लघुकथावां / अशोक जोशी 'क्रांत' / कथेसर

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मुखपृष्ठ  » पत्रिकाओं की सूची  » पत्रिका: कथेसर  » अंक: अप्रैल-जून 2012  

1- रेखा

अेक दिन दो बेली देसी दारू रै ठेकै माथै बैठा दारू अरोगै। वै दारू पीवता जावै अर बधती रंगत साथै बातां रा गपौड़ा लगावै। बात माथै बात निसरी तो समाजवाद री बात छिडग़ी।

'आजकाल समाजवाद कियां गयो?'

'कांई ठाह कियां गयो?'

'सुण्यो हो सरकार बीसेक बरसां पैली समाजवाद रो ब्याव गरीबी देवी सागै कियो हो।'

'हां ब्याव कियो तो हो, पण दोन्यूं धणी-लुगाई में घणा दिन तांई निभाव को व्हियो नीं।'

हां, हर कर नै घर कर्यो नै बात रैयगी काची। अै ले थांरा चूड़ा-चूंदरी, म्हैं तो चालूं पाछी।'

हां.......हां......आ इज व्ही।'

'पण समाजवाद इणनै छोड'र गयो कठै?'

'कांई ठाह कठै जाय नै काळो मूंडो कर्यो है।'

'वा बापड़ी समाजवाद री औलाद नै पाळै।'

'समाजवाद री औलाद! आ फेर कुण है?'

'रेखा......'

'रेखा किसी? ....अरे आ सिनिमावाळी। आ समाजवाद री औलाद है!'

'अरे आ सिनिमावाळी रेखा नीं। वा रेखा तो गरीबी री रेखा है।'

'गरीबी री रेखा! आ फेर कुण है?'

'आ गरीबी री रेखा समाजवाद री वा औलाद है जिणनै आज दो टग रोटी रो टुकड़ो, दो जोड़ी गाभां अर माथो लुकावण नै छात नीं है।'

'अैड़ी बात है जणै पछै अबार आ रैवै कठै?'

'सुण्यो है के आजकाल वा सैर रै गंदै नाळै कनै रैवै।'

'थूं कठैई आपां री बात तो नीं करै?'

'थूं ठीक जाणग्यो, म्हैं आपां री इज बात करूं।'

'तो आपां रो बाप.......?'

'हां आपां रो बाप........'

'आपां नै चुळू भर दारू में नाक डुबोय नै मर जावणो चाइजै।'

इत्तो कैय'र दोन्यूं जोर-जोर सूं रोवण लागग्या।


2- तीन साथणियां

अेक रात तीन साथणियां गांव रै कांकण माथै आपसरी में बातां करै।

अेक कैयो, 'म्हारो नांव पेटिया भूख है। सारी दुनिया म्हारी गुलाम है।'

बीजी कैयो, 'म्हारो नांव जिसमानी भूख है, म्हैं सारी दुनिया री रौनक हूं।'

तीजी कैयो, 'म्हारो नांव दौलत री भूख है। म्हैं सारी दुनिया री भौतिकता हूं।'

तीनूं साथणियां यूं ई बतळावै ही के वै अचाणचक चौंक पड़ै, गांव री नाडी रै पाळ माथै सूं किणी छोरी रै डुसकियां री आवाजां आवै ही। वै तीनूं ई उण छोरी कनै जायÓर उणनै पूछै, 'छोरी, थूं कुण है? थांरो नांव कांई है? थूं रोवै क्यूं है?'

वा आंसूवां सूं तर आपरो मूंडो ऊंचो कर'र कैयो, 'म्हैं पेटिया भूख री नाजायज औलाद हूं। गरीबी म्हारो नांव है। मांदगी म्हारी मासी है अर गांव रै आथूणै झुग्गी-झोपड़ी मांय म्हारो वास है।'

इत्तो कैय'र वा जिसमानी भूख नै कैयो, 'म्हारै ज्यूं थांरी नाजायज बेटियां भी म्हारै साथै उण झुग्गी-झोपडिय़ां में इज रैवै है। वै पेट रै भूख सूं आंती आय'र खसम कमावती फिरै है। वै गांव-गांव, ढाणी-ढाणी अर गळी-गळी आपरा धाबळिया बिछावती थकी हरेक रात थांनै भूंडै है।'

आखिर में वा दौलत री भूख नै संबोधित करती थकी कैवै, 'तूं लिछमी मासी म्हारै सूं इत्ती बेराजी क्यूं है? तूं म्हांरी झुग्गी-झोपडिय़ां कानी कदैई भूलै-भटकै ई मूंडो को करै नीं!'

इत्तो कैय'र वा रीसां बळती थकी आपरा पग पटकती सैंगा नै कैवै, 'पण थांनै इणसूं कांई? थांनै इणसूं कांई लेणो-देणो? म्हनै तो म्हारी पूरी जूण भूख सूं भचीड़ा खावता ई काटणी है। क्यूंकै म्हैं गरीब हूं।' इत्तो कैय'र वा पेटिया भूख रै गळै लाग'र भू-भू रो पड़ै। तीनूं साथणियां री आंख्यां मांय आंसू हा।