लघुकथा: चिंतन एवं सृजन: व्यापक विश्लेषण / रश्मि विभा त्रिपाठी
हर्ष है कि लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्वारा सम्पादित हिन्दी चेतना ‘लघुकथा: चिंतन एवं सृजन’ पुस्तक के अध्ययन का अवसर मिला। अध्ययन इसलिए लिखा, क्योंकि इस पुस्तक से न केवल लघुकथा की परम्परा और उसके विकासक्रम का, बल्कि लघुकथा- सृजन के विविध आयाम और लेखकीय दृष्टिकोण की बारीकियों का बोध होता है। लघुकथा एक ऐसी विधा है जो अपने आकार में लघु होने के बावजूद अपने अस्तित्व में विराट है और अपनी लघुता में वृहद् विचारों, संवेदनाओं और जीवन- जगत के विविध अनुभवों को शब्दबद्ध करने की अद्भुत क्षमता रखती है, जहाँ शब्दों की संक्षिप्तता में गहन अर्थ समाहित होते हैं।
पुस्तक के पुरोवाक् में सम्पादक ‘हिमांशु’ लघुकथा की सृजन- प्रक्रिया पर महत्त्वपूर्ण चिंतन प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि लघुकथा एक ऐसी यात्रा है, जिसमें शब्दों के मितव्ययी उपयोग से गहन भावनाओं और विचारों को व्यक्त करते हुए लेखकीय गंतव्य तक पहुँचा जा सकता है। शीर्षक और कथा की आत्मा को जोड़ती लघुकथा वाच्यार्थ से परे जाकर व्यंग्यार्थ के माध्यम से गहरे अर्थ प्रदान करती है, सपाटबयानी वाली रचना नहीं।
लघुकथा के वाचन में ध्यान रखने योग्य बातें बताते हुए वे सामाजिक संजाल जैसे माध्यमों पर टिप्पणियों और आलोचनाओं की गुणवत्ता पर भी चिंता व्यक्त करते हैं, जो प्रायः बिना समझे की जाती हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात, उन्होंने लेखकीय ईमानदारी को सृजन की आत्मा माना है, जहाँ से लघुकथा आगे बढ़ती है।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का अनुशीलन ‘लघुकथा लेखन और रचनात्मकता’ लेखन और रचनात्मकता के बीच का अंतर स्पष्ट करते हुए लेखन हेतु लेखकीय परिपक्वता पर जोर देते हुए कहते हैं कि लेखन विचारों को शब्दों में पिरोना नहीं है, उसमें रचनात्मकता होनी चाहिए। और रचनात्मकता तभी आती है जब लेखक विषयवस्तु को आत्मसात कर उसे नवीन दृष्टिकोण और शिल्प से प्रस्तुत करता है। लेखन में मौलिकता और सामाजिक सरोकारों के प्रति दायित्वपूर्ण दृष्टिकोण आवश्यक है ना कि तात्कालिक घटनाओं का बिना उचित विश्लेषण सतही वर्णन। विषय चयन, भाषिक प्रयोग, विशिष्ट और व्यापक अध्ययन लघुकथा लेखन के वे प्राण तत्त्व हैं, जिनसे एक साधारण कथ्य की लघुकथा कालजयी बन जाती है।
‘हिन्दी लघुकथा में प्रतिबिंबित पारिवारिक जीवन’ लेख के अंतर्गत लघुकथा में पारिवारिक सम्बन्धों, मूल्यों और बदलावों पर पड़ी डॉ. शिवजी श्रीवास्तव की चिंतन दृष्टि है, जिसे लघुकथाकारों ने अपना विषय बनाकर परिवार के परंपरागत स्वरूप और औद्योगिक सभ्यता के आगमन, तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप उस स्वरूप में परिवर्तन और उस परिवर्तन से रिश्तों में उपजे द्वंद्व को हिन्दी लघुकथा में अभिव्यक्त किया।
