लघुकथाः सहज सृजन की यात्रा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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यात्रा, केवल सड़क नापना भर नहीं है; पहाड़, नदियाँ, वन-उपवन, पगडण्डी पार करना मात्र नहीं है। जिस मार्ग से हम जा रहे हैं, उस वन, पर्वत, नदी आदि के परिवेश का आनन्द प्राप्त करना भी है। सर्जन भी ठीक वैसा ही है। केवल कथावस्तु का शाब्दिक ज्ञान या अनुभव पर्याप्त नहीं। शब्द के साक्षात् अर्थ से होती हुई हमारी यात्रा शब्द के एकाधिक अर्थों तक पहुँचने की होती है। लघुकथा में भी केवल शाब्दिक अर्थ की प्रतीति ही सब कुछ नहीं। शीर्षक के नाम पर कथा से उठाकर कुछ शब्द टाँक देना पर्याप्त नहीं है। उस शीर्षक का कथा की आत्मा से जुड़ाव होना भी आवश्यक है।

अच्छी रचना में हमारी यात्रा के कई पक्ष होते हैं। वाच्यार्थ से आगे की यात्रा, सर्जन को प्रभावशाली बनाती है। शब्दार्थ और वाच्यार्थ यानी शब्दकोशीय अर्थ तो किसी प्रसंग विशेष में एक ही होता है, लेकिन उस शब्द के व्यंग्यार्थ एक से अधिक हो सकते हैं। व्यंग्यार्थ को समझने के लिए रचना का समग्र प्रभाव और उसकी प्रतीति आवश्यक है। यह तुरन्त ही हो जाए, नहीं कहा जा सकता। गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करने के बाद उसे हृदयंगम करना अनिवार्य है। रसज्ञ के अनुसार एक ही रचना के कई पाठ हो सकते हैं। वे सभी पाठ ग्राह्यशक्ति और व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हो सकते हैं। कोई पात्र किस सन्दर्भ में, किस भाव-मुद्रा में, किस तरह और किस लहज़े में क्या कहता है, यह पूरे शाब्दिक परिदृश्य को बदल देता है। उस समय का कथन केवल शाब्दिक कथन न होकर, हाव (आंगिक क्रिया-कलाप) और भाव से अनुप्राणित होता है।

सपाटबयानी वाली लघुकथाएँ वाच्यार्थ से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। यदि लघुकथा का किसी मंच पर वाचन किया जा रहा है, तो वह पढ़ना भर नहीं होता। कथ्य के अनुरूप हाव-भाव, विराम आदि का ध्यान रखकर वाचन करने से ही रचना सम्प्रेषित हो पाती है। अखबारी समाचार की तरह वाचन करना लघुकथा को सम्प्रेषित नहीं कर पाता। कुछ वाचन करने वाले मंच पर हड़बड़ाते हुए पहुँचते हैं, हाथ में पकड़ा काग़ज़ फड़फड़ाते हुए पढ़ते हैं और धड़धड़ाते हुए मंच से उतर आते हैं। लघुकथा भी बिना सम्प्रेषित हुए उनके साथ ही मंच से उतर आती है। आधे मन से सुनने वाले वैसी ही उस पर टिप्पणियाँ दे दें, तो लेखक सिर पीट लेगा। कुछ टिप्पणी करने वाले तो इतने महान होते हैं कि भाषा-भाव समझे बिना, गम्भीर टिप्पणियाँ जड़ देते हैं, जिनका कोई ओर-छोर नहीं होता है। फ़ेसबुक पर कुछ अच्छे रचनाकारों की रचनाओं के अतिरिक्त ऐसे अधीर लेखक भी होते हैं, जिनको, बढ़िया, क्या खूब, बेजोड़ जैसे शब्दों की टिप्पणियाँ मिल जाएँ, तो खुश। उन टिप्पणियों की बाढ़ में यदि किसी ने सही विश्लेषण कर दिया, तो वह बरैया के छत्ते में ढेला मारने जैसा ही हो जाएगा। सब उस पर टूट पड़ेंगे। यह वह क्षण है, जहाँ से यशकामी, आत्ममुग्ध लेखक के हाथ से अच्छी रचनात्मकता की लगाम छूटने लगती है। मैं यहाँ यह ज़ोर देना चाहूँगा कि रचना महत्त्वपूर्ण होती है। उसी से रचनाकार की पहचान होती है।

पुस्तकों की भूमिका लिखने वाली कुछ ऐसी विभूतियाँ होती हैं कि वे लघुकथा और कहानी में अन्तर नहीं करतीं। लघुकथा की भूमिका में भी बार-बार उसे कहानी समझकर लिख देते हैं। इस तरह का भूमिका लेखन, नए और पुराने सभी लेखकों को प्रभावित करता है। सहयोगी स्तर पर लागत मूल्य लेकर गुणात्मक सम्पादन-कार्य करना बुरा नहीं; लेकिन दुगुने पैसे लेकर साझा-संग्रह तैयार करना, वह कार्य भी समय पर नहीं हो पाना, प्रश्न खड़े करता है। नए लेखकों को आगे बढ़ाना, महत्त्वपूर्ण कार्य है, जो सभी लेखकों को करना चाहिए। कुछ ऐसी विभूतियाँ लघुकथा-जगत् में हैं, जो सम्पादक को एक बार भी रचना नहीं भेजेंगी; लेकिन शिकायत करने में आगे रहेंगे कि उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कुछ दूसरे साथियों की केवल इसलिए निन्दा करेंगे कि उनकी बेसिर-पैर की रचनाओं को क्यों प्रकाशित नहीं किया गया। उनके गली-मुहल्ले वाली गोष्ठियों के समाचार क्यों नहीं छापे गए।

लेखकीय ईमानदारी से ही लघुकथा को आगे बढ़ाया जा सकता है। कूड़े के पहाड़ों को सूँघने के लिए मारे-मारे फिरने से अच्छा है, कुछ अच्छा लिखें।

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