लघुकथाओं में सामाजिक सरोकार : परिकल्पना के यथार्थ / भीकम सिंह
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की साथ प्रकाशित पुस्तक' लघुकथाओं में सामाजिक सरोकार (विमर्श एवं सृजन) ' , मुख्यतया सामाजिक सरोकार पर केन्द्रित है, जिसमें 34 लघुकथाकारों की 76 लघुकथाओं के माध्यम से सामाजिक सरोकार के मूल चिंतन की लेखक ने विश्लेषित किया है। यह पुस्तक को पढ़ने के बाद यकीनन कहा जा सकता है कि उनका विश्लेषण प्रतिबद्धता के साथ हुआ है। जिन लघुकथाओं में सामाजिक सरोकारों का कथ्य है, उन्हीं लघुकथाओं को विमर्श के लिए पुस्तक में समाहित किया गया है और वे सभी लघुकथाएँ ऐसी हैं, जिन्हें उल्लेखनीय मानने में विवाद की गुंजाइश बहुत ही कम है, क्योंकि सभी लघुकथाओं का कथ्य-चयन, पात्र-निरूपण और वातावरण का निर्माण कलात्मता से परिपूर्ण है।
लघुकथाकारों में कौन प्रधान है, कौन गौण है, यह सवाल नहीं है। सबका अपना-अपना महत्त्व है। सभी लघुकथाकारों ने व्यक्ति की व्यथा के माध्यम से समूचे समाज का, उस क्षेत्र का, उसकी तमाम अपूर्णताओं का वर्णन किया है, जिसका लेखक ने परिपूर्णता के साथ विश्लेषण किया है और लघुकथाओं के संदर्भ से सामाजिक सरोकारों को समझाने का प्रयास किया है। वैसे तो सामाजिक सरोकार से तात्पर्य, समाज से सम्बन्धित आपकी धड़कनों को समाज से जोड़ने का भावबोध ही सरोकार है। पुस्तक में समाहित प्रत्येक लघुकथा सामाजिक सरोकारों की अभिव्यक्ति है, फिर भी एक श्रेणी अथवा वर्गीकरण के माध्यम से लेखक ने उनकी प्रकृति को परिधि में लाने का प्रयास किया है। लेखक ने कतिपय आधारभूत सामाजिक सरोकारों की कसौटियाँ निर्धारित की हैं, यथा-प्रेम के गहन भावबोध की लघुरुषाओं को लेखक ने विमर्श के लिए सबसे पहले चुना है, जो लघुकथा श्री विधा की सार्थकता और क्षमता से पाठक में विश्वास जगाती हैं। मानवीय अनुभूति और प्रेम की स्थितियों को जिस मारकता के साथ डॉ सुषमा गुप्ता ने 'अतीत में खोई वर्त्तमान की चिट्ठियाँ' मेंअभिव्यक्त किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है-
वह टीवी के सामने बैठा कार्टून देख रहा था। लड़की ने उसका हाथ थामकर कहा-"तेरे लिए कुछ है।"
नन्हे बंटी के बाल-सुलभ जिज्ञासा से तुल्लाहट यरी आवाज़ भें पूछा "त्या?"
श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा 'गुलाब वाला कप' में वही प्यार परंपरा को साधने का प्रयास करता है और दाम्पत्य प्रेम को रूहानी बंधन जैसा, जो बरसों-बरस एक व्यक्ति की स्मृतियों में संचित रहता है-' आखिरी बचे कप को वह स्वयं धोकर रखते, ताकि कहीं टूट न जाए। किसी ओर कप में उन्हें चाय स्वाद ही नहीं लगती थी।
दीपाली ठाकुर 'प्रेम' लघुकथा के माध्यम से ऐसे प्रेम को परिभाषित करती है, जो अंतरात्मा का समोहन है, कोई अलौकिकबंधन जैसा जिसमें देह नहीं है।
"मॉम, , क्या आपको किसी से प्यार हुआ था?" अठारह साल की अपूर्वा का सवाल सुन, मैं चौक-सी गई।
"बताओ ना! उसने बड़े प्यार से पूछा"
मैने हाँ में सर हिलाया।
"सच! कब? किससे? अपूर्वा उछल पड़ी।"
और मीनू खरे की लघुकथा 'चिप' प्रेम में आधुनिकता को साधने का प्रयास करती है, जो प्लेटोनिक लव, पवित्र पॉयस या दोस्ती नुमा कथ्य में दखल देता है।
"तुम इतनी देर चैट करते हो, तो मिसेज कुछ कहती नहीं?"