पारिवारिक जीवन की जटिलताओं को समझने और हिन्दी लघुकथा के सामाजिक संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता बताता यह लेख न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक संरचना के अध्ययन में भी महत्त्वपूर्ण है। डॉ. कुँवर दिनेश सिंह अपने लेख ‘हिन्दी लघुकथा: शिल्प एवं सम्प्रेषण-कला’ में लघुकथा की संरचना, शिल्प और उसकी सम्प्रेषणीयता पर गहन चिंतन द्वारा यह स्पष्ट करते हैं कि लघुकथा केवल एक लघुकथा नहीं, बल्कि जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों, अनुभवों और सामाजिक सरोकारों की कथा है। लघुकथा में आरंभ, मध्य और अंत जैसे कहानी के सभी आवश्यक तत्त्व सूक्ष्म रूप में विद्यमान होते हैं, और एक प्रभावी संदेश या नैतिक शिक्षा देने में सक्षम होते हैं। इस लेख से हमें ज्ञात होता है कि कैसे लघुकथा में भाषा, प्रतीक और व्यंजना का सटीक और कुशल प्रयोग किया जाता है जिसके फलस्वरूप यह पाठकों के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालती है और किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भ इसे प्रभावशाली बनाते हैं। यह लेख इंगित करता है कि लघुकथा में न केवल कथानक की गहराई होनी चाहिए, बल्कि उसमें पाठकों के साथ भावनात्मक और बौद्धिक स्तर पर जुड़ने की क्षमता भी होनी चाहिए। यह चिंतनपरक लेख लघुकथा विधा के महत्त्व और उसकी जटिलताओं को रेखांकित करता है, जो इसे अन्य विधाओं से अलग और विशिष्ट बनाता है। लघुकथा के शिल्प और सम्प्रेषण- कला को जानने के लिए यह लेख एक सहायक- सामग्री है।
‘बंद दरवाज़ा’ (कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद) में प्रतीकात्मकता के माध्यम से परिवार और समाज में व्यक्ति के अवसरों और संभावनाओं के मार्ग की ओर संकेत है। लघुकथा में बच्चे की आँखों में खिलौनों और खाने की इच्छा, और अंततः दरवाज़ा बंद होने पर सबकुछ छोड़कर दरवाज़े की ओर मुड़ने की उसकी प्रतिक्रिया में लघुकथा का संदेश निहित है कि बच्चा भी अपने अवसर और संभावना के उस मार्ग को अवरुद्ध नहीं होने देना चाहता।
‘पानी की जाति’ (विष्णु प्रभाकर) जाति, धर्म और मानवता में अग्रणी कौन है, इसे व्यक्त करती है। बुखार और प्यास से बेहाल हिंदू पात्र जब एक मुसलमान की दुकान पर पहुँचता है, तो धार्मिक पहचान के आधार पर वह दुकानदार की तल्ख़ी का सामना करता है। दुकानदार की तल्ख़ी का सहानुभूति में बदलना उस सत्य का प्रमाण है कि मानवता से इतर किसी जाति, धर्म की कोई पहचान नहीं होती। पात्र की सोच “क्या सचमुच मुसलमान पानी था?” संकेत करती है कि जीवन में अवरोध पैदा करती समाज की धार्मिक और जातीय विभाजन रेखा से पहले मानवता को रखा जाना चाहिए।
लघुकथा ‘अश्लील पुस्तकें’ (हरिशंकर परसाई) मानवीय व्यवहार पर व्यंग्य करती है। युवा समाज-सुधारक एकत्रित होकर अश्लील साहित्य के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं और विचार करते हैं कि इस साहित्य को सार्वजनिक रूप से जलाने से समाज में सुधार होगा परंतु अश्लील पुस्तकें ज़ब्त करने के बाद उनका विचार उन पुस्तकों को जलाने के बजाय उन्हें पढ़ने पर केंद्रित हो जाता है। यह बदलाव व्यंग्यात्मक रूप से यह दिखाता है कि मनुष्य की कथनी और करनी में कितना बड़ा अंतर है।
लघुकथा के सिद्ध सुकेश साहनी की ‘पाठ’ किशोर- प्रेम की एक संवेदनापरक लघुकथा है। पात्र पाखी अपने शिक्षक के प्रति एक विशेष जुड़ाव महसूस करती है, शिक्षक अपने प्रति उसके बढ़ते आकर्षण को महसूस करता है तो उसे अपने साथी शिक्षकों के किस्से याद आते हैं लेकिन जब पाखी अपने प्यार का इज़हार करती है- “इस जन्म में मुझे डैडी का प्यार नहीं मिला” तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह जाता है, “अब आईना मुझे देखे जा रहा था” में शिक्षक को किशोर मनोविज्ञान का पाठ पढ़ने का संदेश है।
लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘ऊँचाई’ में जीवन में परिवार की महत्ता और पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने का प्रभावी चित्रण है, मुख्य पात्र के भीतरी संघर्ष और पत्नी की तमतमाहट से उपजा एक मानसिक तनाव है, जिसे पिता की चिंता जड़ से मिटा देती है। लघुकथा में बेटे का अनकहा अनुभव करते पिता के आत्मिक प्रेम की पराकाष्ठा है और बेटे के हाथ में पैसे रखते उस ऊँचाई पर खड़े पिता हैं, जहाँ तक बेटे की नजर नहीं जा पाती। लघुकथाकार ने उस क्षण की संवेदना को इतनी बारीकी से पकड़ा है कि पाठक खुद को उसमें बँधा हुआ महसूस करता है।
लघुकथा ‘संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ मानव मन पर आधुनिक तकनीक का प्रभाव दर्शाते हुए डिजिटल युग में रिश्तों की स्थिति का असल आंकलन करती है। मुख्य पात्र अपने पिता की बीमारी और मृत्यु की घटना को आभासी पटल पर साझा कर अपनी व्यक्त भावनाओं और उसके भीतर के बीच एक विस्मयकारी विरोधाभास दिखाता है। पिता की बीमारी का समाचार बेटा सोशल मीडिया पर अपडेट कर पिता के प्रति अपना भावनात्मक जुड़ाव दर्शाता है परन्तु माँ के प्रति पूरी तरह से संवेदनहीन है। दवाइयों की प्रतीक्षा करती माँ को बेटा व्यस्तता और फेसबुक पर पिता के शोक के प्रदर्शन के बीच नज़रअंदाज कर दिखाता है कि कैसे आभासी पटल पर व्यक्त भावनाओं ने मन में जगह ले ली है और असली रिश्ते जीवन से गायब हो गए हैं।
संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण, वह बाइनरी कोड है जो मानव मेमोरी में एक नई छाप छोड़ते हुए संवेगों का संचार और संवेदनाओं का संचयन कर लघुकथा जगत में नए आयाम स्थापित करता है।
डॉ. कविता भट्ट की ‘सिसकी’ एक संवेदनशील लघुकथा है, जो स्त्री की मातृत्व की आकांक्षा और समाज के दबाव को दर्शाती है। कमला और उसकी सास का संवाद दर्शाता है कि समाज किस प्रकार एक महिला के अस्तित्व को उसकी प्रजनन क्षमता से जोड़ता है। सोशल मीडिया पर ‘बेटी बचाओ’ का नारा देने वाला कमला का अपने वास्तविक कर्त्तव्यों से विमुख पति समकालीन सामाजिक विडंबना को उजागर करता है। शान्ति, स्त्री का व्यक्तिगत संघर्ष, व्यापक सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ एक मौन विद्रोह और अंततः यह सोचकर कि काश उसके ऐसी बच्ची होती, अपनी सिसकी से बेटी का महत्त्व रेखांकित करती है।
डॉ. उपमा शर्मा की ‘भविष्य’ में आज की चिकित्सा शिक्षा प्रणाली का नैतिक पतन है। अस्पताल की घटती मरीज संख्या और मेडिकल काउंसिल की मान्यता को बचाने की चिंता से डीन को सुझाया गया प्रोफेसर का समाधान—फर्जी मरीजों की भर्ती, इस बात की ओर इशारा करता है कि कैसे संस्थाएँ नैतिकता को तिलांजलि देकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। प्रोफेसर के संस्थागत नियम- व्यवहार के विपरीत समाधान में शिक्षा और स्वास्थ्य का व्यवसायीकरण है।
प्रियंका गुप्ता की ‘भूकम्प’ में गहन मानवीय संवेदना और नैतिक द्वंद्व का बखान है। पति की आत्मकेंद्रितता, पत्नी की चिंता और आपदा के भय के बीच उस व्यक्ति की भावना सामने आती है, जो अपने पिता की देखभाल करके थक चुका है। अपनी स्वार्थी भावनाओं के प्रति झुके उस बेटे को अपने बच्चे की सुरक्षा का ध्यान तब आता है जब उसकी पत्नी बताती है कि बच्चा घर के भीतर है। अंततः बच्चे को गोद में लेकर व्हीलचेयर पर बाहर आते पिता को देखकर वह उनकी ओर लौटता है और जीवन- मूल्य और पारिवारिक दायित्वों का बोध करता है। कथा के अंत में पिता जीवन और मृत्यु के बीच की लड़ाई में एक प्रश्न उठाते हैं कि संकट की घड़ी में किसे प्राथमिकता दें— स्वसुरक्षा या पारिवारिक दायित्व।
