साब वो तो पिछले महीन्ने घर और गाए-भैंस गिणन की हुई थी। इबकै धर्म अर जात का पता करण
गए हैं जी।
अब तक पी.टी.मास्टर को भी खबर मिल चुकी थी। वह आखरी कमरे से तेजी से निकला। आकर अधिकारी को करारी नमस्ते ठोकी और अपना परिचय दिया। वह स्कूल में तरह-तरह के काम करने से बड़ा परेशान था। अधिकारी ने चेहरे पर सख्ती और गर्दन में अकड़ को बढ़ाते हुए उससे पूछा –
-आप कहाँ थे? ये बच्चे हुडदंग कर रहे थे। इन्हें कौन कण्ट्रोल करेगा?
-सर, मैं नौवीं क्लास के बच्चों की आँखें और दांत चेक कर रहा था।
-ये काम तो डॉक्टर का है!
-सर, यहाँ कभी कोई डॉक्टर नहीं आता। पीर-बावर्ची-खर-भिश्ती सब हमें ही बनना पड़ता है।’ कहकर पी.टी. मास्टर अपनी भाषा पर मुग्ध हो गया।
तभी स्कूटर पर स्कूल के मुख्य अध्यापक अवतरित हुए। उन्होंने अधिकारी को बताया कि वे बैंक में बच्चों के खाते खुलवाने के कागज़ात जमा कराकर आये हैं। स्कूल का एकमात्र क्लर्क उस दिन छुट्टी पर था। अधिकारी और मुख्य अध्यापक- दोनों की आँखों में कुछ सवाल और विषय चमके, फिर दोनों की संक्षिप्त बातचीत के बाद उन सवालों की बत्तियां गुल हो गईं। पी.टी.मास्टर बच्चों को आयरन की गोलियां बांटने नौवीं कक्षा की तरफ हो लिया। मुख्य अध्यापक ने अधिकारी को नाश्ते के लिए जैसे-कैसे मनाया और उसे अपने घर की तरफ लेकर चल दिया।
स्कूल फिर पहले की तरह चलने लगा, जो आज तक वैसा ही चल रहा है....