लघुकथा: मेरी पसंद / कुँवर दिनेश

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लघुकथा के बीज हिन्दी कहानी के प्रारंभ के साथ ही मिलते हैं, लेकिन इसकी लोकप्रियता हाल ही में कुछ दशक पूर्व ही बढ़ी है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद इत्यादि लेखकों के कथा-साहित्य में इस विधा के प्रयोग मिलते हैं। स्वातन्त्र्यपूर्व और स्वातन्त्र्योत्तर के कालखण्डों में लघुकथा के कथ्य, विषयवस्तु, रूप/स्वरूप तथा शिल्प के कई परिवर्तन देखे जा सकते हैं। लघुकथा के आकार के विषय में भी कई मत/मतान्तर देखने को मिलते हैं। अपने लघु आकार के कारण लघुकथा बेहद लोकप्रिय हुई है, क्योंकि आज के भागदौड़ के युग में समयाभाव में उपन्यास अथवा लंबी कहानी की अपेक्षा पाठक लघुकथा में ही पूरी कहानी का आनंद लेना चाहते हैं। लेकिन मात्र लघु आकार की रचना मानकर कुछ भी लिखकर बहुत से रचनाकार इस विधा के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। उत्कृष्टता के मानकों / मापदण्डों को ध्यान में रखते हुए ऑनलाइन पत्रिका ‘लघुकथा.कॉम’ के माध्यम से सुकेश साहनी जी और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी गत कुछ वर्षों से श्रेष्ठ सृजन को उचित स्थान देने का अहम कार्य करते आ रहे हैं। पत्रिका के इस अंक के 'मेरी पसंद' अनुभाग के लिए मैंने दो लघुकथाएँ चुनी हैं: पहली, मुंशी प्रेमचंद विरचित ‘बंद दरवाज़ा’ और दूसरी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘खुशबू’। दोनों ही रचनाएँ कथ्य, दृष्टिकोण, शिल्प व शैली के आधार पर विशिष्ट महत्त्व रखती हैं।

प्रेमचंद की लघुकथा ‘बंद दरवाज़ा’ की संरचना जटिल है, जिस कारण मात्र एक बार पढ़ने से इसकी संप्रेषणीयता कठिन हो जाती है, परन्तु एकाधिक बार पढ़ने से इसके कथ्य और शिल्प को समझा जा सकता है। प्रथम पंक्ति - "सूरज क्षितिज से निकला, बच्चा पालने से। वही स्निग्धता, वही लाली, वही ख़ुमार, वही रोशनी" - उदीयमान सूर्य और पालने से बाहर पग धरते बच्चे के समानांतर को सुन्दर कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है। दरवाज़े के बाहर बच्चे के लिए एक नई / पृथक् दुनिया है, जिसे देखकर वह विह्वल हो उठता है। बच्चा बरामदे में बैठे अपने पिता की गोद में जाकर शरारतें करने लगता है; क़लम-कागज़ के साथ खेलने लगता है; गोद से उतारा तो मेज़ के पाये के साथ खेलने लगता है; चिड़िया फुदकती हुई आई तो उसे बुलाने लगता है; लेकिन जब चिड़िया उड़ जाती है तो निराश हो रोने लगता है; खुले हुए दरवाज़े से 'गरम हलवे की मीठी पुकार आई तो बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा, लेकिन उसी क्षण खोंचेवाले को देख उसका ध्यान फिर भटक जाता है; वह पिता से याचना-फ़रियाद करता है, लेकिन (क्योंकि पिता बाज़ार की चीज़ें बच्चों को खाने नहीं देते) विफल रहता है, उदास हो जाता है; पिता उसे अपना फाउंटेन पेन देते हैं तो फिर प्रसन्न हो जाता है; इसी बीच जैसे ही हवा से दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ उसे सुनाई देती है, वह पेन को भी फेंक देता है, और रोता हुआ दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ता है ।

इस सारे घटनाक्रम में 'दरवाज़े के बाहर की दुनिया' में बच्चा कई प्रलोभन देखकर भ्रांतचित्त होकर टहलता है, लेकिन तभी तक जब तक 'दरवाज़ा खुला हुआ था'; जैसे ही दरवाज़ा बंद होता है, बच्चा सब चीज़ों से ध्यान हटाकर, सब कुछ त्याग कर, रोता हुआ दरवाज़े की ओर बढ़ने लगता है । 'दरवाज़ा' इस लघुकथा में एक सशक्त बिम्ब बना है, जो एक नन्हे बच्चे की दृष्टि में घर के बाहर और अंदर की दुनिया के वैषम्य को दिखाता है। दरवाज़े के बाहर प्रलोभन अनेक हैं, परन्तु सुरक्षा का भाव दरवाज़े के भीतर है। दरवाज़ा इस लघुकथा की धुरी बन गया है, जिसके इर्दगिर्द कहानी घूमती है। कथाकार ने बारम्बार इसी पर ध्यान केंद्रित किया है: 'दरवाज़ा खुला हुआ था' से आरम्भ होकर 'दरवाज़ा बंद हो गया था' पर कथा पूर्ण होती है। बच्चा दरवाज़े के बाहर के दृष्टिक्रम से लुब्ध-आकृष्ट होता है, परन्तु तभी तक जब तक घर का दरवाज़ा खुला रहता है; दरवाज़ा बंद होते ही वह सब कुछ भुलाकर उसी ओर मुड़ जाता है।