रचना श्रीवास्तव की ‘चकोर’ सच्चे मानवीय सम्बन्धों और प्रेम के चरम की एक सशक्त कथा है। लड़के का लगातार पार्क में आना, लड़की के प्रति उसका आकर्षण प्रेम की शुरुआती अवस्था को व्यक्त करता है। दोस्तों के उकसाने पर लड़का जब लड़की के पास पहुँचता है, तो वह इस कटु सच्चाई का सामना करता है कि लड़की देख नहीं सकती। “अब कभी यहाँ नहीं आना है” के बाद लड़के का फिर से लड़की को देखने के लिए आना सिद्ध करता है कि प्रेम दैहिक आकर्षण से नहीं, आत्मीय जुड़ाव से होता है।
‘कुछ नहीं खरीदा’ (सुदर्शन रत्नाकर) एक सशक्त लघुकथा है, जो उपभोक्तावाद और मानवीय विचार का अंतर्विरोध दर्शाती है। समुद्र तट पर अपने बेटे के साथ बैठी महिला वहाँ के मूल निवासियों की स्थिति को देखकर विचार करती है कि लाखों खर्च करके आए सैलानी स्थानीय कला और सामान नहीं खरीदते। महिला के बेटे की बात “आपने भी तो कुछ नहीं खरीदा” आत्ममंथन द्वारा विचार की कार्य रूप में परिणति पर बल देती है। सुभाष नीरव की लघुकथा ‘धूप’ अपने उच्च पद के कारण जीवन के सरल आनंद से वंचित एक अधिकारी के माध्यम से वैयक्तिक मानसिकता और सामाजिक मानदंडों की पड़ताल करती है। धूप का आनंद उठाने के लिए पार्क में जाने का मन बनाते ही उसका विचार कि वह अपने मातहतों के बीच कैसे बैठेगा, उच्च पद की मानसिकता का प्रतीक है। अंततः वह अपनी सीमाओं को तोड़कर पार्क में जाकर धूप में बैठता है तो वर्षों बाद उसे मिली सुख की अनुभूति में एक महत्त्वपूर्ण संदेश निहित है—सामाजिक स्थिति और पद से सर्वोपरि है अपने जीवन के सरल सुखों का आनंद लेना। इस ‘धूप’ में हम देखते हैं कि सामाजिक मानदंडों के चलते हम कितनी बार अपने वास्तविक आनंद को भुला देते हैं और उसे पाने में हिचकिचाते हैं।
‘गैप’ में स्त्री के प्रति परिवार, समाज का पारंपरिक दृष्टिकोण है, जो उसकी अपनी पसंद का जीवन जीने की इच्छा को दबाता है। एक युवा लड़की, अपने भविष्य के प्रति उत्साहित है, लेकिन पारिवारिक परंपराओं और सामाजिक मान्यताओं के कारण अपने सपनों को त्याग देती है और जब वह गृहस्थी में बँध जाती है, तब उस दबाव और उससे उत्पन्न पीड़ा का अनुभव उसके जीवन का एक अहम हिस्सा बन जाता है।
‘प्राइमरी स्कूल’ (मीनू खरे) में एक सरकारी विद्यालय के प्रधानाध्यापक का अपने विद्यालय का स्तर सुधारने और उसे पब्लिक स्कूलों के समकक्ष लाने का प्रयास है जो व्यवस्था तंत्र, राजनीतिक और सामाजिक दबाव के कारण विफल हो जाता है।
यह पुस्तक न केवल लघुकथा के स्वरूप का, बल्कि महत्त्वपूर्ण लेखों, संदर्भित सभी सशक्त लघुकथाओं के आधार पर लघुकथा विधा की प्रक्रिया का व्यापक विश्लेषण और उसके प्रभावी पहलुओं का समग्र चिंतन है।
पुस्तक ‘लघुकथा: चिंतन एवं सृजन’ अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए लघुकथा लेखन का मार्ग प्रशस्त करेगी।
लघुकथा: चिंतन एवं सृजन (लघुकथा- संग्रह): रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, पृष्ठ: 120, मूल्य: 300 रुपये, ISBN: 978-93-6423-599-0, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे–19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली–110059
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