लघुकथा: लेखन से सृजन तक: कैक्टस एवं अन्य लघुकथाएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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लघुकथा के वर्त्तमान परिदृश्य का अवलोकन करने से कुछ स्थितियाँ और उनके प्रतिफलन सामने हैं, जिन पर विचार करना आवाश्यक है। कोई किसी भी विधा में रचना करे, उसके रचना-कर्म का उद्देश्य स्पष्ट रूप से परिभाषित होना चाहिए। लिखने के लिखना, लेखन नहीं है। अन्य विधाओं की तरह लघुकथा एक गम्भीर और श्रमसाध्य विधा है। अन्य विधाओं में स्थान न बना पाने के कारण 'लघुकथा में ही हाथ आजमा लिया जाए' , इस तरह की सोच से लघुकथा का हित न होकर अहित ही हुआ है। जब लघुकथा में आपाधापी की बात आती है, तो वहाँ कुछ इतने समर्पित योद्धा भी हैं कि उन्हें एक या दो लघुकथाएँ प्रतिदिन लिखनी ही हैं। उस लिखे को साँस लेने का अवसर दिए बिना, किसी न किसी पत्रिका / अखबार / फ़ेसबुक के लिए समर्पित कर देना है। किसी दैनिक में छप गई, तो भी; न छपी, तो भी वह फ़ेसबुक पर आ जाएगी। उस पर 60-70 लाइक मिल गए और 20-25 टिप्पणियाँ आ गईं, तो उन्हें श्रेष्ठ लेखक होने से कोई रोक नहीं सकता। उनके रचना-कौशल की दुर्बलता पर किसी ने टिप्पणी कर दी, तो उसकी खैर नहीं। जितना जल्दी हो, संग्रह छपवाकरके मैदान में कूद पड़ना, पूरी पुस्तक में बमुश्किल दो-तीन साधारण स्तरीय रचनाएँ होने पर भी उस पर समीक्षा लिखवाने का जुगाड़ बिठाना, बस उनका उद्देश्य पूरा हो गया। यही कारण है कि नित्य प्रति के लेखन से अच्छी लघुकथाओं तक पहुँचना दुष्कर है।

यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि जो स्थापित लेखक निरन्तरता बनाए रखने के लिए बलपूर्वक कुछ न कुछ लिखना ज़रूरी समझते हैं, वे पुराने स्तर को बनाए रखने में कभी-कभी कमज़ोर रचनएँ भी लिख दे रहे हैं। नए लेखकों में ऐसे बहुसंख्यक हैं, जिन्हें घटना और रचना में कोई अन्तर ज्ञात नहीं है। कोरोना काल में ऐसा लेखन सामने आया, जो किसी अखबार की कटिंग से अधिक नहीं था। लेखक को अपने सामाजिक सरोकर का निर्वाह करना चाहिए; लेकिन रचना-कर्म के द्वारा, न कि कुछ भी लिखकर भीड़ का हिस्सा बनने की मारामारी करना। सर्जन में भाव, विचार, कल्पना आदि का सुसंगत योग होना चाहिए। जब तक कथा मन में पूरी तरह पककर रच न जाए, तब तक वह कुछ भी बन जाए, लघुकथा नहीं बन पाती। यान्त्रिक लेखन निष्प्राण होने के कारण सहृदय पाठक को प्रभावित नहीं कर पाता।

पिछले कुछ वर्षों में अपने सम्पादन और सर्जन के कारण प्रभावित करने वाले लघुकथाकारों में डॉ. उपमा शर्मा एक महत्त्वपूर्ण नाम है। यहाँ उनकी कुछ लघुकथाओं पर अपनी बात कहूँगा।

बदलते दृष्टिकोण पारिवारिक स्मस्याओं के मनोविज्ञान पर रची महत्त्वपूर्ण लघुकथा है। पारिवारिक समस्याओं को लेकर ढेर सारी लघुकथाएँ लिखी हैं। पारिवारिक सम्बन्धों की दृढ़ता का आधार है-आपसी समझ की गहराई। जहाँ सम्बन्धों के निर्वाह की भावना नहीं है, वहाँ कलह का साम्राज्य होता है। यदि व्यक्ति घर में सुखी नहीं है, तो उससे उपजी निराशा और हताशा व्यक्ति को घर से बाहर भी बेचैन करती है। बदलते दृष्टिकोण में सास-बहू के सम्बन्धों में जो कटुता दृष्टिगोचर हो रही है, वह वास्तव में एकांगी और बद्धमूल धारणा के कारण उपजी है। मीनू उसका निराकरण करती है, लेकिन माँ को लगता है कि सदा उसको महत्त्व देने वाली बेटी भी बहू रितू का पक्ष ले रही है। निष्पक्ष निराकरण भी माँ के अविश्वास को और सघन करता है, जबकि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है।

सौन्दर्य क्या है, इस पर बहस की जा सकती है; लेकिन तथ्य और सत्य तो सही है कि आत्मिक सौन्दर्य ही सबसे महत्त्वपूर्ण और स्थायी है। 'मातृत्व' संसार की सबसे बड़ी सुन्दरता है। मॉडलिंग करने वाली काजल के अन्तर्द्वन्द्व का 'ख़ूबसूरती' लघुकथा में सान्द्र अनुभव और सधे हुए कौशल से निर्वाह किया गया है। अपने नवजात को सीने से लगाकर उसकी धड़कनों से एकाकार करने वाली काजल-'ख़ुद को दुनिया की अब सबसे खूबसूरत औरत लगी'। यह अनुभूति ही लघुकथा की धड़कन बन गई है।