"वो तो गई है।"
"क्या उन्हें हमारे बारे में सब बता दिया है?"
"नहीं तो! क्या है ही हमारे बीच जो किसी को बताऊँ!"
डॉ. श्याम सुन्दर 'दीप्ति' की लघुकथा 'स्वागत' बॉस के साए में विकसित प्रेम की कालिमा अर्थात् आपत्ति कामवासना को रेखांकित करती नज़र आती है।
पुस्तक में शिक्षा जगत् से सरोकार पर सुकेश साहनी की लघुकथा 'मै कैसे पढूँ' से उपस्थित होता है और डॉ.अशोक भाटिया की लघुकथा 'लगा हुआ स्कूल' में शिक्षाविभाग की विकृतियों को उजागर करता हुआ, डॉ.कविता भट्ट लघुकथा 'फिर से तैयारी' की पीड़ा को अभिव्यक्त करता है। इसके अलावा शिक्षा-विभाग में उनके अनुभवों के अक्स हैं। अपने जीवन का एक हिस्सा उन्होंने शिक्षा-विभाग में ही बिताया है और वहाँ के भ्रष्टाचार से वे दो चार हुए होंगे; इसलिए उसका यथार्थ उन्होंने लघुकथाओं से बखूबी चुना है।
हमारी सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था किस तरह से लंपट भ्रष्टाचारियों के बूते चलती है, इसका बहुत संश्लिष्ट चित्र 'दीमक' सुकेश साहनी में उभरकर आया है-" हमारे पीरियड के जितने भी नंबर दो के वर्क आर्डर हैं, उनसे सम्बंधित सरे कागजात रिकार्डरूम में रखकर वहाँ दीपक का छिड़काव करवा दीजिए 'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी'।
ऐसे में जब सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियाँ बदल रही हैं, मूल्य बदल रहे हैं, आस्थाओं का क्षरण हो रहा है; इसका दो टूक विश्लेषण 'विजय-जुलूस' (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) में बॉथ लेने का कौशल ध्यानाकर्षित करता है। दूसरी ओर सामाजिक रिश्तों के पीछे छिपी अकल्पनीय क्रूरताओं को 'लिहाफ' (छवि निगम) इतने सधे शब्दों से उकेरती है कि पाठक चकित रह जाता है। वहीं बाज़ार की क्रूरताओं के सूक्ष्म स्वरूप को 'हनी ट्रैप' (डॉ. उपमा शर्मा) ने उजागर किया है।
सकारात्मकता अकसर विरोधाभासों से बाहर निकलने का रास्ता है, छेद वाली बनियान' (कुमारसम्भव जोशी) में पाठक इसे महसूस करता है।
विभिन्ट व्यक्तित्व का मूल आधार संवेदना के वैचारिक आयतन-घनत्व और विस्तार का जायजा लेखक ने मास्टर और दाहिना हाथ (सुकेश साहनी) लघुकथाओं से रेखांकित किया है।
पुस्तक की भाषा सरल और बोधगम्य है। जो सम्प्रेषणीयता में बाधक नहीं बनती। लेखक का भाषा पर पूरा अधिकार है उन्होंने भाषा को भावों के अनुसार बड़ी कुशलता से लघुकथाओं के उदाहरण प्रस्तुत करके आकर्षक बना दिया है। जिस सामाजिक सरोकार को लेखक ने लघुकथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, उसे तथ्यों के आधार पर प्रमाणित भी किया है। पुस्तक में चयनित लघुकथाएँ मानवीय मूल्यों, सामाजिक विद्रूपताओं-विसंगतियों से उपजी है, इसलिए भी पाठक को आकर्षित करती है।
पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है। आशा की जाती है कि पुस्तक लघुकथा के गम्भीर पाठकों को पसन्द आएगी।
लघुकथाओं में सामाजिक सरोकार (विमर्श एवं सृजन) -रामेश्वर काम्बोज हिमांशु' ISBN-978-81-19299-38-6, प्रथम संस्करण–2023, मूल्यः400 रुपये, पृष्ठ: 144, पृष्ठः प्रकाशक; अयन प्रकाशन, जे–19 / 139, राजापुरी, उत्तम नगर, नईदिल्ली-110059