दरवाज़े के अंदर की दुनिया को कथाकार ने अव्यक्त रखा है, किंतु स्पष्टतः अनुपस्थिति में भी बच्चे की माँ अपनी उपस्थिति बनाए हुए है। बच्चा किसी भी हाल में अपनी माँ को नहीं भूला है; दरवाज़ा खुला रहते उसे माँ की सुरक्षा की प्रत्याभूति बनी रहती है, लेकिन दरवाज़ा बंद होते ही वह असुरक्षित अनुभव करने लगता है। दरवाज़े के अंदर बच्चे के लिए माँ की सुरक्षा है, ममत्व है, वात्सल्य है, विश्वास है, आराम है, सुकून है, अपनत्व है, निजत्व है, स्वातन्त्र्य है, स्वाधिकार है, जो उसे बाह्य संसार में नहीं मिलता। साथ ही दरवाज़े के भीतर की दुनिया, जहाँ बच्चे का पालना है, उसकी जड़ें हैं, जिनकी ओर वह वापस मुड़ आता है। कथा के आरम्भ में क्षितिज में उदित सूर्य अंधकार के घिरने से पूर्व क्षितिज-दरवाज़े पर आ जाता है। शीर्षक ‘बंद दरवाज़ा’ बच्चे के तनाव के केन्द्रबिन्दु को इंगित करता है - दरवाज़े के बंद होने से ही उसका ध्यान बाह्य प्रलोभनों से हटता है, और द्वन्द्वों से मुक्त होकर, एकमन होकर, वह दरवाज़े के अन्दर की ओर मुड़ता है।

कथाकार के पैने अवलोकन के कारण यह कथा लघ्वाकारी होते हुए भी बहुत से दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। एक बालक के हठ एवं व्यग्रता के माध्यम से बाल-मनोविज्ञान की जटिलता को सहजता से उकेरती है। कुछ समकालीन सामाज के सत्य को भी उजागर करती है, जैसे - मानव के जीवन में घर-परिवार के महत्त्व को कहती है; मातृशक्ति के महत्त्व को कहती है; और पितृसत्तात्मक सामाजिक विभाजन में पिता (पुरुष) को घर के बाहर और माता (स्त्री) को घर के अंदर के क्रियाकलाप तक सीमित रखते हुए भी माँ की ममता का सब पर भारी पड़ने को मार्मिक ढंग से दर्शाती है।

प्रेमचंद की लघुकथा 'बंद दरवाज़ा' में कहानी की संपूर्णता है; एक ही दृश्य के सीमित परिवेश की इतिवृत्तात्मकता में जीवंतता है, पात्र-संघर्ष की सहजानुभूति है, घर की उष्मापूरित ‘फील’ है, बालमन की ऋजुता, आकुलता व मृदुल भावात्मकता है। शिल्प, शैली एवं कथ्य की दृष्टि से प्रेमचंद की यह लघुकथा बेजोड़ है। सरल-सहज भाषा में कथानक प्रवाहमयी है और भावपूर्ण है। अपने कालखण्ड में प्रयोग, संरचना और तकनीक की दृष्टि से यह रचना विलक्षण है। 'ईदगाह' कहानी की भांति अपने सार्वत्रिक महत्त्व के लिए यह लघुकथा भी बाल-मनोविज्ञान पर एक क्लासिक, कालजयी रचना कही जा सकती है, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘ख़ुशबू’ एक बड़ी बहन द्वारा अपने दो छोटे भाइयों के प्रति त्याग एवं नि:स्वार्थ भाव से सहयोग की कथा है। पिता के न रहने पर घर-परिवार की सारी जिम्मेदारी उठाती शाहीन अपने जीवन के यौवनकाल के स्वर्णिम वर्षों को अपनी माँ की सेवा तथा दो छोटे भाइयों की पढ़ाई-लिखाई पूरी करवाने में न्योछावर कर देती है। लेकिन दोनों भाई नौकरी मिलते ही अलग-अलग शहरों में जा बसते हैं। घर में रह जाती है शाहीन और उसकी बूढ़ी माँ। कथाकार ने भाइयों की स्वार्थपरता एवं कृतघ्नता से आहत शाहीन के एकाकीपन की पीड़ा को मार्मिक ढंग से कहा है। ‘जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर’ शाहीन उदास हो उठी है: "कितनी अकेली हो गई है मेरी ज़िन्दगी!"