वास्तविकता है कि जीवन का सौन्दर्य मातृत्व ही है। कोई मॉडल हो या विश्व सुन्दरी, सभी की जन्मदायिनी, माँ ही होती है। यह सौन्दर्य माँ, बहिन, बेटी, प्रिया किसी भी रूप में हो सकता है। उदात्त भाव इसके मूल में है। विशृंखल होकर सौन्दर्य पदच्युत हो जाता है। उदात्तता के लिए संस्कार का संस्पर्श आवश्यक है। यह संस्कार घर -परिवार के सही आचरण से ही मिल सकता है। इस सन्दर्भ में मेरी लघुकथा ‘खूबसूरत’ भी देखी जा सकती है।

साथ रहना और साथ होना, दोनों में कोई साम्य नहीं है। आज व्यस्तता और-और भागदौड़ जीवन की सारी सरस्ता को निचोड़ ले रही है। परिवार के अन्य सदस्यों की बात छोड़ भी दें तो पति-पत्नी के बीच केवल औपचारिक सम्बन्ध रह जाते हैं। पास रहते हुए भी एक-दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं। 'मर्तबान' लघुकथा ऐसे सम्बन्धों की पड़ताल करती है। पति सूरज को इस दूरी का आभास तब होता है, जब पत्नी कुछ दिनों के लिए 'वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी कैम्प' में चली जाती है। किसी के न होने से ही उसके महत्त्व का पता चलता है। डॉ. उपमा शर्मा ने इस लघुकथा के अनुभूति पक्ष को पर्चियों पर लिखे सन्देशों के माध्यम से अभिनव रूप में प्रस्तुत है। यही है घटना (पत्नी का 'वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी कैम्प' में जाना) से उपजे खालीपन से लघुकथा के बनने की प्रक्रिया।

कला के सच्चे पारखी सदा कम रहे हैं। उन्हें हर युग में उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। जिसे कला की समझ नहीं, उससे हमें यह आशा करनी भी नहीं चाहिए। अंतर्दृष्टि लघुकथा में लेखिका ने जनता द्वारा युवा चित्रकार की गई उपेक्षा पर उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो उसने गुरु द्वारा बताए 'प्रशंसक' और 'प्रपंच' का अन्तर समझा दिया। अच्छी कृति का एक भी पारखी हो, तो वही बहुत है। यह कथा आज की यशलोभी वर्ग के लिए भी सीधा संकेत है कि जो सच्ची रचना होगी, वह भीड़ के मूल्यांकन पर नहीं, बल्कि अपने सर्जन के बल पर टिकी है। कथा का समापन–'चित्र में बहती हुई बूँद सीपी के अंदर गिरी पड़ी थी जो मोती बनने की प्रक्रिया में थी' कथन से किया है, जिससे रचना का प्रभाव बढ़ गया है।

आजकल बाज़ारवाद मध्यमवर्गीय समाज को अपने धृतराष्ट्री बाहुपाश में जकड़कर निष्प्प्राण कर रहा है। क्रेडिट कार्ड, सुन्दर सेल्स गर्ल, लुभावना सामान पारिवार की भावनाओं को उद्दीप्त करके क्रय के इन्द्रजाल में इस तरह फाँसना कि ग्राहक उससे मुक्त न हो पाए। छूट और ऑफ़र की मृगमरीचिका में उलझाकर ग्राहक का दोहन करना और उसे जेब खाली करने के लिए बाध्य करना आज का बाज़ारवाद है। 'हनीट्रैप' लघुकथा में उपमा शर्मा ने बड़ी सूक्ष्मता से कथा का ताना-बाना तैयार किया है। मॉल में अंजू का एक पर एक फ़्री के मायाजाल में उलझते जाना पाठक को अपने साथ अनुस्यूत कर लेता है। पति की विवशता और अन्तर्द्वन्द्व भी बहुत बारीकी से उकेरे गए हैं। इस लघुकथा का शीर्षक सार्थक होने के साथ-साथ विषयवस्तु की व्यंजना प्रभावी रूप से करने में सहायक है।

जो व्यक्ति जीवन भर काम करता रहा हो, उसका निष्क्रिय होकर बैठ जाना मानसिक और शारीरिक आरोग्य के लिए घातक है। 'तरकीब' के दादा जी का अवसाद उसी निष्क्रियता की उपज हैं। घर के लोग खूब सेवा करते हैं, लेकिन दादा जी की उदासी बनी हुई थी। कारण-उनसे कोई काम नहीं लिया जाता था। अनु हॉस्टल से आई तो कारण समझ गई। अब सब्जी और दूध लाने, रजत का होम वर्क कराने जैसे छोटे-छोटे कामों में हाथ बँटाकर दादा जी सक्रिय हो उठे हैं। उनकी उदासी अब गायब हो चुकी थी। अच्छी लघुकथा है।

डॉ. उपमा शर्मा को लघुकथा की गहरी समझ है, जो उनकी लघुकथाओं में दृष्टिगोचर होती है। सब लघुकथाओं का सीमित भूमिका में सन्दर्भ देना कठिन है। मैं आशा करता हूँ कि 83 लघुकथाओं का संग्रह का 'कैक्टस एवं अन्य लघुकथाएँ' पाठकों को अवश्य पसन्द यह संग्रह पाठकों को अवश्य पसन्द आएगा।

8 अक्तुबर 2022, नोएडा,