लघुकथाएँ :बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साहित्य की सभी विधाओं में बहुत-सी धाराएँ क्षीण या तीव्र रूप में प्रवाहित होती रही हैं। काव्य में जो त्वरा बहुत पहले आवेशित हुई, कहानी और उपन्यास में भी वह उसी शक्ति से प्रवाहित होती रही। काव्य हो या कथा, परम्परागत लेखन से पूरी तरह कभी अछूते नहीं रहे। लघुकथा की विधिवत् शुरुआत बहुत बाद में हुई, अतः मन्थर गति के कारण कथ्य और शिल्प की दृष्टि से विकास में अन्य विधाओं की भाँति परिवर्तन और विकास की गति बहुत मद्धिम रही। इसके बहुत से कारण हो सकते हैं, जिनमें प्रमुख कारण रहा, बड़े कथाकारों का लघुकथा से परहेज़, कुछ का विरोध, कुछ की चुप्पी, कुछ की अपनी अलग राह बनाने की, अलग नामकरण करके गुमराह करने की दुर्भावना। किसी की परवाह किए बिना लघुकथा लिखने में विष्णु प्रभाकर ही अग्रसर रहे। कुछ चुपचाप लेखन करते रहे। आठवें दशक में जो लघुकथाएँ लिखी जा रही थीं, वे विषयवस्तु के आधार पर कई दशक पहले के सामान्य विषयों पर ही थीं। इस दशक में रमेश बतरा, जगदीश कश्यप, सुकेश साहनी ऐसे लेखकों के रूप में उभरे; जिन्होंने अन्तर्वस्तु और रूप दोनों ही दृष्टि से अपने समकालीन रचनाकारों से हटकर लघुकथाएँ प्रस्तुत कीं। बाद में बहुत से और भी नाम जुड़ते गए. आपात्काल और उसके बाद की लघुकथाओं में राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन और पतन की आहट साफ़-साफ़ सुनी जा सकती है। नवें दशक को रचनाकारों के समर्पण और संघर्ष के कारण लघुकथा का स्वर्णिम काल कहा जाएगा। जगदीश कश्यप, सुकेश साहनी, विक्रम सोनी, सुभाष नीरव, बलराम अग्रवाल, श्याम सुन्दर अग्रवाल, डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति, डॉ.सतीशराज पुष्करणा आदि ने लेखन और आयोजन के माध्यम से इस विधा को आगे बढ़ाया।

कुछ लेखक ऐसे भी थे जो इस त्वरा से दूर अपने लेखन में जुटे रहे। बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु' उन्हीं लघुकथाकारों में से एक हैं। आपके लेखन को दो अन्तराल में बाँटा जा सकता है-प्रथम 1973 से 1981 और 25-26 साल बाद फिर शुरुआत की यानी 2006-2007 के बाद। यहाँ प्रमुख रूप से यह बताना ज़रूरी है कि प्रथम चरण में जो लघुकथा लेखन विकसित हुआ था, बाद का लेखन उससे आगे का पड़ाव बना। लेखन के बीच आए अन्तराल ने रचनाओं को ज़्यादा प्रभावित नहीं किया। जिस सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मुद्दों से मध्यम वर्ग का साबका पड़ता है, वे ही इनकी लघुकथाओं के कथ्य के रूप में आए हैं। इनकी यह प्रतिबद्धता सभी लघुकथाओं में झलकती है।

सबसे पहले सामाजिक सम्बन्धों में आए क्षरण पर की ओर संकेत करती लघुकथाओं को लेते हैं। 'दर्द' में एक ओर वह बकरा है, जिसे पाँच हज़ार में बेचा गया है। उसे एक बार हलाल किया जाना है, तो दूसरी ओर गरीब किसान की वह पत्नी है, जिसे दलाल के हाथों पाँच हज़ार में बेच दिया गया है। उसे सारी उम्र ही हलाल होना है। 'शुक्र है' कथा में दुर्घटना ग्रस्त परिचित के बारे में फोन पर हाल चाल पूछने वाले संवेदनहीन लोग हैं, जो केवल तरह µतरह की औपचारिक पूछताछ तक ही खुद को सीमित रखकर अपनी छद्म सहानुभूत्ति का दिखावा करते हैं। 'ठोकर' में माँ की देखभाल के लिए नौकरी छोड़ने वाला युवक है;क्योंकि उसकी देखभाल करने वाला कोई है ही नहीं। यह ठोकर उस व्यक्ति को भी लगती है, जिसको उसने इस्तीफ़ा सौंपा था। वह भी अपनी माँ से मिलने चल पड़ता है। 'फ़ायदा' में डाम्क्टर सैम्पल में आई दवा भी बेच लेते हैं। नकली दवाइयों के कारोबार में सब अपने -अपने फ़ायदे के लिए चिन्तित हैं। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि मरीज़ के लिए भी सैम्पल की दवा का भरोसा ही बच सका है।