भाइयों का सम्पर्क केवल यदा-कदा पत्राचार से ही संभव हो पाता है; दोनों अपनी गृहस्थी में व्यस्त, बहन एवं माँ के प्रति अपने दायित्व को भुलाए बैठे हैं। शाहीन एक अध्यापिका है, अपने शिक्षणकर्म के प्रति भी दत्तचित्त है। नित गहराती उसकी उदासी उसके मन को उचाट कर देती है। लेकिन एक दिन अन्यमनस्क, उन्मनी-सी जब वह स्कूल के गेट पर पहुँचती है, दूसरी कक्षा की एक छोटी-सी बच्ची गुलाब के एक फूल के साथ उसका अभिनन्दन करती है, उसकी फूल-सी मंद-मंद मृदुल मुस्कान को देख कर वह अपनी पीड़ा व उदासी/उदासीनता सब तत्क्षण भूल जाती है: "वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ़ तेज़ी से बढ़ गई।"

रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’ जी ने शाहीन की व्यथा और उससे उसकी मुक्ति को बड़े भावपूर्ण ढंग से दर्शाया है। कथानक प्रवाहमय है; भाषा सहज एवं भावात्मक है; समाहार प्रभावी एवं मर्मस्पर्शी है। शीर्षक समुपयुक्त है: ‘ख़ुशबू’ हृदयहारी गुलाब की सुगन्धि के रूप में प्रकृति की भैषजिक, पुष्टिकर, कायाकल्पक शक्ति की प्रतीक है, जो नायिका के खिन्न-उद्विग्न मन-मस्तिष्क को पुनर्युवनित कर देती है, जीवन में सुख-दु:ख से अविक्षुब्ध होकर अविराम अग्रसर रहने को पुन:अनुप्राणित कर देती है। कथांत में शाहीन स्थिरता एवं नवसंकल्प के साथ अपने कर्त्तव्य-पथ पर आगे बढ़ती है। एक कर्मठ एवं कर्त्तव्यनिष्ठ अध्यापक के लिए उसके शिष्यों का स्नेह-सत्कार ही सबसे बड़ा सुफल होता है, जो उसे अदम्य जिजीविषा प्रदान करता है; यह बात लघुकथा ‘ख़ुशबू’ के कथ्य से स्पष्ट होती है।

‘ख़ुशबू’ में आधुनिक समाज में बदलते जीवन-मूल्यों के संकट को बड़े प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है। विशेषकर एकल नारी के संघर्ष को दिखाया है, जो जीवन में विपरीत परिस्थितियों का डटकर मुक़ाबला करती है। नि:सन्देह आज नारी आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनी है, लेकिन उसने घर-परिवार के प्रति अपने दायित्व से कभी मुँह नहीं मोड़ा है। कथाकार ने स्त्री-पुरुष की प्रवृत्तियों के सूक्ष्म भेद को भी बताया है: इस लघुकथा में भाई (पुरुष) स्वार्थपूरित, कर्त्तव्यच्युत्, कठोरहृदय और कृतघ्न हैं, तो बहन (स्त्री) दया, त्याग, प्रेम, संवेदना, सहानुभूति, कर्त्तव्यपरायणता और जिम्मेदारी के साथ घर-परिवार के प्रति समर्पित है। इस कथा में जीवन की समस्याओं के निदान के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण मिलता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है, स्वकर्म अथवा कर्त्तव्य को निष्ठापूर्वक पूरा करना ही वास्तव में हमारा धर्म है, उसके फल के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है; फल की ईप्सा / चिन्ता करने से विषाद ही मिलेगा, जीवन का वास्तविक आनन्द नहीं। जैसा कि कथ्य में स्पष्ट है: शिक्षणकर्मनिरत शाहीन अपने दु:ख का समाधान अपनी कर्त्तव्यपरायणता में पा लेती है। संरचना और भाषिक प्रयोग की दृष्टि से भी यह लघुकथा श्रेष्ठ है: प्रमुख चरित्र/पात्र की मनोदशा को यथोचित अभिव्यक्ति प्रदान करती है, और एक शिष्या द्वारा शिक्षिका को गुलाब भेंट करने वाले दृश्य में कथा में ‘ट्विस्ट’ देकर क्षुब्ध, संतप्त, हताश शिक्षिका के मनोबल में अभिवृद्धि करते हुए उसके दृष्टिकोण को सकारात्मक बना देती है। समकालीन यथार्थ को दर्शाती, मूल्यबोध एवं सकारात्मक सोच से परिपूर्ण यह लघुकथा अनायास हृदय में उतर जाती है। उत्कृष्ट लघुकथाओं में गण्य यह रचना भी रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी के सशक्त लघुकथा-कौशल की परिचायक है।

लघुकथा-प्रेमियों के विचारार्थ एवं अनुशीलनार्थ दोनों लघुकथाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं:

-0- 1-बंद दरवाज़ा-¬ प्रेमचंद

सूरज क्षितिज की गोद से निकला, बच्चा पालने से। वही स्निग्धता, वही लाली, वही ख़ुमार, वही रोशनी। मैं बरामदे में बैठा था। बच्चे ने दरवाज़े से झांका। मैंने मुस्कुराकर पुकारा। वह मेरी गोद में आकर बैठ गया। उसकी शरारतें शुरू हो गईं। कभी क़लम पर हाथ बढ़ाया, कभी कागज़ पर। मैंने गोद से उतार दिया। वह मेज़ का पाया पकड़े खड़ा रहा। घर में न गया। दरवाज़ा खुला हुआ था। एक चिड़िया फुदकती हुई आई और सामने के सहन में बैठ गई। बच्चे के लिए मनोरंजन का यह नया सामान था। वह उसकी तरफ़ लपका। चिड़िया ज़रा भी न डरी। बच्चे ने समझा अब यह परदार खिलौना हाथ आ गया। बैठकर दोनों हाथों से चिड़िया को बुलाने लगा। चिड़िया उड़ गई, निराश बच्चा रोने लगा। मगर अंदर के दरवाज़े की तरफ़ ताका भी नहीं। दरवाज़ा खुला हुआ था। गरम हलवे की मीठी पुकार आई। बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा। खोंचेवाला सामने से गुज़रा । बच्चे ने मेरी तरफ़ याचना की आँखों से देखा। ज्यों-ज्यों खोंचेवाला दूर होता गया, याचना की आँखें रोष में परिवर्तित होती गईं। यहाँ तक कि जब मोड़ आ गया और खोंचेवाला आँख से ओझल हो गया तो रोष ने पुरज़ोर फ़रियाद की सूरत अख़्तियार की। मगर मैं बाज़ार की चीजें बच्चों को नहीं खाने देता। बच्चे की फ़रियाद ने मुझ पर कोई असर न किया। मैं आगे की बात सोचकर और भी तन गया। कह नहीं सकता बच्चे ने अपनी माँ की अदालत में अपील करने की जरूरत समझी या नहीं। आमतौर पर बच्चे ऐसे हालातों में माँ से अपील करते हैं। शायद उसने कुछ देर के लिए अपील मुल्तवी कर दी हो। उसने दरवाज़े की तरफ रुख़ न किया। दरवाज़ा खुला हुआ था। मैंने आँसू पोंछने के ख़्याल से अपना फाउंटेन-पेन उसके हाथ में रख दिया। बच्चे को जैसे सारे जमाने की दौलत मिल गई। उसकी सारी इंद्रियाँ इस नई समस्या को हल करने में लग गईं। एकाएक दरवाज़ा हवा से ख़ुद-ब-ख़ुद बंद हो गया। पट की आवाज़ बच्चे के कानों में आई। उसने दरवाज़े की तरफ़ देखा। उसकी वह व्यस्तता तत्क्षण लुप्त हो गई। उसने फाउंटेन-पेन को फेंक दिया और रोता हुआ दरवाज़े की तरफ़ चला क्योंकि दरवाज़ा बंद हो गया था।

• 2-खुशबू-¬ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

दोनों भाइयों को पढ़ाने-लिखाने में उसकी उम्र के खुशनुमा साल चुपचाप बीत गए। तीस वर्ष की हो गई शाहीन इस तरह से। दोनों भाई नौकरी पाकर अलग-अलग शहरों में जा बसे। अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह। खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक-सी उठी-‘कितनी अकेली हो गई है मेरी जिन्दगी! किस बीहड़ में खो गए मिठास-भरे सपने?’

भाइयों की चिट्ठियाँ कभी-कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र-व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते-सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय-तौबा कहाँ तक सुने?

उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ़ क़दम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी ‘दीदीजी-दीदीजी’ की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ।

"दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।" दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसकी तरफ़ बढ़ी। शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद-मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।

गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ़ तेज़ी से बढ़ गई।