सच्चे प्रेम के नाम पर बहुत सारे छल -कपट चल रहे हैं। वास्तविकता कुछ और ही है। 'हकीकत' में प्रेमी जगत और प्रेमिका उज्ज्वला के माध्यम से प्रेम सम्बन्धों की निस्सारता को रेखांकित किया गया है। शादी के लिए घर से भागने की योजना के कारण उज्ज्वला एटीएम कार्ड साथ लेने की बात करती है, लेकिन साथ ही यह भी कहती है कि गहने भी साथ ले चलना हो तो कुछ दिन रुकना पड़ सकता है। जगत इसके लिए तैयार हो जाता है। इससे जगत की लोभवृत्ति का पता चलता है। उज्ज्वला का उस समय यह कहना-'अच्छा अब चलती हूँ। घर पर सब इन्तज़ार कर रहे होंगे।' इस बात का द्योतक है कि वह उसके खोखले प्यार की ओट में छिपे स्वार्थ को पहचान गई है। उसके लिए उसका परिवार ही महत्त्वपूर्ण है।

'पुरखों का घर' की माँ गाँव की सुख शान्ति को छोड़कर अपफ़सर बेटे के साथ शहर नहीं जाना चाहती। सम्भवतः नगर की भागमभाग माँ को रास नहीं आएगी , यही सोचकर वह ऐसा निर्णय लेती है। 'सेवा' में सामाजिक असमानता की प्रस्तुति में गहरी व्यंजना है। कार की धुलाई में पानी की बर्बादी भले ही हो जाए, सामान्य जन को नहाने को भी पानी मयस्सर नहीं हो पाता। ड्राइवर रामाधीन इसी में खुश है कि कार धोते समय झोंपड़पट्टी के बच्चे भी ठण्डे पानी में नहा लेंगे। 'फ़र्क' लघुकथा में श्रम का शोषण करने वाले लोगों को बेनकाब किया गया है। एक वह है जो रिक्शे वाले को तीस की जगह बीस रुपया देने का भाव-ताव करता है। वह पहले ही गन्तव्य तय कर लेता है और पैसा भी। दूसरी रिक्शा पर बैठने वाला केवल गन्तव्य बताता है और वहाँ उतरकर दस रुपए थमा देता है। दबंग जो ठहरा। तीसरा खाकी वर्दी वाला है, जो उन दोनों के पीछे चलने को कहता है और तय कुछ भी नहीं करता। पहुँचने पर उतरकर चल देता है। इन सबके शोषण के अपने-अपने तरीके हैं। 'मतलब' लघुकथा भी रिक्शेवाले के शोषण और मज़बूरी से जुड़ी है। रिक्शे वालों से पच्चीस रुपये से सौदेबाज़ी शुरू होती है तो बारह रुपये पर आकर तय होती है। वहाँ भी शोषक को अपनी ट्रेन की चिन्ता है। जिसको भी मौका मिलता है, वह शोषक बन जाता है।

साम्प्रदायिकता की रुग्ण मनोवृत्ति को उद्घाटित करती लघुकथा है-'क्यों मारें?' एक बच्चा भी अपने आसपास के आत्मीय सम्बन्धों को समझता -बूझता है कि उसके लिए अपने परिवेश के सम्बन्ध महत्त्वपूर्ण हैं। वह अकारण ही उनको नष्ट नहीं करना चाहता।

'घर' लघुकथा के कथ्य पर गौर करें तो इसकी कथावस्तु साधारण है, लेकिन नौकरी पेशा लोगों की स्थिति को यह लघुकथा बहुत मार्मिकता से अभिव्यक्त करती है। घर के सुख की खातिर नौकरी में यहाँ -वहाँ भटकना पड़ता है। वह देखता है कि नौकरानी हो या सहकर्मी, विद्यार्थी हों या पक्षी सब किसी न किसी समय घर की तरपफ़ जा रहे हैं। क्लब से जब वह घर जाता है, तो अपनी पत्नी को प्रतीक्षारत पाता है। यही है घर का अनिर्वचनीय सुख। 'परिवार' लघुकथा सार्थक सन्देश देती है कि परिवार का अर्थ है सुख -दुख, दिक्कत -परेशानियों में आपसी सामंजस्य और सद्भाव को बनाए रखना और तदनुरूप कार्य करना। 'सार्थकता' लघुकथा चट्टान के माध्यम से जीवन की सार्थकता का एक सन्देश देती है। 'गुलाब' लघुकथा उन लाखों लोगों की मानसिक विकृति की तरपफ़ संकेत करती है, जिनके लिए सफ़ाई का अर्थ है अपना कूड़ा दूसरों की तरफ़ फेंक देना। पड़ोसी उसी कूड़े में गुलाब उगाता है और कूड़ा फेंकने वाले को भेंट में देकर आता है। सकारात्मक सन्देश देने वाली अच्छी लघुकथा है, लेकिन ऐसा करना व्यावहारिक रूप में सम्भव नहीं है।

वही वज़ह, खास बात, ध्यान, खुलापन, पुण्य-लाभ, परेशानी अपनी-अपनी-कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जो शीर्षक और विषयवस्तु दोनों ही दृष्टिकोण से साधारण लघुकथाएँ हैं। मेरे विचार से इसका मुख्य कारण है, कई वर्षों तक लघुकथा के उतार-चढ़ाव से दूर रहना। फिर भी ये लघुकथाएँ ऐसी हैं, जो सामान्य पाठक को निराश नहीं करेंगी। उसको जीवन-जगत के बारे में सोचने को ज़रूर बाध्य करेंगी। आशा करता हूँ कि आने वाले समय में लेखक की और भी अच्छी लघुकथाएँ सामने आएँगी। 01 जून, 2014

80 TESSLER CRES. L6X 4P7 BRAMPTON ON. CANADA